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दरअसल:निराश न हों हिंदी फिल्मप्रेमी

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के राष्ट्रीय पुरस्कारों को लेकर इस बार कोई घोषित विवाद नहीं है, लेकिन जानकार बताते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बनाम दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के द्वंद्व के रूप में इसे देखा जा रहा है। ऐसी खबरें भी आई और सुर्खियां बनीं कि दक्षिण भारतीय फिल्मों ने हिंदी फिल्मों (बॉलीवुड) को पछाड़ा। किसी भी पुरस्कार और सम्मान को एक की जीत और दूसरे की हार के रूप में पेश करना सामान्य खबर में रोमांच पैदा करने की युक्ति हो सकती है, लेकिन सामान्य पाठकों के दिमाग में हारे हुए की कमतरी का एहसास भरता है। इस बार के पुरस्कारों की सूची देखकर ऐसा लग सकता है कि हिंदी फिल्में निकृष्ट कोटि की होती हैं, इसलिए उन्हें पुरस्कार नहीं मिल पाते। अगर फिल्मों में राष्ट्रीय पुरस्कारों के इतिहास में जाएं, तो इसमें कॉमर्शिअॅल और मेनस्ट्रीम सिनेमा को पहले तरजीह नहीं दी जाती थी। एक पूर्वाग्रह था कि कथित कलात्मक फिल्मों पर ही विचार किया जाए। मेनस्ट्रीम फिल्मों के निर्माता सफलता और मुनाफे के अहंकार में राष्ट्रीय पुरस्कारों की परवाह भी नहीं करते थे। वे अपने पॉपुलर अवार्ड से ही संतुष्ट रहते थे और आज भी कमोवे

चवन्‍नी चैप के पाठकों की संख्‍या 50,000 से अधिक

दोस्‍तों आज खुशी का दिन है। चवन्‍नी चैप के पाठकों की संख्‍या 50,000 से अधिक हो गयी है। इंटरनेट और ब्‍लॉग के अध्‍येता बताएंगे क‍ि क्‍या चवन्‍नी लोकप्रियता के क्रम में कहीं है क्‍या ? चवन्‍नी को यही खुशी है कि उसे 50,000 से अधिक पाठकों ने पढ़ा। उन्‍होंने इसके 1,00,000 से अधिक पृष्‍ठ पढ़े हैं। आरंभ में केवल मुंबई के पाठक थे। अब दिल्‍ली,जयपुर,लखनऊ,भोपाल और कानपुर के पाठक नियमित तौर पर आते हैं। चवन्‍नी को पॉपुलर करने में ब्‍लॉगवाणी की बड़ी भूमिका है। और भी एग्रीगेटर का सहयोग मिला। आजकल सीधे ब्‍लॉग पर आने वाले पाठक भी कम नहीं हैं। खुशी की बात है कि 10 से 15 प्रतिशत पाठक विदेशों से आते हैं। कुछ पाठक दूसरे ब्‍लॉग के जरिए आते हैं। चवन्‍नी को पसंद करनवाले मित्रों ने इसका लिंक अपने ब्‍लॉग पर डाल रखा है। उनसे भी पाठक मिलते रहे हैं। आप सभी पाठकों से गुजारिश है कि इसे अगले लेवल तक ले जाने की सलाह दें। चवन्‍नी को क्‍या करना चाहिए? आप के मार्गदर्शन से ही चवन्‍नी की खनक बढ़ेगी। इसकी खनक मुंबई के फिल्‍मकारों के बीच भी सुनी जाने लगी है। यह सब आप के प्रेम सं संभव हुआ है। बेहिचक अपनी राय दें।

