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निखिल द्विवेदी:२००८ का पहला सितारा

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चवन्नी अमृता राव से मिलने गया था.विवाह सफल हो गयी थी.अमृता की तारीफ हो रही थी और हिरोइन के तौर पर उनका दर्जा थोडा ऊँचा हो गया था.हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में हर फिल्म के साथ स्टारों का कद छोटा -बड़ा होता रहता है.बहरहाल बातचीत खतम होने पर अमृता ने चवन्नी से कहा कि आप मेरी फिल्म के हीरो से मिल लो.अरे हाँ,बताना भूल गया.अमृता राव माई नेम इज एन्थोनी गोंसाल्विस की शूटिंग कर रही थीं। चवन्नी को तो नए लोगों से मिलना अच्छा लगता है.उसने टपक से हाँ कहा.एक शॉट चल रहा था.शॉट में एक नौजवान दौड़ता हुआ आता है और अमृता राव से कुछ कहता है.साधारण सा रनिंग शॉट था ,लेकिन उस नौजवान का उत्साह देखते ही बन रहा था.शॉट खत्म होने पर मुलाक़ात हुई और क्या यादगार मुलाक़ात रही कि चांद ही बातों में उसने चवन्नी को अपने मुरीद बना लिया.जी,चवन्नी निखिल द्विवेदी की बात कर रहा है। निखिल की माई नेम इज एन्थोनी गोंसाल्विस २००७ में ही आनेवाली थी.किसी कारन से फिल्म में देरी हो गयी है,लेकिन अच्छा ही रहा .अब निखिल द्विवेदी २००८ का पहला सितारा होगा.निखिल की फिल्म ११ जनवरी २००८ को रिलीज हो रही है.निखिल इलाहबाद के हैं और उनकी आंखों में

सलाम! शबाना आजमी...दस कहानियाँ

-अजय ब्रह्मात्मज एक साथ अनेक कहानियों की फिल्मों की यह विधा चल सकती है, लेकिन उसकी प्रस्तुति का नया तरीका खोजना होगा। एक के बाद एक चल रही कहानियां एक-दूसरे के प्रभाव को बाधित करती हैं। संभव है भविष्य के फिल्मकार कोई कारगर तरीका खोजें। दस कहानियां में सिर्फ तीन याद रहने काबिल हैं। बाकी सात कहानियां चालू किस्म का मनोरंजन देती हैं। दस कहानियां के गुलदस्ते में पांच कहानियों के निर्देशक संजय गुप्ता हैं। ये हैं मैट्रीमोनी, गुब्बारे, स्ट्रेंजर्स इन द नाइट, जाहिर और राइज एंड फाल। इनमें केवल जाहिर अपने ट्विस्ट से चौंकाती है। फिल्म की सभी कहानियों में ट्विस्ट इन द टेल की शैली अपनायी गई है। जाहिर में मनोज बाजपेयी और दीया मिर्जा सिर्फ दो ही किरदार हैं। यह कहानी बहुत खूबसूरती से कई स्तरों पर प्रभावित करती है। मेघना गुलजार की पूर्णमासी का ट्विस्ट झकझोर देता है। मां-बेटी की इस कहानी में बेटी की आत्महत्या सिहरा देती है। रोहित राय की राइस प्लेट को शबाना आजमी और नसीरुद्दीन शाह के सधे अभिनय ने प्रभावशाली बना दिया है। दक्षिण भारतीय बुजुर्ग महिला की भूमिका में शबाना की चाल-ढाल और संवाद अदायगी उल्लेखनीय है।

