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फ़िल्म समीक्षा:किस्मत कनेक्शन

लव स्टोरी में सोशल कंसर्न -अजय ब्रह्मात्मज हम आप खुश हो सकते हैं कि जाने तू या जाने ना जैसी मनोरंजक फिल्म की रिलीज के एक पखवारे के भीतर ही एक और मनोरंजक फिल्म किस्मत कनेक्शन आई है। हालांकि यह भी लव स्टोरी है, लेकिन इसमें अजीज मिर्जा का टच है। किस्मत कनेक्शन टोरंटो के बैकड्राप में बनी भारतीय इमोशन की प्रेम कहानी है, जिसमें कुछ घटनाएं और स्थितियां नई हैं। अजीज मिर्जा की खासियत है कि उनकी फिल्में हकीकत के करीब लगती हैं। उनकी फिल्मों में यथार्थ का पुट रहता है। समानता, बराबरी, मानव अधिकार और वंचितों के अधिकार की बातें रहती हैं। लेकिन, यह सब कहानी का मुख्य कंसर्न नहीं होता। इसी फिल्म को लें। प्रतिभाशाली छात्र राज मल्होत्रा पढ़ाई पूरी करने के बाद बेरोजगार है। भविष्य बताने वाली हसीना बानो जान उसे समझाती है कि वह अपना लकी चार्म खोजे और उसे अपने साथ रखे तो उसके सारे काम हो जाएंगे। राज मल्होत्रा की प्रिया से मीठी भिड़ंत होती रहती है। चंद भिड़ंतों के बाद राज को एहसास होता है कि प्रिया उसकी लकी चार्म है। दोनों में दोस्ती होती है और फिर दोस्ती प्यार में बदल जाती है..। जरा ठहरें, इतना सिंपल अंत नहीं

फ़िल्म समीक्षा:कांट्रेक्ट

फिर असफल रहे रामू बारीक स्तर पर कांट्रैक्ट के दृश्यों के बीच उभरते भाव और निर्देशक की सोच को जोड़ने की कोशिश करें तो यह फिल्म कथित स्टेट टेरेरिज्म का चित्रण करती है। राम गोपाल वर्मा ने विषय तो रखा है अंडरव‌र्ल्ड और आतंकवाद के बीच गठबंधन का, लेकिन उनकी यह फिल्म एक स्तर पर राजसत्ता की जवाबी रणनीति का संकेत देती है। आतंकवादी संगठन जिस तरह किसी शोषित या पीडि़त को गुमराह कर आतंकी बना देते हैं, लगभग उसी तरह पुलिस और प्रशासन भी अपने गुर्गे तैयार करता है। कांट्रैक्ट देख कर तो ऐसा ही लगता है। रामू अपनी फिल्मों में मुख्य रूप से चरित्रों से खेलते हैं। अगर रंगीला और सत्या की तरह चरित्र सटीक हो जाएं तो फिल्में सफल हो जाती हैं। चरित्रों के परिवेश, पृष्ठभूमि और परिप्रेक्ष्य में वे गहरे नहीं उतरते। देश की सामाजिक स्थितियों की समझदारी नहीं होने के कारण यह उनकी सीमा बन गई है। कांट्रैक्ट में यह सीमा साफ नजर आती है। सेना के रिटायर अधिकारी अमन (अद्विक महाजन) को पुलिस अधिकारी अहमद हुसैन आतंकवादियों से निबटने के लिए अंडरव‌र्ल्ड में घुसने के लिए प्रेरित करता है। पहली मुलाकात में ऐसे मिशन में शामिल होने से साफ

