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रायटर आउटसाइडर ही होता है-अमितावा कुमार

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-अजय ब्रह्मात्मज     न्यूयार्क निवासी अमितावा कुमार भारत और खासकर बिहार से कभी खुद को अलग नहीं कर सके। कभी बिहार उनके मानस में प्रवेश करता है तो कभी अमितावा कुमार बिहार आते-जाते हैं। उन्होंने संस्मरणों से आगे बढक़र वर्तमान की धडक़नों को शब्दों में बुना है और उन्हें कहानी एवं रिपोर्ताज के बीच की अनोखी शैली में पेश किया है। यथार्थ और कल्पना के बीच छलांगें मारती उनकी अभिव्यक्ति पाठकों को विचलित, विह्वल और विस्मित करती है। अमितावा कुमार की नई किताब ‘ए मैटर ऑफ रैट्स : ए शॉर्ट बायोग्राफी ऑफ पटना’ है। अमितावा कुमार फिलहाल भारत में बिहार और झारखंड की यात्राओं पर हैं। - इस पुस्तक का विचार कहां से और कैसे आया? 0 इस पुस्तक का विचार डेविड डेविडार ने दिया था। पेंग्विन छोडऩे के बाद उन्होंने अपनी नई कंपनी शुरू की। उन्होंने आठ लेखकों के सामने प्रस्ताव रखा कि वे अपने होमटाउन के बारे में लिखें। उन्होंने मुझ से पटना के बारे में लिखने के लिए कहा। उसी प्रस्ताव और आग्रह के परिणाम के रूप में यह पुस्तक सामने आई है। - आप लगातार भारत आने पर बिहार जाते रहे हैं। पटना आप से कभी छूटता नहीं? क्या वजह है? 0 मेरा पटना

मिली बारह साल पुरानी डायरी-3

पुरानी डायरी की आखिरी किस्‍त। फिर से लिखना शुरू किया है। 10-12 सालों के बाद शेयर करूंगा। -अजय ब्रह्मात्‍मज 9 अगस्त 2001 - गुरुवार       आज ‘ ये रास्ते हैं प्यार के ’ और ‘ दिल चाहता है ’ देखी। दीपक शिवदासानी ने पूरी तरह से काल्पनिक और सतही कहानी कहने की कोशिश की है। कहानियां के किरदार अविश्वसनीय व्यवहार करें तो फिल्म चल नहीं पाती। मुझे नहीं लगता कि ‘ ये रास्ते हैं प्यार के ’ फिल्म कहानी की वजह से चलेगी। अजय देवगन की आंखों में दर्द है। उसका सही इस्तेमाल किया था महेश भट्ट ने ‘ जख्म ’ में। फिल्म के लिए अजय देवगन को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। ‘ दिल चाहता है ’ में स्टाइल और नयी भाषा है। नए तरीके से पुरानी बातें कहने की खोज है। फरहान की शैली में अन्वेषण का भाव है। आमिर खान ने फिल्म में अच्छा काम किया है। आकाश के किरदार को चढ़ी भवों और दुनिया को बेवकूफ समझने वाली नजरों से आमिर ने बखूबी निभाया है। उसका यह मिजाज इश्क में गिरफ्तार होने के बाद बदलता है। ‘ दिल चाहता है ’ पहले शहरों और फिर कस्बों में चलेगी। फरहान की इस फिल्म से एक ही शिकायत है कि यहां भी लड़कियां प्रोएक्टिव नहीं हैं।

