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फ़िल्म समीक्षा:चिंटू जी

-अजय ब्रह्मात्मज **** रंजीत कपूर का सृजनात्मक साहस ही है कि उन्होंने ग्लैमरस, चकमक और तकनीकी विलक्षणता के इस दौर में चिंटू जी जैसी सामान्य और साधारण फिल्म की कल्पना की। उन्हें ऋषि कपूर ने पूरा सहयोग दिया। दोनों के प्रयास से यह अद्भुत फिल्म बनी है। यह महज कामेडी फिल्म नहीं है। हम हंसते हैं, लेकिन उसके साथ एक अवसाद भी गहरा होता जाता है। विकास, लोकप्रियता और ईमानदारी की कशमकश चलती रहती है। फिल्म में रखे गए प्रसंग लोकप्रिय व्यक्ति की विडंबनाओं को उद्घाटित करने के साथ विकास और समृद्धि के दबाव को भी जाहिर करते हैं। यह दो पड़ोसी गांवों हड़बहेड़ी और त्रिफला की कहानी है। नाम से ही स्पष्ट है कि हड़बहेड़ी में सुविधाएं और संपन्नता नही है, जबकि त्रिफला के निवासी छल-प्रपंच और भ्रष्टाचार से कथित रूप से विकसित हो चुके हैं। तय होता है कि हड़बहेड़ी के विकास के लिए कुछ करना होगा। पता चलता है कि मशहूर एक्टर ऋषि का जन्म इसी गांव में हुआ था। उन्हें निमंत्रित किया जाता है। ऋषि कपूर की राजनीतिक ख्वाहिशें हैं। वह इसी इरादे से हड़बहेड़ी आने को तैयार हो जाते हैं। हड़बहेड़ी पहुंचने के बाद जब जमीनी सच्चाई से उनका

दरअसल : सच को छूती कहानियां

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों की एक समस्या रही है कि सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्मों के निर्माता-निर्देशक भी फिल्म के आरंभ में डिस्क्लेमर लिख देते हैं कि फिल्म का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर कोई समानता दिखती है, तो यह महज संयोग है। मजेदार तथ्य यह है कि ऐसे संयोगों पर ही हिंदी फिल्में टिकी हैं। समाज का सच बढ़ा-घटाकर फिल्मों में आता रहता है। चूंकि फिल्म लार्जर दैन लाइफ माध्यम है, इसलिए हमारे आसपास की छोटी-मोटी घटनाएं भी बड़े आकार में फिल्मों को देखने के बाद संबंधित व्यक्तियों की समझ में आता है कि लेखक और निर्देशक ने उसके जीवन के अंशों का फिल्मों में इस्तेमाल कर लिया। फिर शुरू होता है विवादों का सिलसिला। कुछ फिल्मकार आत्मकथात्मक फिल्में बनाते हैं। उनकी फिल्मों का सच व्यक्तिगत और निजी अनुभवों पर आधारित होता है। महेश भट्ट इस श्रेणी के अग्रणी फिल्मकार हैं। अर्थ और जख्म उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं पर केंद्रित हैं। भट्ट ने कभी छिपाया नहीं। उल्टा जोर-शोर से बताया कि फिल्मों में उन्होंने अपने जीवन के अंधेरों और अनुभवों को उद्घाटित किया है। दूसरी तरफ ऐसे फिल्मकार भी

चार तस्वीरें:आयशा

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आयशा सोनम कपूर और अभय देओल की नई फ़िल्म है.इस फ़िल्म की शूटिंग चल रही है.दिल्ली की पृष्ठभूमि पर बन रही यह फ़िल्म जेन ऑस्टिन के उपन्यास एम्मा पर आधारित है। राजश्री ओझा के निर्देशन में बन रही इस फ़िल्म के निर्माता सोनम कपूर के पिता अनिल कपूर हैं.

हिन्दी टाकीज:सिनेमा देखने का सुख - विपिन चन्द्र राय

हिन्दी टाकीज-४६ मुझे सिनेमची भी कह सकते हैं। सिनेमा देखने की लत उम्र के किस पड़ाव में लगी, याद नहीं, पर पचासवें पड़ाव तक कायम है और आगे भी कायम रहेगा। असल में मेरे पिताजी नगर दंडाधिकारी थे, सो उन्हें पास मिलता था। वे फिल्म नहीं देखते थे तो पास का सदुपयोग करना मेरा ही दायित्व बनता था। वैसा मैं करता भी था, शान से जाता था, गेटकीपर सलाम बजाता था और वीआइपी सीट पर मुझे बिठा देता था। यहां तक कि इंटरवल में मूंगफली भी ला देता था। मैं मूंगफली फोड़ता हुआ सिनेमा दर्शन का सुख उठाता था। क्या आंनद दायक दिन थे वे, बीते दिनो की याद जेहन में समायी हुई हैं। मेरे छोटे से कस्बे जमालपुर में दो सिनेमा हाल अवंतिका और रेलवे था। उसमें प्रत्येक शनिवार को सिनेमा देखना मेरी दिनचर्या में शामिल था। सिनेमा बदले या वही हो, दोबारा देख लेता था। मुंगेर में तीन सिनेमा हाल था विजय, वैद्यनाथ और नीलम। उस जमाने में नीलम सबसे सुंदर हाल था। मुंगेर जाता तो बिना सिनेमा देखे वापस आने का सवाल नहीं था। पास जो उपलब्ध रहता था। उस जमाने में मनोरंजन का एकमात्र सर्वसुलभ साधन सिनेमा ही था। बस इसलिए वही देखता था। ढेर सारी फिल्में दे