फ़िल्म समीक्षा:खेला

तनाव का पाजिटिव अंत -अजय ब्रह्मात्मज रितुपर्णो घोष की खेला संवेदना और विषय के आधार पर हिंदी साहित्य में नई कहानी के दौर की याद दिलाती है। स्त्री-पुरुष संबंधों में निहित द्वंद्व और पार्थक्य को देश के साहित्यकारों और फिल्मकारों ने अलग-अलग नजरिए से चित्रित किया है। रितुपर्णो घोष स्त्री-पुरुष संबंध के तनाव को इस फिल्म में नया अंत देते हैं। खेला राजा और शीला की कहानी है। राजा फिल्ममेकर है। वह अपनी फिल्म के लिए किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहता। राजा फिल्म बनाने के सपने में इस कदर लिप्त और व्यस्त रहता है कि वह शीला के लिए पर्याप्त समय नहीं निकाल पाता। शीला की सोच गृहिणी की है। वह राजा को गृहस्थी की चिंताओं में भी देखना चाहती है। स्थिति यह आती है कि दोनों अलग हो जाते हैं। राजा अपनी फिल्म में डूब जाता है। उधर शीला अपने एकाकीपन से त्रस्त होकर राजा के पास अलगाव के कागजात भिजवा देती है। रितुपर्णो घोष ने ऐसे विषयों पर 15-20 साल पहले बन रही फिल्मों की तरह कथित नारीवाद का नारा नहीं लगाया है और न पुरुष को उसके सपनों के लिए दुत्कारा है। फिल्म के अंत में राजा और शीला एक साथ रहने का फैसला करते हैं औ

फ़िल्म सामीक्षा : महबूबा

पुराना रोमांस और त्याग -अजय ब्रह्मात्मज अफजल खान की फिल्म महबूबा शैली, शिल्प, विषय और प्रस्तुति- हर लिहाज से पुरानी लगती है। और है भी। हालांकि फिल्म के हीरो संजय दत्त और अजय देवगन आज भी पापुलर हैं, लेकिन उनकी आठ साल पुरानी छवि कहीं न कहीं दर्शकों को खटकेगी। फिल्म की हीरोइन मनीषा कोईराला आज के दर्शकों के मानस से निकल चुकी हैं। पापुलर किस्म की फिल्मों के लिए उनका टटका होना जरूरी है। फिल्म बासी हो चुकी हो तो उसका आनंद कम हो जाता है। फिल्म की कहानी वर्षा उर्फ पायल (मनीषा कोईराला) पर केंद्रित है। उसके जीवन में श्रवण धारीवाल (संजय दत्त) और करण (अजय देवगन) आते हैं। संयोग है कि श्रवण और करण भाई हैं। ऐसी फिल्मों में अगर हीरोइन के दो दीवाने हों तो एक को त्याग करना पड़ता है या उसकी बलि चढ़ जाती है। महबूबा में भी यही होता है। यहां बताना उचित नहीं होगा कि मनीषा के लिए संजय दत्त बचते हैं या अजय देवगन। महबूबा भव्य, महंगी और बड़ी फिल्म है। फिल्म के बाहरी तामझाम और दिखावे पर जो खर्च किया गया है, उसका छोटा हिस्सा भी अगर कथा-पटकथा पर खर्च किया गया होता तो फिल्म मनोरंजक हो जाती। चूंकि फिल्म का विषय और शिल

फ़िल्म समीक्षा:लव स्टोरी २०५०

न साइंस है और न फिक्शन -अजय ब्रह्मात्मज हैरी बवेजा की लव स्टोरी 2050 से उम्मीद थी कि हिंदी फिल्मों को एक छलांग मिलेगी। इस फिल्म ने छलांग जरूर लगाई, लेकिन पर्याप्त शक्ति नहीं होने के कारण औंधे मुंह गिरी। अफसोस ही है कि इतनी महंगी फिल्म का यह हाल हुआ। लव स्टोरी 2050 बुरी फिल्म बनाने की महंगी कोशिश है। फिल्म दो हिस्सों में बंटी है। इंटरवल के पहले सारे किरदार आस्ट्रेलिया में रहते हैं और जैसा कि होता आया है, वे सभी हिंदी बोलते हैं। उनके आसपास स्थानीय लोग नहीं रहते। पड़ोसियों के सिर्फ घर दिखते हैं। हां, हीरो-हीरोइन डांस करने लगें तो कुछ लोग साथ में नाचने लगते हैं और अगर उन्हें पैसे नहीं मिले हों तो वे औचक भाव से घूरते हैं, जैसे कि बंदर और मदारी को देखकर हमारा कौतूहल जाग जाता है। इंटरवल के बाद कहानी सन् 2050 की मुंबई में आ जाती है। आकाश में इतनी कारें और अन्य सवारियां उड़ती दिखाई पड़ती हैं... क्या 2050 में पतंगें सड़कों पर दौड़ेंगी और पक्षी पिंजड़ों में बंद हो जाएंगे? फिल्म में एक अजीब सी तितली है, जो 2008 के आस्ट्रेलिया में नाचती हुई आकर हथेली पर बैठ जाती है और सन् 2050 में भी हीरो-हीरोइन की