फ़िल्म समीक्षा:बाबर

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-अजय ब्रह्मात्मज उत्तर भारत के अमनगंज जैसे मोहल्ले की हवा में हिंसा तैरती है और अपराध कुलांचे भरता है। बाबर इसी हवा में सांसें लेता है। किशोर होने के पहले ही उसके हाथ पिस्तौल लग जाती है। अपने भाईयों को बचाने के लिए उसकी अंगुलियां ट्रिगर पर चली जाती हैं और जुर्म की दुनिया में एक बालक का प्रवेश हो जाता है। चूंकि इस माहौल में जी रहे परिवारों के लिए हिंसा, गोलीबारी और मारपीट अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक है, इसलिए खतरनाक मुजरिम बच्चों के आदर्श बन जाते हैं। राजनीतिक स्वार्थ, कानूनी की कमजोरी, भ्रष्ट पुलिस अधिकारी और अपराध का रोमांच इस माहौल की सच्चाई है। बाबर इसी माहौल को पर्दे पर पेश करती है। आशु त्रिखा ने अपराध की दुनिया की खुरदुरी सच्चाई को ईमानदारी से पेश किया है। उन्हें लेखक इकराम अख्तर का भरपूर सहयोग मिला है। लेखक और निर्देशक फिल्म के नायक के अपराधी बनने की प्रक्रिया का चित्रण करते हैं। वे उसके फैसले को गलत या सही ठहराने की कोशिश नहीं करते। छोटे शहरों और कस्बों के आपराधिक माहौल से अपरिचित दर्शकों को आश्चर्य हो सकता है कि क्या बारह साल का लड़का पिस्तौल दाग सकता है? और अगर वह ऐसा करत

दरअसल:विदेशी लोकेशन का आकर्षण

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-अजय ब्रह्मात्मज आए दिन हिंदी फिल्मों के जरिए हम किसी न किसी देश की यात्रा करते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड के शहर और ऐतिहासिक स्थापत्य की झलक हम वर्षो से फिल्मों में देखते आ रहे हैं। एक दौर ऐसा आया था, जब किसी न किसी बहाने मुख्य किरदार यानी नायक-नायिका विदेश पहुंच जाते थे और फिर हिंदी के गरीब दर्शक अपने गांव-कस्बे और शहरों के सिनेमाघरों में उन विदेशी शहरों को देखकर खुश होते थे। एक टिकट में दो फायदे हो जाते थे, यानी मनोरंजन के साथ पर्यटन भी होता था। गौर करें, तो उस दौर में विदेशी लोकेशनों को फिल्मकार कहानी में अच्छी तरह पिरोकर पेश करते थे। फिर एक दौर ऐसा आया कि कहानी देश में चलती रहती थी और गाने आते ही नायक-नायिका विदेशी लोकेशनों में पहुंच जाते थे। यश चोपड़ा की फिल्मों में सुंदर और रोमांटिक तरीके से स्विट्जरलैंड की वादियां दिखती रहीं। उसके बाद करण जौहर जैसे निर्देशक अपनी फिल्म को लेकर विदेश चले गए। कभी खुशी कभी गम में उन्होंने जो विदेश प्रवास किया, वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। उनके बैनर की फिल्में अभी तक भारत नहीं लौटी हैं। उनकी अगली फिल्म माई नेम इज खान भी अमेरिका में शूट हुई है। पिछले

पुरस्कृत हुई हैं पहली फिल्में

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के 55वें राष्ट्रीय पुरस्कार में हिंदी की किसी फिल्म को मुख्य श्रेणी में श्रेष्ठ फिल्म, श्रेष्ठ अभिनेता, श्रेष्ठ अभिनेत्री और श्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार नहीं मिलने से हिंदी फिल्म प्रेमी थोड़े उदास हैं। उनकी उदासी को समाचार चैनलों और अखबारों की सुर्खियों की प्रस्तुति ने और बढ़ा दिया है। खबरें चलीं कि बॉलीवुड को कांजीवरम ने पछाड़ा या आमिर-शाहरुख पर भारी पड़े प्रकाश राज। दरअसल, पुरस्कारों में प्रतिद्वंद्विता नहीं होती है। निर्णायक मंडल के सदस्य व्यक्तिगत रुचि और पसंद के आधार पर कलाकार, तकनीशियन और फिल्मों को पुरस्कार के लिए चुनते हैं। निर्णायक मंडल के सदस्यों की अभिरुचि से पुरस्कार तय होते हैं। बहरहाल, उदासी के इस वातावरण में उल्लेखनीय तथ्य है कि जिन हिंदी फिल्मों को विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कार मिले हैं, वे सभी फिल्में निर्देशक की पहली फिल्में हैं। तारे जमीं पर को तीन पुरस्कार मिले। इस फिल्म के निर्देशक आमिर खान हैं और तारे जमीं पर उनकी पहली फिल्म है। इसी प्रकार गांधी माय फादर भी फिरोज अब्बास खान की पहली फिल्म है। इस फिल्म को भी तीन पुरस्कार मिले हैं। किसी निर

