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दरअसल : चौतरफा कटौती की कोशिश

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-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बढ़ती मुश्किलों में ये एक मुश्किल रिलीज के समय प्रचार का बढ़ता खर्च है। कभी रिलीज के समय पोस्टर लगाने मात्र से काम चल जाता था। अखबारों में बॉक्स विज्ञापन आते थे। साथ ही शहर के सिनेमाघरों की सूची के साथ उनमें चल रही फिल्मों का उल्लेख कर दिया जाता था। निर्माता के साथ ही वितरक और प्रदर्शक की भी जिम्मेदारी रहती थी कि वह दर्शकों तक फिल्म की जानकारी पहुंचाए। जिम्मेदारी की इस बांट से निर्माता का आर्थिक बोझ हल्का रहता था। पिछले एक-डेढ़ दशक में परिदृश्य बदलने से अभी निर्माता पर ही अधिकांश भार पड़ता है। आक्रामक प्रचार और मीडिया के बढ़ते प्रकल्पों से भी प्रचार के खर्च में इजाफा हुआ है। अभी स्थिति यह है कि फिल्म चाहे जितनी भी छोटी या सीमित बजट की हो,उसके प्रचार पर 3-4 करोड़ का खर्च आता ही आता है।     होर्डिंग्स,मीडिया खरीद,टीवी के विज्ञापन,बसों और ऑटो पर चिपके बैनर,रेडियो और अन्य माध्यमों पर खर्च का अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा है। पॉपुलर स्टार के बिग बजट की फिल्मों का प्रचार खर्च तो आराम से 40-50 करोड़ तक पहुंच जाता है। व्यवसाय और होड़ की इस इंडस्ट्री

खुद को खुश रखती है तापसी पन्‍नू

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- अजय ब्रह्मात्मज     मैं हमेशा खुद को खुश रखती हूं। मुझे नहीं लगता कि जिंदगी में कुछ भी इतनी तकलीफ दे कि जीना मुहाल हो जाए। खुशी तो अपनी पसंद की चीज है। मेरे पास खुश रहने के सौ बहाने हैं। मैं क्यों दुखी रहूं? मैं फिल्मों में काम करती हूं। यहां खुश रहना मुश्किल काम है। मुझे खुद को हिलाना-ड़लाना पडता है। कई चीजों से खुद को काटना पड़ता है। जबरदस्त प्रतियोगिता और होड़ है। मिलनेवाला हर व्यक्ति यही पूछता है कि अभी क्या कर रही हो? उन्हें यही जवाब देती हूं कि पहले जो किया है,उसकी खुशी तो मना लूं। मुझे पूछ कर तनाव मत दो। हम सब इसी होड़ में लगे रहते हैं कि अभी कुछ ऐसा करें कि चार साल बाद खुश हों। ऐसे लोग चार साल बाद भी खुश नहीं रहते। वे उस समय पांच साल बाद की खुशी के यत्न में लगे रहते हैं। कभी भी जिंदगी समाप्त नहीं होती। आप सोच कर देखें तो जितने आप से ऊपर हैं,उतने ही आप से नीचे भी हैं। जिंदगी के हर दिन को जीना जरूरी है। यह सोचना ठीक नहीं है कि मुझे ये नहीं मिला,वो नहीं मिला। अरे जो मिला है,उसे तो एंज्वॉय करो।     मैं तो कुछ नहीं होता है तो भगवान से पूछती हूं कि आप मेरी परीक्षा ले रहे हो ना? कोई ब

हर बारीकी के लिए परिश्रम - श्रुति तिवारी छाबड़ा

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-श्रुति तिवारी छाबड़ा  पिछले साल जब सुनने में आया की दिवाकर ब्‍योमकेश बक्शी पर फिल्म बना रहे है तो सोचा कौन देखने जाएगा ऐसे फिल्म। बचपन में रजित कपूर को ब्योमकेश का किरदार निभाते देखा था और मन मे ऐसी धारणा थी की कौन ले सकता है उनका स्थान। फिर एक हफ्ते पहले फिल्म के  ट्रेलर को देखा और सोचा कि देखना चाहिए। आखिर दिवाकर कोई ऐसे वैसे फ़िल्मकार नहीं है।  फिल्म का बैकग्राउण्ड 1942 के कोलकाता मे सेट है। फिल्म के शुरू होने से लेकर अंत तक कहीं भी ऐसा नहीं प्रतीत होता कि उस एरा को दिखाने में फिल्मकार से कहीं भी ज़रा सी चूक हुई है। हाथ रिक्शा से लेकर हिन्दी statesman अखबार और यहाँ तक कि पुरानी ट्राम तक यह एहसास दिलाती है कि दिवाकर को ऐस्थेटिक की कितनी समझ है और कितना परिश्रम किया गया है एक-एक बारीकी के लिए। यह आसान काम नहीं है। 2015 में 1942 क्रिएट करना। इसके लिए आर्ट डायरेक्‍टर कि भी खुले दिल से प्रशंसा करने के योग्य है।  जहां तक कहानी की बात है तो ब्‍योमकेश बक्शी एक डिटैक्टिव सीरीज़ थी जो शर्लाक होम्स कि तर्ज़ पर लिखी गयी थी। यह उस वक़्त कि बात थी जब फोरेंसिक अपनी बालावस्था मे भी न