हाल-ए-दिल:21वीं सदी में आजादी के समय का प्रेम

-अजय ब्रह्मात्मज कई बार फिल्मों के शीर्षक ही उनकी क्वालिटी का अहसास करा देते हैं। 21वीं सदी में हाल-ए-दिल नाम थोड़ा अजीब सा लगता है न? यह फिल्म भी अजीब है। शिमला से मुंबई तक फैली इस कहानी में न तो महानगर मुंबई की आधुनिकता दिखती है और न शिमला की स्थिर भावुकता। फिल्म का बड़ा हिस्सा ट्रेन में है, लेकिन वहां भी जब वी मेट जैसी कहानी और प्रसंगों की छुक-छुक नहीं है। संजना पिछली सदी की यानी आजादी के आसपास की लड़की और प्रेमिका लगती है। रोहित के प्यार में डूबी संजना अंत-अंत तक शेखर की भावनाओं को नजरअंदाज करती है। और फिर रोहित जैसे परिवेश का युवक इस सदी में अपनी प्रेमिका से अलग किए जाने पर भला क्यों नींद की गोलियां खाएगा? कहीं कुछ गड़बड़ है। किरदारों को गढ़ने में लेखक से मूल गलतियां हो गई हैं। उसके बाद जो कहानी लिखी जा सकी, वह विश्वसनीय नहीं लगती। इसके अलावा फिल्म की रफ्तार इतनी धीमी है कि किरदारों से सहानुभूति के बजाय ऊब होने लगती है। युवा धड़कनों की प्रेम कहानी में मन उचाट हो जाए तो लेखक और निर्देशक की विफलता स्पष्ट है। इस फिल्म में तीन नए एक्टर हैं। अमिता पाठक के स्वाभाविक गुणों के अनुरूप संजन

सामाजिक सरोकार की फिल्म है समर 2007

-अजय ब्रह्मात्मज आयटम सांग, कामेडी, एक्शन और मल्टीस्टारर फिल्मों के इस दौर में सुहैल तातारी ने सामाजिक सरोकार की फिल्म निर्देशित की है। सालों बाद किसी फिल्म में गांव, किसान और किसानों की आत्महत्या के पहलू सामने आए हैं। यह डाक्यूमेंट्री, उपदेशात्मक या महज बोलवचन की फिल्म नहीं है। फिल्म अपनी बात कह जाती है। अगर आप कान एवं ध्यान लगाएं तो बात समझ में भी आती है। अमीर परिवारों के पांच बच्चे कैपिटेशन फी देकर मेडिकल कालेज में दाखिला लेते हैं। उन सभी का ध्यान पढ़ाई से ज्यादा दूसरी चीजों में लगा रहता है। उनकी अपनी एक समृद्ध, काल्पनिक और निरपेक्ष दुनिया है। सच से उनका सामना पहली बार तब होता है, जब छात्र संघ के चुनाव का समय आता है। प्रकाश नाम का छात्र नेता अपने स्वतंत्र सोच से उन्हें चुनौती देता है और राजनीति के लिए उकसाता है। पांचों युवक चुनाव की चपेट में आते हैं और फिर एक दबाव के कारण कैंपस से पलायन करते हैं। वे बचने का आसान रास्ता चुनते हैं और गांव के प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र पर सेवा देने के बहाने निकल जाते हैं। गांव पहुंचते ही उनका यथार्थ से साक्षात्कार होता है। कुछ समय तक वे निरपेक्ष और उदास

प्रचलित परंपरा से जरा हट कर है आमिर

-अजय ब्रह्मात्मज यूटीवी स्पाटब्वाय की पहली फिल्म आमिर हिंदी फिल्मों की लोकप्रिय परंपरा में नहीं है। यह निर्देशक राज कुमार गुप्ता और अभिनेता राजीव खंडेलवाल की पहली फिल्म है। उन्होंने साबित किया है कि बेहतर फिल्म बनाने के लिए स्टार, नाच-गाने और लटके-झटकों की जरूरत नहीं है। अगर आपका कथ्य मजबूत है और आपके कलाकार उसे सही संदर्भ में अभिव्यक्त कर देते हैं तो फिल्म प्रभावित करती है। आमिर डा. आमिर अली के जीवन के एक दिन की कहानी है। लंदन से तीन साल बाद भारत लौटे डा. आमिर अली का जीवन एयरपोर्ट से निकलते ही एक कुचक्र में फंसता है। उनके परिवार को किसी ने किडनैप कर लिया है और वह व्यक्ति उनसे कुछ ऐसे काम करवाना चाहता है, जिसके लिए वह तैयार नहीं हैं। परिजनों की सुरक्षा के दबाव में वह मजबूरन अनचाहे काम को अंजाम देने के लिए बढ़ते हैं। आखिरकार एक ऐसी घड़ी आती है, जब वह फैसला लेते हैं और वह फैसला उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल देता है। आमिर की पृष्ठिभूमि में मुंबई है, लेकिन यहां न तो ताज होटल है और न गेट वे आफ इंडिया है, न क्वीन नेकलेस और न ही हाजी अली की दरगाह। मुंबई के नाम पर जो प्रतीक हम फिल्मों में देखत

