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हिन्दी टाकीज:दर्शक की यादों में सिनेमा -रवीश कुमार

हिन्दी टाकीज-7 रवीश कुमार को उनके ही शब्दों में बताएं तो...हर वक्त कई चीज़ें करने का मन करता है। हर वक्त कुछ नहीं करने का मन करता है। ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं। पर खुद के प्रति गंभीर नहीं हूं। मैं बोलने को लिखने से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं क्योंकि यही मेरा पेशा भी है। ...रवीश ने हिन्दी टाकीज के ये आलेख अपने ब्लॉग पर बहुत पहले डाले थे,लेकिन चवन्नी के आग्रह पर उन्होंने अनुमति दी की इसे चवन्नी के ब्लॉग पर पोस्ट किया जा सकता है.जिन्होंने पढ़ लिया है वे दोबारा फ़िल्म देखने जैसा आनंद लें और जो पहले पाठक हैं उन्हें तो आनंद आएगा ही .... जो ठीक ठीक याद है उसके मुताबिक पहली बार सिनेमा बाबूजी के साथ ही देखा था। स्कूटर पर आगे खड़ा होकर गया था। पीछे मां बैठी थी। फिल्म का नाम था दंगल। उसके बाद दो कलियां देखी। पटना के पर्ल सिनेमा से लौटते वक्त भारी बारिश हो रही थी। हम सब रिक्शे से लौट रहे थे। तब बारिश में भींगने से कोई घबराता नहीं था। हम सब भींगते जा रहे थे। मां को लगता था कि बारिश में भींगने से घमौरियां ठीक हो जाती हैं। तो वो खुश थीं। हम सब खुश थे। बीस रुपये से भी कम में चार लोग सिनेमा

फ़िल्म समीक्षा :रॉक ऑन

दोस्ती की महानगरीय दास्तान -अजय ब्रह्मात्मज फरहान अख्तर की पहली फिल्म दिल चाहता है में तीन दोस्तों की कहानी थी। फिल्म काफी पसंद की गई थी। इस बार उनकी प्रोडक्शन कंपनी ने अभिषेक कपूर को निर्देशन की जिम्मेदारी दी। दोस्त चार हो गए। महानगरीय भावबोध की रॉक ऑन मैट्रो और मल्टीप्लेक्स के दर्शकों के लिए मनोरंजक है। आदित्य, राब, केडी और जो चार दोस्त हैं। चारों मिल कर एक बैंड बनाते हैं। आदित्य इस बैंड का लीड सिंगर है और वह गीत भी लिखता है। उसके गीतों में युवा पीढ़ी की आशा-निराशा, सुख-दुख, खुशी और इच्छा के शब्द मिलते हैं। चारों दोस्तों का बैंड मशहूर होता है। उनका अलबम आने वाला है और म्यूजिक वीडियो भी तैयार हो रहा है। तभी एक छोटी सी बात पर उनका बैंड बिखर जाता है। चारों के रास्ते अलग हो जाते हैं। दस साल बाद आदित्य की पत्नी के प्रयास से चारों दोस्त फिर एकत्रित होते हैं। उनका बैंड पुनर्जीवित होता है। आपस के मतभेद और गलतफहमियां भुलाकर सब खुशहाल जिंदगी की तरफ बढ़ते हैं। लेखक-निर्देशक अभिषेक कपूर ने रोचक पटकथा लिखी है। ऊपरी तौर पर फिल्म में प्रवाह है। कोई भी दृश्य फालतू नहीं लगता लेकिन गौर करने पर हम पाते

