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पटना के सिनेमाघरों में मैं फिल्म क्यों नहीं देखूंगी ... अंजलि सिंह

अंजलि सिंह का यह लेख मुंबई से प्रकाशित द फिल्म स्ट्रीट जर्नल के पेज - १३ पर 1-7 जुलाई, 2007 को प्रकाशित हुआ था.चूंकि इस लेख में पटना के सिनेमाघरों की वास्तविकता की एक झलक है,इसलिए इसे चवन्नी में पोस्ट किया जा रहा है.उम्मीद है कि इस पर ब्लॉगर दोस्तों का सुझाव मिलेगा। हम अंजलि सिंह के आभारी हैं कि उन्होंने इस तरफ़ इशारा किया. आम तौर पर फिल्म देखने जाना एक खुशगवार अनुभव माना जाता है। लेकिन मेरे और मेरे शहर की दूसरी लड़कियों के लिए फिल्म देखने जाना ऐसा अनुभव है, जिसे हम बार-बार नहीं दोहराना चाहतीं। मैं पटना की बात कर रही हूं। पटना अपने पुरुषों की बदमाशी के लिए मशहूर है। जब भी मैंने पटना के सिनेमाघर में फिल्म देखने की हिम्मत की, हर बार यही कसम खाकर लौटी कि फिर से सिनेमाघर जाने से बेहतर है कि घर मैं बैठी रहूं। आप सोच रहे होंगे कि सिनेमाघर जाने में ऐसी क्या खास बात है? लेकिन पटना की लड़कियों को सिनेमा जाने के पहले 'कुछ जरूरी तैयारियां' करनी पड़ती हैं। वह परेशानी सचमुच बड़ी बात है। कालेज के दिनों की बात है, तब मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे। मैंने अपनी दोस्तों

ऐक्शन-कॉमेडी दोनों हैं चांदनी चौक टू चाइना में : रोहन सिप्पी

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कई फिल्में बना चुके रोहन सिप्पी की नई फिल्म है चांदनी चौक टू चाइना। अक्षय कुमार और दीपिका पादुकोण अभिनीत इस फिल्म को लेकर उनसे बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके अंश.. फिल्म का आइडिया कैसे आया? श्रीधर राघवन ने यह फिल्म लिखी है। कहानी अक्षय कुमार को पसंद आ गई। दोनों उस पर काम कर रहे थे। पहले इसे श्रीराम राघवन डायरेक्ट करने वाले थे, लेकिन वे किसी और प्रोजेक्ट में व्यस्त हो गए। इस बीच सलाम-ए-इश्क रिलीज हुई। मेरी निखिल से बात हुई। उन्हें भी फिल्म की स्क्रिप्ट पसंद आई। इस तरह फिल्म शुरू हो गई। अक्षय की निजी जिंदगी और फिल्म की कहानी में समानता है? श्रीधर ने उनके साथ खाकी में काम किया था। उस फिल्म के समय ही इसका आइडिया आया था। फिल्म और उनकी निजी जिंदगी में कुछ बातें एक जैसी जरूर हैं, लेकिन दोनों में काफी अंतर भी है। सबसे बड़ा अंतर यही है कि फिल्म का अंत है, लेकिन अक्षय का करियर तो लगातार आगे बढ़ता जा रहा है! फिल्म में कुछ ऐसे तत्व हैं, जिनमें उनकी जिंदगी की झलक मिल सकती है। हम सभी जानते हैं कि वे इस फिल्म के पहले चीन नहीं गए थे। हमारी कहानी का एक हिस्सा चीन में ही है। यह एक आम लड़के की कहानी है, ज