फिर असफल रहे रामू

-अजय ब्रह्मात्मज क्लोज अप, फुसफुसाहट, साजिश, हत्या..सरकार की काली लुंगी, बगैर कालर की काली शर्ट, माथे पर लाल टीका, रीमलेस चश्मा और पूरे माहौल में धुआं-धुआं ़ ़ ़यह सब कुछ हम सभी ने राम गोपाल वर्मा की पिछली फिल्म सरकार में देखा था। इन सब के साथ इस बार थोड़ा बदलाव है। सरकार यानी सुभाष नागरे के बेटे शंकर ने शूट पहन लिया है और विदेश से एक लड़की अनीता राज आ गई है। कहानी मुंबई से पसर कर ठाकुरवाड़ी तक गई और हमने राव साहब के भी दर्शन किए। एक नया किरदार सोम भी आया। कुछ नए खलनायक दिखे- काजी, वोरा, कांगा और पाला बदलता वफादार चंदर ़ ़ ़ रामू ने सरकार की तकनीक ही रखी। उन्होंने अमिताभ, अभिषेक और ऐश्वर्या को भावपूर्ण दृश्य दिए ताकि वे चेहरे और आंखों से अभिनय की बारीकियां प्रदर्शित करें। इस संदर्भ में कई क्लोजअप में बुरे लगने के बावजूद अमिताभ तो भाव प्रदर्शन में सफल रहे, लेकिन अभिषेक और ऐश्वर्या में अपेक्षित ठहराव नहीं दिखा। हां, कैमरे के आगे छोटे कलाकार अवश्य टिके रहे और उन्होंने ही इस फिल्म की नाटकीयता बनाए रखने में मदद की। फिल्म की कहानी राजनीति, विदेशी निवेश, औद्योगिकीकरण की समस्याओं को इंटरवल के

वुडस्टाक विला: एक और धोखा

-अजय ब्रह्मात्मज संजय गुप्ता ने खुद को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित कर लिया है। उनकी फिल्मों की रिलीज के पहले खूब चर्चा रहती है। अलग-अलग तरीके से वह फिल्म से संबंधित कार्यक्रम करते रहते हैं और टीवी चैनलों के लिए जरूरी फुटेज की व्यवस्था कर देते हैं। दर्शकइस भ्रम में रहते हैं कि कोई महत्वपूर्ण फिल्म आ रही है। एक बार फिर ऐसा ही धोखा हुआ है। हंसल मेहता के निर्देशनमें बनी वुडस्टाक विला इसी धोखे के कारण निराश करती है। विदेश में बसे भारतीय मूल के मां-बाप का बेटा सैम तफरीह के लिए भारत आया है। एक बातचीत में वह अपने दोस्त को बताता है कि भारत में हाट स्पाइसेज हैं, इसलिए वह यहां आया है। माफकरें, हाट स्पाइसेज का अर्थ आप गरम मसाला न लें। उसका इशारा लड़कियों की तरफ है। हर रात एक नई लड़की की तलाश उसका शौक है। इसी शौक के चक्कर में वह जारा के संपर्क में आता है। जारा उससे एक डील करती है कि वह उसे किडनैप कर ले और उसके पति से पचास लाख रुपयों की मांग करे। वह जांचना चाहती है कि उसका पति उसे प्यार करता है या नहीं? भूल से भी आप अपने पति का प्यार जांचने के लिए ऐसा तरीका आजमाने की मत सोचिएगा। बहरहाल, इस प्रपंच मे