फ़िल्म समीक्षा:मोहनदास

कहानी को फिल्म में ढालने की कोशिश -अजय ब्रह्मात्मज **1/2 उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास पर आधारित मजहर कामरान की फिल्म देश की खुरदुरी सच्चाई को वास्तविक लोकेशन में पेश करने की कोशिश करती है। मजहर कामरान ने सिनेमाई छूट लेते हुए मूल कहानी में कुछ किरदार और प्रसंग जोड़े हैं। इससे फिल्म की नाटकीयता बढ़ी है, लेकिन सामाजिक विडंबना का मर्म हल्का हुआ है। कहानी के प्रभाव को मजहर कामरान फिल्म में पूरी तरह से नहीं उतार पाए हैं। अनूपपुर के दस्तकार परिवार के मोहनदास की पहचान छिन जाती है। बचपन से पढ़ने-लिखने में होशियार मोहनदास बड़ा होकर ओरिएंटल कोल माइंस में नौकरी के लिए आवेदन करता है। उसका चुनाव हो जाता है, लेकिन उसकी जगह कोई और बहाल हो जाता है। वह खुद को मोहनदास बताता है, लेकिन नकली मोहनदास उसकी पहचान वापस पहीं करता। वास्तविक मोहनदास अपने नाम और पहचान की लड़ाई में थपेड़े खाता है। एक न्यूज चैनल की रिपोर्टर मेघना सेनगुप्ता उसकी मदद में आगे आती है, लेकिन भ्रष्ट व्यक्तियों के कुचक्र में कोई नतीजा नहीं निकलता। ढाक के वही तीन पात ़ ़ ़ मोहनदास सामाजिक विसंगति और पूर्वाग्रह से नहीं जीत पाता। मजहर कामरान ने

फ़िल्म समीक्षा:चिंटू जी

-अजय ब्रह्मात्मज **** रंजीत कपूर का सृजनात्मक साहस ही है कि उन्होंने ग्लैमरस, चकमक और तकनीकी विलक्षणता के इस दौर में चिंटू जी जैसी सामान्य और साधारण फिल्म की कल्पना की। उन्हें ऋषि कपूर ने पूरा सहयोग दिया। दोनों के प्रयास से यह अद्भुत फिल्म बनी है। यह महज कामेडी फिल्म नहीं है। हम हंसते हैं, लेकिन उसके साथ एक अवसाद भी गहरा होता जाता है। विकास, लोकप्रियता और ईमानदारी की कशमकश चलती रहती है। फिल्म में रखे गए प्रसंग लोकप्रिय व्यक्ति की विडंबनाओं को उद्घाटित करने के साथ विकास और समृद्धि के दबाव को भी जाहिर करते हैं। यह दो पड़ोसी गांवों हड़बहेड़ी और त्रिफला की कहानी है। नाम से ही स्पष्ट है कि हड़बहेड़ी में सुविधाएं और संपन्नता नही है, जबकि त्रिफला के निवासी छल-प्रपंच और भ्रष्टाचार से कथित रूप से विकसित हो चुके हैं। तय होता है कि हड़बहेड़ी के विकास के लिए कुछ करना होगा। पता चलता है कि मशहूर एक्टर ऋषि का जन्म इसी गांव में हुआ था। उन्हें निमंत्रित किया जाता है। ऋषि कपूर की राजनीतिक ख्वाहिशें हैं। वह इसी इरादे से हड़बहेड़ी आने को तैयार हो जाते हैं। हड़बहेड़ी पहुंचने के बाद जब जमीनी सच्चाई से उनका

