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लोग कहते हैं कि मैं बिक गया हूं: विक्रमादित्य मोटवाने

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उड़ान से गंभीर फिल्मकार के तौर पर स्थापित विक्रमादित्य मोटवाने अब रोमांस की चाशनी में घुली लूटेरा   लेकर आ रहे हैं. रघुवेन्द्र सिंह उनके रोमांटिक पहलू को उजागर कर रहे हैं आम तौर पर फिल्मकार अपनी फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान खुद को दुनिया से काट लेता है. उसका दिन-रात स्टूडियो के स्याह अंधेरे में अपनी फिल्म को सही आकार देने में गुजरता है. लेकिन विक्रमादित्य मोटवाने अपवाद हैं. आजकल आराम नगर 2 का बंगला नंबर 121, जो फैंटम का ऑफिस है, उनका दूसरा घर बना हुआ है. यहां वे दिन-रात लुटेरा को आखिरी शेप देने में जुटे हैं, मगर ताज्जुब की बात यह है कि इस एकांतवास को तोड़ते हुए वह हर वीकेंड सिनेमाहॉल में दिख जाते हैं. जाहिर है इससे उनका ध्यान टूटता होगा. इस मंतव्य का खंडन करते हुए विक्रम कहते हैं, ''पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान ब्रेक लेना जरूरी होता है. कई बार एडिट के दौरान आप कहीं अटक जाते हैं. उस समय आपको दूसरे की पिक्चर जाकर देखनी चाहिए. उससे बहुत-सी चीजें आपके दिमाग में क्लीयर हो जाती हैं. क्रिएटिव ड्रिंकिंग जरूरी होती है. मेरा मानना है कि फिल्म की राइटिंग और एडिटिं

यूट्यूब हिंदी टाॅकीज पर मद्रास कैफे

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फिल्‍म समीक्षा : मद्रास कैफे

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-अजय ब्रह्मात्‍मज          हमारी आदत ही नहीं है। हम सच को करीब से नहीं देखते। कतराते हैं या नजरें फेर लेते हैं। यही वजह है कि हम फिल्मों में भी सम्मोहक झूठ रचते हैं। और फिर उसी झूठ को एंज्वॉय करते हैं। सालों से हिंदी सिनेमा में हम नाच-गाने और प्रेम से संतुष्ट और आनंदित होते रहे हैं। सच और समाज को करीब से दिखाने की एक धारा फिल्मों में रही है, लेकिन मेनस्ट्रीम सिनेमा और उसके दर्शक ऐसी फिल्मों से परहेज ही करते रहे हैं। इस परिदृश्य में शूजीत सरकार की 'मद्रास कैफे' एक नया प्रस्थान है। हिंदी सिनेमा के आम दर्शकों ने ऐसी फिल्म पहले नहीं देखी है।         पड़ोसी देश श्रीलंका के गृह युद्ध में भारत एक कारक बन गया था। मध्यस्थता और शांति के प्रयासों के विफल होने के बावजूद इस गृह युद्ध में भारत शामिल रहा। श्रीलंका के सेना की औपचारिक सलामी लेते समय हुए आक्रमण से लेकर जानलेवा मानव बम विस्फोट तक भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसके एक कोण रहे। 'मद्रास कैफे' उन्हीं घटनाओं को पर्दे पर रचती है। हम थोड़ा पीछे लौटते हैं और पाते हैं कि फैसले बदल गए होते तो हालात और नतीजे भी बद

दरअसल : फिल्मों में है चीन से दूरी

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-अजय ब्रह्मात्मज     कभी सोचा या गौर किया है कि हिंदी फिल्मों में चीनी किरदार क्यों नहीं आते? भारतीय दर्शकों के बीच चीनी फिल्में भी लोकप्रिय नहीं हैं। चीनी फिल्मों में भी भारतीय किरदार नहीं दिखाई देते, लेकिन चीन में भारतीय फिल्में पापुलर रही हैं। ‘आवारा’ से लेकर ‘डिस्को डांसर’ तक के चीनी दर्शक मिल जाएंगे। कुछ सालों पहले चीन में रिलीज हुई ‘3 इडियट’ ने संतोषजनक व्यापार किया था। दरअसल, चीन में फिल्मों की आयात नीति है। इस नीति के तहत केवल 20 फिल्में ही एक साल में आयातित की जा सकती हैं। इनमें से अधिकांश हालीवुड की फिल्में होती हैं। चीन ने अपने सिनेमा के बचाव और विकास के लिए यह नीति अपनाई है। भारत में आयात की ऐसी कोई नीतिगत सीमा नहीं है। फिर भी चीनी फिल्मों के आयात में किसी की रुचि नहीं है। हम जिन चीनी फिल्मों के बारे में जानते हैं, वे ज्यादातर वाया हॉलीवुड भारत में पहुंचती हैं।     भारत और चीन के बीच फिल्मों के आदान-प्रदान और अन्य संभावनाओं के बीच भाषा सबसे बड़ी दीवार है। चीनी फिल्में भारत में प्रदर्शित करने के पहले उन्हें हिंदी में डब या सबटायटल करना पड़ेगा। अगर देश में आम दर्शकों तक उन्