कंफ्यूजन की बिसात पर कामेडी का तड़का

-अजय ब्रह्मात्मज प्रियदर्शन की फिल्मों से एक खास ट्रेंड चला है। जिसके मुताबिक कहानी में कंफ्यूजन पैदा करो तो कामेडी अपने आप निकल आएगी। हिंदी फिल्मों में इन दिनों कामेडी के नाम पर ऐसी ही फिल्में बन रहीं हैं। अगर आप अपनी समझ और संवेदना का स्तर नीचे ले आएं तो डान मुत्थुस्वामी जैसी फिल्म का आनंद उठा सकते हैं। जिन शक्ति सामंत ने आराधना और अमर प्रेम जैसी फिल्में दी हों उनके ही सामंत मूवीज के बैनर तले डान मुत्थुस्वामी का निर्माण हुआ है। 14-15 साल पहले मिथुन चक्रवर्ती ने सीमित बजट की सी ग्रेड फटाफट फिल्मों का फैशन आरंभ किया था। लगता है उसी दौर की एक फिल्म छिटक कर 2008 में आ गई है। पिता की आत्मा की शांति के लिए डान मुत्थुस्वामी (मिथुन चक्रवर्ती) अच्छा आदमी बनना चाहता है। पिता की अंतिम इच्छा के मुताबिक जिंदगी और मौत के बीच लटके व्यक्ति की मदद के लिए वह कुछ भी कर सकता है। नेक इंसान बनने की उसकी घोषणा केसाथ शुरू हुआ कंफ्यूजन इतना बढ़ता है कि कुछ समय के बाद आप सोचना बंद कर देते हैं। निर्देशक असीम सामंत ने मिथुन की प्रतिभा के साथ खिलवाड़ किया है। लेकिन, फिल्म से यह भी पता लगता है कि बेहतरीन अभिनेता

घटोत्कच: एनीमेशन के नाम पर फूहड़ प्रस्तुति

-अजय ब्रह्मात्मज एस श्रीनिवास के निर्देशन में बनी घटोत्कच एनीमेशन फिल्मों के नाम पर चल रहे कारोबार की वास्तविकता सामने ला देती है। महाभारत के पात्र घटोत्कच के जीवन पर बनी इस एनीमेशन फिल्म को सुंदर और प्रभावशाली बनाने की संभावनाएं थीं, लेकिन निर्देशक ने एक मिथकीय किरदार को कैरीकेचर और कार्टून बना कर रख दिया है। एनीमेशन की बारीकियों में न जाकर सिर्फ कहानी की ही बात करें तो घटोत्कच के जीवन में हास्यास्पद प्रसंग दिखाने के लिए निर्देशक की कपोल कल्पना उसे आज तक खींचती है। समझ में नहीं आता कि निर्देशक की क्या मंशा है? आखिर किन दर्शकों के लिए यह फिल्म बनाई गई है। घटोत्कच की विकृत प्रस्तुति महाभारत के एक उल्लेखनीय वीर का मखौल उड़ाती है और उसे हिंदी फिल्मों के साधारण कामेडियन में बदल देती है। भीम और हिडिम्बा के बेटे घटोत्कच की महाभारत में खास भूमिका रही है। उन्होंने अपने शौर्य, पराक्रम और चमत्कार से श्रीकृष्ण का आर्शीवाद भी पाया था। अगर यह फिल्म बाल घटोत्कच के कारनामों तक सीमित रहती तो भी मनोरंजक और शिक्षाप्रद होती। घटोत्कच एनीमेशन के नाम पर फूहड़ प्रस्तुति है। दिक्कत यह है कि ऐसी फिल्म की मार्क

बस नाम से ही 'जन्नत'

