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Showing posts with the label फिल्म समीक्षा

हाय रामा, क्या है ड्रामा

-अजय ब्रह्मात्मज लगता है इस फिल्म की सारी क्रिएटिविटी शीर्षक गीत में ही खप गई है। अदनान सामी के गाए गीत में शब्दों से अच्छा खेला गया है। सुनने में भी अच्छा लगता है। इस गीत के चित्रांकन में फिल्म के सारे कलाकार दिखे हैं, लेकिन शुरू के क्रेडिट के समय ही यह गाना खत्म हो जाता है। उसके बाद फिल्म आरंभ होती है, तो फिर उसके खत्म होने का इंतजार शुरू हो जाता है। रामा रामा क्या है ड्रामा में निर्देशक एस चंद्रकांत ने कामेडी क्रिएट करने की असफल कोशिश की है। अमूमन स्फुट विचार को लेकर बनाई गई फिल्मों का यही हश्र होता है। अधूरी कहानी और आधे-अधूरे किरदारों को लेकर फिल्म पूरी कर दी जाती है। इस फिल्म में निर्देशक एक संदेश देना चाहते हैं कि बीवी का जिंदगी में खास महत्व होता है और सफल दांपत्य के लिए पति-पत्नी को थोड़ा बहुत एडजस्ट करना चाहिए। फिल्म का सारा भार राजपाल यादव के कंधों पर है और उनके कंधे इस फिल्म को ढो नहीं पाते। बाकी कलाकारों का उन्हें लापरवाह सहयोग मिला है। हां, फिल्म में अंग्रेजी के गलत शब्दों का इस्तेमाल करते हुए मिसरा जी (संजय मिश्रा) आते हैं तो राजपाल यादव के साथ उनकी जोड़ी जमती है। अनुपम

कॉमेडी, थ्रिलर और एक्शन यानी संडे

-अजय ब्रह्मात्मज कॉमेडी, थ्रिलर और एक्शन तीनों को उचित मात्रा में मिला कर रोहित शेट्टी ने अपने किरदारों के साथ ऐसा घोला कि एक मनोरंजक फिल्म तैयार हो गई है। रोहित ने पारंपरिक तरीके से एक-एक कर अपने प्रमुख किरदारों को पेश किया है। किरदारों को स्थापित करने के बाद उनके ट्रैक आपस में मिलना शुरू करते हैं। शुरू में एक कंफ्यूजन बनता है, जो इंटरवल तक सस्पेंस में तब्दील हो जाता है। फिल्म के शुरू में चेजिंग होती है। उस समय हीरो राजवीर चांदनी चौक की गलियों, मुंडेरों और छतों पर दौड़ता-छलांग लगाता दिखाई पड़ता है। फिल्म के अंत में भी चेज है, लेकिन वह कारों में हैं। कारें नाचती हुई पलटती हैं। कारों को उड़ाने, पलटाने और ध्वस्त कराने में रोहित को आनंद आता है। सहर (आयशा टाकिया) और राजवीर (अजय देवगन) की इस प्रेम कहानी में कुमार (इरफान खान) और बल्लू (अरशद वारसी) भी आते हैं। सहर की जिंदगी से एक संडे मिसिंग है और फिल्म का सस्पेंस इसी संडे से जुड़ा है। इरफान खान ने स्ट्रगलिंग एक्टर का सुंदर काम किया है। आखिरकार वे भोजपुरी फिल्मों के सिंगिंग स्टार बन जाते हैं, लेकिन इस उपलब्धि को छोटी नजर से पेश किया गया है। फ