खोया खोया चांद

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-अजय ब्रह्मात्मज सुधीर मिश्र की फिल्म खोया खोया चांद सातवें दशक की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बैकड्राप पर बनी है। माहौल, लहजा और पहनावे से सुधीर मिश्र ने उस पीरियड को क्रिएट किया है। खास बात है कि फिल्म में पीरियड कहानी पर हावी नहीं होता। वह दर्शकों को धीरे से सातवें दशक में ले जाता है। खोया खोया चांद के मुख्य किरदार किसी मृत या जीवित व्यक्ति पर आधारित नहीं हैं, लेकिन उनमें हम गुजरे दौर के अनेक कलाकारों और फिल्मकारों को देख सकते हैं। नायक जफर अली नकवी (शाइनी आहूजा) में एक साथ गुरुदत्त, कमाल अमरोही और साहिर लुधियानवी की झलक है तो निखत (सोहा अली खान) में मीना कुमारी और मधुबाला के जीवन की घटनाएं मिलती हैं। फिल्म की कहानी व्यक्ति केंद्रित नहीं है। जफर और निखत के माध्यम से सुधीर मिश्र ने उस दौर के द्वंद्व और मनोभाव को चित्रित करने की कोशिश की है। प्रेम कुमार (रजत कपूर) और रतनमाला (सोनिया जहां) सातवें दशक की फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि किरदार हैं। जफर और निखत की निजी जिंदगी और उनके रिश्तों की अंतर्कथाओं में फिल्म उलझ जाती है। सुधीर मिश्र एक साथ कई पहलुओं को छूने और सामने लाने के प्रयास में मु

शुक्रवार,७ दिसम्बर, २००७

आज दो फिल्में रिलीज हुई हैं.सुधीर मिश्र की खोया खोया चांद और संजय गुप्ता कि दस कहानियाँ.खोया खोया चांद खास फिल्म है,क्यों? सबसे पहले तो इस फिल्म का निर्देशन सुधीर मिश्र ने किया है.सुधीर की फिल्में अलग और विशेष होती हैं.उन्होने इस फिल्म में सातवें दशक की हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की झलक दी है.फिल्म देखते हुए आपको कभी गुरुदत्त तो कभी कमाल अमरोही तो कभी साहिर लुधियानवी की याद आ सकती है.आप मीना कुमारी और मधुबाला को भी सोहा अली खान में देख सकते हैं.यह फिल्म आप ज़रूर देखें। दूसरी फिल्म नया प्रयोग है.एक फिल्म में दस कहानियाँ.अलग अलग १० कहानियो को एक साथ मनोरंजन का गुलदस्ता पेश किया है संजय गुप्ता ने.इस फिल्म में शाबान आज़मी,मनोज बज्पाई और नाना पाटेकर कि कहानियाँ देखने लायक हैं.

अकेलेपन से मुक्त करती हैं फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के प्रभाव, कार्य और दायित्व को लेकर बहसें हमेशा होती रही हैं। हर दौर में तात्कालिक और सामाजिक स्थितियों के अनुसार, फिल्मों के स्वरूप और प्रभाव को समझा और समझाया गया है। पिछले दिनों शाहरुख खान ने 38वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए दो बातों पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हम सपने बेचते हैं। ऐसे सपने, जो पूरे होते हैं और कभी-कभी अधूरे ही रह जाते हैं। दूसरा, फिल्में अकेलेपन से मुक्ति देती हैं। सपने बेचने की बात एक जमाने से कही जा रही है। शायद यही वजह है कि फिल्मकारों को सपनों का सौदागर भी कहा जाता है। सपने नींद में भले ही खलल डालते हों, लेकिन जिंदगी में सपने हमें एक उम्मीद से भर देते हैं। हम अपनी कठिनाइयों में भी उस उम्मीद की लौ को जलाए रहते हैं और कुछ पाने या कर गुजरने की संभावना में संघर्ष से नहीं सकुचाते। हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों में सपनों पर ज्यादा जोर दिया गया है। सपनों की यह अतिरंजना वास्तविकता से पलायन का मौका देती है। हिंदी फिल्मों को पलायनवादी कहा भी जाता है। आजादी के बाद से सपनों को बेचने का यह कारोबार चल रहा है।