-अजय ब्रह्मात्मज भट्ट कैंप की खूबी है कि वे फटाफट फिल्में बनाते हैं। सीमित बजट, छोटी बात, नए व मझोले कलाकार और चौंकाने वाले कुछ संवाद..। जन्नत भी इसी प्रकार की फिल्म है। इसे युवा निर्देशक कुणाल देशमुख ने निर्देशित किया है। अर्जुन दीक्षित आदर्शवादी पिता का बेटा है। पिता से अलग मिजाज के अर्जुन द्वारा चुना हुआ माहौल अलग है। वह तीन पत्ती के खेल से जल्दी पैसे कमाने के चक्र में घुसता है और क्रिकेट मैच की फिक्सिंग तक पहुंचता है। धारावी की झोपड़पट्टी से निकला अर्जुन एक दिन दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन के शानदार बंगले में रहने लगता है। कहते हैं पाकिस्तानी कोच वूल्मर की हत्या की घटना से प्रेरित है यह फिल्म। अमीर बनने की लालसा रखने वाले अर्जुन की कहानी उस घटना के इर्द-गिर्द बुनी गई है। फिल्म में एक प्रेम कहानी भी है, जिसका तनाव किरदारों को जोड़े रखता है। भट्ट कैंप की फिल्मों में नायक-नायिका हमेशा खिंचे-खिंचे से रहते हैं। तनावपूर्ण प्रेम संबंध उनकी फिल्मों की विशेषता बन गयी है। जन्नत में अर्जुन और जोया के बीच भी ऐसा ही संबंध है। जन्नत की कहानी दो स्तरों पर चलती है। प्रेम कहानी के आगे-पीछे अर्जुन के

मिमोह ने खुद को साबित किया अच्छा डांसर

पहले यह जान लें कि जिम्मी मिथुन चक्रवर्ती के बेटे मिमोह चक्रवर्ती की पहली फिल्म है। किसी भी स्टार सन की पहली फिल्म में निर्देशक की कोशिश रहती है कि वह स्टार सन के टैलेंट को अच्छी तरह से दिखाए। जिम्मी देखने के बाद कह सकते हैं कि मिमोह अच्छे डांसर हैं और एक्शन दृश्य में भी सही लगते हैं। जहां तक एक्टिंग और इमोशन का मामला है तो अभी उन्हें मेहनत करनी होगी। जिम्मी के पिता ने बिजनेस फैलाने के लिए कर्ज में भारी रकम ली थी और बिजनेस में कामयाब नहीं होने पर दिल के दौरे से उनकी मृत्यु हो गयी। अब जिम्मी की जिम्मेदारी है कि वह उनके कर्ज को चुकाए। ज्यादा पैसे कमाने के लिए वह दिन में आटोमोबाइल इंजीनियर और रात में डीजे का काम करता है। उसे हर समय डांस करते ही दिखाया गया है। जिम्मी एक साजिश का शिकार होता है। खुद को निर्देष साबित करने में वह अपने एक्शन का हुनर भी दिखाता है। निर्देशक ने जिम्मी को ज्यादा इमोशनल सीन नहीं दिए हैं। शायद वह मिमोह की सीमाओं को जानते होंगे। अमूमन स्टार सन की फिल्म का पैमाना बड़ा होता है। मिमोह को यह सौभाग्य नहीं मिला। सीमित बजट की फिल्म में दोयम दर्जे के सहयोगी कलाकारों से काम लि

डरावनी फिल्म नहीं है भूतनाथ

-अजय ब्रह्मात्मज बीआर फिल्म्स की भूतनाथ डरावनी फिल्म नहीं है। फिल्म का मुख्य किरदार भूत है, लेकिन उसे अमिताभ बच्चन निभा रहे हैं। अगर निर्देशक अमिताभ बच्चन को भूत बना रहे हैं तो आप कल्पना कर सकते हैं कि वह भूत कैसा होगा? भूतनाथ का भूत नाचता और गाता है। वह बच्चे के साथ खेलता है और उससे डर भी जाता है। इस फिल्म का भूत केवल निर्दोष बच्चे की आंखों से दिखता है। निर्देशक विवेक शर्मा ने एक बच्चे के माध्यम से भूत के भूतकाल में झांक कर एक मार्मिक कहानी निकाली है, जिसमें रवि चोपड़ा की फिल्म बागवान की छौंक है। बंटू के पिता पानी वाले जहाज के इंजीनियर हैं, इसलिए उन्हें लंबे समय तक घर से दूर रहना पड़ता है। वे अपने बेटे और बीवी के लिए गोवा में मकान लेते हैं। उस मकान के बारे में मशहूर है कि वहां कोई भूत रहता है। मां अपने बेटे बंकू को समझाती है कि भूत जैसी कोई चीज नहीं होती। वास्तव में एंजल (फरिश्ते) होते हैं। फिल्म में जब भूत से बंकू का सामना होता है तो वह उसे फरिश्ता ही समझता है। वह उससे डरता भी नहीं है। भूत और बंटू की दोस्ती हो जाती है और फिर बंकू की मासूमियत भूत को बदल देती है। इस सामान्य सी कहानी मे

अनामिका: सस्पेंस फिल्म और इतनी स्लो!

