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सीरियल में सिनेमा की घुसपैठ

-अजय ब्रह्मात्‍मज इसकी आकस्मिक शुरुआत सालों पहले भाई-बहन के प्रेम से हुई थी। तब एकता कपूर की तूती बोलती थी। उनका सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी और कहानी घर घर की इतिहास रच रहे थे। एकता कपूर की इच्छा हुई कि वह अपने भाई तुषार कपूर की फिल्मों का प्रचार अपने सीरियल में करें। स्टार टीवी के अधिकारी उन्हें नहीं रोक सके। लेखक तो उनके इशारे पर सीन दर सीन लिखने को तैयार थे। इस तरह शुरू हुआ सीरियल में सिनेमा का आना। बड़े पर्दे के कलाकार को जरूरत महसूस हुई कि छोटे पर्दो के कलाकारों के बीच उपस्थित होकर वह घरेलू दर्शकों के भी प्रिय बन जाएं। यह अलग बात है कि इस कोशिश के बावजूद तुषार कपूर पॉपुलर स्टार नहीं बन सके। यह भी आंकड़ा नहीं मिलता कि इस प्रयोग से उनकी फिल्मों के दर्शक बढ़े या नहीं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री को प्रचार का एक और जरिया मिल गया। प्रोफेशनल और सुनियोजित तरीके से संभवत: पहली बार जस्सी जैसी कोई नहीं में हम तुम के स्टार सैफ अली खान को कहानी का हिस्सा बनाया गया। यशराज फिल्म्स की तत्कालीन पीआर एजेंसी स्पाइस के प्रमुख प्रभात चौधरी याद करते हैं, ''वह अलग किस्म की फिल्म थी। इसके प्रचार

हिंदी फिल्मों की हदबंदी

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले सप्ताह आई ब्रेक के बाद की आलिया कन्फ्यूज्ड है। वह प्रेम के एहसास और शादी की योजना से दूर रहना चाहती है। उसे करियर बनाना है। उसे अपनी संतुष्टि के लिए कुछ करना है। इसी कोशिश में वह प्रेमी अभय से ब्रेक लेती है और देश छोड़ कर चली जाती है। उसे लगता है कि अभय का प्रेम उसके भविष्य की राह का रोड़ा है। डेढ़ घंटे के ड्रामे के बाद जो होता है, वह हर हिंदी फिल्म में होता है। अंत में वह देश लौटती है और अभय के साथ शादी के मंडप में बैठ जाती है। इधर की कुछ फिल्मों में ऐसी हीरोइनें बार-बार दिख रही हैं। इम्तियाज अली की फिल्म लव आज कल की भी यही थीम थी। वहीं ये इसकी शुरुआत मान सकते हैं। आई हेट लव स्टोरीज और आयशा भी हमने देखीं। कुछ और फिल्में होंगी। इन सभी फिल्मों के कॉमन थीम में कन्फ्यूज्ड लड़कियां हैं। सभी आज की लड़कियां हैं। आजाद सोच की आधुनिक लड़कियां, जो अपनी एक स्वतंत्र पहचान चाहती हैं। इस पहचान के लिए वे संघर्ष करती हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों की हदबंदी उन्हें आखिरकार प्रेमी और हीरो के पास ले आती हैं। हिंदी फिल्मों में ढेर सारी चीजें बदल कर भी नहीं बदलतीं। प्रेम और शादी से पूरी फ

फिल्‍म समीक्षा : फंस गए रे ओबामा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बेहतरीन फिल्में सतह पर मजा देती हैं और अगर गहरे उतरें तो ज्यादा मजा देती हैं। फंस गए रे ओबामा देखते हुए आप सतह पर सहज ही हंस सकते हैं, लेकिन गहरे उतरे तो इसके व्यंग्य को भी समझ कर ज्यादा हंस सकते हैं। इसमें अमेरिका और ओबामा का मजाक नहीं उड़ाया गया है। वास्तव में दोनों रूपक हैं, जिनके माध्यम से मंदी की मार का विश्वव्यापी असर दिखाया गया है। अमेरिकी ओम शास्त्री से लेकर देसी भाई साहब तक इस मंदी से दुखी और परेशान हैं। सुभाष कपूर ने सीमित बजट में उपलब्ध कलाकारों के सहयोग से अमेरिकी सब्जबाग पर करारा व्यंग्य किया है। अगर आप समझ सकें तो ठीक वर्ना हंसिए कि भाई साहब के पास थ्रेटनिंग कॉल के भी पैसे नहीं हैं। सच कहते हैं कि कहानियां तो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं। बारीक नजर और स्वस्थ दिमाग हो तो कई फिल्में लिखी जा सकती हैं। प्रेरणा और शूटिंग के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है। महंगे स्टार, आलीशान सेट और नयनाभिरामी लोकेशन नहीं जुटा सके तो क्या.. अगर आपके पास एक मारक कहानी है तो वह अपनी गरीबी में भी दिल को भेदती हैं। क्या सुभाष कपूर को ज्यादा बजट मिलता और कथित स्टार मिल