बांबे टू बैंकाक की बकवास ट्रिप

-अजय ब्रह्मात्मज हैदराबाद ब्लू जैसी फिल्म से करियर आरंभ कर हिंदी में इकबाल और डोर जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके नागेश कुकनूर आखिरकार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुचक्र के शिकार हो ही गए। अपने सुर से हट कर उन्होंने नई तान छेड़ी और उसमें बुरी तरह से असफल रहे। बांबे टू बैंकाक नागेश की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है। बावर्ची शंकर सिंह (श्रेयस तलपड़े) रेस्तरां में छूट गए हैंडबैग में मोटी रकम देख कर लालच में आ जाता है। वह पैसे चुरा कर भागता है। गफलत में वह एयरपोर्ट पहुंच जाता है। फिर मौका पाकर बचने के लिए वह बैंकाक जा रहे डाक्टरों के प्रतिनिधि मंडल में शामिल हो जाता है। डॉक्टर भाटवलेकर बन कर बैंकाक पहुंचे शंकर की समस्याएं दोतरफा हैं। एक तो उसे डॉक्टरी का कोई ज्ञान नहीं है और दूसरे पहली नजर में ही उसे एक थाई लड़की जासमीन (लेना) भा जाती है, जो उसकी भाषा नहीं समझती। अनेक गलतफहमियों के बीच दोनों का प्यार पल्लवित होता है। इस फिल्म में एक अलग ट्रैक अंडरव‌र्ल्ड डान जैम उर्फ जमाल खान (विजय मौर्या) का भी चलता है। शंकर उसी के पैसे लेकर भागा है। बांबे टू बैंकाक में द्विभाषी संवाद हैं। कभी थाई, कभी हिंदी और

माई नेम इज.. सच्चाई से टकराव

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-अजय ब्रह्मात्मज इस फिल्म से नए अभिनेता निखिल द्विवेदी का करियर शुरू हुआ है। निखिल अपनी पहली फिल्म के लिहाज से संतुष्ट करते हैं। उनमें पर्याप्त संभावनाएं हैं। फिल्म इंडस्ट्री के बाहर से आए अभिनेता की एक बड़ी दिक्कत पर्दे पर आकर्षक दिखने की होती है, चूंकि उसकी ग्रूमिंग वैसी नहीं रहती, इसलिए कैमरे से दोस्ती नहीं हो पाती। निखिल में भी पहली फिल्म का अनगढ़पन है। अनाथ एंथनी (निखिल) को सिकंदर भाई (पवन मल्होत्रा) का सहारा मिलता है। वे उसे फादर ब्रेगैंजा (मिथुन चक्रवर्ती) के पास शिक्षा के लिए भेजते हैं। एंथनी बड़ा होकर बारटेंडर बन जाता है। वह जिस पब में काम करता है, उसके मालिकों में सिकंदर भाई भी हैं। एंथनी की ख्वाहिश एक्टर बनने की है। उसकी ख्वाहिश को मूर्ति (सौरभ शुक्ला) का समर्थन मिलता है। उसे एक फिल्म मिलती है। फिल्म की असिस्टेंट डायरेक्टर रिया से एंथनी को प्यार हो जाता है। कहानी मोड़ लेती है, जब फिल्म में शेक्सपियर के नाटक जूलियस सीजर से मिलती-जुलती स्थिति बनती है। एंथनी एक घटना का गवाह है, अगर वह सच बता दे तो सिकंदर भाई समेत सारे अपराधी पकड़े जाएंगे और हो सकता है कि उसका फिल्मी करियर ही

रिटर्न आफ हनुमान: निराश करती है फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए रिटर्न आफ हनुमान के निर्माताओं ने पापुलर हो चुकी एनीमेशन फिल्म हनुमान की छवि का भरपूर इस्तेमाल किया। फिल्म देखने गए। अचानक पर्दे पर दिखा कि रिटर्न आफ हनुमान सिक्वल के तौर पर नहीं बनाई गई है। यह पूरी तरह से काल्पनिक कहानी है। चलिए मान लिया कि काल्पनिक कहानी है तो कल्पना के घोड़े कुछ मामलों में क्यों ठिठक गए? रिटर्न आफ हनुमान के मारुति को बगैर पूंछ के भी दिखाया जा सकता था। मिथक और फैंटेसी का घालमेल बच्चों को कन्फ्यूज करता है। फिल्म में मनोरंजन है, लेकिन वह एनीमेशन और मारुति के चमत्कारी कारनामों के कारण है। मारुति की कहानी को मिथ से जोड़कर दिखाने की वजह महज इतनी रही होगी कि दर्शक उसके कारनामों पर यकीन कर सकें। एनीमेशन फिल्मों में इतिहास और मिथ से हीरो तलाशने की कोशिश जारी है। पहली बार हनुमान देखने के बाद लगा था कि बाल हनुमान के रूप में हीरो मिल गया है, लेकिन मारुति अवतार में बाल हनुमान जंचते नहीं हैं। फिल्म में हिंदी फिल्मों के मशहूर कलाकारों की आवाजों की मिमिक्री का तुक भी समझ में नहीं आया। कहीं रिटर्न आफ हनुमान वैसे शहरी बच्चों के लिए त

