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One Century, A Million Milestones- Anna M.M. Vetticad

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  - Anna M.M. Vetticad ( आप अन्‍ना के लेख यहां पढ़ सकते हैं। ) Byari:  An Indian language that even most Indians have not heard of. Byari:  The title of the Best Feature Film at this year’s National Awards. For a foreigner, there is no better showcase of Indian heterogeneity than Indian cinema. And to understand India’s wildly diverse cinema in the 100th year since the release of the country’s first feature film, Raja Harishchandra, there are few commentaries more educative than the National Film Awards that were given away last month. For most of the world, Indian cinema is synonymous with Bollywood song and dance, but neither Byari nor Deool – joint winners of the Best Feature Film Award – would fall into that slot. For one, they are not in Hindi. Byari is made in a little-known dialect spoken by a Muslim community inhabiting the country’s south-western coastline, and highlights the impact on women of stringent religious and social codes. Deool, a Marathi fil

बॉलीवुड में हिंदी-मनोज रघुवंशी

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आठवें विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के अवसर पर मनोज रघुवंशी ने बॉलीवुड में हिंदी नाम की फिल्‍म बनाई थी। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हिंदी की स्थिति के सच का यह एक पहलू है। आप भी देखें और गौरवान्वित हों। वैसे हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हिंदी की वास्‍तविक स्थिति कुछ और है। इतराने में क्‍या जाता है ?

फिल्‍म समीक्षा : बॉम्‍बे टाकीज

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- अजय ब्रह्मात्‍मज  भारतीय सिनेमा की सदी के मौके पर मुंबई के चार फिल्मकार एकत्रित हुए हैं। सभी हमउम्र नहीं हैं, लेकिन उन्हें 21वीं सदी के हिंदी सिनेमा का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। फिल्म की निर्माता और वायकॉम 18 भविष्य में ऐसी चार-चार लघु फिल्मों की सीरिज बना सकते हैं। जब साधारण और घटिया फिल्मों की फ्रेंचाइजी चल सकती है तो 'बॉम्बे टाकीज' की क्यों नहीं? बहरहाल, यह इरादा और कोशिश ही काबिल-ए-तारीफ है। सिनेमा हमारी जिंदगी को सिर्फ छूता ही नहीं है, वह हमारी जिंदगी का हिस्सा हो जाता है। भारतीय संदर्भ में किसी अन्य कला माध्यम का यह प्रभाव नहीं दिखता। 'बॉम्बे टाकीज' करण जौहर, दिबाकर बनर्जी, जोया अख्तर और अनुराग कश्यप के सिनेमाई अनुभव की संयुक्त अभिव्यक्ति है। चारों फिल्मों में करण जौहर की फिल्म सिनेमा के संदर्भ से कटी हुई है। वह अस्मिता और करण जौहर को निर्देशकीय विस्तार देती रिश्ते की अद्भुत कहानी है। करण जौहर - भारतीय समाज में समलैंगिकता पाठ, विमर्श और पहचान का विषय बनी हुई है। यह लघु फिल्म अविनाश के माध्यम से समलैंगिक अस्मिता को रेखांकित करने के साथ उसे समझ

फिल्‍म समीक्षा :शूटआउट एट वडाला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  निर्देशक संजय गुप्ता और उनके लेखक को यह तरकीब सूझी कि गोली से जख्मी और मृतप्राय हो चुके मन्या सुर्वे की जुबानी ही उसकी कहानी दिखानी चाहिए। मन्या सुर्वे नौवें दशक के आरंभ में मारा गया एक गैंगस्टर था। 'शूटआउट एट वडाला' के लेखक-निर्देशक ने इसी गैंगस्टर के बनने और मारे जाने की घटनाओं को जोड़ने की मसालेदार कोशिश की है। मन्या सुर्वे के अलावा बाकी सभी किरदारों के नाम बदल दिए गए है, लेकिन फिल्म के प्रचार के दौरान और उसके पहले यूनिट से निकली खबरों से सभी जानते हैं कि फिल्म का दिलावर वास्तव में दाउद इब्राहिम है। यह मुंबई के आरंभिक गैंगवार और पहले एनकाउंटर की कहानी है। आरंभ के कुछ दृश्यों में मन्या निम्न मध्यवर्गीय परिवार का महत्वाकांक्षी युवक लगता है। मां का दुलारा मन्या पढ़ाई से अपनी जिंदगी बदलना चाहता है। उसकी चाहत तब अचानक बदल जाती है, जब वह सौतेले बड़े भाई की जान बचाने में एक हत्या का अभियुक्त मान लिया जाता है। उसे उम्रकैद की सजा होती है। जेल में बड़े भाई की हत्या के बाद वह पूरी तैयारी के साथ अपराध की दुनिया में शामिल होता है। यहां उसकी भिड़ंत हक्सर

