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फ़िल्म समीक्षा:लव आज कल

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शाश्वत प्यार का अहसास **** -अजय ब्रह्मात्मज इम्तियाज अली निर्देशित लव आज कल बीते कल और आज की प्रेम कहानी है। 1965 और 2009 के किरदारों के जरिए इम्तियाज अली एक बार फिर साबित करते हैं कि प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। प्रेम ज्ञान है, आख्यान है, व्याख्यान है। यही हिंदी फिल्मों का दर्शन है। रोमांटिक हिंदी फिल्मों में हमेशा से पटकथा प्यार और उसके विशुद्ध अहसास पर केंद्रित रहती है। हर पीढ़ी का निर्देशक अपने नजरिए से प्यार को परिभाषित करने का प्रयास करता है। इम्तियाज अली ने 2009 के जय और मीरा के माध्यम से यह प्रेम कहानी कही है, जिसमें 1965 के वीर और हरलीन की प्रेम कहानी एक रेफरेंस की तरह है। इम्तियाज अली नई पीढ़ी के निर्देशक हैं। उनके पास सुघढ़ भाषा और संवेदना है। अपनी पिछली फिल्मों सोचा न था और जब वी मेट से दमदार दस्तक देने के बाद लव आज कल के दृश्यों और प्रसंगों में इम्तियाज के कार्य कुशलता की छाप स्पष्ट नजर आती है। हिंदी फिल्मों में हम फ्लैशबैक देखते रहे हैं। लव आज कल में फ्लैशबैक और आज की कहानी साथ-साथ चलती है, कहीं कोई कंफ्यूजन नहीं होता। न सीन डिजाल्व करने की जरूरत पड़ती है और न कहीं

दरअसल:नौ साल की बच्ची के ख्वाब

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-अजय ब्रह्मात्मज रुबीना अली ज्यादा परिचित नाम नहीं लगता, लेकिन स्लमडॉग मिलेनियर के साथ इस नाम को जोड़ दें, तो कम से कम शहर के लोग इस नाम और चेहरे को जरूर पहचान जाएंगे। रुबीना मुंबई के बांद्रा इलाके में स्थित गरीब नगर झोंपड़पट्टी की बच्ची है। उसने स्लमडॉग मिलेनियर में काम किया था और इसी के सिलसिले में वह ऑस्कर के रेड कार्पेट पर घूम आई। तब से वह और उसका साथी कलाकार अजहर सुर्खियों में है। कभी उनके झोंपड़े गिराए जाते हैं, तो कभी उन्हें फ्लैट मिल जाते हैं। कभी कोई उनकी पढ़ाई का खर्चा उठाने को तैयार मिलता है, तो कभी कुछ और कभी कुछ और। हाल ही में रुबीना अली की आत्मकथा प्रकाशित हुई है। रुबीना अभी ठीक से लिखना-पढ़ना नहीं जानती.., वह ठीक से बोल भी नहीं पाती है, लेकिन उसकी आत्मकथा छपकर आ गई है। मालूम नहीं कि अपनी आत्मकथा में लिखे शब्द और वाक्यों का वह सही मतलब समझती भी है या नहीं? आत्मकथा के आखिरी अध्याय में रुबीना ने बताया है कि एक फ्रांसीसी प्रकाशक ने मेरी जीवनी में रुचि दिखाई। मुझे भी अच्छा लगा, क्योंकि मैं अपनी जिंदगी के बारे में लोगों को बता सकूंगी कि मैं क्या हूं? झोंपड़पट्टी की बच्ची रुबीन