मासूम प्रेम की फिल्में अब नहीं बनतीं-महेश भट्ट

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सन् 1973 हिंदी सिनेमा के लिए महत्वपूर्ण है और मेरे लिए भी। उसी साल मैंने अपनी पहली विवादास्पद फिल्म मंजिलें और भी हैं के निर्देशन के साथ हिंदी फिल्मों का अपना सफर आरंभ किया था। उसी वर्ष हिंदी फिल्मों के महान शोमैन राज कपूर ने मेरा नाम जोकर से हुए भारी नुकसान की भरपाई के लिए किशोर उम्र की प्रेम कहानी पर आधारित फिल्म बॉबी बनाई। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बनी टीनएज प्रेम कहानियों में अभी तक इस फिल्म का कोई सानी नहीं है। 35 सालों के बाद मैं आज इसी फिल्म से अपने लेख की शुरुआत कर रहा हूं। समय की धुंध को हटाकर पीछे देखता हूं तो पाता हूं कि किसी और फिल्म निर्माता ने राज कपूर की तरह किशोरों के मासूम प्रेम को सेल्यूलाइड पर नहीं उकेरा। स्वीट सिक्सटीन वाले रोल बॉबी के पहले उम्रदराज हीरो और हीरोइन हिंदी फिल्मों में किशोर उम्र के प्रेमियों की भूमिकाएं निभाया करते थे। हम ऐसी फिल्में देखकर खूब हंसते थे। मैंने 1970 में राज खोसला के सहायक के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। उन दिनों वे दो रास्ते का निर्देशन कर रहे थे। इसमें राजेश खन्ना और मुमताज की रोमांटिक जोडी थी। उनकी उम्र बीस के आसपास रही होगी।

फ़िल्म समीक्षा:बैडलक गोबिंद, काश...मेरे होते और द प्रसिडेंट इज कमिंग की संयुक्त समीक्षा

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प्रथमग्रासे मच्छिकापात हिंदी फिल्मों में बुरी फिल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है। फिर भी अगर दो-तीन फिल्में एक साथ रिलीज हो रही हों तो उम्मीद रहती है कि कम से कम एक थोड़ी ठीक होगी। इस बार वह उम्मीद भी टूट गई। इस हफ्ते दो हिंदी और एक अंग्रेजी फिल्म रिलीज हुई। तीनों साधारण निकलीं और तीनों ने मनोरंजन का स्वाद खराब किया। तीनों फिल्मों का अलग-अलग एक्सरे उचित नहीं होगा, इसलिए कुछ सामान्य बातें.. युवा फिल्मकार फिल्म के नैरेटिव पर विशेष ध्यान नहीं देते। सिर्फ एक विचार, व्यक्ति या विषय लेकर किसी तरह फिल्म लिखने की कोशिश में वे विफल होते हैं। बैडलक गोबिंद का आइडिया अच्छा है, लेकिन उस विचार को फिल्म के लेखक और निर्देशक कहानी में नहीं ढाल पाए। काश ़ ़ ़ मेरे होते का आइडिया नकली है। यश चोपड़ा की डर ने प्रेम की एकतरफा दीवानगी का फार्मूला दिया। इस फार्मूले के तहत कई फिल्में बनी हैं। इसमें शाहरुख खान वाली भूमिका सना खान ने की है। द प्रेसिडेंट इज कमिंग अंग्रेजी में बनी है और इसकी पटकथा भी ढीली है। ऐसा लगता है कि लेखक के दिमाग में जब जो बात आ गई, उसे उसने दृश्य में बदल दिया। इधर के लेखक-निर्देशक हिंदी फ

एक तस्वीर:नीतू चंद्रा

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दरअसल:इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल छोटे शहरों में