संकीर्णता पैदा हो गई है माहौल में-पंकज कपूर

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पंकज कपूर के इंटरव्‍यू का दूसरा और आखिरी अंश ..यहां पंकज कपूर ने एनएसडी में चल रही राजनीति,अलकाजी पर लगे आरोप,हिंदी षिएटर की बुरी स्थिति और दूसरे अनेक मसलों को छुआ है। एनएसडी के छात्रों की इनमें रुचि हो सकती है। आप की टिप्‍पणियां मेरा मार्गदर्शन करेंगी।  - राजनीतिक सक्रियता 0 नहीं , मैं कभी राजनीति में सक्रिय नहीं रहा। ऐसी रुचि ही नहीं जगी। चीजों की समझदारी और उसमें हिस्सेदारी भी रही , पर मैं सक्रिय नहीं था। साफ कहूं तो पेशेवर संस्थान में छात्र राजनीति को मैं आज भी नहीं समझ पाता हूं। वहां छात्र राजनीति की जगह नहीं है , ऐसा मेरा अपना ख्याल है।       रानावि में एक छात्र संघ बनाई गई। इस छात्र संघ के होने का मतलब समझा सकते हैं आप। छात्र यह तय करने लगें कि निर्देशक किस छात्र को भूमिका दे। यह निहायत जहालत की बात है। आप जरूर लिखें। पेशेवर खासकर सृजनात्मक पेशे में राजनीति नहीं होनी चाहिए। आप कला का लोकतंत्रीकरण कैसे कर सकते हैं। हाउ कैन यू डू इट। इट इज नॉट पॉसिबल। आप यह बात कैसे कह सकते हैं कि एक आदमी परिश्रमी है , इसलिए वह अगला नाटक निर्देशित करे या अभिनय करे या प्रकाश व्यवस्था कर

फिल्‍म समीक्षा : बीए पास

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  सिक्का सिंह की कहानी 'रेलवे आंटी' पर आधारित 'बीए पास' दिल्ली की कॉलोनी और मोहल्ले में चल रहे व्यभिचार को लेकर बुनी गई एक युवक मुकेश की कहानी है। मुकेश से सहानुभूति होती है, क्योंकि मुसीबतों से घिरा वह युवक कुचक्र में फंसता चला जाता है। आखिर में जब वह इस कुचक्र से निकलना चाहता है तो बुरी तरह से कुचल जाता है। 'बीए पास' सारिका की भी कहानी है। पारिवारिक जीवन में ऊबी महिला यौन इच्छाओं के लिए मुकेश को हवस का शिकार बनाती है और फिर उसे पुरुष वेश्या बनने पर मजबूर करती है। यह जॉनी की भी कहानी है, जो मौका मिलते ही मॉरीशस निकल जाता है। एक अंतराल के बाद ऐसी फिल्म आई है, जिस के किरदारों के नाम थिएटर से निकलने के बाद भी याद रहते हैं। तीनों किरदारों को अच्छी तरह गढ़ा गया है। फिल्म के प्रोमो से 'बीए पास' सेक्स से अटी फिल्म जान पड़ती है। लेखक-निर्देशक ने इस संदर्भ में पर्याप्त दृश्य भी रखे हैं, लेकिन अश्लील फिल्मों की तरह वे उसमें रमे नहीं हैं। निर्देशक का उद्देश्य उत्तेजक दृश्यों से दर्शकों को समाज के उस अंधेरे में ले जाना था, ज

फिल्‍म रिव्‍यू : चोर चोर सुपर चोर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मानसून में छोटी फिल्मों की बूंदाबांदी चल रही है। 'चोर चोर सुपर चोर' दिल्ली के मायापुरी इलाके के उचक्कों के नेटवर्क पर बनी फिल्म है। शुक्ला ने इन्हें पाला-पोसा और सिखाया है। उनमें से एक सतबीर को यह काम अच्छा नहीं लगता। वह कोई इज्जतदार काम करना चाहता है। अपने साथियों से अलग जिंदगी की शुरुआत करते ही उसकी नजर नीना पर पड़ जाती है। वह नीना से प्यार करने लगता है। अपने सीधेपन में वह नीना से उल्लू बनता है, पर एहसास होने पर वह उससे बड़ी चाल चलता है। अपनी चाल में वह कामयाब भी हो जाता है। पता चलता है कि सतबीर समझदार और दुनियादार है। निर्देशक के राजेश ने दिल्ली की गलियों की जिंदगी को बगैर ताम-झाम के पेश कर दिया है। फिल्म में साधारण किरदार हैं और उन सभी की छोटी-छोटी ख्वाहिशें हैं। इन ख्वाहिशों को निर्देशक ने रोचक तरीके से चित्रित किया है। फिल्म में अवांछित गाने की जगह कुछ जोरदार दृश्य जोड़े जा सकते तो फिल्म की पुख्तगी बढ़ जाती। दीपक डोबरियाल भरोसेमंद एक्टर हैं। उन्होंने स्क्रिप्ट और फिल्म की सीमाओं के बावजूद रोचकता बनाए रखी है। सहयोगी कलाकारों का चुन