फिल्‍म समीक्षा : खेलें हम जी जान से

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-अजय ब्रह्मात्‍मज आजादी की लड़ाई के अनेक शहीद गुमनाम रहे। उनमें से एक चिटगांव विद्रोह के सूर्य सेन हैं। आशुतोष गोवारीकर ने मानिनी चटर्जी की पुस्तक डू एंड डाय के आधार पर उनके जीवन प्रसंगों क ो पिरोकर सूर्य सेन की गतिविधियों का कथात्मक चित्रण किया है। स्वतंत्रता संग्राम के इस अध्याय को हम ने पढ़ा ही नहीं है, इसलिए किरदार, घटनाएं और प्रसंग नए हैं। खेलें हम जी जान से जैसी फिल्मों से दर्शकों की सहभागिता एकबारगी नहीं बनती, क्योंकि सारे किरदार अपरिचित होते हैं। उनके पारस्परिक संबंधों के बारे में हम नहीं जानते। हमें यह भी नहीं मालूम रहता है कि उनका चारीत्रिक विकास किस रूप में होगा। हिंदी फिल्मों का आम दर्शक ऐसी फिल्मों के प्रति सहज नहीं रहता। खेलें हम जी जान से 1930 में सूर्य सेन के चिटगांव विद्रोह की कहानी है। उन्होंने अपने पांच साथियों और दर्जनों बच्चों के साथ इस विद्रोह की अगुवाई की थी। गांधी जी के शांति के आह्वान के एक साल पूरा होने के बाद उन्होंने हिंसात्मक क्रांति का सूत्रपात किया था। सुनियोजित योजना से अपने सीमित साधनों में ही चिटगांव में अंग्रेजों की व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया

नहीं-नहीं आलिया बहुत क्लियर है straight फॉरवर्ड -सोनाली सिंह

सोनाली सिंह ने ब्रेक के बाद की आलिया के संदर्भ में यह टिप्‍पणी दी है। प्रेम गली अति साकरी जिसमे समाये न दोय " वाली कहावत पुरानी हो चुकी है.आजकल के प्रेम की गलियां बहुत फिसलन भरी है जिन पर बहुत संभल - संभल कर कदम बढ़ाने पढ़ते है अन्यथा आपका हाल गुलाटी की बुआ जैसा हो सकता है.फिल्म का सबसे खुबसूरत पक्ष बेइंतहा , बेशर्त प्यार करने वाला गुलाटी और बेहद restless n confused character आलिया है.नहीं-नहीं आलिया बहुत क्लियर है straight फॉरवर्ड .इतनी साफ दिल की लड़कियां भला मिलती है आजकल ? फिल्म देखने मेरे साथ गए दोस्तों को आलिया confused लगी थी पर मुझे नहीं.......मैं आलिया की बैचेनी महसूस कर सकती थी.यह बैचेनी कुछ कर पाने की,कुछ न कर पाने की, किन्ही अर्थों में मैडम बावेरी की बैचेनी से कम नहीं थी.हममे से कोई भी परफेक्ट नहीं है.किसी के पास परफेक्ट लाइफ नहीं.हर कोई परफेक्ट लाइफ पाना चाहता है....किसी के पास प्यार है तो करियर नहीं. अगर करियर है तो प्यार नहीं. "जिंदगी एक तलाश है और हर किसी को अपनी-अपनी मंजिलों की तलाश है."बात सिर्फ इतनी है की जिंदगी अब बहुत सी मंजिलों की तलाश हो गयी है.ए