अनंत नारायण महादेवन की सस्पेंस फिल्म अनामिका की गति इतनी धीमी है कि दर्शकों की कल्पना को बार-बार ठेस लगती है। कहानी ऐसी अटकती और उलझती है कि रहस्य के प्रति जिज्ञासा खत्म होने लगती है। सस्पेंस फिल्मों के लिए आवश्यक है कि उनमें गति और संगीत का अच्छा संगम हो। विक्रम आदित्य सिंह सिसोदिया गजनेर पैलेस के कुंवर हैं। वह अपने पैलेस को रिजार्ट में तब्दील करना चाहते हैं। मुंबई में उनकी मुलाकात एस्कार्ट जिया राव से होती है। पहली ही मुलाकात में उन्हें जिया का स्वभाव जंचता है और वह शादी का प्रस्ताव रख देते हैं। जिया राजी हो जाती है। वह गजनेर पैलेस में आ जाती है। मध्यवर्गीय परिवार की जिया पैलेस की चकाचौंध और रीति-गतिविधि से नावाकिफ है। वहां वह विक्रम आदित्य की पूर्व पत्नी अनामिका के नाम से इस कदर आतंकित होती है कि उसके बारे में सब कुछ जानने को उत्सुक होती है। अनामिका की मौत रहस्यमय स्थितियों में हुई है। पैलेस में ही मोहिनी रहती हैं। वह पैलेस की सभी गतिविधियों पर नजर रखती हैं और उनकी बात विक्रम आदित्य भी नहीं टाल पाते। लंबे समय तक एक ही जगह पर चकरघिन्नी काटने के बाद कहानी रहस्य तक पहुंचती है तो फटाक स

टशन: एक फंतासी

-अजय ब्रह्मात्मज इसे यशराज फिल्म्स की टशन ही कहेंगे। इतने सारे स्टार, ढेर सारे खूबसूरत लोकेशन, चकाचक स्टाइल और लुक, नई तकनीक से लिए गए एक्शन दृश्य, थोड़ा-बहुत सीजीआई (कंप्यूटर जेनरेटड इमेजेज), नॉर्थ इंडिया का कनपुरिया लहजा और इन सभी को घोल कर बनायी गयी टशन। ऊपर से आदित्य चोपड़ा की क्रिएटिव मार्केटिंग ़ ़ ़ हिंदी फिल्मों के सबसे बड़े और कामयाब प्रोडक्शन हाउस से आई फिल्म है टशन का बाजार गर्म था। यही तो यशराज फिल्म्स की टशन है। सिंपल सी कहानी है। कानपुर शहर में एक उचक्का रिक्शेवाला एक बेटी के सामने उसके बाप की हत्या कर देता है। बेटी उस हत्यारे के पीछे लग जाती है और अपने पिता की अस्थियां विसर्जित करने के साथ ही उस हत्यारे से पिता के खून का बदला लेती है। वह साफ कहती है कि हम सीधे और शरीफ लोग नहीं हैं। हम कमजोर भी नहीं हैं। वक्त पड़ने पर एक-दूसरे की मदद से कुछ भी कर सकते हैं। टशन में कुछ भी कर दिखाने की जिम्मेदारी पूजा सिंह (करीना कपूर), बच्चन पांडे (अक्षय कुमार) और जिम्मी क्लिफ (सैफ अली खान) की है। इन दिनों खल किरदारों को लेकर फिल्म बनाने का चलन जोरों पर है। इस फिल्म के ही सारे किरदार खल स

