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शांघाई पर सोनाली सिंह की टिप्‍पणी

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शांघाई देखने के बाद सोनाली सिंह आग्रह करने पर यह टिप्‍पणी भेजी है। चवन्‍नी के पाठक इसे संवेदनशील रचनाकार की अपने समय की महत्‍वपूर्ण फिल्‍म पर की गई सामन्‍य प्रतिक्रिया के रूप में पढ़ें या विशेष टिप्‍पणी के रूप में....मर्जी आप की। "हर आदमी के अन्दर होते है दस- बीस आदमी, जिसको भी देखना कई बार देखना ..." फिल्म कितनी सफल है या सार्थक है , दो अलग- अलग चीजें होती है I जरुरी नहीं कि जो सफल हो सार्थक भी हो और न ही सार्थकता सफलता की कुंजी होती है  I सफल फिल्मो की तरह  यहाँ एक  हलवाई की बेटी  किसी  business tycoon  से   शादी करने का ख्वाब नहीं देख सकती I फिल्म के किरदार में हम और आप है जहाँ विजातीय संबंधों को लेकर बवाल कटता है और लड़के को जान बचाने के लिए  शहर छोड़कर भागना पड़ता है I  फिल्म की कहानी हमारे नाकारापन  और दोगलेपन को  घेरती  कहानी है I सुबह रास्ते में हुए एक्सीडेंट को अनदेखा कर  हम  ऑफिस भागते है जैसे जिंदगी की ट्रेन छूटी जा रही हो पर शाम को तयशुदा वक़्त एक नोबल cause के लिए इंडिया गेट पर मोमबत्ती लेकर पहुच जाते है I कहानी है उन बिल्डर्स की ,जो ग

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई-गौरव सोलंकी

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यह रिव्‍यू गौरव सोलंकी के ब्‍लॉग रोटी कपड़ा और मकान से चवन्‍नी के पाठकों के लिए... शंघाई' हमारी राष्ट्रीय फ़िल्म है  एक लड़का है , जिसके सिर पर एक बड़े नेता देश जी का हाथ है। शहर के शंघाई बनने की मुहिम ने उसे यह सपना दिखाया है कि प्रगति या ऐसे ही किसी नाम वाली पिज़्ज़ा की एक दुकान खुलेगी और ‘ समृद्धि इंगलिश क्लासेज ’ से वह अंग्रेजी सीख लेगा तो उसे उसमें नौकरी मिल जाएगी। अब इसके अलावा उसे कुछ नहीं दिखाई देता। जबकि उसकी ज़मीन पर उसी की हड्डियों के चूने से ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं, वह देश जी के अहसान तले दब जाता है। यह वैसा ही है जैसी कहानी हमें ‘ शंघाई ’ के एक नायक (नायक कई हैं) डॉ. अहमदी सुनाते हैं। और यहीं से और इसीलिए एक विदेशी उपन्यास पर आधारित होने के बावज़ूद शंघाई आज से हमारी ‘ राष्ट्रीय फ़िल्म ’ होनी चाहिए क्योंकि वह कहानी और शंघाई की कहानी हमारी ‘ राष्ट्रीय कथा ’ है। और उर्मि जुवेकर और दिबाकर इसे इस ढंग से एडेप्ट करते हैं कि यह एडेप्टेशन के किसी कोर्स के शुरुआती पाठों में शामिल हो सकती है। लेकिन कपड़े झाड़कर खड़े मत होइए, दूसरी राष्ट्रीय चीजों की तरह

