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44 वां अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह

-अजय ब्रह्मात्‍मज सन् 2004 में अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह गोवा पहुंचा। तय हुआ कि अब यह पहले की तरह बारी-बारी से दिल्‍ली और अन्‍य शहरों में आयोजित नहीं होगा। दूसरे देशों के इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल के तर्ज पर भारत का एक शहर अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह के लिए सुनिश्चित किया गया। गोवा देश का प्रमुख पर्यटन शहर हे। समुद्र, मौसम और संभावनाओं के साथ गोवा अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह का स्‍थायी आयोजन स्‍थल बना। पिछले दस सालों में गोवा में आयोजित भारत के अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह की खास पहचान बन गई है। रोचक तथ्‍य है कि आरंभिक सालों में गोवा के दर्शकों की संख्‍या कम रहती थी। अब बाहर से आए प्रतिनिधियों की तुलना में गोवा के दर्शकों की भीड़ बढ़ गई है। देश ’ विदेश के प्रतिनिध तो आते ही हैं।      थोड़ा पीछे चलें तो देश की आजादी के पांच सालों के बाद पहला अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह 1952 में मुंबई में आयोजित हुआ। भारत सरकार की इस पहल को तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का समर्थन प्राप्‍त था। मुंबई में आयोजित पहले फिल्‍म सामारोह में वे स्‍वयं शामिल हुए थे। मुंबई के आयोजन

दरअसल : विस्मृत होती 40 उल्लेखनीय फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्मज      ‘मिस्टर संपत’, ‘फुटपाथ’, ‘चा चा चा’, ‘कोहरा’, ‘तीन देवियां’, ‘ये रात फिर न आएगी’, ‘सीआईडी 909’, ‘सारा आकाश’, ‘दस्तक’, ‘लाल पत्थर’, ‘मेरे अपने’, ‘27 टाउन’, ‘आविष्कार’, ‘गदर’, ‘मजबूर’, ‘दिल्लगी’, ‘एक बार फिर’, ‘नमकीन’, ‘हिप हिप हुर्रे’, ‘आघात’, ‘खामोश’, ‘जनम’, ‘डकैत’, ‘तृषाग्नि’, ‘दिशा’, ‘थोड़ा सा रोमानी हो जाएं’,  ‘रात’, ‘आईना’, ‘नसीम’, ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘आर या पार’, ‘हरी भरी’, ‘हासिल’, ‘सहर’, ‘1971’, ‘हल्ला’, ‘राकेट सिंह’, ‘द स्टोनमैन मर्डर्स’, ‘गुलाल’, और ‘अंतद्र्वंद्व’ ़ ़ ़ क्या आप ने ये फिल्में देखी हैं। अगर न देखी हो तो कम से कम सुना जरूर होगा। सच कहूं तो हिंदी सिनेमा के इतिहास मे ये कुछ मामूली लेकिन महत्वपूर्ण फिल्में हैं। इन फिल्मों को अविजित घोष ने अपनी नयी पुस्तक ‘40 रीटेक्स’ में रेखांकित किया है।     अविजित घोष हिंदी सिनेमा के कट्टर दर्शक और समर्थक हैं। फिल्म पत्रकारिता की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन जब-तब अपने लेखों, विश्लेषणों और संस्मरणों से मुख्यधारा में हिलोर भर देते हैं। वे सिनेमा के दर्शक होने के साथ फिल्म इंडस्ट्री के परिवर्तन और प

फिल्‍म समीक्षा : रज्‍जो

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किरदार और कंगना का कंफ्यूजन -अजय ब्रह्मात्‍मज देश में मोबाइल आने के बाद भी कहानी है 'रज्जो' की। वह कोठेवाली है। उसकी बहन ने फ्लैट खरीदने के लिए बचपन में उसे बेच दिया था। बताया नहीं गया है कि वह कहां से आई है। बचपन से मुंबई और रेडलाइट इलाके में रहने से उसकी बात-बोली में माहौल का असर है। रज्जो से चंदू का प्रेम हो जाता है। अभी-अभी ख्क् का हुआ पारस उम्र में बड़ी ख्ब् साल की रज्जो से भावावेश में शादी कर लेता है। निर्देशक विश्वास पाटिल मराठी भाषा के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। उन्हें साहित्य अकादमी और मूर्ति देवी पुरस्कार मिल चुके हैं। साहित्य की आधुनिक और व्यावहारिक समझ के बावजूद उनका यह चुनाव समझ से परे है। 'रज्जो' की कहानी दो-तीन दशक पहले मुंबई के परिवेश में प्रासंगिक हो सकती थी। अभी की मुंबई में इस फिल्म के सारे किरदार कृत्रिम और थोपे हुए लगते हैं। स्पष्ट नहीं होने की वजह से पटकथा और चरित्रों के गठन में दुरूहता आ गई है। बेगम, रज्जो,चंदू, हांडे भाऊ आदि तीन-चार दशक पहले की फिल्मों से निकल आए चरित्र लगते हैं। अगर इन चरित्रों के द्वंद्व और संघर्ष के प्रति न