औसत से भी नीचे है शोबिज

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों में मीडिया निशाने पर है। शोबिज इस साल आई तीसरी फिल्म है, जिसमें मीडिया की बुराइयों को दर्शाया गया है। शोबिज समेत तीनों ही फिल्में मीडिया की कमियों को ऊपर-ऊपर से ही टच कर पाती हैं। रोहन आर्य (तुषार जलोटा) अचानक स्टार बन जाता है। आरंभ में ही इस स्टार की शरद राजपूत (सुशांत सिंह) नामक पत्रकार से बकझक हो जाती है। शरद राजपूत कैसे पत्रकार हैं कि तस्वीरें भी खीचते हैं और टीवी चैनलों में भी दखल रखते हैं। बहरहाल, उन दोनों की आपसी लड़ाई में कहानी आगे बढ़ती है और एक नाटकीय मोड़ लेती है। रोहन की कार में पत्रकार एक लड़की को देखते हैं। वो उसका पीछा करते हैं। पत्रकारिता में आए कथित पतन के बावजूद पत्रकार शोबिज के पत्रकारों जैसी ओछी हरकत नहीं करते। बहरहाल, कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। पता चलता है कि कार में रोहन के साथ तारा नाम की वेश्या थी। बड़ा स्कैंडल बनता है, लेकिन रोहन पूरे मामले को अपने हाथ में लेता है। हिंदी फिल्मों का हीरो है न ़ ़ ़ वह अकेले ही मीडिया से टकराता है और आखिरी दृश्य में मीडिया की भूमिका पर एक प्रवचन भी देता है। शोबिज किसी भी स्तर पर प्रभावित नहीं क

चमके तारे ज़मीन पर

-अजय ब्रह्मात्मज तारे जमीन पर में आमिर खान तीन भूमिकाओं में हैं। इस फिल्म में अभिनय करने के साथ ही वह निर्माता और निर्देशक भी हैं। निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म है। पहली फिल्म में ही वह साबित करते हैं कि निर्देशन पर उनकी पकड़ किसी अनुभवी से कम नहीं है। वैसे उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत निर्देशन से ही की थी। तारे जमीन पर न तो बच्चों की फिल्म है और न सिर्फ बच्चों के लिए बनायी गई है। यह बच्चों को लेकर बनायी गई फिल्म है, जो बच्चों को देखने और समझने का नजरिया बदलती है। निश्चित ही इस फिल्म को देखने के बाद दर्शक अपने परिवार और पड़ोसी के बच्चों की खासियत समझने की कोशिश करेंगे। आमिर खान ने तारे जमीन पर में यह जरूरी सामाजिक संदेश रोचक तरीके से दिया है। तारे जमीन पर ईशान अवस्थी की कहानी है। ईशान का पढ़ने-लिखने में कम मन लगता है। वह प्रकृति की अन्य चीजों जैसे पानी, मछली, बारिश, कुत्ते, रंग, पतंग आदि में ज्यादा रुचि लेता है। उसके इन गुणों को न तो शिक्षक पहचान पाते हैं और न माता-पिता। उन्हें लगता है कि ईशान अनुशासित नहीं है, इसलिए पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रहा है। ईशान के माता-पिता उसे अनुशा

वेलकम-रोचक आइडिया, नाकाम कोशिश

-अजय ब्रह्मात्मज वेलकम का तामझाम भव्य और आकर्षक है। एक साथ नए-पुराने मिला कर आधा दर्जन स्टार, एक हिट डायरेक्टर और उसके ऊपर से हिट प्रोडयूसर ़ ़ ़ फिल्म फील भी दे रही थी कि अच्छी कामेडी देखने को मिलेगी, लेकिन वेलकम ऊंची दुकान, फीका पकवान का मुहावरा चरितार्थ करती है। फिल्म का आइडिया रोचक है। दो माफिया डान हैं उदय शेट्टी और मंजनू। वो अपनी बहन की शादी किसी ऐसे लड़के से करना चाहते हैं, जो सीधा-सादा नेक इंसान हो। उनकी हर कोशिश बेकार जाती है, क्योंकि कोई भी शरीफ खानदान उनके परिवार से रिश्तेदारी नहीं चाहता। तीन संयोग बनते हैं। तीनों ही संयोगों में संजना और राजीव की जोड़ी बनती है। पहले संयोग में मंजनू को राजीव पसंद आता है। वह राजीव के मामा से रिश्ते की बात करता है। दूसरे संयोग में राजीव और संजना के बीच प्यार हो जाता है। तीसरे संयोग में मामा को राजीव के लिए संजना पसंद आती है। इस छोटी और अतिरेकी कहानी को लेखक-निर्देशक ने इतना लंबा खींचा कि फिल्म कमजोर पड़ जाती है। हंसी पैदा करने के लिए जोड़ी गई घटनाएं अलग प्रसंगों के तौर पर तो हंसाती हैं, पर कहानी में कुछ जोड़ नहीं पातीं। वेलकम बिखरी हुई कामेडी