दरअसल:फिल्में देखने के लिए जरूरत है तैयारी की

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-अजय ब्रह्मात्मज दोष दर्शकों का नहीं है। हम अपने स्वाद के मुताबिक भोजन, वस्त्र, साहित्य, कला और मनोरंजन की सामग्रियां पसंद करते हैं। बचपन से बड़े होने तक परिवार और समाज के प्रभाव और संस्कार से हमारी रुचियां बनती हैं। फिल्मों के मामले में हम रुचियों के इस भेद को बार-बार देखते हैं। कुछ फिल्में किसी एक समूह द्वारा सराही जाती है और दूसरे समूह द्वारा नकार दी जाती हैं। ताजा उदाहरण कमीने का है। इस फिल्म के प्रति दर्शक और समीक्षकों का स्पष्ट विभाजन है। जो इसे पसंद कर रहे हैं, वे बहुत पसंद कर रहे हैं, लेकिन नापसंद करने वाले भी कम नहीं हैं। कमीने इस मायने में अलग है कि इसके बारे में ठीक है टिप्पणी से काम नहीं चल सकता! भारतीय और खासकर हिंदी फिल्मों के संदर्भ में मेरा मानना है कि दर्शकों के बीच विधिवत सिने संस्कार नहीं हैं। हमें न तो परिवार में और न स्कूल में कभी अच्छी फिल्मों के गुणों के बारे में बताया गया और न कभी समझाया गया कि फिल्में कैसे देखते हैं? हम फिल्में देखते हैं। जाति और राष्ट्र के रूप में हम सबसे ज्यादा फिल्में देखते हैं, लेकिन अभी तक फिल्में हमारे पाठ्यक्रम में नहीं आ पाई हैं। जिंदगी

यूजी मेरे गुरुदेव: महेश भट्ट

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मैं यूजी से अपने रिश्ते को परिभाषित नहीं कर सकता। क्या हमारे बीच गुरु-शिष्य का रिश्ता था? हाँ था, लेकिन यूजी खुद को गुरु नहीं मानते थे और न मुझे शिष्य समझते थे। कुछ था उनके अंदर, जो उनके सत्संग और संस्पर्श से मेरे अंदर जागृत हो उठता था। उनके स्पर्श ने मुझे झंकृत कर दिया था, मानो मेरे तन-मन के सारे तार बज उठे हों। उन पर लिखी अपनी पुस्तक ए टेस्ट ऑफ लाइफ की पिछले दिनों मुंबई में रिलीज के मौके पर मैं इतना द्रवित हो उठा था कि खुद को रोकने के लिए मुझे अपनी उंगली दांतों से काटनी पड़ी। अनुपम खेर को मेरा उंगली काटना हास्यास्पद लगा, लेकिन मुझे कोई और उपाय नहीं सूझा। मैंने इंगमार बर्गमैन की फिल्मों में देखा था कि उनके किरदार गहरे दर्द से निकलने के लिए खुद को जिस्मानी तकलीफ पहुंचाते थे, ताकि दर्द कहीं शिफ्ट हो जाए। मैं वही कर रहा था। मेरे अंदर उनकी यादों का ऐसा समंदर है, जो बहना शुरू हो जाए तो रूकेगा ही नहीं। उस दिन जो सभी ने देखा, वह तो एक कतरा था। यूजी से अपने रिश्ते पर मैं घंटों बात कर सकता हूं। मेरी बातचीत में शिद्दत ऊंची होगी और समुद्री ज्वार की तरह मेरे शब्द उछाल मारेंगे। उनकी बातें करते हुए