अनुराग कश्यप की प्रोडक्शन नंबर 7

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सत्या, कौन और शूल में मनोज बाजपेयी और अनुराग के बीच अभिनेता और लेखक का संबंध रहा। शूल के बाद दोनों साथ काम नहीं कर सके, पर दोनों ही अपनी खास पहचान बनाने में कामयाब रहे। ग्यारह सालों के बाद दोनों फिर से साथ आ रहे हैं। इस बार अनुराग लेखक के साथ निर्देशक भी हैं। इस संबंध में उत्साहित मनोज कहते हैं, 'संयोग रहा कि हम शूल के बाद एक साथ काम नहीं कर सके। अनुराग की देव डी और गुलाल में खुद के न होने का मुझे अफसोस है। कोई बात नहीं, अनुराग को अपनी नई फिल्म के लिए मैं उपयुक्त लगा। मुझे खुशी है कि उनके निर्देशन में मुझे अभिनय करने का मौका मिला है।' इधर अनुराग भी अपनी नई फिल्म को लेकर काफी उत्साहित हैं। इस फिल्म का अभी नामकरण नहीं हुआ है। अनुराग बताते हैं, 'मेकिंग के दौरान ही कोई नाम सूझ जाएगा। सुविधा के लिए इसे आप मेरी 'प्रोडक्शन नंबर- 7' कह सकते हैं।' उत्साह की खास वजह पूछने पर अनुराग के स्वर में खुशी सुनाई पड़ती है, 'मैं अपनी जड़ों की तरफ लौट रहा हूं। अपनी जन्मभूमि में पहली बार फिल्म शूट कर रहा हूं। बनारस के आसपास ओबरा और अनपरा में मेरा बचपन गुजरा है।

फिल्‍म समीक्षा : ब्रेक के बाद

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थीम और परफार्मेस में दोहराव -अजय ब्रह्मात्‍मज आलिया और अभय बचपन के दोस्त हैं। साथ-साथ हिंदी सिनेमा देखते हुए बड़े हुए हैं। मिस्टर इंडिया (1987) और कुछ कुछ होता है (1998) उनकी प्रिय फिल्में हैं। यह हिंदी फिल्मों में ही हो सकता है कि ग्यारह साल के अंतराल में आई फिल्में एक साथ बचपन में देखी जाएं और वह भी थिएटर में। यह निर्देशक दानिश असलम की कल्पना है, जिस पर निर्माता कुणाल कोहली ने मोहर लगाई है। इस साल हम दो फिल्में लगभग इसी विषय पर देख चुके हैं। दोनों ही फिल्में बुरी थीं, फिर भी एक चली और दूसरी फ्लॉप रही। पिछले साल इसी विषय पर हम लोगों ने लव आज कल भी देखी थी। इन सभी फिल्मों की हीरोइनें प्रेम और शादी को अपने भविष्य की अड़चन मान बे्रक लेने या अलग होने को फैसला लेती हैं। उनकी निजी पहचान की यह कोशिश अच्छी लगती है, लेकिन वे हमेशा दुविधा में रहती हैं। प्रेमी और परिवार का ऐसा दबाव बना रहता है कि उन्हें अपना फैसला गलत लगने लगता है। आखिरकार वे अपने प्रेमी के पास लौट आती हैं। उन्हें प्रेम जरूरी लगने लगता है और शादी भी करनी पड़ती है। फिर सारे सपने काफुर हो जाते हैं। ब्रेक के बाद इसी थी