सलाम! शबाना आजमी...दस कहानियाँ

-अजय ब्रह्मात्मज एक साथ अनेक कहानियों की फिल्मों की यह विधा चल सकती है, लेकिन उसकी प्रस्तुति का नया तरीका खोजना होगा। एक के बाद एक चल रही कहानियां एक-दूसरे के प्रभाव को बाधित करती हैं। संभव है भविष्य के फिल्मकार कोई कारगर तरीका खोजें। दस कहानियां में सिर्फ तीन याद रहने काबिल हैं। बाकी सात कहानियां चालू किस्म का मनोरंजन देती हैं। दस कहानियां के गुलदस्ते में पांच कहानियों के निर्देशक संजय गुप्ता हैं। ये हैं मैट्रीमोनी, गुब्बारे, स्ट्रेंजर्स इन द नाइट, जाहिर और राइज एंड फाल। इनमें केवल जाहिर अपने ट्विस्ट से चौंकाती है। फिल्म की सभी कहानियों में ट्विस्ट इन द टेल की शैली अपनायी गई है। जाहिर में मनोज बाजपेयी और दीया मिर्जा सिर्फ दो ही किरदार हैं। यह कहानी बहुत खूबसूरती से कई स्तरों पर प्रभावित करती है। मेघना गुलजार की पूर्णमासी का ट्विस्ट झकझोर देता है। मां-बेटी की इस कहानी में बेटी की आत्महत्या सिहरा देती है। रोहित राय की राइस प्लेट को शबाना आजमी और नसीरुद्दीन शाह के सधे अभिनय ने प्रभावशाली बना दिया है। दक्षिण भारतीय बुजुर्ग महिला की भूमिका में शबाना की चाल-ढाल और संवाद अदायगी उल्लेखनीय है।

खोया खोया चांद

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-अजय ब्रह्मात्मज सुधीर मिश्र की फिल्म खोया खोया चांद सातवें दशक की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बैकड्राप पर बनी है। माहौल, लहजा और पहनावे से सुधीर मिश्र ने उस पीरियड को क्रिएट किया है। खास बात है कि फिल्म में पीरियड कहानी पर हावी नहीं होता। वह दर्शकों को धीरे से सातवें दशक में ले जाता है। खोया खोया चांद के मुख्य किरदार किसी मृत या जीवित व्यक्ति पर आधारित नहीं हैं, लेकिन उनमें हम गुजरे दौर के अनेक कलाकारों और फिल्मकारों को देख सकते हैं। नायक जफर अली नकवी (शाइनी आहूजा) में एक साथ गुरुदत्त, कमाल अमरोही और साहिर लुधियानवी की झलक है तो निखत (सोहा अली खान) में मीना कुमारी और मधुबाला के जीवन की घटनाएं मिलती हैं। फिल्म की कहानी व्यक्ति केंद्रित नहीं है। जफर और निखत के माध्यम से सुधीर मिश्र ने उस दौर के द्वंद्व और मनोभाव को चित्रित करने की कोशिश की है। प्रेम कुमार (रजत कपूर) और रतनमाला (सोनिया जहां) सातवें दशक की फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि किरदार हैं। जफर और निखत की निजी जिंदगी और उनके रिश्तों की अंतर्कथाओं में फिल्म उलझ जाती है। सुधीर मिश्र एक साथ कई पहलुओं को छूने और सामने लाने के प्रयास में मु