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई -रवीश कुमार

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  रवीश कुमार की यह समीक्षा उनके ब्‍लॉग कस्‍बा से चवन्‍नी के पाठकों के लिए...  प्रगति का कॉलर ट्यून है शांघाई शांघाई। जय प्रगति,जय प्रगति,जय प्रगति। राजनीति में विकास के नारे को कालर ट्यून की तरह ऐसे बजा दिया है दिबाकर ने कि जितनी बार जय प्रगति की आवाज़ सुनाई देती यही लगता है कि कोई रट रहा है ऊं जय शिवाय ऊं जय शिवाय । अचानक बज उठी फोन की घंटी के बाद जय प्रगति से नमस्कार और जय प्रगति से तिरस्कार। निर्देशक दिबाकर स्थापित कर देते हैं कि दरअसल विकास और प्रगति कुछ और नहीं बल्कि साज़िश के नए नाम हैं। फिल्म का आखिरी शाट उन लोगों को चुभेगा जो व्यवस्था बदलने निकले हैं लेकिन उन्हीं से ईमानदारी का इम्तहान लिया जाता है। आखिरी शाट में प्रसनजीत का चेहरा ऐसे लौटता है जैसे आपको बुला रहा हो। कह रहा हो कि सिस्टम को बदलना है तो मरना पड़ेगा। लड़ने से कुछ नहीं होगा। उससे ठीक पहले के आखिरी शाट में इमरान हाशमी को अश्लील फिल्में बनाने के आरोप में जेल भेज दिया जाता है। कल्की अहमदी पर किताब लिखती है जो भारत में बैन हो जाती है। अहमदी की मौत के बाद उसकी पत्नी चुनावी मैदान में उतर आती है। अहमदी

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई-वरूण ग्रोवर

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वरूण ग्रोवर ने शांघाई की यह पर लिखी है। उनसे पूछे बगैर मैंने उसे चवन्‍नी के पाठकों के लिए यहां पोस्‍ट किया है। moifightclub.wordpress.com/2012/06/11/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AD%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A5%8B-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%88/ आनंद लें। नोट: इस लेख में कदम-कदम पर spoilers हैं. बेहतर यही होगा कि फिल्म देख के पढ़ें. (हाँ, फिल्म देखने लायक है.) आगे आपकी श्रद्धा. मुझे नहीं पता मैं लेफ्टिस्ट हूँ या राइटिस्ट. मेरे दो बहुत करीबी, दुनिया में सबसे करीबी, दोस्त हैं. एक लेफ्टिस्ट है एक राइटिस्ट. (वैसे दोनों को ही शायद यह categorization ख़ासा पसंद नहीं.) जब मैं लेफ्टिस्ट के साथ होता हूँ तो undercover-rightist होता हूँ. जब राइटिस्ट के साथ होता हूँ तो undercover-leftist. दोनों के हर तर्क को, दुनिया देखने के तरीके को, उनकी political understanding को, अपने अंदर लगे इस cynic-spray से झाड़ता रहता हूँ. दोनों की समाज और राजनीति की समझ बहुत पैनी है, बहुत नयी भी. अपने अपने क्षेत्र में दोनों शायद सबसे revolutionary, सबसे संजीदा विचार ले

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई

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  जघन्य राजनीति का खुलासा -अजय ब्रह्मात्‍मज शांघाई दिबाकर बनर्जी की चौथी फिल्म है। खोसला का घोसला, ओय लकी लकी ओय और लव सेक्स धोखा के बाद अपनी चौथी फिल्म शांघाई में दिबाकर बनर्जी ने अपना वितान बड़ा कर दिया है। यह अभी तक की उनकी सबसे ज्यादा मुखर, सामाजिक और राजनैतिक फिल्म है। 21वीं सदी में आई युवा निर्देशकों की नई पीढ़ी में दिबाकर बनर्जी अपनी राजनीतिक सोच और सामाजिक प्रखरता की वजह से विशिष्ट फिल्मकार हैं। शांघाई में उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि मौजूद टैलेंट, रिसोर्सेज और प्रचलित ढांचे में रहते हुए भी उत्तेजक संवेदना की पक्षधरता से परिपूर्ण वैचारिक फिल्म बनाई जा सकती हैं। शांघाई अत्यंत सरल और सहज तरीके से राजनीति की पेंचीदगी को खोल देती है। सत्ताधारी और सत्ता के इच्छुक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की राजनीतिक लिप्सा में सामान्य नागरिकों और विरोधियों को कुचलना सामान्य बात है। इस घिनौनी साजिश में नौकशाही और पुलिस महकमा भी चाहे-अनचाहे शामिल हो जाता है। दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने ग्रीक के उपन्यासकार वसिलिस वसिलिलोस के उपन्यास जी का वर्तमान भारतीय संदर्भ में रूपांत