डेली रूटीन से ऊब जाता हूं: सैफ अली खान

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-अजय ब्रह्मात्मज छोटे नवाब के नाम से मशहूर सैफ अली खान अब निर्माता बन गए हैं। उनके प्रोडक्शन हाउस इलुमिनाती फिल्म्स की पहली फिल्म लव आज कल इस शुक्रवार को रिलीज हो रही है। फिल्म के निर्देशक इम्तियाज अली हैं और हीरोइन दीपिका पादुकोण हैं। लव आज कल की रिलीज के पहले खास बातचीत। आप उन खास और दुर्लभ बेटों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी मां के प्रोफेशन को अपनाया। ज्यादातर बेटे पिता के प्रोफेशन को अपनाते हैं? मेरी मां भी दुर्लभ एवं खास हैं। इस देश में कितनी मां हैं, जो किसी प्रोफेशन में हैं। मैं तो कहूंगा कि मेरी मां खास और दुर्लभ हैं। एक सुपर स्टार और मां ... ऐसा रोज नहीं होता। मेरी मां निश्चित ही खास हैं। उन्होंने दोनो जिम्मेदारियां बखूबी निभाई। मां के प्रोफेशन में आने की क्या वजह है? बचपन में मुझे क्रिकेट का शौक था। कुछ समय खेलने के बाद मुझे लग गया था कि मैं देश का कैप्टन नहीं बन सकता। इतना टैलेंट भी नहीं था। पढ़ाई में मेरी रुचि नहीं थी। कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती थी। फिल्मों के बारे में सोचा तो यह बहुत ही एक्साइटिंग लगा। फिल्मों में नियमित बदलाव होता रहता है। रोल बदलते हैं, लोकेशन बदलते हैं

फ़िल्म समीक्षा:लक

-अजय ब्रह्मात्मज माना जाता है कि हिंदी फिल्मों के गाने सिर्फ 200 शब्दों को उलट-पुलट कर लिखे जाते हैं। लक देखने के बाद फिल्म के संवादों के लिए भी आप यही बात कह सकते हैं। सोहम शाह ने सिर्फ 20 शब्दों में हेर-फेर कर पूरी फिल्म के संवाद लिख दिए हैं। किस्मत, फितरत, तकदीर, गोली, मौत और जिंदगी इस फिल्म के बीज शब्द हैं। इनमें कुछ संज्ञाएं और क्रियाएं जोड़ कर प्रसंग के अनुसार संबोधन बदलते रहते हैं। यूं कहें कि सीमित शब्दों के संवाद ही इस ढीली और लोचदार स्कि्रप्ट के लिए आवश्यक थे। अगर दमदार डायलाग होते तो फिल्म के एक्शन से ध्यान बंट जाता। सोहम की लक वास्तव में एक टीवी रियलिटी शो की तरह ही है। बस, फर्क इतना है कि इसे बड़े पर्दे पर दिखाया जा गया है। इसमें टीवी जैसा रोमांच नहीं है, क्योंकि हमें मालूम है कि अंत में जीत हीरो की ही होनी है और उसकी हीरोइन किसी भी सूरत में मर नहीं सकती। वह बदकिस्मत भी हुई तो हीरो का लक उसकी रक्षा करता रहेगा। रियलिटी शो के सारे प्रतियोगी एक ही स्तर के होते हैं। समान परिस्थितियों से गुजरते हुए वे जीत की ओर बढ़ते हैं। इसलिए उनके साथ जिज्ञासा जुड़ी रहती है। बड़े पर्दे पर के

आत्मकथा नहीं लिखना चाहते सलीम खान

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-अजय ब्रह्मात्मज सलीम खान के साथ घंटों बिताने के बाद चलते वक्त नंबर लेने के बाद जब मैंने पूछा कि क्या कभी उनसे फोन पर बातें की जा सकती हैं? उनका सीधा जवाब था, भाई, मैं तो रॉन्ग नंबर से आए कॉल पर भी आधे घंटे बात करता हूं। आप तो परिचित हैं और पत्रकार हैं। सलीम खान के व्यक्तित्व का अनुमान बगैर उनकी संगत के नहीं हो सकता। वे मीडिया से बातें नहीं करते और न अपने जोड़ीदार जावेद अख्तर की तरह बयान और भाषणों के लिए उपलब्ध रहते हैं। उनका अपना एक रुटीन है। वे उसमें व्यस्त रहते हैं। आज जिस उदारता, मेहमाननवाजी और फराक दिल के लिए सलमान खान की तारीफ की जाती है, वह सब उन्हें सलीम खान से विरासत में मिली है। सलीम खान इसे स्वीकार करते हैं, लेकिन साथ में यह बताना नहीं भूलते कि सलमान की अपनी खासियतें हैं। वह अपने ढंग का वाहिद लड़का है। मेरा बेटा है, इसलिए नहीं.., वह सचमुच टैलेंटेड आर्टिस्ट है। सलीम खान कमरे में टंगी पेंटिंग्स की तरफ इशारा करते हैं। उसे नींद नहीं आती। वह बेचैन रहता है। मैं उसकी क्रिएटिव छटपटाहट को समझ सकता हूं। कभी मैं भी उसकी तरह बेचैन रहता था। वे यादों की गलियों में लौटते हुए बताते हैं कि इ

