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सत्‍यमेव जयते-11: सम्मान के साथ सहारा भी दें-आमिर खान

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मुङो लगता है कि भारत विश्व के उन गिने-चुने देशों या समाजों में शामिल है जहां सांस्कृतिक और पारंपरिक रूप से बुजुर्गो को बहुत अधिक सम्मान दिया जाता है। भारत संभवत: एकमात्र देश है जहां हम बड़ों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उनके पैर छूते हैं। तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि व्यावहारिक स्तर पर और अपने बुनियादी ढांचे के लिहाज से हम अपने बुजुर्गो की देखभाल के मामले में अन्य देशों से बहुत पीछे हैं। भारतीय समाज बदल रहा है और धीरे-धीरे हम संयुक्त परिवार की संस्कृति से एकल परिवारों की ओर बढ़ रहे हैं और इसके साथ ही अपने परिवार में बड़े-बूढ़ों के प्रति हमारे संबंध भी बदल रहे हैं। आज जो व्यक्ति किसी बड़े शहर में काम-धंधे के सिलसिले में रह रहा है उसके समक्ष बहुत चुनौतियां हैं। उसके पास खुद के लिए, अपने छोटे से परिवार के लिए बहुत कम समय है। इस बदलते परिदृश्य में गौर कीजिए कि हमारे बड़े-बुजुर्गो के साथ क्या होता है? हम उनके लिएक्या करते हैं?हमें अपने बुजुर्गो के लिए बेहतर योजना बनाने की आवश्यकता है और सच कहें तो खुद अपने लिए भी, क्योंकि देर-सबेर हम सभी को उस स्थिति में पहुंच

फिल्‍म समीक्षा : कॉकटेल

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  दिखने में नयी,सोच में पुरानी   -अजय ब्रह्मात्‍मज होमी अदजानिया निर्देशित कॉकटेल की कहानी इम्तियाज अली ने लिखी है। इम्तियाज अली की लिखी और निर्देशित फिल्मों के नायक-नायिका संबंधों को लेकर बेहद कंफ्यूज रहते हैं। संबंधों को स्वीकारने और नकारने में ढुलमुल किरदारों का कंफ्यूजन ही उनकी कहानियों को इंटरेस्टिंग बनाता है। कॉकटेल के तीनों किरदार गौतम, वेरोनिका और मीरा अंत-अंत तक कंफ्यूज रहते हैं। इम्तियाज अली ने इस बार बैकड्रॉप में लंदन रखा है। थोड़ी देर के लिए हम केपटाउन भी जाते हैं। कहानी दिल्ली से शुरू होकर दिल्ली में खत्म होती है। गौतम कपूर आशिक मिजाज लड़का है। उसे हर लड़की में हमबिस्तर होने की संभावना दिखती है। वह हथेली में दिल लेकर चलता है। लंदन उड़ान में ही हमें गौतम और मीरा के स्वभाव का पता चल जाता है। लंदन में रह रही वेरोनिका आधुनिक बिंदास लड़की है। सारे रिश्ते तोड़कर मौज-मस्ती में गुजर-बसर कर रही वेरोनिका के लिए आरंभ में हर संबंध की मियाद चंद दिनों के लिए होती है। एनआरआई शादी के फरेब में फंसी मीरा पति से मिलने लंदन पहुंचती है। पहली ही मुलाकात में

शौर्य,साहस और संरक्षक के सिंबल रहे दारा सिंह

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  1987 में आरंभ हुए टीवी सीरियल रामायण ने दारा सिंह को हनुमान की छवि दी। उनकी इस छवि को सराहा और पूजा गया। आज के अधिकांश युवक उन्हें इसी रूप में जानते और पहचानते हैं, लेकिन 40 की उम्र पार कर चुके किसी भी भारतीय नागरिक के मन में दारा सिंह की अन्य छवियां और किंवदंतियां हैं। उन दिनों न तो मीडिया का ऐसा प्रचार-प्रसार था और न मीडिया ऐसी हस्तियों को अधिक तूल देता थी। फिर भी दारा सिंह अपने किस्सों के साथ बिहार के सुदूर बगहा और बेतिया जैसे कस्बों और छोटे शहरों तक में धूम मचाए रहते थे। उनकी लोकप्रियता कहीं न कहीं भारत के गौरव से जुड़ी थी। तभी तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनसे सपरिवार मिलने में संकोच नहीं होता था। दारा सिंह की एक पॉपुलर तस्वीर में वह अपने छोटे भाई रंधावा के साथ इंदिरा गांधी के परिवार से मिल रहे हैं। उस तस्वीर के एक कोने में फिल्मों में आने के पहले के अमिताभ बच्चन भी खड़े हैं। हम सभी ने अपने बचपन में उनके कुछ किस्से सुने हैं। खुद दारा सिंह बनने की कोशिश की है या किसी को चुनौती के रूप में देख कर ललकारा है-अपने आप को दारा सिंह समझते हो क्य

