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सलमान छवियां

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डिजिटल मनोरंजन की बढ़ रही रफ्तार

मार्च के आखिरी सप्ताह में आयोजित फिक्की फ्रेम्स में दुनिया भर से आए मीडिया महारथियों के जमावड़े में यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया कि हर देश की तरह भारत को भी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आगे आने के लिए डिजिटलीकरण की अड़चनों को दूर करना होगा। मोबाइल क्रांति ने डिजिटलीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी है, लेकिन मीडिया और मनोरंजन के पुराने खिलाड़ी आज भी एक बाधा के रूप में खड़े हैं। वे हरसंभव कोशिश करते हैं कि डिजिटलीकरण की रफ्तार धीमी की जाए। हर क्षेत्र में डिजिटल क्रांति सच्चाई यह है कि फिल्म, टी.वी., म्यूजिक और संचार के अन्य सभी माध्यमों में डिजिटल उपयोग के लाभ को देखते हुए अनचाहे ही सही, सभी इसे अपना रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में डिजिटल क्रांति आ चुकी है। डिजिटलीकरण की प्रक्रिया में किसी भी पाठ, ध्वनि, छवि और आवाज को डिजिटल कोड में बदला जाता है और उसे नियंत्रित तरीके से संचारित किया जाता है। मोबाइल फोन इसका अनुपम उदाहरण है, जिसके माध्यम से हम पाठ, ध्वनि और चित्र संबंधी सारी सूचनाएं किसी भी समय कहीं भी हासिल कर सकते हैं। सस्ती हुई प्रिंट की लागत फिल्मों के क्षेत्र में भी डिजिटल

फिल्मों का सेंसर बोर्ड

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हम केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को ही सेंसर बोर्ड के नाम से जानते हैं। इस बोर्ड की मुख्य जिम्मेदारी फिल्मों और दूसरे ऑडियो विजुअल सामग्रियों के प्रदर्शन का सर्टिफिकेट देना है। मुंबई समेत देश के कई शहरों में इसके दफ्तर हैं, जहां निर्माता बोर्ड के अधिकारियों के समक्ष अपनी फिल्मों को दिखाकर उनके प्रदर्शन का सर्टिफिकेट लगते हैं। फिल्म के कंटेंट के आधार पर अभी फिल्मों को यू (यूनिवर्सल), ए (एडल्ट), यूए (पैरेंटल गाइडेंस) या एस (स्पेशल) सर्टिफिकेट दिए जाते हैं। सेंसर बोर्ड के अधिकारी सुनिश्चित दिशानिर्देशों को ध्यान में रखते हुए तय करते हैं कि किसी फिल्म को क्या सर्टिफिकेट दिया जाए। अगर उन्हें कुछ आपत्तिजनक लगता है तो उसे फिल्म से निकालने या काटने की सलाह देते हैं। हम सभी सेंसर कट शब्द से भी परिचित हैं। कट आने या न आने पर ही विवाद होते हैं। सेंसर बोर्ड अपने गठन के बाद से कमोबेश यह जिम्मेदारी निभाता रहा है। कभी-कभी सेंसर बोर्ड के फैसलों और रवैयों को लेकर विवाद होते रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री का एक तबका सेंसर बोर्ड को गैरजरूरी मानता है। उसके मुताबिक फिल्ममेकर समझदार होते हैं। हमें सेल्फ सेंसरशिप क