फिल्‍म समीक्षा : रब्‍बा मैं क्‍या करूं

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-अजय ब्रह्मात्मज अमृत सागर चोपड़ा ने '1971' से शुरुआत की थी। इस फिल्म के न चल पाने के अनेक कारण थे, लेकिन अमृत सागर चोपड़ा की क्रिएटिव कोशिश की सभी ने सराहना की थी। 'रब्बा मैं क्या करूं' कामेडी केतड़केके साथ पेश मैरिज ड्रामा है। इसकी सराहना नहीं की जा सकती। फिल्म में सराहने योग्य केवल सागर परिवार के अभिनेता आकाश चोपड़ा हैं। उनकी प्रेजेंस आकर्षक है। वे सही स्क्रिप्ट चुनें तो संभावनाएं बढ़ेंगी। आकाश की शादी है। उसकी शादी में तीनों मामा और अन्य रिश्तेदार आए हैं। सभी अपने-अपने हिसाब से खुशी शादीशुदा जिंदगी के टिप्स देते हैं। संयोग से तीनों मामा के विवाहेतर संबंध हैं और वे अपनी बीवियों को धोखा देने में यकीन रखते हैं। अगर यह पारिवारिक दोष है तो नायक की मां कैसे बची रह गई? बहरहाल नायक को उसके एक भाई 'भाईचारा' सिखाते हैं। इस सबक में फिर से बीवी को धोखा देने की शिक्षा है। नायक के विवाह की पृष्ठभूमि में पूरी कहानी चलती है। इस परिवार के सारे सदस्य भोंडे और अस्थिर हैं। यहां तक कि खड़ूस से दिख रहे ताऊ भी अपनी जवानी में 'भाईचारा' निभा चुके हैं। अमृत सागर चो

दरअसल : पहले किरण, अब करण

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-अजय ब्रह्मात्मज     खबर आई है कि इरफान और नवाजुद्दीन सिद्दिकी की फिल्म ‘लंचबॉक्स’ अगले महीने भारत के  थिएटरों में रिलीज होगी। यह फिल्म मशहूर निर्माता-निर्देशक करण जौहर को बहुत अच्छी लगी है। संयोग ऐसा था कि करण जौहर के साथ ही मैंने यह फिल्म देखी थी। फिल्म के इंटरवल और समाप्त होने पर करण जौहर ‘लंचबॉक्स’ के निर्देशक रितेश बत्रा से जिस दिलचस्पी के साथ बात कर रहे थे उसी से लगा था कि उन्हें फिल्म बहुत पसंद आई है। उस शो में शेखर कपूर भी थे। वे भी इस फिल्म को देख कर आह्लादित थे। ‘लंचबॉक्स’ इस साल कान फिल्म फेस्टिवल में भी सराही गई थी। हाल फिलहाल में ऐसी अनेक फिल्में आईं हैं जिन्हें विभिन्न फेस्टिवल में अच्छी सराहना मिली है। फिर भी स्टार वैल्यू के अभाव में ये फिल्में आम थिएटर में रिलीज नहीं हो पा रही हैं। इंडस्ट्री में कानाफूसी चलने लगी है कि पैरेलल सिनेमा की तरह फिर से ऐसी फिल्मों का दौर आ गया है जिन्हें हम केवल फेस्टिवल में ही देखते हैं। वास्तव में यह कानाफूसी फिल्म इंडस्ट्री की बेरूखी जाहिर करती है। करण जौहर ने ‘लंचबॉक्स’ के वितरण की पहल दिखा कर अच्छा उदाहरण दिया है।     पिछले महीने ज