स्‍नेहा खानवलकर : एक ‘टैं टैं टों टों’ लड़की -गौरव सोलंकी

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए रोटी,कपड़ा और सिनेमा से साभार  वह एक लड़की थी, स्कूलबस के लम्बे सफ़र में चेहरा बाहर निकालकर गाती हुई,   रंगीला का कोई गाना और इस तरह उस संगीत की धुन पर कोर्स की कविताएं याद करती हुई,   जिन्हें स्कूल के वाइवा एग्ज़ाम में सुना जाता था। वाइवा पूरी क्लास के सामने होता था। ऐसे ही एक दिन वह टीचर के पास खड़ी थी और कविता उस संगीत से इतना जुड़ गई थी कि पहले उसे उसी धुन पर कविता गुनगुनानी पड़ रही थी और तभी बिना धुन के टीचर के सामने दोहरा पा रही थी।   टीचर ने पूछा- यह क्या फुसफुसा रही हो? - मैम,   म्यूजिक से याद की है poem .. - तो वैसे ही सुनाओ... और तब ‘ याई रे ’ की धुन पर वह अंग्रेज़ी कविता उस क्लास में सुनाई गई। डाँट पड़ी। लड़की को चुप करवाकर बिठा दिया गया। लेकिन घर में ऐसा नहीं होता था। कभी कोई मेहमान आता,   कोई फ़ंक्शन होता या लम्बे पिकनिक पर जाते तो गाना सुनाने को कहा जाता था। तब शाबासी मिलती थी। उसके चचेरे भाई-बहन भी गाते थे। गाते हुए अच्छे से चेहरे और हाथों की हरकतें कर दो तो घरवाले बहुत ख़ुश होते थे- अरे,   आशा से अच्छा गाया है तुमने

उत्‍सवधर्मी भारतीय समाज में उत्‍सव के सोलह प्रसंग

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज भा रतीय दर्शन और जीवनशैली में गर्भधारण से मृत्‍यु तक के विभिन्‍न चरणों को रेखांकित करने के साथ उत्‍सव का प्रावधान है। आरंभ में हम इसे चालीस संस्‍कारों के नाम से जानते थे। गौतम स्‍मृति में चालीस संस्‍कारों का उल्‍लेख मिलता है। महर्षि अंगिरा ने इन्‍हें पहले 25 संस्‍कारों में सीमित किया। उसके बाद व्‍यास स्‍मृति में 16 संस्‍कारों का वर्णन मिलता है। इन संस्‍कारों का किसी धर्म, जाति, संप्रदाय से सीधा संबंध नहीं हैं। वास्‍तव में ये संस्‍कार मनुष्‍य जीवन के सभी चरणों के उत्‍सव हैं। इन उत्‍सवों के बहाने परिजन एकत्रित होते हैं। उनमें परस्‍पर सहयोग, सामूहिकता और एकता की भावना बढ़ती है। जीवन का सामूहिक उल्‍लास उन्‍हें जोड़ता है। आधुनिक जीवन पद्धति के विकास के साथ वर्तमान में संयुक्‍त परिवार टूट रहे हैं। फिर भी 16 संस्‍कारों में से प्रचलित कुछ संस्‍कारों के अवसर पर विस्‍तृत परिवार के सभी सदस्‍यों और मित्रों के एकत्रित होने की परंपरा नहीं टूटी है। शहरों में न्‍यूक्लियर परिवार के सदस्‍य अपने मित्रों और पड़ोसियों के साथ इन संस्‍कारों का उत्‍सव मनाते हैं।