खेल है विजन और वजन का-राकेश ओमप्रकाश मेहरा

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हमलोगों ने डेढ़-दो साल पहले सोचा था कि अपने प्रोडक्शन में दूसरे डायरेक्टरों की फिल्मों का निर्माण करेंगे। मेरे पास कई युवा निर्देशक आते रहते थे। मुझे लगता था कि उन्हें सही प्लेटफार्म मिलना चाहिए। उसी दिशा में पहली कोशिश है 3 थे भाई। कैसी फिल्म है यह? यह तीन लड़ाके और लूजर भाइयों की कहानी है। हमने हल्के-फुल्के अंदाज में इसे पेश किया है। ओम पुरी, श्रेयस तलपडे और दीपक डोबरियल ने बहुत ही सुंदर काम किया है। इस फिल्म में मुझे अशोक मेहता, गुलजार, सुखविंदर सिंह और रंजीत बारोट के साथ काम करने में मजा आया। इंटरेस्टिंग फिल्म है। इन दिनों ज्यादातर बड़े निर्माता-निर्देशक अपने प्रोडक्शन में छोटी फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं। आपका प्रयास कितना अलग है? हम सिर्फ मुनाफे के लिए फिल्में नहीं प्रोड्यूस कर रहे हैं। फिल्म को सिर्फ बिजनेस के तौर पर मैंने कभी नहीं देखा है। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ छोटी फिल्में ही दूसरे निर्देशकों को मिलेंगी। बजट तो फिल्म के कंटेंट के आधार पर डिसाइड होगा। कल को हो सकता है कि बड़े बजट की एक फिल्म कोई और डायरेक्ट कर रहा हो। किस आधार पर निर्देशकों को चुन रहे हैं या भविष्य में चुने

दम मारने की फुर्सत नहीं-अभिषेक बच्चन

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- अजय ब्रह्मात्मज अभिषेक बच्चन की फिल्म गेम रिलीज हो चुकी है और बमुश्किल दो सप्ताह के भीतर दम मारो दम दर्शकों के बीच होगी। किसी भी अभिनेता की फिल्मों के लिए यह मुश्किल स्थिति होती है, क्योंकि माना जाता है कि दो फिल्मों की रिलीज के बीच सुरक्षित अंतर रहना चाहिए। यह भी एक संयोग है कि उनकी पहली फिल्म गेम व‌र्ल्ड कप के फाइनल के एक दिन पहले रिलीज हुई और दूसरी दम मारो दम आईपीएल के मध्य रिलीज हो रही है। दर्शकों और ट्रेड पंडितों के बीच ऐसे संयोगों को लेकर भले ही चर्चा चल रही है, लेकिन अभिषेक बच्चन इनसे बेफिक्र हैं। वे स्पष्ट करते हैं, ''मैंने गेम के निर्माता रितेश से कहा था कि ऐसे वक्त फिल्म रिलीज न करें, लेकिन उन्होंने अपनी मजबूरी बताई। दूसरी फिल्म दम मारो दम 22 अप्रैल को रिलीज हो रही है। फिल्मों की रिलीज पर हमारा वश नहीं होता। फिल्म की डबिंग के बाद हमारा डिसीजन कोई मानी नहीं रखता।'' गेम के प्रति दर्शकों की प्रतिक्रिया को स्वीकार करते हुए अभिषेक बच्चन कहते हैं, ''सभी फिल्मों में हमारी मेहनत एक जैसी होती है। कुछ फिल्में दर्शकों को पसंद नहीं आतीं।'' वे बात बदल कर

फिल्‍म समीक्षा : थैंक यू

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टाइमपास कामेडी -अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियदर्शन और डेविड धवन की तरह अनीस बजमी का भी एक फार्मूला बन गया है। उनके पास कामेडी के दो-तीन समीकरण हैं। उन्हें ही वे भिन्न किरदारों और कलाकारों के साथ अलग-अलग फिल्मों में दिखाते रहते हैं। थैंक यू में अनीस बज्मी ने नो एंट्री की मौज-मस्ती और विवाहेतर संबंध के हास्यास्पद नतीजों को कनाडा की पृष्ठभूमि में रखा है। वहां फ्लर्ट स्वभाव के पतियों को रास्ते पर लाने के लिए सलमान खान थे। यहां अक्षय कुमार हैं। नो एंट्री में बिपाशा बसु का आयटम गीत था। थैंक यू में मलिका सहरावत रजिया की धुनों पर ठुमके लगाती दिखती हैं। अनीस बज्मी की फिल्में टाइमपास होती हैं। डेविड धवन के विस्तार के रूप में उन्हें देखा जा सकता है। उनकी फिल्में लिखते-लिखते अनीस बज्मी निर्देशन में उतरे और फिर आजमाए फार्मूले से कमोबेश कामयाब होते रहे हैं। थैंक यू में तीन दोस्त हैं। उनकी फितरत में फ्लर्टिग है। मौका मिलते ही वे दूसरी लड़कियों के चक्कर में पड़ जाते हैं। अपनी बीवियों को दबा, समझा और बहकाकर उन्होंने अय्याशी के रास्ते खोज लिए हैं। बीवियों को शक होता है तो उन्हें रास्ते पर लाने के ल