प्राण चूंकि दोस्त था... -सआदत हसन मंटो

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(सआदत हसन मंटो ने अपने समकालीन फिल्म कलाकारों पर बेबाक संस्मरण लिखे हैं। उनके संस्मरण मीना बाजार में संकलित है। मीना बाजार में उन्होंने नरगिस, नूरजहां, के .क़े., सितारा, पारो देवी, नीना, नसीम बानो और लतिका रानी के जीवन प्रसंगों को अपने संस्मरण में उकेरा है। उन्होंने के .के. के संस्मरण में प्राण का भी उल्लेख किया है। हम यहां प्राण से संबंधित अंश प्रकाशित कर रहे हैं।)      ...बंटवारे पर जब पंजाब के फसादात शुरू हुए तो कुलदीप कौर, जो लाहौर में थी और वहां फिल्मों में काम कर रही थी, अपना वतन छोड़ कर बंबई चली गई। उसके साथ उसका खास दोस्त प्राण भी था, जो पंचोली की कई फिल्म में काम कर के शोहरत हासिल कर चुका था।     अब प्राण का जिक्र आया है तो उसके बारे में भी कुछ पंक्तियां बतौर परिचय लिखने में कोई हर्ज नहीं। प्राण अच्छा-खासा खुशशक्ल मर्द है। लाहौर में उसकी शोहरत इस वजह से भी थी कि वह बड़ा ही खुशपोश था। बहुत ठाठ से रहता था। उसका तांगा-घोड़ा लाहौर के रईसी तांगों में से सबसे ज्यादा खूबसूरत और दिलकश था।     मुझे मालूम नहीं, प्राण से कुलदीप कौर की दोस्ती कब और किस तरह हुई, इसलिए कि मैं लाहौर में नह

21वीं सदी का सिनेमा

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- अजय ब्रह्मात्मज             समय के साथ समाज बदलता है। समाज बदलने के साथ सभी कलारूपों के कथ्य और प्रस्तुति में अंतर आता है। हम सिनेमा की बात करें तो पिछले सौ सालों के इतिहास में सिनेमा में समाज के समान ही गुणात्मक बदलाव आया है। 1913 से 2013 तक के सफर में भारतीय सिनेमा खास कर हिंदी सिनेमा ने कई बदलावों को देखा। बदलाव की यह प्रक्रिया पारस्परिक है। आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक बदलाव से समाज में परिवर्तन आता है। इस परिवर्तन से सिनेमा समेत सभी कलाएं प्रभावित होती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी सिनेमा को देखें तो अनेक स्पष्ट परिवर्तन दिखते हैं। कथ्य , श्ल्पि और प्रस्तुति के साथ बिजनेस में भी इन बदलावों को देखा जा सकता है। हिंदी सिनेमा के अतीत के परिवर्तनों और मुख्य प्रवृत्तियों से सभी परिचित हैं। मैं यहां सदी बदलने के साथ आए परिवर्तनों के बारे में बातें करूंगा। 21 वीं सदी में सिनेमा किस रूप और ढंग में विकसित हो रहा है ?             सदी के करवट लेने के पहले के कुछ सालों में लौटें तो हमें निर्माण और निर्देशन में फिल्म बिरादरी का स्पष्ट वर्चस्व दिखता है। समाज के सभी क्षेत्रों क

हिंदी सिनेमा की वीडियो बुक

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-अजय ब्रह्मात्मज     सौ साल के हुए भारतीय सिनेमा पर विभिन्न संस्थाएं कुछ न कुछ उपक्रम और आयोजन कर रही हैं। पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों से लेकर सेमिनार के बहस-मुबाहिसों में हम किसी न किसी रूप में भारतीय सिनेमा की चर्चा सुन रहे हैं। हिंदी सिनेमा की उपलब्धियों को भी रेखांकित किया जा रहा है। व्यक्ति, प्रवृत्ति, विधा और अन्य श्रेणियों एवं वर्गों में बांट कर उनका अध्ययन, विश्लेषण और दस्तावेजीकरण हो रहा है। हम भारतीय दस्तावेज और रिकॉर्ड संरक्षण के मामले में बहुत पिछड़े और लापरवाह हैं। देश में एक राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के अलावा कोई जगह नहीं है, जहां भारतीय सिनेमा के इतिहास से संबंधित सामग्रियां उपलब्ध हों। हर साल पुरस्कार समारोहों पर करोड़ों खर्च करने के लिए तैयार प्रकाशन समूह, टीवी चैनल, फिल्म एसोसिएशन और अन्य संस्थाएं भी इस दिशा में निष्क्रिय हैं। एक अमिताभ बच्चन अपने उद्गार से लेकर क्रिया-कलाप तक का निजी संग्रहण करते हैं। उनकी इस हरकत पर लोग हंसते हैं, लेकिन यकीन करें पचास-सौ सालों के बाद किसी अध्येता को केवल उन पर व्यवस्थित और संदर्भित सामग्रियां मिल पाएंगी।     बहरहाल, मुझे हाल ही में

Artist’s domain is his work’-Balraj Sahni

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आज बलराज साहनी का जन्‍मदिन है। 1972 में उन्‍होंने जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया था। प्रकाश के रे ने इसे बरगद पर शेयर किया है। व‍हीं से इसे चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया जा रहा है। Balraj Sahni (1 May 1913–13 April 1973) was one of the most respectable film and theatre personalities of India.  This is the reproduction of his address delivered at Jawaharlal Nehru University (New Delhi) Convocation in 1972. We are grateful to Prof Chaman Lal, Jawaharlal Nehru University for making this text available. Balraj Sahni About 20 years ago, the Calcutta Film Journalists’ Association decided to honour the late Bimal Roy, the maker of Do Bigha Zameen, and us, his colleagues. It was a simple but tasteful ceremony. Many good speeches were made, but the listeners were waiting anxiously to hear Bimal Roy. We were all sitting on the floor, and I was next to Bimal Da. I could see that as his turn approached he became incr