हमें तो कहीं कोई सांस्कृतिक आक्रमण नहीं दिखता - गुलजार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पाठको के लिए गुलजार साहब किसी परिचय के मोहताज नहीं। फिल्मों में गीत , संवाद , लेखन , निर्देशन के माध्यम से उन्होंने अपनी खास संवेदनशीलता को अभिव्यक्त किया है। उनकी फिल्में चालू मसालों से अलग होने के बावजूद दर्शकों को प्रिय रही हैं। उन्होंने न केवल विषय और निर्देशन को लेकर बल्कि ' छबिबद्घ ' हो गए जितेंद्र विनोद खन्ना , डिंपल कपाडिया जैसे मशहूर कलाकारों के साथ भी अभिनय प्रयोग किया है। टीवी पर ' गालिब ' के जीवन और उनकी गलजों को जिस खूबसूरती से उन्होंने पेश किया , वह जीवनीपरक धारावाहिकों में मिसाल है। बच्चों के लोकप्रिय धारावाहिक ' पोटली बाबा की ' और ' जंगल की कहानी ' के शीर्षक गीत न सिर्फ बल्कि सयानों के होठों पर भी थिरकतें हैं। गीतों की सादगी और उनमें मौजूद मधुरिम लय के साथ शब्दों का नाजुक चुनाव ही शायद उनकी   लोकप्रियता की वजह है। गुलजार साहब कहते हैं , ' मुझे तो बच्चों ने गीत दिए हैं। मैंने तो केवल उन्हें सजा दिया है। ' इन दिनों गुलजार दूरदर्शन के लिए ' किरदार ' धारावाहिक बनाने में व्यस्त हैं। शायद दर्शकों को या

अपने पैटर्न और कम्फर्ट जोन में खुश हूं-सोहा अली खान

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-अजय ब्रह्मात्मज -‘साहब बीवी गैंगस्टर रिटर्नस’ का संयोग कैसे बना? 0 तिग्मांशु धूलिया की ‘साहब बीवी और गैंगस्टर’ मैंने देखी थी। वह मुझे अच्छी लगी थी। पता चला कि वे सीक्वल बना रहे हैं। मैंने ही उनको फोन किया। मैंने कभी किसी को फोन नहीं किया था। पहली बार मैंने काम मांगा। पार्ट वन में बीवी बहुत बोल्ड थी। मैं सोच रही थी कि कर पाऊंगी कि नहीं? फिर तिग्मांशु ने ही बताया  कि बीवी का रोल टोंड डाउन कर रहे हैं। उस वजह से मैं कम्फटेबल हो गई। फिल्म की रिलीज के बाद भाई ने फोन कर के मुझे बधाई दी। उन्होंने बताया कि रिव्यू के साथ-साथ कलेक्शन भी अच्छा है। - आपकी ‘वार छोड़ न यार’ आ रही है। इसके बारे में कुछ बताएं? 0 पहले मुझे लगा था कि नए डायरेक्टर की फिल्म नहीं करनी चाहिए। बाद में स्क्रिप्ट सुनने पर मैंने हां कर दी। वे दिबाकर बनर्जी के असिस्टेंट रहे हैं। इस फिल्म में मेरे साथ शरमन जोशी, जावेद जाफरी और संजय मिश्रा हैं। बीकानेर के पास बोर्डर के समीप भयंकर गर्मी में इसकी शूटिंग हुई है। अपनी सीमा में हमने हिंदुस्तान और पाकिस्तान बनाया था। यह वार सटायर है। ऐसी फिल्म हिंदी में नहीं बनी है। - किस प्रकार से

हिंदी टाकीज पर 'वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा'

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एक शायर चुपके चुपके बुनता है ख्वाब - गुलजार

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1994 में गुलजार से यह बातचीत हुई थी। तब मुंबई से प्रकाशित जनसत्‍ता की रविवारी पत्रिका सबरंग में इसका प्रकाशन हुआ था। गुलजार के जनमदिन पर चवन्‍नी के पाठकों के लिए विशेष.. . : अजय ब्रह्मात्मज / धीरेंद्र अस्थाना -      छपे हुए शब्दों के घर में वापसी के पीछे की मूल बेचैनी क्या है ? 0      जड़ों पर वापिस आना। -      कविताएं तो आप लिखते ही रहे हैं। इधर कहानियों में भी सक्रिय हुए हैं ? 0      कहानियां पहले भी लिखता रहा हूं। अफसाने शुरू में भी लिखे मैंने। मेरी पहली किताब कहानियों की ही थी। ' चौरस रात ' नाम से प्रकाशित हुई थी। उसके बाद नज्मों की किताब ' जानम ' आई थी। मेरी शाखों में साहित्य है। अब उम्र बीती... पतझड़ है , पतझड़ आता है तो पत्ते जड़ों पर ही गिरते हैं। थोड़ा- सा पतझड़ का दौर चल रहा है। मैंने सोचा... चलो फिर वहीं से शुरू करें। फिर से जड़ों पर खड़े होने की कोशिश कर रहा हूं। -      इस कोशिश में अलग तर्ज की कहानियां लेकर आए हैं आप ? 0      कहानियां ही नहीं , इस बीच नज्में भी लिखता रहा। अफसाने लिखे मगर बहुत कम। यही कोई दो साल पहले बाकायदा अफसाना लिखना शुरू किय