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-अजय ब्रह्मात्मज हरियाणा के यमुनानगर में 24 से 29 दिसंबर, 2008 के बीच इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स संपन्न हुआ। इस महत्वपूर्ण आयोजन में हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के 200 छात्रों ने भाग लिया। मुख्य रूप से लेखक-पत्रकार अजीत राय की अवधारणा से यह संभव हो सका। राय मानते हैं कि फिल्म फेस्टिवल का आयोजन देश के छोटे शहरों में भी हो, ताकि सिनेमा के प्रति युवा दर्शकों की सुरुचि का विकास हो। वे विश्व सिनेमा की समृद्ध सिनेमा से परिचित हों और अपने लिए उपलब्ध सिनेमा में अच्छे और बुरे का फर्क कर सकें। गौर करें, तो गोवा के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से लेकर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, तिरुअनंतपुरम, पूना आदि शहरों में होने वाले फिल्म फेस्टिवलों से शहरों के दर्शक ही लाभ उठा पाते हैं। इन सभी फेस्टिवल का एक तरीका बन गया है, जिसमें ऐसी गुंजाइश नहीं रखी जाती कि उनमें छोटे शहर, कस्बा और गांवों के दर्शकों की भागीदारी हो सके। लिहाजा फिल्म फेस्टिवल देश के संभ्रांत और संपन्न दर्शकों तक ही सीमित रह जाते हैं। इधर एक सुगबुगाहट दिख रही है। तीन साल पहले बिहार सरकार के

बॉक्स ऑफिस:०७.०१.२००९

गजनी की कमाई 100 करोड़ से ज्यादा गजनी के निर्माताओं ने 170 करोड़ की सकल आय (ग्रौसर) का विज्ञापन चला रखा है। ट्रेड सर्किल में गजनी की कमाई को लेकर बहस चल रही है। हर मामले में असंतुष्ट रहने वाले विश्लेषक बता रहे हैं कि गजनी की वास्तविक आय ज्यादा नहीं होगी। तर्क यह है कि कारपोरेट हाउस के सक्रिय होने और मल्टीप्लेक्स संस्कृति आने के बाद कोई भी फिल्म जबरदस्त मुनाफे में नहीं आ सकी है। दूसरी तरफ कुछ ट्रेड विश्लेषकबता रहे हैं कि गजनी इस दशक में सौ करोड़ की कमाई करने वाली पहली फिल्म होगी। कमाई कम-ज्यादा हो सकती है, लेकिन इसमें अब दो राय नहीं रही कि गजनी पिछले साल की सबसे बड़ी हिट है। उसे एक हफ्ते का खाली मैदान मिला और इस हफ्ते भी उसके दर्शकों को अपनी तरफ खींचने वाली कोई फिल्म रिलीज नहीं हो रही है। अक्षय कुमार की चांदनी चौक टू चाइना आने के बाद ही गजनी के दर्शकों में उल्लेखनीय गिरावट आ सकती है। आमिर खान की गजनी ने देश के अंदर और बाहर के दर्शकों को आकर्षित किया है। तात्पर्य यह कि गजनी छोटे शहरों से लेकर विदेशी शहरों तक में चल रही इस तरह आमिर खान के दर्शकों का विस्तार हुआ है। रब ने बना दी जोड़ी दूसर

हरियाणा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल:झटपट सर्वेक्षण - १:पहली फिल्म

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दिसंबर के अंत में हरियाणा के प्रथम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में यमुनानगर जाने का मौका मिला। इस अवसर का लाभ उठाते हुए इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में हिस्सा ले रहे छात्रों के बीच हमने एक झटपट सर्वेक्षण किया। मुख्य रूप से 18 से 22 साल के छात्रों के बीच हमने दस सवाल बांटे। हमें 137 प्रविष्टियां वापस मिलीं। एक सवाल था कि आपने पहली फिल्म कौन सी देखी? पहली फिल्म के तौर पर छात्रों ने 59 फिल्मों के नाम दिए। जाहिर सी बात है कि पहली फिल्म कोई भी हो सकती थी। साथ में हमने यह भी पूछा था कि पहली फिल्म कहां देखी? टीवी पर, वीडियो के जरिए या सिनेमाघरों में? लगभग 50 फीसदी ने पहली फिल्म टीवी या वीडियो के जरिए देखी। हां, 50 फीसदी से थोड़े कम सिनेमाघरों में गए। इससे पता चलता है कि हरियाणा में सिनेमाघरों में जानेवाले दर्शक पचास प्रतिशत से कम हैं। सिनेमा के विकास के लिहाज से यह संतोषजनक आंकड़ा नहीं कहा जा सकता। इन दिनों मुंबई के निर्माता उत्तर भारतीय समाज के विषयों पर फिल्मों नहीं बना रहे हैं। उसकी एक बड़ी वजह है कि उन्हें उत्तर भारत के सिनेमाघरों से रिटर्न नहीं मिलता। चूंकि मुख्य कमाई मुंबई, दूसरे म