फ़िल्म समीक्षा:चमकू

-अजय ब्रह्मात्मज यथार्थ का फिल्मी चित्रण शहरी दर्शकों के लिए इस फिल्म के यथार्थ को समझ पाना सहज नहीं होगा। फिल्मों के जरिए अंडरव‌र्ल्ड की ग्लैमराइज हिंसा से परिचित दर्शक बिहार में मौजूद इस हिंसात्मक माहौल की कल्पना नहीं कर सकते। लेखक-निर्देशक कबीर कौशिक ने वास्तविक किरदारों को लेकर एक नाटकीय और भावपूर्ण फिल्म बनाई है। फिल्म देखते वक्त यह जरूर लगता है कि कहीं-कहीं कुछ छूट गया है। एक काल्पनिक गांव भागपुर में खुशहाल किसान परिवार में तब मुसीबत आती है, जब गांव के जमींदार उससे नाराज हो जाते हैं। वे बेटे के सामने पिता की हत्या कर देते हैं। बेटा नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वहीं उसकी परवरिश होती है। बड़ा होने पर चमकू नक्सल गतिविधियों में हिस्सा लेता है। एक मुठभेड़ में गंभीर रूप से घायल होने के बाद वह खुद को पुलिस अस्पताल में पाता है। वहां उसके सामने शर्त रखी जाती है कि वह सरकार के गुप्त मिशन का हिस्सा बन जाए या अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठे। चमकू गुप्त मिशन का हिस्सा बनता है। वह मुंबई आ जाता है, जहां वह द्वंद्व और दुविधा का शिकार होता है। वह इस जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता है लेकिन अपराध जगत की त

बॉक्स ऑफिस:२९.०८.२००८

नही चला मल्लिका का जादू सिंह इज किंग ने यह ट्रेंड चालू कर दिया है कि शुक्रवार को फिल्म रिलीज करो और अगले सोमवार को कामयाबी का जश्न मना लो। इसके दो फायदे हैं- एक तो ट्रेड में बात फैलती है कि फिल्म हिट हो गयी है और दूसरे कामयाबी के जश्न की रिपोर्टिग देख, सुन और पढ़ कर दूसरे शहरों के दर्शकों को लगता है कि फिल्म हिट है, तभी तो पार्टी हो रही है। इस तरह कामयाबी के प्रचार से फिल्म को नए दर्शक मिल जाते हैं। पिछले सोमवार को फूंक की कामयाबी की पार्टी थी। एक बुरी फिल्म की कामयाबी का जश्न मनाते हुए निर्देशक राम गोपाल वर्मा की संवेदना अवश्य आहत हुई होगी। मन तो कचोट रहा होगा, लेकिन कैसे जाहिर करें? बहरहाल, फूंक के प्रचार से आरंभिक दर्शक मिले। पहले दिन इसका कलेक्शन 70 प्रतिशत था। राम गोपाल वर्मा की पिछली फिल्मों के व्यापार को देखते हुए इसे जबरदस्त ओपनिंग मान सकते हैं। शनिवार को दर्शक बढ़े, लेकिन रविवार से दर्शक घटने आरंभ हो गए। इस फिल्म की लागत इतनी कम है कि सामान्य बिजनेस से भी फिल्म फायदे में आ गयी है। मान गए मुगले आजम और मुंबई मेरी जान का बुरा हाल रहा। संजय छैल की मान गए मुगले आजम देखने दर्शक गए

फिल्मी पर्दे और जीवन का सच

-अजय ब्रह्मात्मज कुछ दिनों पहले शबाना आजमी ने बयान दे दिया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें (पति जावेद अख्तर समेत) मुंबई में मकान नहीं मिल पा रहा है। उनके बयान का विरोध हो रहा है। शबाना का सामाजिक व्यक्तित्व ओढ़ा हुआ लगता है, लेकिन अपने इस बयान में उन्होंने उस कड़वी सच्चाई को उगल दिया है, जो भारतीय समाज में दबे-छिपे तरीके से मौजूद रही है। मुंबई की बात करें, तो अयोध्या की घटना के बाद बहुत तेजी से सामुदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। निदा फाजली जैसे शायर को अपनी सुरक्षा के लिए मुस्लिम बहुल इलाके में शिफ्ट करना पड़ा। गैर मजहबी और पंथनिरपेक्ष किस्म के मुसलमान बुद्धिजीवियों, शायरों, लेखकों और दूसरी समझदार हस्तियों ने अपने ठिकाने बदले। आम आदमी की तो बात ही अलग है। अलिखित नियम है कि हिंदू बहुल सोसाइटी और बिल्डिंग में मुसलमानों को फ्लैट मत दो। हिंदी सिनेमा बहुत पहले से इस तरह के सामाजिक भेदभाव दर्शाता रहा है। देश में मुसलमानों की आबादी करीब बीस प्रतिशत है, लेकिन फिल्मों में उनका चित्रण पांच प्रतिशत भी नहीं हो पाता। मुख्यधारा की कॉमर्शिअॅल फिल्मों में कितने नायकों का नाम खुर्शीद, अनवर या शाहरुख होता है? न