डिटेक्‍ट‍िव ब्‍योमकेश बख्‍शी एक सधी हुई परिघटना है - अविनाश दास

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-अविनाश दास  सबसे अच्‍छी कहानी वो होती है, जो खुद के कहे जाने तक खामोशियों का छिड़काव करती रहे। क्‍योंकि सिनेमा सिर्फ कहानी नहीं होता, वहां प्रकाश से लेकर कला और अभिनय के तमाम पहलू इस छिड़काव में हाथ बंटाते हैं। इस लिहाज से डिटेक्‍ट‍िव ब्‍योमकेश बख्‍शी 2015 में सिनेमा की एक सधी हुई परिघटना है। इस फिल्‍म को देखने से पहले मैं उन तमाम समीक्षाओं से गुज़र चुका था, जिसमें इसे बड़ा बकवास और भारी ब्‍लंडर घोषित किया जा चुका था। सबसे पहली समीक्षा मैंने केआरके उर्फ कमाल राशिद खान की समीक्षा देखी, जिसमें वे डिटेक्टिव ब्‍योमकेश बख्‍शी को डिजास्‍टर बता रहे थे और बाद में सोशल मीडिया पर एक-दो को छोड़ कर तमाम बुद्धिजीवी मित्र इस फिल्‍म से मुतास्सिर और मुतमइन नहीं थे। चूंकि दिबाकर बनर्जी मेरे प्रिय फिल्‍मकारों में से हैं, लिहाजा मैं समझ नहीं पा रहा था कि उनसे कहां चूक हुई होगी। मैंने फिल्‍म देखा, तो मुझे झटका लगा कि केआरके की सिनेमाई समझ और मेरे अधिकांश मित्रों की सिनेमाई समझ में रत्तीभर भी फर्क नहीं है। और यही सबसे बड़ा डिजास्‍टर है कि हम सिनेमा को क्‍या समझ बैठे हैं। ब्‍योमकेश बख्‍श

पीछे नहीं देख सकती अब : कंगना रनोट

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-अजय ब्रह्मात्मज कंगना रनोट को नेशनल अवार्ड मिल चुका है। ‘क्वीन’ की रिलीज के बाद से ही माना जा रहा था कि कंगना इस साल सारे पुरस्कार समारोहों की रानी बनेंगी। अफसोस पॉपुलर अवार्ड समारोहों ने उन्हें नजरअंदाज किया, लेकिन नेशनल अवार्ड की ज्यूरी ने उन्हें उनकी कोशिश पर मुहर लगाई। कंगना के करियर पर गौर करें तो इसकी जोरदार शुरुआत 2011 में आई ‘तनु वेड्स मनु’ से होती है। हालांकि इसके पहले ‘फैशन’ में कंगना को बेस्ट सपोर्टिंग अभिनेत्री का अवार्ड मिल चुका था। पिछले दिनों कंगना हरियाणा के झझर इलाके में ‘तनु वेड्स मनु रिटन्र्स’ की शूटिंग कर रही थीं। 23 मार्च को वह 28 की हो गईं।     कंगना मानती हैं कि हिंदी फिल्मों में इन दिनों छोटे शहरों पर ध्यान दिया जा रहा है। दर्शक भी ऐसी कहानियां पसंद कर रहे हैं। वह इस ट्रेंड का श्रेय आनंद राय की फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ को देती हैं, ‘मेरी फिल्म पहली और नई कोशिश थी, जिसमें हमने छोटे शहरों की डिफरेंट लव स्टोरी कही थी। कानपुर की तनु के बाद अलग-अलग शहरों की तनु जैसी लड़कियां फिल्मों में आ रही हैं। गौर करें तो हिंदी फिल्मों को एक नया कैरेक्टर ही मिल गया। मुंहफट, तेज