हिट और फ्लॉप का समीकरण-२

कल के पोस्ट को काफी लोगों ने padhaa .कुछ ने चवन्नी को फ़ोन भी किया.लेकिन चवन्नी का अनुभव है कि कुछ भावुक या अतीत के बखान में कुछ लिखो तो लोग टिप्पण्णियाँ करते हैं.आज की बात करो तो लोग पढ़ कर किनारा कर जाते हैं.उन्हें शायद लगता हो कि यह तो हम भी जानते हैं.चवन्नी कोई शिक़ायत नही कर रहा.ब्लॉग की दुनिया में भी रहीम का कथन उपयुक्त है...रहिमन निज मन की व्यथा मन ही रखो गोय ,सुनी इठलैंहै लोग सब बांटि न लैंहै कोय । बहरहाल,बात आगे शुरू करें .चवन्नी के मित्र ने ब्रिटेन से सूचित किया कि लंदन और न्यूयॉर्क के टिकेट राते सही नही हैं.सही देना मकसद नही था.चवन्नी का सारा ध्यान इस तथ्य को सामने लाने में था कि इन दिनों फिल्मों के व्यापारी (निर्माता,निर्देशक और एक्टर) यह नही देखते कि उनकी फिल्म को कितने दर्शकों ने देखा.उनके लिए वह रकम खास होती है जो दर्शक देते हैं.महानगरों,विदेशी शहरों और मल्टीप्लेक्स से प्रति दर्शक ज्यादा पैसे आते हैं,इसलिए फिल्म के विषय और परिवेश पर उन दर्शकों की रूचि का प्रभाव दिखता है। यह अचानक नही हुआ है कि हिन्दी फिल्मों में सिर्फ संवाद हिन्दी में होते हैं,बाकी सब में सावधानी बरती ज

हिट और फ्लॉप का समीकरण

चवन्नी कुछ ऐसी बातें बताना चाहता है ,जिसके बारे में आप सभी जानना चाहते होंगे.अब जैसे हिट और फ्लॉप की ही बात करें.कई बार आपको ताज्जुब होता होगा कि अरे यार यह फिल्म तो कोई खास नही चली थी,फिर हिट कैसे हो गयी.इसी तरह कई बार आप खुद से ही पूछते होंगे कि फलां फिल्म तो हमारे इलाक़े में खूब चली ,लेकिन फ्लॉप कैसे हो गयी.तो हिट और फ्लॉप का पूरा लम्बा-चौड़ा खेल है.इस खेल में फिल्म स्टार,निर्माता-निर्देशक,वितरक,प्रदर्शक और चवन्नी छाप दर्शक भी शामिल रहते हैं.यह घलात्फह्मी दिल-ओ-दिमाग से निकल दीजिए कि केवल दर्शक ही किसी फिल्म के भाग्य का फैसला करते हैं.अरे हाँ,मीडिया का भी रोल होता है.आजकल एक पोपुलर हीरो और प्रोड्यूसर मीडिया के लोगों को धन्यवाद पत्र के साथ उपहार भी भिजवा रहे हैं,क्योंकि मीडिया बिरादरी उनके प्रति उदार रही है.यहाँ स्पष्ट हो लें कि फिल्म बिरादरी के लिए मीडिया का मतलब इंग्लिश प्रेस और एल्क्ट्रोनिक मीडिया होता है.इसमें हिन्दी या अन्य भाषायी प्रेस शामिल नही हैं। हिट और फ्लॉप हिट और फ्लॉप फिल्मों के बारे में सोचते और सुनते ही हमें लगता है कि किसी फिल्म को ज्यादा से ज्यादा दर्शकों ने देखा होग

फिल्मों का लोकतंत्र

अक्षय कुमार आमिर खान रितिक रोशन सलमान खान शाहरुख़ खान फिल्मों के इन पॉपुलर अभिनेताओं के नाम चवन्नी ने अकारादि क्रम में लिखे हैं.चवन्नी दवा नही कर सकता कि इनमे से कौन आगे है और कौन पीछे?पिछले दिनों एक ट्रेड विशेषज्ञ ने एक अंग्रेजी अखबार के सन्डे सप्लीमेंट में लम्बा सा लेख लिखा और बताया कि ये पांच स्टार ही हैं,जो हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री चला रहे हैं.आप पूरा लेख पढ़ जाये और अगर आप पंक्तियों के बीच पढना जानते हों या लेख का निहितार्थ समझने में माहिर हों तो आसानी से अनुमान लगा लेंगे कि पूरा लेख यह बताने के लिए लिखा गया है कि देश के सबसे बडे स्टार शाहरुख़ खान हैं और उनके बाद चार और नाम लिए जा सकते हैं.चवन्नी तफसील में जाकर नही बताना चाहता कि यह लेख क्यों लिखा गया है और इस लेख से क्या साबित किया जा रहा है? एक आम धरने है राजनीति में जो ज्यादा वोट ले आये,वो सबसे बड़ा नेता और फिल्मों में जो सबसे ज्यादा दर्शक ले आये,वो सबसे बड़ा अभिनेता.लोकतंत्र तो यही कहता है.फिल्मों के लिओक्तंत्र में सबसे जयादा दर्शक बटोरने वाले अभिनेता को ही सुपरस्टार और बादशाह और शहंशाह आदि आदि कहा जाता है.हम सभी जानते हैं कि प