हिन्दी टाकीज: फ़िल्में, बचपन और छोटू उस्ताद-रवि रतलामी

हिन्दी टाकीज-6 हिन्दी टाकीज में इस बार रवि रतलामी.ब्लॉग जगत के पाठकों को रवि रतलामी के बारे में कुछ भी नया बताना नामुमकिन है.उनके कार्य और योगदान के हम सभी कृतज्ञ हैं.उन्होंने चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया और यह सुंदर आलेख भेजा.इस कड़ी को कम से कम १०० तक पहुँचाना है.चवन्नी का आप सभी से आग्रह है कि आप अपने अनुभव और संस्मरण बांटे.आप अपने आलेख यूनिकोड में chavannichap@gmail.com पर भेजें. फ़िल्में, बचपन और छोटू उस्ताद पिछली गर्मियों में स्पाइडरमैन 3 जब टॉकीज में लगी थी तो घर के तमाम बच्चों ने हंगामा कर दिया कि वो तो टॉकीज पर ही फ़िल्म देखने जाएंगे और वो भी जितनी जल्दी हो सके उतनी. उन्हें डीवीडी, डिश या केबल पर इसके दिखाए जाने तक का इंतजार कतई गवारा नहीं था. और उसमें हमारा हीरो छोटू भी था. बच्चे उठते बैठते, खाते पीते अपने अभिभावकों को प्रश्न वाचक दृष्टि से देखते रहते कि उन्हें हम कब फ़िल्म दिखाने ले जा रहे हैं. अंततः जब छोटू ने स्पाइडरमैन फ़िल्म देखने के नाम पर खाना पीना बंद कर बुक्के फाड़कर रोना पीटना शुरू कर दिया कि उनके पापा-मामा तीन मर्तबा वादा करने के बाद भी स्पाइडरमैन दिखाने नहीं ले ज

फ़िल्म समीक्षा:मुंबई मेरी जान

मुंबई के जिंदादिल चरित्र ऐसी फिल्मों में कथानक नहीं रहता। चरित्र होते हैं और उनके चित्रण से ही कथा बुनी जाती है। हालांकि फिल्म के पोस्टर पर पांच ही चरित्र दिखाए गए हैं, लेकिन यह छह चरित्रों की कहानी है। छठे चरित्र सुनील कदम को निभाने वाला कलाकार अपेक्षाकृत कम जाना जाता है, इसलिए निर्माता ने उसे पोस्टर पर नहीं रखा। फिल्म के निर्देशक निशिकांत कामत हैं और वे सबसे पहले इस उपक्रम के लिए बधाई के पात्र हैं कि आज के माहौल में वे ऐसी भावनात्मक और जरूरी फिल्म लेकर आए हैं। 11 जुलाई 2006 को मुंबई के लोकल ट्रेनों में सीरियल बम विस्फोट हुए थे। एक बारगी शहर दहल गया था और इसका असर देश के दूसरे हिस्सों में भी महसूस किया गया था। बाकी देश में चिंताएं व्यक्त की जा रही थीं, लेकिन अगले दिन फिर मुंबई अपनी रफ्तार में थी। लोग काम पर जा रहे थे और लोकल ट्रेन का ही इस्तेमाल कर रहे थे। मुंबई के इस जोश और विस्फोट के प्रभाव को निशिकांत कामत ने विभिन्न चरित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। उनके सभी चरित्र मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवेश के हैं। न जाने क्यों उन्होंने शहर के संपन्न और सुरक्षित तबके के चरित्रों को