दरअसल : सिनेमा की सोच और ग्रामर बदल रहा है फैंटम

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-अजय ब्रह्मात्मज चार साल पहले तीन निर्देशकों ने एक निर्माता के साथ मिल कर एक प्रोडक्शन कंपनी खड़ी की। यशराज फिल्म्स स्टूडियो में विक्रमादित्य मोटवाणी की फिल्म ‘लूटेरा’ से इसका उद्घाटन हुआ। रणवीर सिंह और सोनाक्षी सिन्हा की श्ह फिल्म फैंटम ने बालाजी फिल्म्स के साथ मिल कर बनाई थी। फिल्म की तारीफ हुई। फिल्म अच्छा व्यवसाय नहीं कर सकी। फैंटम का उद्देश्य था कि इसके निदेशकों में फिल्मों के निर्देशक हैं,जिन्हें अपने शिल्प का ज्ञान हो। कारपोरेट घरानों के आने के बाद से देखा जा रहा है कि एमबीए कर के आए अधिकारी फिल्मों की क्रिएटिविटी तय कर रहे हैं। नतीजतन न तो फिल्में बन पा रही हैं और न बिजनेस हो पा रहा है। रिलाएंस जैसी आर्थिक रूप से मजबूत कंपनी ने भी अपना डेरा-डंडा समेट लिया है। पिछले दिनों खबर आई थी कि रिलाएंस ने फैंटम के साथ स्ट्रेटजिक एलाएंस किया है। इस एलाएंस के जो भी मायने निकलते हों। एक चीज तो स्पष्ट है कि फैंटम ने अपनी मौजूदगी धमक दे दी है। फैंटम के मुख्श् कर्ता-धर्ता मधु मंटेना,अनुराग कश्यप,विक्रमादित्य मोटवाणी और विकास बहल हैं। चारों ने मिल कर नई किस्म की फिल्मों का प्रोडक्शन

जासूस जासूस है हाड़ मांस का बना एक आदमी - विमल चंद्र पाण्‍डेय

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- विमल चंद्र पाण्‍डेय दिबाकर बनर्जी निर्देशित डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी देख कर लौटा हूँ और सोच रहा हूँ कि इतना खूबसूरत और सुलझा हुआ क्लाइमेक्स हिंदी सिनेमा में इसके पहले कब देखा था. हर फ्रेम कुछ कहता हुआ, फिल्म की रगों में दौड़ता मानीखेज़ पार्श्व संगीत और दिबाकर का प्रिय कोलकाता जो इस फिल्म से गुज़रते हुए हमारा थोड़ा और प्रिय हो जाता है. दिबाकर बनर्जी निर्देशित डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी देख कर लौटा हूँ और सोच रहा हूँ कि नीरज काबी तो सँजो कर रखे जाने वाले हीरे हैं, ऐसा अभिनय जो हर कदम किरदार को धीरे-धीरे खोलता हुआ हमारे सामने लाता है. दिबाकर और उर्वी की पटकथा सिखाती है कि कहानी को किस तरह बुना जाता है. दिबाकर डिटेलिंग के मास्टर हैं और इस फिल्म में वह अपने उरूज पर है. ब्योमकेश बहुत साधारण इंसान है, कौन सा निर्देशक अपने हीरो को इंट्रोडक्शन सीन में किसी चरित्र अभिनेता से थप्पड़ मरवाएगा. यह काम दिबाकर करते हैं और इस तरह करते हैं कि वह थप्पड़ लार्जर दैन लाइफ हीरो की हमारी अवधारणा पर पड़ता है. कौन सा निर्देशक होगा जो अपने नायक, वह भी जासूस, को क्लाइमेक्स में बेहोश कर देगा. वह जब उठेगा तो खून खराबा ह