फ़िल्म समीक्षा:सिकंदर

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आतंकवाद के साए में तबाह बचपन -अजय ब्रह्मात्मज निर्देशक पीयूष झा ने आतंकवाद के साए में जी रहे दो मासूम बच्चों की कहानी के मार्फत बड़ी सच्चाई पर अंगुली रखी है। आम जनता ने नुमाइंदे बने लोग कैसे निजी स्वार्थ के लिए किसी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सिकंदर मुश्किल स्थितियों में फंसे बच्चे तक ही सीमित नहीं रहती। कश्मीर की बदल रही परिस्थिति में राजनीति के नए चेहरों को भी फिल्म बेनकाब करती है। सिकंदर के मां-बाप को जिहादियों ने मार डाला है। अभी वह अपने चाचा के साथ रहता है। स्कूल में उसके सहपाठी उसे डपटते रहते हैं। फुटबाल के शौकीन सिकंदर की इच्छा है कि वह अपने स्कूल की टीम के लिए चुन लिया जाए। स्कूल में नई आई लड़की नसरीन उसकी दोस्त बनती है। कहानी टर्न लेती है। सिकंदर के हाथ रिवाल्वर लग जाता है। वह अपने सहपाठियों को डरा देता है। रिवाल्वर की वजह से जिहादियों का सरगना उससे संपर्क करता है। वह वाशिंग मशीन खरीदने की उसकी छोटी ख्वाहिश पूरी करने का दिलासा देता है और एक खतरनाक जिम्मेदारी सौंपता है। दिए गए काम के अंजाम से नावाकिफ सिकंदर गफलत में जिहादी सरगना का ही खून कर बैठता है। एक मासूम जिंदगी तबाह होत

निगाह है इंटरनेशनल मार्केट पर

-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों शाहरुख खान और करण जौहर की कामयाब जोड़ी ने अमेरिका की मशहूर फिल्म कंपनी ट्वेंटीएथ सेंचुरी फॉक्स की एशिया में कार्यरत कंपनी फॉक्स स्टार स्टूडियो से समझौता किया। इस समझौते के तहत फॉक्स उनकी आगामी फिल्म माई नेम इज खान का विश्वव्यापी वितरण करेगी। इस समझौते की रकम नहीं बताई जा रही है, लेकिन ट्रेड पंडित शाहरुख और काजोल की इस फिल्म को 80 से 100 करोड़ के बीच आंक रहे हैं। करण जौहर की फिल्में पहले यशराज फिल्म्स द्वारा वितरित होती थीं। उन्होंने अपने प्रोडक्शन की अयान मुखर्जी निर्देशित वेकअप सिड और रेंजिल डी-सिल्वा निर्देशित कुर्बान के वितरण अधिकार यूटीवी को दिए। तभी लग गया था कि करण अपनी फिल्मों के लिए यशराज के भरोसे नहीं रहना चाहते। दोस्ती और संबंध जरूरी हैं, लेकिन फिल्मों का बिजनेस अगर नए पार्टनर की मांग करता है, तो नए रिश्ते बनाए जा सकते हैं। अपनी फिल्म के लिए एक कदम आगे जाकर उन्होंने फॉक्स से हाथ मिलाया। उन्हें ऐसा लगता है कि फॉक्स उनकी फिल्म माई नेम इज खान को इंटरनेशनल स्तर पर नए दर्शकों तक ले जाएगी। हम सभी जानते हैं कि करण हिंदी फिल्मों के ओवरसीज मार्केट में बहुत

एक तस्वीर:अजब प्रेम की गजब कहानी

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रणबीर कपूर और कैटरिना कैफ के इस इस अजब प्रेम की गजब कहानी राज कुमार संतोषी लेकर आ रहे है। यह पहली तस्वीर है। आप बताएं कि इस गजब कहनी की फ़िल्म को देखने के लिए कितने उत्सुक हैं।

सुनहरे दिनों की सुनहरी नायिका लीला नायडू-विपिन चौधरी

सुन्दरता सच में बेहद मासूम होती है। मासूम के साथ-साथ सहज भी। खूबसूरती, मासूमयिता और नफासत देखनी हो कई नामों की भीड से गुजरते हुये हिंदी फिल्मों में अपनी छोटी लेकिन मजबूत उपस्तिथी दर्ज करवाने वाली नायिका लीला नायडू का नाम हमारे सामने आता है। उन दिनों जब जीवन बेहद सरल होता था और लोग भी सीधे-साधे। उन सुनहरे दिनों की बात की जाये जब सोना सौ प्रतिशित खरा सोना होता था। उनही दिनों के आगे पीछे की बात है जब हरिकेश मुखजी की' अनुराधा' फिल्म आई थी। नायक थे बलराज साहनी और नायिका थी लीला नायडू। जिस सहजता, सरलता का ताना बाना ले कर मुखर्जी फिल्में बनाते है उसी का एक और उदाहरण है उनकी यह फिल्म। उनकी फिल्मों में आपसी रिश्तों की बारीकियों सहज ही दिखाई देती थी। अनुराधा,फिल्म की नायिका लीला नायडू का मासुम सौन्दर्य देखते ही बनता था और उससे भी मधुर था उनके संवादों की अदायगी। सहअभिनेता भी वो जो सहज अभिनय के लिये विख्यात हो और अभिनेत्री की सहजता भी काबिले दाद। महीन मानवीय सम्बंधों पर पैनी पकड वाले निदेशक ऋषिकेश मुखर्जी ने १९८० में फिल्म बनाई थी अनुराधा। दांपत्य जीवन के सम्बंधो में तमाम तरह के उतार चढाव