होप एंड ए लिटिल सुगर:एक संवेदनशील विषय का सत्यानाश

-अजय ब्रह्मात्मज तनुजा चंद्रा की अंग्रेजी में बनी फिल्म होप एंड ए लिटिल शुगर का विषय प्रासंगिक है। उन्होंने विषय को सुंदर तरीके से किरदारों के माध्यम से पेश किया है, लेकिन कहानी कहने की जल्दबाजी में उन्होंने प्रसंगों को सही क्रम में नहीं रखा है। दर्शक के तौर पर हम फिल्म से जुड़ते हैं और किसी बड़े अंतद्र्वद्व की उम्मीद करते हैं कि फिल्म खत्म हो जाती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बजट का संकट आ गया या फिर तनुजा का ही धैर्य खत्म हो गया। जो भी हो, एक संवेदनशील विषय का सत्यानाश हो गया। कहानी अली की जिंदगी से आरंभ होती है। हम उसे 1992 में हुए मुंबई के दंगों के दौरान एक बच्चे के रूप में देखते हैं। बड़ा होकर वह अमेरिका चला जाता है। किसी प्रकार से गुजर-बसर करता हुआ वह फोटोग्राफी के अपने शौक को जिंदा रखता है। उसकी मुलाकात सलोनी से होती है। सलोनी उसकी फोटोग्राफी को बढ़ावा देती है। सलोनी के परिवार से अली की निकटता बढ़ती है। इस बीच 11 सितंबर की घटना घटती है। इसमें सलोनी का पति हैरी मारा जाता है। हैरी के पिता सेना के रिटायर्ड कर्नल हैं। उन्हें मुसलमानों से सख्त नफरत है। वह अली को बर्दाश्त नहीं कर पाते। सलो

रेस: बुरे किरदारों की एंटरटेनिंग फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज प्रेम, आपसी संबंध और संबंधों में छल-कपट की कहानियां हमें अच्छी लगती हैं। अगर उनमें अपराध मिल जाए तो कहानी रोचक एवं रोमांचक हो जाती है। साहित्य, पत्रिकाएं और अखबार ऐसी कहानियों से भरे रहते हैं। फिल्मों में भी रोमांचक कहानियों की यह विधा काफी पॉपुलर है। हम इस विधा को सिर्फ थ्रिलर फिल्मों के नाम से जानते हैं। निर्देशक अब्बास मस्तान ऐसी फिल्मों में माहिर हैं। हालांकि उनकी 36 चाइना टाउन और नकाब को दर्शकों ने उतना पसंद नहीं किया था। इस बार वे फॉर्म में दिख रहे हैं। रणवीर और राजीव सौतेले भाई हैं। ऊपरी तौर पर दोनों के बीच भाईचारा दिखता है, लेकिन छोटा भाई ग्रंथियों का शिकार है। वह अंदर ही अंदर सुलगता रहता है। उसे लगता है कि बड़ा भाई रणवीर हमेशा उस पर तरस खाता रहता है। वह उसके प्रेम को भी उसका दिखावा समझता है। रणवीर घोड़ों के धंधे में है। उसमें आगे रहने की ललक है और वह हमेशा जीतने की कोशिश में रहता है। दूसरी तरफ राजीव को शराब की लत लग गई है। रणवीर की जिंदगी में दो लड़कियां हैं। एक तो उसकी नयी-नयी बनी प्रेमिका सोनिया और दूसरी सोफिया, जो उसकी सेक्रेटरी है। राजीव की नजर सोनिया पर

उम्मीदों पर पानी फेरती 26 जुलाई..

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्म का संदर्भ और बैकड्राप सिनेमाघरों में दर्शकों को खींच सकता है। आप पूरी उम्मीद से सिनेमा देखने जा सकते हैं लेकिन, अफसोस कि यह फिल्म सारी उम्मीदों पर पानी फेर देती है। 2005 में मुंबई में आई बाढ़ को यह फिल्म असंगत तरीके से छूती है और उस आपदा के मर्म तक नहीं पहुंच पाती। घटना 26 जुलाई, 2005 की है। उस दिन मुंबई में बारिश ने भयावह कहर ढाया था। चूंकि घटना ढाई साल ही पुरानी है, इसलिए अभी तक हम सभी की स्मृति में उसके खौफनाक दृश्य ताजा हैं। मुंबई के अंधेरी उपनगर में स्थित एक बरिस्ता आउटलेट में चंद नियमित ग्राहक आते हैं। बाहर वर्षा हो रही है। वह तेज होती है और फिर खबरें आती हैं कि भारी बारिश और बाढ़ के कारण शहर अस्त-व्यस्त हो गया है। टीवी पर चंद फुटेज दिखाए जाते हैं। इसी बरिस्ता में राशि और शिवम भी फंसे हैं। एक फिल्म लेखक हैं। एक सरदार दंपती है। दो-चार अन्य लोगों के साथ बरिस्ता के कर्मचारी हैं। इनके अलावा कुछ और किरदार भी आते हैं। फिल्म में बैंक डकैती, एड्सग्रस्त महिला, खोई हुई बच्ची का प्रसंग आता है। रात भर की कहानी सुबह होने के साथ समाप्त हो जाती है। हम देखते हैं कि राशि और