हिंदी फिल्‍मों की पहली तिमाही

-अजय ब्रह्मात्‍मज पहली तिमाही में रिलीज हुई 22 फिल्मों से केवल 6 फिल्मों की कमाई उल्लेखनीय रही। यमला पगला दीवाना, तनु वेड्स मनु, नो वन किल्ड जेसिका, दिल तो बच्चा है जी, धोबी घाट और ये साली जिंदगी ने अपनी लागत के अनुपात में अधिक कमाई की। पटियाला हाउस समेत बाकी छोटी-बड़ी फिल्में दर्शकों का दिल नहीं जीत सकी। ट्रेड पंडितों की राय में पहली तिमाही में व‌र्ल्ड कप की वजह से कई हफ्ते थिएटर खाली रहे, इसलिए बिजनेस कम हुआ। लेकिन गौर करें तो व‌र्ल्ड कप के दरम्यान ही रिलीज हुई तनु वेड्स मनु ने बेहतर कारोबार किया। ये साली जिंदगी के निर्देशक सुधीर मिश्रा ट्रेड पंडितों के विश्लेषण से सहमत नहीं हैं। उनके मुताबिक, यह तर्क बेकार है कि व‌र्ल्ड कप की वजह से ही फिल्म का बिजनेस मारा गया। आप अच्छी फिल्म नहीं बनाओगे तो लोग खाली रहने पर भी थिएटर नहीं आएंगे। और फिर फिल्में ही रिलीज नहीं होंगी तो दर्शक क्या देखने आएंगे? पहली तिमाही में सुधीर मिश्र की फिल्म ये साली जिंदगी ने 17 करोड़ से अधिक का कारोबार किया है। देओल परिवार की फिल्म यमला पगला दीवाना कमाई के लिहाज से सबसे आगे रही। उसका कुल कारोबार 5

मोहल्‍ला अस्‍सी : गालियों और चाय की चुस्कियों...

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मोहल्‍ला अस्‍सी पर तहलका के अतुल चौरसिया की रपट... गालियों और चाय की चुस्कियों में लिपटी सभ्यता को पर्दे पर उतारने की कोशिश बनारस के अस्सी घाट पर वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह की बहुचर्चित किताब काशी का अस्सी पर आधारित फिल्म मोहल्ला अस्सी की शूटिंग से लौटे अतुल चौरसिया फिल्म और साहित्य के प्रति फिल्म के निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी, काशीनाथ सिंह और कहानी के वास्तविक एवं फिल्मी पात्रों का नजरिया साझा कर रहे हैं (लेख में आई कुछ गालियां काशी का अस्सी पुस्तक से संदर्भश: ली गई हैं) बुलेट जैसी निर्जीव मशीन की मां-बहन से किसी का नितांत अंतरंग रिश्ता जुड़ते देखकर ही यह एहसास विश्वास में बदल जाता है कि हम 'सुबहे बनारस' के शहर में हैं, जिसकी धमनियों में गंगा, गलियां और गालियां रक्त के समान ही प्रवाहित होती हंै. चंदुआ सट्टी से लंका की तरफ बढ़ते ही जाम ने अपना मुंह सुरसा की तरह फैला रखा है. नये लोग और दिल्ली-बेंगलुरु के असर में जीने वाले शहर के इस तुमुल कोलाहल पर मुंह बिचकाते दिखते हैं लेकिन सात समंदर पार से यहां आने वाले अंग्रेज और अंग्रेजिनों के माथों पर कोई शिकन तक नहीं दिखती. उनकी नि