गजनी,गुप्त ज्ञान,दीदी और दादी

एक दीदी हैं मेरी.दिल्ली में रहती हैं.अभी पिछले दिनों दिल्ली जाना हुआ तो उनसे मुलाक़ात हुई.मुलाक़ात के पहले ही उनके बेटे ने बता दिया था की माँ आमिर खान से बहुत नाराज़ हैं.मुझे लगा की गजनी देख कर आमिर खान से नाखुश हुए प्रशंसकों में से वह भी एक होंगी.बहरहाल.मिलने पर मैंने ही पूछा,कैसी लगी गजनी.उन्होंने भोजपुरी में प्रचलित सभी सभ्य गलिया दिन और कहा भला ऐसी फ़िल्म बनती है.नाम कुछ और रखा और फ़िल्म में कुछ और दिखा दिया.बात आगे बढ़ी तो उन्होंने बताया की वह तो गजनी देखने गई थीं.उन्हें लगा था की ऐतिहासिक फ़िल्म होगी और मुहम्मद गजनी के जीवन को लेकर फ़िल्म बनी होगी.लेकिन यहाँ तो आमिर खान था और वह गजनी को मार रहा था.गजनी भी कौन?एक विलेन.मेरा तो दिमाग ही ख़राब हो गया। फिर उन्होंने एक दादी का किस्सा सुनाया.बचपन की बात थी.उनकी सहेली नियमित तौर पर फ़िल्म देखती थी.चूंकि परिवार से अकेले जाने की इजाज़त नहीं थी,इसलिए दादी को साथ में ले जाना पड़ता था.दादी के साथ जाने पर घर के बड़े-बूढ़े मना नहीं करते थे.एक बार शहर में गुप्त ज्ञान फ़िल्म लगी.दीदी की सहेली ने दादी को राजी किया और दादी-पोती फ़िल्म देखने चली गयीं.उन

दरअसल:उमीदें कायम हैं...

-अजय ब्रह्मात्मज मनोरंजन की दुनिया में 2009 के पहले दिन आप सभी का स्वागत है। मंदी के इस दौर में, जबकि सारी गतिविधियां ठंडी पड़ी हुई हैं, तब भी मनोरंजन की दुनिया में हलचल है। अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि मंदी के किसी भी दौर में मनोरंजन की दुनिया सबसे कम प्रभावित होती है। पिछले साल रब ने बना दी जोड़ी और गजनी की प्रचारित सफलता में से झूठ और झांसे का प्रतिशत यदि निकाल दें, तो भी मानना पड़ेगा कि दर्शकों ने उत्साह दिखाया। उन्होंने शाहरुख खान और आमिर खान की फिल्मों को हिट की श्रेणी में पहुंचा कर फिल्म इंडस्ट्री को भरोसा दिया कि हमेशा की तरह उम्मीद कायम है। साल के पहले दिन अगले 364 दिनों की भविष्यवाणी कर पाना पंडितों के लिए आसान होता होगा। ग्रहों की दिशा से वे भविष्य का अनुमान कर लेते हैं। हम फिल्मी सितारों की दशा और दिशा से भविष्य का अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन भविष्यवाणी नहीं कर सकते, क्योंकि दर्शकों का मिजाज कब और क्यों बदलेगा, यह कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि वे किसी बड़े सितारे की फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरा सकते हैं, तो किसी नए सितारे को लोकप्रियता के आकाश में चमका भी सकते हैं।