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अलहदा लोगों के सर्वाइवल की जगह की तलाश में ‘तमाशा’ -सुदीप्ति सत्‍यानंद

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सुदीप्ति सत्‍यानंद के फेसबुक स्‍टेटस से स्‍पष्‍ट था कि उन्‍हें 'तमाशा' देखनी है और पूरी संभावना थी कि वह उन्‍हें पसंद भी आएगी। फिल्‍म देखने के पहले और देखने के बाद के उन्‍के स्‍टेटस इसकी स्‍पष्‍ट जानकारी देते हैं। फिल्‍मों पर इरादतन लिखना सहज नहीं होता। मैंने सुदीप्ति से आग्रह किया था कि वह इस फिल्‍म पर लिखें। कुछ और दोस्‍तों से भी कहा है। यहां सुदीप्ति का आलेख पढें। आप लिखना चाहें तो स्‍वागत है। उसे brahmatmaj@gmail.com पर भेज दें। सुदीप्ति के फेसबुक स्‍टेटस पहली बार चेतावनी दे रही हूँ- जो भी तमाशा की कहानी लिखेगा/गी ब्लाक कर दूँगी। हालाँकि इम्तियाज़ खुद कह रहे हैं सेम कहानी पर हम देख ना लें तब तक समीक्षा लिखें कहानी नहीं। बहुत दिनों के बाद एक ऐसी फ़िल्म देखी जो दिलो-दिमाग पर छा गयी। ‪   रॉकस्टार फैन होने के बाद और इसमें रिपिटेड सीन दिखने के बाद भी लगता है कि 'तमाशा' इम्तियाज़ अली की अब तक की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है। देखिए जरूर, इससे ज्यादा अभी कुछ नहीं कहूँगी।   'तमाशा' उनको पसंद आएगी क्या जिन्होंने बजरंगी भाईजान को हिट कराया और तनु-मनु रिटर्

संवाद और संवेदना की रेसिपी और लंचबॉक्स :सुदीप्ति

यह सिर्फ 'लंचबॉक्स ' फिल्म की समीक्षा नहीं है. उसके बहाने समकालीन मनुष्य के एकांत को समझने का एक प्रयास भी है. युवा लेखिका सुदीप्ति ने इस फिल्म की संवेदना को समकालीन जीवन के उलझे हुए तारों से जोड़ने का बहुत सुन्दर प्रयास किया है. आपके लिए- जानकी पुल.से साभार और साधिकार =========================================== पहली बात: इसे‘लंचबॉक्स’ की समीक्षा कतई न समझें. यह तो बस उतनी भर बात है जो फिल्म देखने के बाद मेरे मन में आई. अंतिमबात यानी कि महानगरीय आपाधापी में फंसे लोगों से निवेदन: इससे पहले कि ज़िंदगी उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे, जहाँ खुशियों का टिकट वाया भूटान लेना पड़े, कम-से-कम ‘लंचबॉक्स’ देख आईये. अंदर की बात: दरअसल कोई भी फिल्म मेरे लिए मुख्यत: दृश्यों में पिरोयी गई एक कथा की तरह है.माध्यम और तकनीक की जानकारी रखते हुए किसी फिल्म का सूक्ष्म विश्लेषण एक अलग और विशिष्ट क्षेत्र है,जानती हूँ. फिर भी कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं,जिन्हें देख आप जो महसूस करते हैं उसे ज़ाहिर करने को बेताब रहते है. ऐसी ही एक फिल्म है ‘लंचबॉक्स’. ‘लंचबॉक्स’ में तीन मुख्य किरदा

हिन्दी टाकीज:काश, लौटा दे मुझे कोई वो सिनेमाघर ........ -सुदीप्ति

हिन्दी टाकीज-४५ चवन्नी को यह पोस्ट अचानक अपने मेल में मानसून की फुहार की तरह मिला.सुदीप्ति से तस्वीर और पसंद की १० फिल्मों की सूची मांगी है चवन्नी ने.कायदे से इंतज़ार करना चाहिए था,लेकिन इस खूबसूरत और धड़कते संस्मरण को मेल में रखना सही नहीं लगा.सुदीप्ति जब तस्वीर भेजेंगी तब आप उन्हें देख सकेंगे.फिलहाल हिन्दी टाकीज में उनके साथ चलते हैं पटना और सिवान... bबिहार के एक छोटे से गाँव से निकलकर सुदीप्ति ने पटना वूमेन'स कॉलेज और जे एन यू में अपनी पढ़ाई की है। छोटी-छोटी चीजों से अक्सरहां खुश हो जाने वाली, छोटी-छोटी बातों से कई बार आहत हो जाने वाली, बड़े-बड़े सपनों को बुनने वाली सुदीप्ति की खुशियों की चौहद्दी में आज भी सिनेमा का एक बहुत बड़ा हिस्सा मौजूद है।जितनी ख़ुशी उनको इतिहास,कहानियों,फिल्मों और मानव-स्वभाव के बारे में बात करके मिलती है, उससे कहीं ज्यादा खुश वो पटनहिया सिनेमाघरों के किस्सों को सुनाते हुए होती हैं. झूठ बोलकर या छुपाकर ही सही, खुद सिनेमा देखने बिहार में सिनेमाघर में चले जाना, बगैर किसी पुरुष रिश्तेदार/साथी के, साहस और खुदमुख्तारी को महसूस करने का इससे बड़ा जरिया भला और क्य