दरअसल:सोचें जरा इस संभावना पर

-अजय ब्रह्मात्मज आए दिन देश के कोने-कोने से फिल्मों में जगह पाने की कोशिश में हजारों युवक मुंबई पहुंचते हैं। हिंदी फिल्मों का आकर्षण उन्हें खींच लाता है। इनमें से सैकड़ों सिनेमा की समझ रखते हैं। वे किसी उन्माद या भावातिरेक में नहीं, बल्कि फिल्मों के जरिए अपनी बात कहने की गरज से मुंबई आते हैं। फिल्मों में आने के लिए उत्सुक हर युवक पर्दे पर ही चमकना नहीं चाहता। कुछ पर्दे के पीछे हाथ आजमाना चाहते हैं। उनके पास अपनी कहानी है, अपना नजरिया है और वे कुछ कर दिखाना चाहते हैं। मुंबई में सक्रिय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे निश्चित समयावधि में अवसर और परिणाम हासिल किया जा सके। फिल्मी परिवार के बच्चों को इस विमर्श से अलग कर दें, तो भी कुछ उदाहरण मिल जाते हैं, जहां कुछ को तत्काल अवसर मिल जाते हैं। वे अपनी मेहनत, कोशिश और फिल्म से दर्शकों को पसंद आ जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद परिवारवाद, लॉबिंग और संकीर्णता के बावजूद हर साल 20 से 25 नए निर्देशक आ ही जाते हैं। पर्दे के पीछे और पर्दे के आगे भी हर साल नए तकनीशियन और कलाकार आते हैं। यह कहना अनुचित होगा कि हिंदी फ

इमरान खान से बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्मज साल भर के स्टार हो गए हैं इमरान खान। उनकी फिल्म जाने तू या जाने ना पिछले साल 4 जुलाई को रिलीज हुई थी। संयोग से इमरान से यह बातचीत 4 जुलाई को ही हुई। उनसे उनकी ताजा फिल्म लक, स्टारडम और बाकी अनुभवों पर बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके अंश.. आपकी फिल्म लक आ रही है। खुद को कितना लकी मानते हैं आप? तकनीकी रूप से बात करूं, तो मैं लक में यकीन नहीं करता। ऐसी कोई चीज नहीं होती है। तर्क के आधार पर इसे साबित नहीं किया जा सकता। मैं अपनी छोटी जिंदगी को पलटकर देखता हूं, तो पाता हूं कि मेरे साथ हमेशा अच्छा ही होता रहा है। आज सुबह ही मैं एक इंटरव्यू के लिए जा रहा था। जुहू गली से क्रॉस करते समय मेरी गाड़ी से दस फीट आगे एक टहनी गिरी। वह टहनी मेरी गाड़ी पर भी गिर सकती थी। इसी तरह पहले रेल और अब फ्लाइट नहीं छूटती है। मैं लेट भी रहूं, तो मिल जाती है। शायद यही लक है, लेकिन मेरा दिमाग कहता है कि लक जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। क्या हमारी सोच में ही लक और भाग्य पर भरोसा करने की बात शामिल है? हमलोग आध्यात्मिक किस्म के हैं। हो सकता है उसी वजह से ऐसा हो, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की बात करें, तो यहां