दरअसल : सच को छूती कहानियां

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों की एक समस्या रही है कि सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्मों के निर्माता-निर्देशक भी फिल्म के आरंभ में डिस्क्लेमर लिख देते हैं कि फिल्म का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर कोई समानता दिखती है, तो यह महज संयोग है। मजेदार तथ्य यह है कि ऐसे संयोगों पर ही हिंदी फिल्में टिकी हैं। समाज का सच बढ़ा-घटाकर फिल्मों में आता रहता है। चूंकि फिल्म लार्जर दैन लाइफ माध्यम है, इसलिए हमारे आसपास की छोटी-मोटी घटनाएं भी बड़े आकार में फिल्मों को देखने के बाद संबंधित व्यक्तियों की समझ में आता है कि लेखक और निर्देशक ने उसके जीवन के अंशों का फिल्मों में इस्तेमाल कर लिया। फिर शुरू होता है विवादों का सिलसिला। कुछ फिल्मकार आत्मकथात्मक फिल्में बनाते हैं। उनकी फिल्मों का सच व्यक्तिगत और निजी अनुभवों पर आधारित होता है। महेश भट्ट इस श्रेणी के अग्रणी फिल्मकार हैं। अर्थ और जख्म उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं पर केंद्रित हैं। भट्ट ने कभी छिपाया नहीं। उल्टा जोर-शोर से बताया कि फिल्मों में उन्होंने अपने जीवन के अंधेरों और अनुभवों को उद्घाटित किया है। दूसरी तरफ ऐसे फिल्मकार भी

चार तस्वीरें:आयशा

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आयशा सोनम कपूर और अभय देओल की नई फ़िल्म है.इस फ़िल्म की शूटिंग चल रही है.दिल्ली की पृष्ठभूमि पर बन रही यह फ़िल्म जेन ऑस्टिन के उपन्यास एम्मा पर आधारित है। राजश्री ओझा के निर्देशन में बन रही इस फ़िल्म के निर्माता सोनम कपूर के पिता अनिल कपूर हैं.

हिन्दी टाकीज:सिनेमा देखने का सुख - विपिन चन्द्र राय

हिन्दी टाकीज-४६ मुझे सिनेमची भी कह सकते हैं। सिनेमा देखने की लत उम्र के किस पड़ाव में लगी, याद नहीं, पर पचासवें पड़ाव तक कायम है और आगे भी कायम रहेगा। असल में मेरे पिताजी नगर दंडाधिकारी थे, सो उन्हें पास मिलता था। वे फिल्म नहीं देखते थे तो पास का सदुपयोग करना मेरा ही दायित्व बनता था। वैसा मैं करता भी था, शान से जाता था, गेटकीपर सलाम बजाता था और वीआइपी सीट पर मुझे बिठा देता था। यहां तक कि इंटरवल में मूंगफली भी ला देता था। मैं मूंगफली फोड़ता हुआ सिनेमा दर्शन का सुख उठाता था। क्या आंनद दायक दिन थे वे, बीते दिनो की याद जेहन में समायी हुई हैं। मेरे छोटे से कस्बे जमालपुर में दो सिनेमा हाल अवंतिका और रेलवे था। उसमें प्रत्येक शनिवार को सिनेमा देखना मेरी दिनचर्या में शामिल था। सिनेमा बदले या वही हो, दोबारा देख लेता था। मुंगेर में तीन सिनेमा हाल था विजय, वैद्यनाथ और नीलम। उस जमाने में नीलम सबसे सुंदर हाल था। मुंगेर जाता तो बिना सिनेमा देखे वापस आने का सवाल नहीं था। पास जो उपलब्ध रहता था। उस जमाने में मनोरंजन का एकमात्र सर्वसुलभ साधन सिनेमा ही था। बस इसलिए वही देखता था। ढेर सारी फिल्में दे