हिंदी टाकीज 2 (7) : सिनेमा की पगडंडी पर ज़िंदगी का सफ़र -उमेश पंत

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हिंदी टाकीज 2 का सिलसिला चल रहा है। इस बार उमेश पंत यादों की गलियों में लौटे है और वहां से अपने अनुभवों को लेकर आए हैं। उमेश पंत लगातार लिख रहे हैं। विभिन्‍न विधाओं में में अपने कौशल से वे हमें आकरूर्िात कर रहे हैं। यहां उन्‍होंने सिनेमा के प्रति अपने लगाव की रोचक कहानी लिखी है,जो उनकी पीढ़ी के युवकों की सोच और अनुभव से मेल खा सकती है।    सिनेमा की पगडंडी पर ज़िंदगी का सफ़र -उमेश पंत  मैं इस वक्त उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में हूं।अपने ननिहाल में।कुछ हफ्ते भर पहले रिलीज़ हुई एनएच 10 देखने का मन है।पर अफ़सोस कि मैं उसे   बड़े परदे पर नहीं देख पाऊंगा।क्यूंकि ज़िला मुख्यालय होते हुए भी यहां एक सिनेमाघर नहीं है जहां ताज़ा रिलीज़ हुई मुख्यधारा की फ़िल्में देखी जा सकें।एक पुराना जर्ज़र पड़ा सिनेमाघर है जिसके बारे में मेरी मामा की लड़की ने मुझे अभी अभी बताया है - “वहां तो बस बिहारी (बिहार से आये मजदूर) ही जाते हैं   ..।वहां जैसी फ़िल्में लगती हैं उनके पोस्टर तक देखने में शर्म आती है”। 28 की उम्र में पूरे दस साल बाद आज मैं अपने ननिहाल आया हूं..।सिनेमा को लेकर दस साल पहले जो हालात थे आज भी ए

फिल्‍म समीक्षा - डिटेक्टिव ब्‍योमकेश बक्‍शी

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कलकत्‍ता -1943  पृष्‍ठभूमि शरदिंदु बनर्जी ने 1932 में जासूस ब्योमकेश बक्शी के किरदार को गढ़ा था। उन्होंने कुल 32 कहानियां लिखी थीं। इन कहानियों को बंगाल में फिल्मों और धारावाहिकों में ढाला गया है। हिंदी में भी एक धारावाहिक 'ब्योमकेश बक्शी' नाम से ही बना था,जिसमें रजत कपूर ने शीर्षक भूमिका निभाई थी। ताजा हाल रितुपर्णो घोष की बंगाली फिल्म 'सत्यान्वेषी' मे ब्योमकेश बक्शी की भूमिका में 'कहानी' के निर्देशक सुजॉय घोष दिखे थे। दिबाकर बनर्जी ने शरदिंदु बनर्जी की सभी 32 कहानियों के अधिकार लेकर उन्हें अपनी फिल्म 'डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी' में सुविधानुसार इस्तेमाल किया है। दिबाकर बनर्जी की यह फिल्म यशराज फिल्म्स के सहयो" से आई है। इसमें ब्योमकेश बक्शी की भूमिका सुशांत सिंह राजपूत निभा रहे हैं। 'डिटेक्टिव ब्योकेश बक्शी' के आरंभ में फिल्म का प्रमुख सहयोगी किरदार अजीत बंद्योपाध्याय का वॉयसओवर सुनाई पड़ता है, '1942। कलकत्ता। सेकेंड वर्ल्ड वॉर जोर पर था। जापान की फौज इंडिया-वर्मा बोर्डर से कलकत्ता पर अटैक करने का मौका

दरअसल : सिनेमाघर पहुंचें महिलाएं

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों नवदीप सिंह की फिल्म एनएच 10 आई। सराहना और कामयाबी की वजह से यह फिल्म उल्लेखनीय हो गई है। फिल्म की निर्माता और मुख्य अभिनेत्री अनुष्का शर्मा हैं। उनके इस जुड़ाव के प्रति आम दर्शक और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का रवैया और व्यवहार सहज नहीं है। जब कभी अभिनेत्रियां निर्माता बनती हैं या मेन लीड में आती हैं तो ट्रेड सर्किल और आम दर्शक दोनों ही अतिरिक्त पारखी हो जाते हैं। वे खूबियों से अधिक कमियों की बात करते हैं। फिल्म के समर्थक के बजाए वे विरोधी के तौर पर खड़े हो जाते हैं। बताने लगते हैं कि यह फिल्म तो अवश्य ही असफल होगी। दर्शकों का उत्साह भी संतोषजनक और समर्थक नहीं रहता। तमाम संशयों के बावजूद एनएच 10 सफल रही। फिल्म के निर्देशक का सोया करिअर जाग गया। स्वयं अनुष्का शर्मा समकालीन अभिनेत्रियों में एक कदम आगे दिख रही हैं।  एनएच 10 के प्रति आम दर्शकों के रवैए और व्यवहार पर गौर करें तो उनकी सोच के सामाजिक आधार नजर आएंगे। दर्शकों के समूह को हम एक ईकाई मान लेते हैं। ऐसा है नहीं। दर्शकों के समूह में हर उम्र,लिंग और आर्थिक पृष्ठभूमि के दर्शक होते हैं। सबकी अपनी पृष्