सत्‍यमेव जयते-10 : समानता का अधूरा सपना-आमिर खान

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अनेक ऐसी बातें हैं जो महात्मा गांधी को उनके समकालीन स्वतंत्रता सेनानियों तथा नेताओं से अलग करती हैं। इनमें से एक बात यह है कि उन्होंने आजादी के संघर्ष के साथ-साथ एक अन्य चीज को बराबर का महत्व दिया और यह थी समाज में नीचे के स्तर पर समझी जाने वाली जातियों के लोगों को बराबरी पर लाने का प्रयास। अस्पृश्यता के खिलाफ गांधीजी का कार्य हमारी आजादी के पांच दशक पहले दक्षिण अफ्रीका से ही आरंभ हो गया था। जब वह भारत लौटे तो उनसे जुड़ी एक घटना ही यह बताने के लिए काफी है कि उन्होंने समानता के विचार को कितना महत्व दिया। यह वर्ष 1915 की बात है। गांधीजी के एक निकट सहयोगी ठक्कर बप्पा ने एक दलित दुधा भाई को आश्रम में रहने के लिए भेजा। कस्तूरबा समेत हर कोई उन्हें आश्रम में रखने के खिलाफ था। गांधीजी ने यह साफ कर दिया कि दुधा भाई आश्रम नहीं छोड़ेंगे और जो लोग इससे सहमत नहीं हैं वे खुद आश्रम छोड़कर जाने के लिए स्वतंत्र हैं। उन्हें यह भी बताया गया कि कोई भी उनकी बात से सहमत नहीं होगा और यहां तक कि आश्रम को मिलने वाली आर्थिक सहायता भी बंद हो सकती है। इसका भी गांधीजी पर कोई असर नहीं पड़ा। गांधीजी

कामना चंद्रा : गृहिणी से बनीं फिल्म लेखिका

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  -अजय ब्रह्मात्मज इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से 1953 में हिंदी से स्नातक कामना चंद्रा की शादी उसी साल हो गई थी। हिंदी की पढ़ाई और इलाहाबाद के माहौैल ने कामना चंद्रा में लेखन को शौक पैदा किया। उनकी टीचर मिस निगम ने सलाह दी कि कामना तुम अच्छा लिखती हो। चाहे कुछ भी हो, लिखना मत बंद करना। कामना चंद्रा ने अपने टीचर की सलाह गांठ बांध ली। घर-गृहस्थी के बाद भी कामना चंद्रा का लेखन चलता रहा। शादी के बाद कामना चंद्रा के पति नवीन चंद्रा की पोस्टिंग दिल्ली हुई। दिल्ली में उन्होंने आकाशवाणी और पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन किया। फिर भी कामना चंद्रा ने घर-परिवार को प्राथमिकता दी। बच्चों की परवरिश से फुर्सत मिलने पर ही वह लिखती थीं। बेटे विक्रम चंदा और बेटियां अनुपमा और तनुजा चंद्रा के पालन-पोषण पर उन्होंने पूरा ध्यान दिया। उन्होंने अपनी मर्जी से तय किया था कि वह जॉब नहीं करेंगी। 1977 में उनके पति मुंबई आ गए। यहां आने के बाद कामना चंद्रा की इच्छा जगी कि राज कपूर को एक स्टोरी सुनाई जाए। और फिर फिल्मों का सिलसिला चालू हुआ। ‘प्रेमरोग’     ‘आग’ के समय से ही मैं राज कपूर की प्रशंसिका थीं। मैंनेे उनकी सारी फ