फिल्‍म समीक्षा : फालतू

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नाच-गाना और मैसेज -अजय ब्रह्मात्‍मज रेमो डिसूजा की फिल्म में नाच-गाना है। मस्ती है। दोस्ती है। संदेश है। देश की शिक्षा व्यवस्था पर किए गए सवाल हैं। पूरा माहौल है। फिल्म पूरी गति के साथ बांधे रखती हैं। बीच-बीच में हंसी भी आ जाती है। रेमो डिसूजा अपने कंफ्यूजन के साथ कभी कहानी तो कभी कभी नाच-गाने के बीच डोलते रहते हैं। फिल्म पूरी हो जाती है। मुद्दा समझ में नहीं आता तो किरदारों के जरिए छोटी-मोटी भाषणबाजी भी हो जाती है। कोरियोग्राफी के कमाल और युवकों के धमाल के लिहाज से फिल्म रोचक है। रेमो ने कोरियोग्राफी में कल्पनाशीलता का परिचय दिया है। क्लाइमेक्स के पहले के डांस सिक्वेंस में उन्होंने कुछ नया किया है। विषय और मुद्दे की बात करें तो लेखक-निर्देशक तय नहीं कर पाए हैं कि वे पढ़ाई में रुचि-अरुचि या ग्रेडिंग सिस्टम पर फोकस करें। कुछ समय पहले आई 3 इडियट के बाद शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाती फालतू का प्रयास बचकाना लगता है। यहां मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के विकल्प के रूप में एक कालेज की ही कल्पना की जाती है। लेखक-निर्देशक ठीक से जानते भी नहीं कि यूनिवर्सिटी का मतलब क्या होता है? बस बोर्ड चिपक

फिल्म समीक्षा:गेम

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स्टाइलिश, लेकिन कमजोर - अजय ब्रह्मात्मज कुछ दशक पहले तक हिंदी में मर्डर मिस्ट्री फिल्में बनती थीं। उन्हें दर्शक पसंद करते थे। एक अंतराल के बाद इस विधा में गेम आई है। 21वीं सदी में एड फिल्मों से आए निर्देशक अभिनय देव की पहली कोशिश में स्टाइल और विज्ञापन फिल्मों की चमक है। उन्होंने ग्रीस, इस्तांबुल, बैंकाक और मुंबई के लोकेशन पर गेम की शूटिंग की है। बोमन ईरानी, अनुपम खेर, शहाना गोस्वामी, जिमी शेरगिल, कंगना रनौत, सारा जेन डायस और अभिषेक बच्चन के साथ बनी इस फिल्म का पहला घंटा (फ‌र्स्ट हाफ) सटाक से निकल जाता है। उम्मीद बंधती है कि हम एक स्टाइलिश मर्डर मिस्ट्री देखेंगे। यह उम्मीद सेकेंड हाफ में पूरी नहीं होती। मर्डर हो जाता है। उसकी मिस्ट्री भी बनती है, लेकिन साथ में चल रही हिस्ट्री फिल्म से जोड़े नहीं रख पाती। एक अच्छी शुरुआत के बाद अच्छी कहानी और चरित्र निर्वाह नहीं होने से फिल्म बिखर जाती है। निर्देशक का ध्यान कहानी से अधिक लोकेशन और किरदारों की यात्रा पर है। चार शहरों से उन्हें सामोस के एक टापू पर एकत्रित किया जाता है। मर्डर के बाद उनके अपने शहरों में लौटने और बाद की घटन