आजा नचले: पूरी तरह फिट बैठी माधुरी

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-अजय ब्रह्मात्मज आजा नचले की सबसे बड़ी खासियत सहयोगी कलाकारों का सही चुनाव है। धन्यवाद, अक्षय खन्ना, इरफान, रघुवीर यादव, रणवीर शौरी, कुणाल कपूर, कोंकणा सेन, दिव्या दत्ता, विनय पाठक और यशपाल शर्मा का ़ ़ ़ इन सभी ने मिलकर नायिका दीया (माधुरी दीक्षित) को जबर्दस्त सपोर्ट दिया है। माधुरी दीक्षित के तो क्या कहने? इस उम्र में भी नृत्य की ऐसी ऊर्जा? नई हीरोइनें सबक ले सकती हैं कि दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग पर छाने के लिए कैसी लगन और कितनी मेहनत चाहिए। अनिल मेहता की आजा नचले की थीम चक दे इंडिया से मिलती जुलती है। वहां माहौल खेल का था, यहां माहौल नृत्य और संगीत का है। फिल्म उतनी ही असरदार है। सबके जेहन में सवाल था कि पांच साल की वापसी के बाद माधुरी दीक्षित पर्दे पर अपना जादू चला पाएंगी या नही? आदित्य चोपड़ा और जयदीप साहनी ने उन्हें ऐसी स्क्रिप्ट दी है कि माधुरी फिल्म में पूरी तरह फिट बैठती हैं। 35 पार कर चुके दर्शक अपनी धक धक गर्ल पर फिर से सम्मोहित हो सकते हैं। नई उम्र के दर्शक देख सकते हैं कि नृत्य केवल स्टेप्स या ऐरोबिक नहीं होता, उसमें भाव होता है, भंगिमा भी होती है। माधुरी सिद्ध करती हैं कि नृ

भटके हुए फोकस में मिस हुआ गोल

-अजय ब्रह्मात्मज चक दे इंडिया से गोल की तुलना होना लाजिमी है। तुलना में गोल पिछड़ सकती है क्योंकि चक दे इंडिया लोकप्रिय हो चुकी है। चक दे.. अपेक्षाकृत बेहतर थी भी। गोल में निर्देशक विवेक अग्निहोत्री का फोकस कई बार भटका है। फिल्म ढीली होने के कारण लंबी लगती है। कई बार लगता है कि अनावश्यक रूप से खेल दिखाया जा रहा है। प्राय: सभी खेल फिल्मों का यही फार्मूला है। एक कमजोर और हारी हुई टीम होती है। उसमें फिल्म के मध्यांतर तक टीम भावना और जीत की लालसा जागती है और अंत में पराजित या कमजोर टीम विजेता घोषित की जाती है। विवेक की गोल इंग्लैंड में बनी है। वहां की एशियाई बस्ती साउथ हाल के लोगों का यूनाइटेड क्लब है। क्लब कई साल से बदहाली है। टीम असंगठित है। कायदे का कोच भी नहीं है। सिटी काउंसिल के एक मेंबर के साथ ही बिल्डरों की नजर क्लब की जमीन पर लगी है। क्लब के सामने एक ही लक्ष्य है कि लीग में चैंपियन बने या जमीन से हाथ धो बैठे। कोच की तलाश होती है। पुराने खिलाड़ी टोनी (बोमन ईरानी) मिल जाते हैं। वह पहले तो कोच बनने से मना करते हैं। बाद में राजी होते हैं। उनकी समस्या है कि कमजोर टीम में जोश कैसे पैदा क

ओम शांति ओम: यथार्थ से कोसों दूर

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-अजय ब्रह्मात्मज फराह खान और शाहरुख खान की ओम शांति ओम का भी वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। इंटरवल तक की फिल्म फिर भी मनोरंजक और रोचक लगती है। उसके बाद पुनर्जन्म, आत्मा, न्याय और बदले का जो वितान बुना गया है, वह उबाऊ है। फराह ने अगर इंटरवल तक की कहानी पर ही पूरी फिल्म बना दी होती तो अधिक प्रभावशाली निर्मित होती। फिल्म में दो ओम हैं, एक शांति है। एक सैंडी है, जो बाद में शांति का रूप लेती है। और एक शांति की अतृप्त आत्मा है, जो निर्माता मुकेश मेहरा से बदला लेने के बाद ही शांत होती है। चलिए थोड़ा विस्तार में चलें। ओमप्रकाश मखीजा (शाहरुख) जूनियर फिल्म आर्टिस्ट है। वह स्टार बनने के ख्वाब देखता है। उसे शांतिप्रिया से प्रेम हो गया है। वह सेट पर लगी आग से शांति को जान पर खेल कर बचाता है। शांति उसके जोखिम से प्रभावित होती है। ओम को लगता है कि शांति उसे चाहने लगी हैं। ओम का प्यार पींगें मारने लगता है। अगली बार जब मुकेश मेहरा शांति को सचमुच आग में झोंक देता है तो उसे बचाने के चक्कर में ओम जान भी गवां बैठता है। यहीं इंटरवल होता है। हमें पता चलता है कि ओम का पुनर्जन्म हो गया है। नए ओम को पिछले