दिबाकर बनर्जी की पॉलिटिकल थ्रिलर ‘शांघाई’

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज   हर फिल्म पर्दे पर आने के पहले कागज पर लिखी जाती है। लेखक किसी विचार, विषय, मुद्दे, संबंध, भावना, ड्रामा आदि से प्रेरित होकर कुछ किरदारों के जरिए अपनी बात पहले शब्दों में लिखता है। बाद में उन शब्दों को निर्देशक विजुअलाइज करता है और उन्हें कैमरामैन एवं अन्य तकनीशियनों की मदद से पर्दे पर रचता है। ‘शांघाई’ दिबाकर बनर्जी की अगली फिल्म है। उन्होंने उर्मी जुवेकर के साथ मिल कर इसका लेखन किया है। झंकार के लिए दोनों ने ‘शांघाई’ के लेखन के संबंध में बातें कीं।   पृष्ठभूमि  उर्मी - ‘शांघाई’ एक इंसान की जर्नी है। वह एक पाइंट से अगले पाइंट तक यात्रा करता है। दिबाकर से अक्सर बातें होती रहती थीं कि हो गया न ़ ़ ़ समाज खराब है, पॉलिटिशियन करप्ट हैं, पढ़े-लिखे लोग विवश और दुखी हैं। ऐसी बातों से भी ऊब हो गई है। आगे क्या बात करती है?  दिबाकर - अभी तो पॉलीटिशयन बेशर्म भी हो गए हैं। वे कहते हैं कि तुम ने मुझे बुरा या चोर क्यों कहा? अभी अन्ना आंदोलन में इस तरह की बहस चल रही थी। ‘शांघाई’ में तीन किरदार हैं। वे एक सिचुएशन में अपने ढंग से सोचते और कुछ करते हैं। ‘लव सेक्स और ध

रियल ड्रामा और पॉलिटिक्स है ‘शांघाई’ में

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज अपनी चौथी फिल्म ‘शांघाई’ की रिलीज तैयारियों में जुटे बाजार और विचार के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह फिल्म दिल्ली से बाहर निकली है। उदार आर्थिक नीति के के देश में उनकी फिल्म एक ऐसे शहर की कहानी कहती है, जहां समृद्धि के सपने सक्रिय हैं। तय हआ है कि उसे विशेष आर्थिक क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाएगा। राज्य सरकार और स्थानीय राजनीतिक पार्टियों ने स्थानीय नागरिकों को सपना दिया है कि उनका शहर जल्दी ही शांघाई बन जाएगा। इस राजनीति दांवपेंच में भविष्य की खुशहाली संजोए शहर में तब खलबली मचती है, जब एक सामाजिक कार्यकर्ता की सडक़ दुर्घटना में मौत हो जाती है। ज्यादातर इसे हादसा मानते हैं, लेकिन कुछ लोगों को यह शक है कि यह हत्या है। शक की वजह है कि सामाजिक कार्यकर्ता राजनीतिक स्वार्थ के तहत पोसे जा रहे सपने के यथार्थ से स्थानीय नागरिकों को परिचित कराने की मुहिम में शामिल हैं। माना जाता है कि वे लोगों को भडक़ा रहे हैं और सपने की सच्चाई के प्रति सचेत कर रहे हैं।    दिबाकर बनर्जी राजनीतिक पृष्ठभूमि की फिल्म ‘शांघाई’ में हमें नए भारत से परिचित कराते हैं। यहां