तैयार हो रही है एडल्ट शो की जमीन

-अजय ब्रह्मात्‍मज सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के फैसले के मुताबिक 17 नवंबर से बिग बॉस और राखी का फैसला टीवी शो अपने एडल्ट कंटेंट की वजह से रात के ग्यारह बजे के बाद ही प्रसारित होने लगे। स्वाभाविक रूप से इस सरकारी फैसले पर अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। एक समूह पूछ रहा है कि क्यों बिग बॉस और राखी का फैसला ही प्राइम टाइम से बाहर किए गए, जबकि कई सीरियलों और दूसरे टीवी शो में आपत्तिजनक एडल्ट कंटेंट होते हैं। अब तो टीवी न्यूज चैनल प्राइम टाइम पर सेक्स सर्वेक्षण तक पेश करते हैं और विस्तार से सेक्स की बदलती धारणाओं और व्यवहार का विश्लेषण करते हैं। ऐसी स्थिति में दो विशेष कार्यक्रमों को चुनकर रात ग्यारह के बाद के स्लॉट में डाल देने को गलत फैसला माना जा रहा है। वहीं दूसरा समूह सरकारी फैसले का समर्थन करते हुए बाकी सीरियल और शो पर भी शिकंजा करने की वकालत कर रहा है। इस समूह के मुताबिक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ लोग अश्लीलता परोसते हैं और दर्शकों को उत्तेजित कर अपने शो की टीआरपी बढ़ाते हैं। प्राइम टाइम पर आ रहे इन कार्यक्रमों के दौरान बच्चे जागे रहते हैं, इसलिए उन्हें रात के

जरूरी है चिटगांव विद्रोह के सूर्य सेन को जानना: आशुतोष गोवारीकर

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आशुतोष गोवारीकर की हर नई फिल्म के प्रति दर्शकों और समीक्षकों की जिज्ञासाएं और आशंकाएं कुछ ज्यादा रहती हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि लगान के बाद वे एक जिम्मेदार निर्देशकके रूप में सामने आए हैं। उनकी फिल्में हिंदी फिल्मों के पारंपरिक ढांचे में होते हुए भी चालू और मसालेदार किस्म की नहीं होतीं। उनकी हर फिल्म एक नए अनुभव के साथ सीख भी देती है। खेलें हम जी जान से मानिनी चटर्जी की पुस्तक डू एंड डाय पर आधारित चिटगांव विद्रोह पर केंद्रित क्रांतिकारी सूर्य सेन और उनकेसाथियों की कहानी है.. स्वदेस से लेकर खेलें हम जी जान सेतक की बात करूं तो आप की फिल्में रिलीज के पहले अलग किस्म की जिज्ञासाएं बढ़ाती हैं। कुछ शंकाएं भी जाहिर होती हैं। आप इन जिज्ञासाओं और शंकाओं को किस रूप में लेते हैं। इसे मैं दर्शकों और समीक्षकों की रुचि और चिंता के रूप में लेता हूं। हम सभी प्रचलित धारणाओं से ही अपनी राय बनाते हैं। जब जोधा अकबर में मैंने रितिक रोशन को चुना तो पहली प्रतिक्रिया यही मिली कि रितिक अकबर का रोल कैसे कर सकते हैं? यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। ह्वाट्स योर राशि? के समय मेरी दूसरी फिल्मों के आलोचक ही कहने लगे क

फिल्‍म समीक्षा : गुजारिश

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सुंदर मनोभावों का भव्य चित्रण -अजय ब्रह्मात्‍मज पहले फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक गुजारिश किसी जादू की तरह जारी रहता है। फिल्म ऐसा बांधती है कि हम अपलक पर्दे पर चल रही घटनाओं को देखते रहते हैं। इंटरवल भी अनायास लगता है। यह संजय लीला भंसाली की अनोखी रंगीन सपनीली दुनिया है, जिसका वास्तविक जगत से कोई खास रिश्ता नहीं है। फिल्म की कहानी आजाद भारत की है, क्योंकि संविधान की बातें चल रही हैं। पीरियड कौन सा है? बता पाना मुश्किल होगा। फोन देखकर सातवें-आठवें दशक का एहसास होता है, लेकिन रेडियो जिदंगी जैसा एफएम रेडियो और सैटेलाइट न्यूज चैनल हैं। मोबाइल फोन नहीं है। संजय लीला भंसाली इरादतन अपनी फिल्मों को काल और समय से परे रखते हैं। गुजारिश में मनोभावनाओं के साथ एक विचार है कि क्या पीडि़त व्यक्ति को इच्छा मृत्यु का अधिकार मिलना चाहिए? गुजारिश एक अद्भुत प्रेमकहानी है, जिसे इथेन और सोफिया ने साकार किया है। यह शारीरिक और मांसल प्रेम नहीं है। हम सभी जानते हैं कि इथेन को गर्दन के नीचे लकवा (क्वाड्रो प्लेजिया) मार गया है। उसे तो यह भी एहसास नहीं होता कि उसने कब मल-मूत्र त्यागा। एक दुर्घटना के बाद