हिन्दी टाकीज:सिनेमा से पहली मुलाकात-मंजीत ठाकुर

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हिन्दी टाकीज-४४ मंजीत ठाकुर उत्साही व्यक्ति हैं.लेखक और पत्रकार होने के इस विशेष गुण के धनी मंजीत इन दिनों पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं.अच्छा ही है,दिल्ली की प्रदूषित हवा से जितना दूर रहें.अपने बारे में वे लिखते हैं... मैं मजीत टाकुर.. वक्त ने बहुत कुछ सिखाया है। पढाई के चक्कर में पटना से रांची और दिल्ली तक घूमा.. बीएससी खेती-बाड़ी में किया। फिर आईआईएमसी में रेडियो-टीली पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा.. सिनेमा की सनक ने एफटीआईआई के चक्कर भी लगवा दिए। नवभारत टाइम्स में सात महीने की संक्षिप्त नौकरी के बाद से डीडी न्यूज़ का नमक खा रहा हूं। फिलवक्त सीनियर कॉरेस्पॉन्डेंट हूं। सिनेमा के साथ-साथ सोशल और पॉलिटिकल खबरें कवर करने का चस्का है। सिनेमा को साहित्य भी मानता हूं, बस माध्यम का फर्क है..एक जगह शब्द है तो दूसरी जगह पर चलती-फिरती तस्वीरें..। सिनेमा में गोविंदा से लेकर फैलिनी तक का फैन हूं..। दिलचस्पी पेंटिंग करने, कविताएं और नॉन-फिक्शन गद्य लिखने और कार्टून बनाने में है। निजी जिंदगी में हंसोड़ हूं, दूसरों का मज़ाक बनाने और खुद मज़ाक बनने में कोई गुरेज़ नहीं। अपने ब्लॉग गुस्ताख पर गैर-जरुरी

फ़िल्म समीक्षा:जश्न

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सपनों और रिश्तों के बीच -अजय ब्रह्मात्मज भट्ट कैंप की फिल्मों का अपना एक फार्मूला है। कम बजट, अपेक्षाकृत छोटे और मझोले स्टार, इमोशनल कहानी, म्यूजिकल सपोर्ट, गीतों व संवादों में अर्थपूर्ण शब्द। इस फार्मूले में ही विशेष फिल्म्स की फिल्में कभी कमाल कर जाती हैं और कभी-कभी औसत रह जाती हैं। जश्न कमाल कर सकती है। भट्ट बंधु ने सफलता के इस फार्मूले को साध लिया है। उनकी जश्न के निर्देशक रक्षा मिस्त्री और हसनैन हैदराबादवाला हैं। जश्न सपनों और आकांक्षाओं की फिल्म है। इसे हर जवान के दिल में पल रहे नो बडी से सम बडी होने के सपने के तौर पर प्रचारित किया गया है। फिल्म का नायक आकाश वर्मा सपनों के लिए अपनों का सहारा लेता है। लेकिन असफल और अपमानित होने पर पहले टूटता, फिर जुड़ता और अंत में खड़ा होता है। सपनों और आकांक्षाओं के साथ ही यह शहरी रिश्तों की भी कहानी है। हिंदी फिल्म के पर्दे पर भाई-बहन का ऐसा रिश्ता पहली बार दिखाया गया है। बहन खुद के खर्चे और भाई के सपने के लिए एक अमीर की रखैल बन जाती है। भाई इस सच को जानता है। दोनों के बीच का अपनापा और समर्थन भाई-बहन के रिश्ते को नया आयाम देता है। सारा आज की बह

दरअसल:फिसलन भी है कामयाबी

६०० वीं पोस्ट...आप सभी को धन्यवाद। -अजय ब्रह्मात्मज स्कूल के दिनों में कहीं पढ़ा था, मैं नियम पर चलता हूं, इसलिए रोज नियम बदलता हूं। जिस दिन जो करने का मन हो, वैसा ही नियम बना लो। कहने के लिए हो गया कि नियमनिष्ठ हैं और मन मर्जी भी पूरी हो गई। अपने फिल्म सितारों के लिए कुछ वैसी ही बात कही जा सकती है। कभी कोई फिल्म फ्लॉप होती है, तो सितारे कहते हैं, फिल्म नहीं चल पाई, लेकिन मेरे काम की सराहना हुई। फिर फिल्म बुरी होने के बावजूद हिट हो जाए, तो सितारों के चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है और उनका बयान होता है, समीक्षक कुछ भी लिखें, दर्शकों ने फिल्म पसंद की है न? हिट और फ्लॉप दोनों ही स्थितियों में खुद को संतुष्ट करते हुए दर्शकों को मुगालते में रखने की यह कोशिश स्टारडम का हिस्सा हो गया है। सितारे अपने इस अंतर्विरोध को समझते हैं, लेकिन यह स्वीकार नहीं कर पाते कि उनसे भूल हुई है। अक्षय कुमार आज कल ऐसे ही अंतद्र्वद्व और संशय से गुजर रहे हैं। चांदनी चौक टू चाइना और 8-10 तस्वीर के फ्लॉप होने के बाद उनकी कमबख्त इश्क हिट हुई है। अगर तीनों फिल्मों की तुलना करें, तो किसी को भी श्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में