फिल्‍म समीक्षा : बोल बच्‍चन

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  एक्शन की गुदगुदी, कामेडी का रोमांच  पॉपुलर सिनेमा प्रचलित मुहावरों का अर्थ और रूप बदल सकते हैं। कल से बोल वचन की जगह हम बोल बच्चन झूठ और शेखी के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। वचन बिगड़ कर बचन बना और रोहित शेट्टी और उनकी टीम ने इसे अपनी सुविधा के लिए बच्चन कर दिया। वे साक्षात अमिताभ बच्चन को फिल्म की एंट्री और इंट्रो में ले आए। माहौल तैयार हुआ और अतार्किक एक्शन की गुदगुदी और कामेडी का रोमांच आरंभ हो गया। रोहित शेट्टी की फिल्म बोल बच्चन उनकी पुरानी हास्य प्रधान फिल्मों की कड़ी में हैं। इस बार उन्होंने गोलमाल का नमक डालकर इसे और अधिक हंसीदार बना दिया है। बेरोजगार अब्बास अपनी बहन सानिया के साथ पिता के दोस्त शास्त्री के साथ उनके गांव रणकपुर चला जाता है। पितातुल्य शास्त्री ने आश्वस्त किया है कि पृथ्वीराज रघुवंशी उसे जरूर काम पर रख लेंगे। गांव में पृथ्वीराज रघुवंशी को पहलवानी के साथ-साथ अंग्रेजी बोलने का शौक है। उन्हें झूठ से सख्त नफरत है। घटनाएं कुछ ऐसी घटती हैं कि अब्बास का नाम अभिषेक बच्चन बता दिया जाता है। इस नाम के लिए एक झूठी कहानी गढ़ी जाती है और फिर उसके मुताबिक

भविष्य का सिनेमा

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज दिल्ली में मोहल्ला लाइव द्वारा आयोजित सिने बहस तलब में विमर्श का एक विषय रखा गया था -अगले सौ साल का एजेंडा। इस विमर्श में अनुराग कश्यप, हंसल मेहता, स्वरा भास्कर और सुधीर मिश्र मौजूद थे। अनुराग और सुधीर दोनों ने कहा कि हम उस इंडस्ट्री के संदर्भ में अगले सौ सालों के बारे में कैसे बातें कर सकते हैं जो अगले कुछ सालों की तो छोडि़ए, अगले साल के बारे में भी आश्वस्त नहीं हैं कि वह किस दिशा में मुड़ेगी या बढ़ेगी? तात्कालिक लाभ में यकीन करने वाली हिंदी फिल्म इंडस्ट्री हमेशा पिछली कामयाबी को दोहराने मे लगी रहती है। अचानक कभी एक निर्देशक कोई प्रयोग करने में सफल होता है और फिर उसकी नकल आरंभ हो जाती है। धीरे-धीरे एक ट्रेंड बन जाता है और कहा जाने लगता है कि दर्शक यही चाहते हैं। इसी एकरूपता में परिव‌र्त्तन चलता रहता है। सुधीर मिश्र ने जोर देकर कहा कि तकनीक की प्रगति से सिनेमा पारंपरिक हद से निकल रहा है। सिनेमा का स्क्रीन छोटा होता जा रहा है। फिल्म देखने का आनंद आज भी थिएटरों में ही आता है, लेकिन उसे दोबारा-तिबारा या अपनी सुविधा से देखने का आनंद कुछ और होता

बच्चन सिनेमा और उसकी ईर्ष्यालु संतति-गिरिराज किराडू

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए यह लेख जानकीपुल से कट-पेस्‍ट किया जा रहा है.... अनुराग कश्यप ने सिनेमा की जैसी बौद्धिक संभावनाएं जगाई थीं उनकी फ़िल्में उन संभावनाओं पर वैसी खरी नहीं उतर पाती हैं. 'गैंग्स ऑफ वासेपुर'  का भी वही हाल हुआ. इस फिल्म ने सिनेमा देखने वाले बौद्धिक समाज को सबसे अधिक निराश किया है. हमारे विशेष आग्रह पर कवि-संपादक-आलोचक  गिरिराज किराडू  ने इस फिल्म का विश्लेषण किया है, अपने निराले अंदाज में- जानकी पुल. ============================================ [ गैंग्स ऑफ वासेपुर  की 'कला' के बारे में बात करना उसके फरेब में आना है, उसके बारे में उस तरह से बात करना है जैसे वह चाहती है कि उसके बारे में बात की जाए. समीरा मखमलबाफ़ की 'तख़्त-ए-सियाह' के बाद फिल्म पर लिखने का पहला अवसर है. गर्मियों की छुट्टियाँ थीं, दो बार (एक बार सिंगल स्क्रीन एक बार मल्टीप्लेक्स) देखने जितना समय था और सबसे ऊपर जानकीपुल संपादक का हुक्म था] अमिताभ बच्चन अपनी फिल्मों में 'बदला' लेने में नाकाम नहीं होता. तब तो बिल्कुल नहीं जब वह बदला लेने के लिए अपराधी बन जाय.