सांवरिया : रंग और रोमांस वास्तविक नहीं

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-अजय ब्रह्मात्मज खयालों की दुनिया और ख्वाबों के शहर में राज, सकीना, गुलाब और ईमान की कहानी में लॉजिक खोजना बेमानी है। इस सपनीली दुनिया का परिवेश भव्य और काल्पनिक है। नहर है, नदी है, पुल है, अंग्रेजों के जमाने के बार हैं और आज की अंग्रेजी मिश्रित भाषा है। सांवरिया का रंग और रोमांस वास्तविक नहीं है और यही इस फिल्म की खासियत है। संजय लीला भंसाली के काल्पनिक शहर में राज (रणबीर कपूर) गायक है। उसे नयी नौकरी मिली है। बार में ही उसकी मुलाकात गुलाब ( रानी मुखर्जी) से होती है। दोनों के बीच दोस्ती होती है। दोस्तोवस्की की कहानी ह्वाइट नाइट्स पर आधारित इस फिल्म में दो प्रेमियों की दास्तान है। सिर्फ चार रातों की इस कहानी में संजय लीला भंसाली ने ऐसा समां बांधा है कि हम कभी राज के जोश तो कभी सकीना (सोनम कपूर) की शर्म के साथ हो लेते हैं। संजय लीला भंसाली ने एक स्वप्न संसार का सृजन किया है, जिसमें दुनियावी रंग नहीं के बराबर हैं। रणबीर कपूर और सोनम कपूर के शो केस के रूप में बनी इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने खयाल रखा है कि हिंदी फिल्मों में नायक-नायिका के लिए जरूरी और प्रचलित सभी भावों का प्रदर्शन किय

दर्शनीय व विमर्श योग्य है नो स्मोकिंग

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-अजय ब्रह्मात्मज अनुराग कश्यप की इस फिल्म को कृपया जॉन अब्राहम की फिल्म समझ कर देखने न जाएं। हिंदी में स्टार केंद्रित फिल्में बनती हैं, जिनमें निर्देशक का हस्ताक्षर पहचान में ही नहीं आता। अनुराग कश्यप युवा निर्देशकों में एक ऐसे निर्देशक हैं, जिनकी फिल्में अभी तक स्टारों पर निर्भर नहीं करतीं। ऊपरी तौर पर यह के (जान अब्राहम) की कहानी है। उसे सिगरेट पीने की बुरी लत है। चूंकि वह बेहद अमीर है, इसलिए उसे लगता है कि उसकी लतों और आदतों को बदलने की सलाह भी उसे कोई नहीं दे सकता। एक स्थिति आती है, जब उसकी बीवी उसे आखिरी चेतावनी देती है कि अगर उसने सिगरेट नहीं छोड़ी तो वह उसे छोड़ देगी। वह घर से निकल भी जाती है। के अपनी बीवी से बेइंतहा प्यार करता है। बीवी को वापस लाने के लिए वह सिगरेट छोड़ने की कोशिश में बाबा बंगाली से मिलता है। यहां से उसकी जिंदगी और लत को बाबा बंगाली नियंत्रित करते हैं। इसके बाद एक ऐसा रूपक बनता है, जिसमें हम इस संसार में रिश्तों की विदू्रपताओं को देखते हैं। स्वार्थ के वशीभूत दोस्त भी कितने क्रूर और खतरनाक हो सकते हैं। फिल्म के अंत में हम देखते हैं कि के भी उसी विद्रूपता का शिक