बच ले,बच ले,यशराज तू बच ले

यही होना था.उत्तर प्रदेश में मायावती की भृकुटी तनी और इधर यशराज कैंप में हड़कंप मच गया.मायावती को आपत्ति थी कि फिल्म के शीर्षक गीत में मोची भी बोले वह सोनार है पंक्ति उपयोग हुआ जातिसूचक शब्द खेदजनक है.इस शब्द से एक जाति विशेष का अपमान हुआ है.अब यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि गीतकार पीयूष मिश्र ने यहाँ किस संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग किया है.तिल का ताड़ बना देने वालों से बहस नही की जा सकती और जब मामला सवेंदनशील हो तो बिल्कुल ही बात नही की जा सकती। हिन्दी साहित्य और लोकगीतों में खुल कर जाती सूचक शब्दों का इस्तेमाल हुआ है.क्या हम सारे साहित्य से चुन-चुन कर ऐसे शब्दों को निकालेंगे?और अगर निकाल दिए तो क्या साहित्य का वही मर्म रह जाएगा?ताज्जुब है कि देश के बुद्धिजीवी इस मामले में खामोश हैं.कोई कुछ भी नही बोल रहा है.मायावती का विरोध करने के बजाए एक-दो स्वर उनके समर्थन में ही सुनाई पड़े कि आप जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल कर किसी की भावना को ठेस नहीं पहुँचा सकते। यशराज ने अपना पक्ष रखने के बजाए माफ़ी माँग लेने में भलाई समझी.पहले फिल्मकार बहस करते थे,अपना पक्ष रखते थे और कोर्ट तक जाते थे.उन्हें

आजा नचले: पूरी तरह फिट बैठी माधुरी

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-अजय ब्रह्मात्मज आजा नचले की सबसे बड़ी खासियत सहयोगी कलाकारों का सही चुनाव है। धन्यवाद, अक्षय खन्ना, इरफान, रघुवीर यादव, रणवीर शौरी, कुणाल कपूर, कोंकणा सेन, दिव्या दत्ता, विनय पाठक और यशपाल शर्मा का ़ ़ ़ इन सभी ने मिलकर नायिका दीया (माधुरी दीक्षित) को जबर्दस्त सपोर्ट दिया है। माधुरी दीक्षित के तो क्या कहने? इस उम्र में भी नृत्य की ऐसी ऊर्जा? नई हीरोइनें सबक ले सकती हैं कि दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग पर छाने के लिए कैसी लगन और कितनी मेहनत चाहिए। अनिल मेहता की आजा नचले की थीम चक दे इंडिया से मिलती जुलती है। वहां माहौल खेल का था, यहां माहौल नृत्य और संगीत का है। फिल्म उतनी ही असरदार है। सबके जेहन में सवाल था कि पांच साल की वापसी के बाद माधुरी दीक्षित पर्दे पर अपना जादू चला पाएंगी या नही? आदित्य चोपड़ा और जयदीप साहनी ने उन्हें ऐसी स्क्रिप्ट दी है कि माधुरी फिल्म में पूरी तरह फिट बैठती हैं। 35 पार कर चुके दर्शक अपनी धक धक गर्ल पर फिर से सम्मोहित हो सकते हैं। नई उम्र के दर्शक देख सकते हैं कि नृत्य केवल स्टेप्स या ऐरोबिक नहीं होता, उसमें भाव होता है, भंगिमा भी होती है। माधुरी सिद्ध करती हैं कि नृ