फ़िल्म समीक्षा:फूँक

डर लगा राम गोपाल वर्मा के लिए फूंक डराती है। यह डर फिल्म देखने के बाद और बढ़ जाता है। डर लगता है कि राम गोपाल वर्मा और क्या करेंगे? प्रयोगशील और साहसी निर्देशक राम गोपाल वर्मा हर विधा में बेहतर फिल्म बनाने के बाद खुद के स्थापित मानदंडों से नीचे आ रहे हैं। डर लग रहा है कि एक मेधावी निर्देशक सृजन की वैयक्तिक शून्यता में लगातार कमजोर और साधारण फिल्में बना रहा है। फूंक रामू के सृजनात्मक क्षरण का ताजा उदाहरण है। पूरी फिल्म इस उम्मीद में गुजर जाती है कि अब डर लगेगा। काला जादू के अंधविश्वास को लेकर रामू ने लचर कहानी बुनी है। फिल्म की घटनाओं, दृश्य और प्रसंग का अनुमान दर्शक पहले ही लगा लेते हैं। फिल्म खतरनाक तरीके से काला जादू में यकीन करने की हिमायत करती है और उसके लिए बाप-बेटी के कोमल भावनात्मक संबंध का उपयोग करती है। रामू से ऐसी पिछड़ी और प्रतिगामी सोच की अपेक्षा नहीं की जाती। फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करती, भारतीय समाज में वे दर्शकों की मानसिकता भी गढ़ती हैं। एक जिम्मेदार निर्देशक से अपेक्षा रहती है कि वह मनोरंजन के साथ कोई विचार भी देगा। मुख्य कलाकार : सुदीप, अमृता खनविलकर, अहसास चान

फ़िल्म समीक्षा:मान गए मुगलेआज़म

छेल हुए फेल कैसे मान लें कि जो अच्छा लिखते और सोचते हैं, वे अच्छी फिल्म नहीं बना सकते? मान गए मुगलेआजम देख कर मानना पड़ता है कि संजय छैल जैसे संवेदनशील, चुटीले और विनोदी प्रकृति के लेखक भी फिल्म बनाने में चूक कर सकते हैं। फिल्म की धारणा भी आयातित और चोरी की है, इसलिए छैल की आलोचना होनी ही चाहिए। ऐसी फिल्मों के लिए निर्माता से ज्यादा लेखक और निर्देशक दोषी हैं। गोवा के सेंट लुईस इलाके में कलाकार थिएटर कंपनी के साथ जुड़े कुछ कलाकार किसी प्रकार गुजर-बसर कर रहे हैं। अंडरव‌र्ल्ड पर नाटक करने की योजना में विफल होने पर वे फिर से अपना लोकप्रिय नाटक मुगलेआजम करते हैं। अनारकली बनी (मल्लिका सहरावत) शबनम का एक दीवाना अर्जुन (राहुल बोस) है। जब भी उसके पति उदय शंकर मजूमदार (परेश रावल) अकबर की भूमिका निभाते हुए पांच मिनट का एकल संवाद आरंभ करते हैं, अर्जुन उनकी पत्नी से मिलने मेकअप रूम में चला जाता है। बाद में पता चलता है कि वह रा आफिसर है। इंटरवल तक के विवाहेतर संबंध के इस मनोरंजन के बाद ड्रामा शुरू होता है। रा आफिसर थिएटर कंपनी के कलाकारों की मदद से आतंकवादियों की खतरनाक योजना को विफल करता है। ट्रीट

समाज को चाहिए कुछ विद्रोही-महेश भट्ट

दावानल खबरों में है। कैलिफोर्निया के जंगल की आग तबाह कर रही है। इन पंक्तियों को लिखते समय मैं टीवी पर आग की लपटें देख रहा हूं। कम ही लोग महसूस कर पाते हैं कि आग पर्यावरण का जरूरी हिस्सा है, क्योंकि यह पुराने को जला देती है और नए विकास के लिए जगह बनाती है। इसी प्रकार विद्रोही भी जरूरी होते हैं। संस्कृति के पर्यावरण को सुव्यवस्थित और विकसित करने के लिए उनकी जरूरत पडती है। जंगल की आग की तरह वे भी पुराने को जला देते हैं। विद्रोही संस्कृति की मोर्चेबंदी को तोडते हैं और जिंदगी के नए अवतार के लिए जगह बनाते हैं। विद्रोह के परिणाम तुम वही क्यों नहीं करते, जो तुम्हें कहा जाता है? स्कूल के दिनों में मुझे अपने शिक्षक से अकसर यह डांट मिलती थी। पर आप जो समझाते और कहते हैं, उस तरह से आप खुद जीवन बसर नहीं करते। आप मुझे ईमानदार होने के लिए कहते हैं और मैं पाता हूं कि मेरे आसपास हर आदमी अपने दावे के विपरीत काम कर रहा है। मेरे पूर्वज उन भिक्षुओं की तरह थे, जो आदर्श की माला जपते रहे, लेकिन जीवन में उन्हें नहीं उतार सके। जो शिक्षक मुझे शिवाजी के साहस के बारे में बता रहे थे, वे स्कूल के बाहर खडी उत्तेजित भी