जब वी मेट: भारतीयता का रसीला टच

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-अजय ब्रह्मात्मज इम्तियाज अली की जब वी मेट शुद्ध मनोरंजक रोमांटिक कामेडी है। फिल्म पहले ही दृश्य से बांधती है। मुंबई से भटिंडा तक के सफर में यह फिल्म आपको हंसाती, गुदगुदाती और रिझाती हुई ले जाती है। शाहिद कपूर और करीना कपूर की रोमांटिक जोड़ी फिल्म का सबसे मजबूत और प्रभावशाली आधार है। आदित्य (शाहिद) अपने कंधों पर अचानक आ गई जिम्मेदारी से घबराकर यूं ही निकल जाता है। उसका यह निष्क्रमण गौतम बुद्ध की तरह नहीं है। वस्तुत: वह अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करता है। ट्रेन में उसकी मुलाकात गीत (करीना कपूर) से होती है। बक-बक करने में माहिर गीत के दिल से खुशी लगातार छलक-छलक पड़ती है। जिंदगी को अपने ढंग से जीने पर आमादा गीत अपनी मुश्किलों में आदित्य को ऐसा फंसाती है कि उसे भटिंडा तक जाना पड़ता है। जब वी मेट एक स्तर पर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे का भारतीय और अल्प बजट संस्करण है। मुंबई से मध्यप्रदेश, फिर राजस्थान और पंजाब होते हुए हिमाचल तक की यात्रा में हम विभिन्न प्रसंगों में ऐसे दृश्य देखते हैं, जो मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के फिल्मकारों के अनुभव और कल्पना के परे हैं। इम्तियाज अली के सटीक संवाद और दृश

कहीं से भी अपील नहीं करती स्पीड

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-अजय ब्रह्मात्मज कई बार फिल्म के शीर्षक का कहानी से कोई ताल्लुक नहीं होता। स्पीड के साथ ऐसी ही बात है। पूरी फिल्म निकल जाने के बाद सहसा ख्याल आता है कि फिल्म का नाम स्पीड क्यों रखा गया? बहरहाल, स्पीड विक्रम भट्ट की फिल्म है। भट्ट कैंप से निकलने के बाद विक्रम भट्ट की कोई भी फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई है। ऐसा क्यों होता है कि कैंप या बैनर से छिटकने के बाद युवा निर्देशक पस्त हो जाते हैं। कुछ निर्देशक दिशानिर्देश मिले तभी अच्छा काम कर सकते हैं। विक्रम भट्ट को जल्दी ही एक ठीक-ठाक फिल्म बनानी होगी अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए। स्पीड की कहानी लंदन में घटित होती है। इस फिल्म में मोबाइल फोन का प्रचुर इस्तेमाल हुआ है। कह लें कि वह भी एक जरूरी कैरेक्टर बन गया है। वह लिंक है कैरेक्टरों को जोड़ने का। संदीप (जाएद खान) भारत से लंदन गया है अपनी प्रेमिका संजना (तनुश्री दत्ता) को समझाने। उसे एक रांग काल आता है, जो अपहृत हो चुकी युवती (उर्मिला मातोंडकर) का है। उसका अपहरण कर फिल्म का खलनायक आफताब शिवदासानी उसके पति सिद्धार्थ (संजय सूरी) से एक हत्या करवाना चाहता है। हत्या भी किसी मामूली आदमी की नहीं, भार

राजनीतिक फिल्म है दिल दोस्ती एटसेट्रा

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-अजय ब्रह्मात्मज इस फिल्म का भी पर्याप्त प्रचार नहीं हुआ। फिल्म के पोस्टर और फेस वैल्यू से नहीं लगता कि दिल दोस्ती.. इतनी रोचक फिल्म हो सकती है। दिल दोस्ती.. लंबे अरसे के बाद आई राजनीतिक फिल्म है। इस फिल्म के राजनीतिक टोन को समझे बिना फिल्म को समझना मुश्किल होगा। ऊपरी तौर पर संजय मिश्रा (श्रेयस तलपड़े) और अपूर्व (ईमाद शाह) दो प्रमुख चरित्रों की इस कहानी में संवेदना की कई परते हैं। इस फिल्म को समझने में दर्शक की पृष्ठभूमि भी महत्वपूर्ण होगी। संजय मिश्रा बिहार से दिल्ली आया युवक है, जो छात्र राजनीति में सक्रिय हो गया है। दूसरी तरफ अपूर्व विभिन्न तबकों की लड़कियों के बीच जिंदगी और प्यार के मायने खोज रहा है। दिल दोस्ती.. विरोधी प्रतीत हो रहे विचारों की टकराहट की भी फिल्म है। मध्यवर्गीय मूल्यों और उच्चवर्गीय मूल्यों के साथ ही इस टकराहट के दूसरे पहलू और छोर भी हैं। निर्देशक मनीष तिवारी ने युवा पीढ़ी में मौजूद इस गूढ़ता, अस्पष्टता और संभ्रम को समझने की कोशिश की है। फिल्म अपूर्व के दृष्टिकोण से प्रस्तुत की गई है। अगर इस फिल्म का नैरेटर संजय मिश्रा होता तो फिल्म का अंत अलग हो सकता था। फिल्म में