हमारी गपबाजी में भी माद्दा होता था-पंकज कपूर

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 पंकज कपूर से यह बातचीत 1994-1995 में हुई होगी। यह अप्रकाशित ही रहा। अभी पुरानी फाइलों में मिला। कुछ बातें पुरानी और अप्रासंगिक हो गई हैं,लेकिन इन्‍हें एक बार पढ़ जाएं तो सारी बातें जरूरी लगने लगती हैं। आज पहला हिस्‍सा है। कल दूसरा और अंतिम हिस्‍सा पोस्‍ट करूंगा।       मैं पंजाब के लुधियाना शहर में पैदा हुआ। वहीं से मेंने स्कूल और कॉलेज की तालीम हासिल की। कुंदन विद्या मंदिर स्कूल में पढ़ा। आर्या कॉलेज में था। कॉलेज में प्री इंजिनयरिंग तक पढ़ाई की , फिर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय गया। 1973 में वहां गया। 1976 में वहां से निकला। अभिनय में विशेषज्ञता ली। एनएसडी की रेपटरी में चार साल तक काम किया। अभिनेता था। उसके बाद फिल्में मिलनी शुरू हो गईं तो फिल्मों का सिलसिला शुरू हो गया। स्कूल-कॉलेज की गतिविधियों में हमलोग काफी सक्रिय रहते थे। मैं अंतर्मुखी   कभी नहीं रहा , बहिर्मुखी व्यक्तित्व का था। उम्र बढऩे के साथ अब थोड़ी गंभीरता आ गई है। वर्ना बहुत शरारतें करते थे। नाटक,अभिनय और भाषण प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया करता था। खेल में भी समान रुचि थी। हमारा ज्‍यादातर समय इन्हीं चीजों में जाय

चार तस्‍वीरें : माधुरी दीक्षित की गुलाब गैंग

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अनुभव सिन्‍हा के निर्माण में बनी गुलाग गैंग के निर्देशक सौमिक सेन हैं। इस फिल्‍म में माधुरी दीक्षित की जुझारू भूमिका है। इस फिल्‍म से वह दर्शकों की धक-धक अलग अंदाज में बढ़ाएंगी। x

मिली बारह साल पुरानी डायरी-2

बारह साल पुरानी डायरी के अंश.... -अजय ब्रह्मात्‍मज 2 अगस्त 2001       फेमस में ‘ हम हो गए आपके ’ का शो था। 6 बजे से शो आरंभ हुआ। समीक्षकों और पत्रकारों की पूरी उपस्थिति थी। दोपहर में फरदीन के सचिव तिवारी से बातचीत हुई। तिवारी ने बताया कि फिल्म बहुत अच्छी बनी है। फिल्म देखकर लगा कि छठे और सातवें दशक की महक है। एक बुरा लडक़ा प्रेम करने के बाद कैसे सुधर जाता है। फरदीन का प्रयास अभिनय में दिखता है। वह खुद को तोडऩे की कोशिश करता है। खुलना चाहता है , मगर कोई चीज उसे जकड़े रहती है। इस फिल्म में उसकी हंसी शुरू से आखिर तक एक जैसी है। रीमा सेन की पाली हिंदी फिल्म है यह। उसमें संभावनाएं हैं।       दोपहर में अनुराग कश्यप से बात हो रही थी। उनकी फिल्म को सेंसर ने सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया है। मुख्य रूप से भाषा , हिंसा और संदेश न होने का कारण बताया गया है। अनुराग ने कहा कि पहली फिल्म के फंस जाने से वह निराश नहीं है। वह रिवाइजिंग कमेटी में जाएंगे। वहां भी बात नहीं बनी तो वह ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट तक जाएंगे। फिलहाल इरादा है कि बड़े फिल्मकारों , स्तंभकारों और समीक्षकों को फिल्म दि