आनंद और रोमांच का संगम है जॉनी गद्दार

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-अजय ब्रह्मात्मज एक हसीना थी में श्रीराम राघवन की दस्तक फिल्म इंडस्ट्री और दर्शकों ने सुन ली थी। वह फिल्म बॉक्स आफिस पर गिर गई थी, लेकिन थ्रिलर का आनंद मिला था। उस आनंद और रोमांच को श्रीराम राघवन ने जॉनी गद्दार में पुख्ता किया है। जॉनी गद्दार एक तरफ विजय आनंद की थ्रिलर फिल्मों की याद दिलाती है तो दूसरी तरफ फिल्मों की नई शैली का परिचय देती है। जॉनी गद्दार पांच व्यक्तियों की कहानी है। वे मिलकर कारोबार करते हैं। उनके गैंग को एक आफर मिला है, जिससे चार दिनों में उनकी किस्मत पलट सकती है। योजना बनती है, लेकिन पांचों में से एक गद्दारी कर जाता है। उस गद्दार की जानकारी हमें हो जाती है, लेकिन बाकी किरदार नावाकिफ रहते हैं। जॉनी गद्दार की यह खूबी दर्शकों को बांधे रहती है। घटनाओं का ऐसा क्रम नहीं बनता कि पहले से अनुमान लगाया जा सके। श्रीराम राघवन ने बार-बार चौंकाया है और हर बार कहानी में ट्विस्ट पैदा किया है। श्रीराम राघवन की पटकथा और फिल्म का संपादन इतना चुस्त है कि संवाद की गति से दृश्य बदलते हैं। शार्प कट और बदलते दृश्यों की निरंतरता हिलने नहीं देती। कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां दर्शक अपनी सुध भूल जा

मनोरमा सिक्स फीट अंडर

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रियल सिनेमा है मनोरमा सिक्स फीट अंडर =अजय ब्रह्मात्मज नाच-गाना, विदेशी लोकेशन, हीरो-हीरोइन के चमकदार कपड़े, बेरंग रोमांस से ऊब चुके हों और चाहते हों कि कुछ रियल सिनेमा देखा जाए तो आप मनोरमा सिक्स फीट अंडर देखने जा सकते हैं। अपने देश के गांव-कस्बों और छोटे शहरों की कहानियां ऐसी ही होती हैं। मनोरमा ़ ़ ़ मध्यवर्गीय परेशानियों और आकांक्षाओं की फिल्म है। युवा निर्देशक नवदीप सिंह ने कुछ अलग कहने और दिखाने की कोशिश की है। राजस्थान के छोटे से शहर लाखोट में रह रहे सत्यवीर (अभय देओल) के जीवन में कोई उमंग नहीं है। वह सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर है। मामूली सी नौकरी, सरकारी क्वार्टर, चखचख करती बीवी और कुछ ज्यादा ही जिज्ञासु पड़ोसी से ऊब चुका सत्यवीर जासूसी कहानियां लिखने में सुख पाता है। उसे रियल जासूसी का एक आफर मिलता है तो इंकार नहीं कर पाता। स्थानीय नेता और पूर्व महाराज पीपी राठौड़ की बीवी उसे अपने पति के खिलाफ जासूसी के लिए लगाती है। बाद में पता चलता है कि वह औरत तो पीपी राठौड़ की बीवी ही नहीं थी। पूरा मामला उलझता है और उसे सुलझाने के चक्कर में सत्यवीर और ज्यादा फंस जाता है। नए अभिनेताओं