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भावनाओं का शिखर है शिवाय : अजय देवगन

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     -अजय ब्रह्मात्मज दो साल की कड़ी तपस्‍या के बाद अजय देवगन अब आखिरकार अपनी अति महत्वाकांक्षी फिल्म ‘शिवाय’ पूरी कर चुके हैं। वह इस साल दीवाली पर रिलीज होगी। दर्शकों को कुछ अलग देने की गरज से उन्होंने इस में आर्थिक, शारीरिक व मानसिक तीनों निवेश किया है। - फिल्म देखने पर हम समझें कि शिवाय क्या है। किस चीज ने आप को फिल्म की तरफ आकर्षित किया। ० - जी बिल्कुल। देखिए यह एक भावना है। मेरी ज्यादा फिल्में जो वर्क करती हैं , मैं काम करता हूं। उसमें भावनाएं सबसे मजबूत होती हैं। या तो पारिवारिक भावनाएं हो या जो भी इमोशन हो। इस फ़िल्म का आधार भावनाएं ओर परफॉरमेंस   हैं। बाकी सब आप भूल जाइए।तकनीक और एक्शन को एकतरफा कर दीजिए। यह सब आकर्षण हैं , इससे हम एक स्केल पर जा सकते हैं। लेकिन कहानी में आपको कोर भावनाएं अाकर्षित करती हैं , जो कि यूनिवर्सल होता है।   वह एक सोच है। हमने बिल्कुल उलझाने की कोशिश नहीं की है। हम नहीं बता रहे हैं कि नए तरह की फिल्म है। भावनाएं तो वहीं हैं जो आपकी और मेरी होती है। आपके परिवार की तरफ जो भावनाएं हैं , वही मेरे परिवार की तरफ मेरी भावनाएं हैं। वो तो ब

दस फीसदी भी नहीं दिया : मनोज बाजपेयी

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-अमित कर्ण मनोज बाजपेयी के लिए साल 2016 इकट्ठी खुशियां व फख्र की अनुभूतियां लेकर आया है। साल के शुरूआती महीनों में ‘अलीगढ़’, पिछले दिनों ‘ट्रैफिक’ और अब ‘बुधिया : बॉर्न टु रन’ उनकी दमदार अदायगी व मौजूदगी से निखरी। वे अलग ऊंचाई हासिल कर गईं। हैरत यह है कि 22 साल से अदाकारी करने के बावजूद उनमें बेहतर परफॉरमेंस की भूख नहीं मिटी है। उन्होंने खुद को यंत्रवत सा बनने नहीं दिया है। - अदाकारी में महारथ होने के बावजूद उसके प्रति आज भी अपनी भूख कैसे बनाए रखते हैं। 0 उस भूख को जगाने की जरूरत नहीं पड़ती। ‘देवदास’ में दिलीप साहब ने कहा था न ‘यह कभी न बुझने वाली प्यास’ है। यह इतनी जल्दी जाने वाला नहीं है। अभी मेरे भीतर जितना है, उसका तो दस फीसदी भी बाहर नहीं आया है। मुझे अपना हर पिछला काम कचोटता रहता है। उसमें कमी महसूस होती रहती है। वह चीज मुझे खाली करता रहता है। हमेशा लगता है कि मैं बहुत कुछ दे सकता हूं, मगर वैसे रोल नहीं आ रहे। इसलिए जैसे ही एक असरदार किरदार मिलता है तो खुद को उस की तैयारियों पर न्यौछावर कर देता हूं।   -इसे हम महज इ्त्तेफाक ही कहें कि इन दिनों ज्यादतर वैसी फिल्

हम पर भी है समाज की जिम्मेदारी : दीया मिर्जा

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-स्मिता श्रीवास्‍तव दीया मिर्जा बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी हैं। अभिनय , फिल्म निर्माण के अलावा वे खुद को सामाजिक सरोकार के मुद्दों से भी नियमित तौर पर जोड़े रखती हैं। वे कन्या भ्रूण हत्या , एचआईवी के खिलाफ अलख जगाती रही हैं। वे पर्यावरण संरक्षण की मुहिम का भी हिस्सा रही हैं। हाल ही में उन्हें स्वच्छ साथी अभियान का ब्रांड अंबेसडर भी बनाया गया है।         सामाजिक कार्यों की प्रेरणा के संबंध में दीया कहती हैं ,‘ यह कई चीजों का नतीजा है। आप की परवरिश काफी अहम होती है। मेरी परवरिश जिम्मेदार नागरिक बनने और सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध रहने के तौर पर हुई। इसकी शुरुआत स्कूल से हुई। जे कृष्णमृर्ति की फिलासिफी से अपनी शिक्षा अर्जित की। हमें सिखाया गया प्यार से रहो , प्यार बांटो और प्यार फैलाओ। परिपक्व होने पर आप सोसाइटी की समस्याओं को बारीकी से समझ पाते हैं। आप मूकदर्शक बने नहीं रह सकते। खास तौर पर जब आप सेलिब्रिटी हों। सोशल वर्क जिंदगी के दायरे को बड़ा कर देता है। हम संसार से जुड़ जाते हैं। ’ इसलिए जुड़ी स्वच्छता अभियान से मैं खुशकिस्मत हूं कि इतने अभियान से जुड़ी हुई हूं। मेरा

दरअसल : मैड्रिड में हिंदी सिनेमा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले 17 सालों से आइफा वीकएंड के तहत आइफा अवार्ड और अन्‍य इवेंट के आयोजन विदेशों में हो रहे हैं। आइफा सामान्‍य तौर पर भारतीय सिनेमा और विशेष तौर पर हिंदी सिनेमा के   प्रसार में अहम भूमिका निभाता रहा है। अभी तो हिंदी सिनेमा के प्रचारक और प्रसारक के नाम पर कई दावेदार निकल आएंगे,लेकिन इस सच्‍चाई सं इंकार नहीं किया जा सकता कि आइफा ने ही यह पहल की। उन्‍होंने भारतवंशियों और विदेशियों के बीच भारतीय फिल्‍मों और फिल्‍म स्‍टारों ‍को पहुंचाया और उनकी लोकप्रियता को सेलीब्रेट किया। आइफा इस मायने में हिंदी फिल्‍मों के अन्‍य पुरस्‍कारों से अलग और विशेष है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और दुनिया भर के प्रशंसकों को आइफा का इंतजार रहता है। इंटरनेशनल मीडिया को हिंदी फिल्‍मों के स्‍टारों से मिलने का मौका मिलता है। प्रशंसकों को खुशी मिलती है कि उन्‍होंने अपने देश में उन स्‍टारों को देख लिया,जिन्‍हें वे जिंदगी भर केवल स्‍क्रीन पर देखते रहे। 17 वें आइफा अवार्ड समारोह का आयोजन स्‍पेन की राजधानी मैड्रिड में किया गया। 23 से 27 जुलाई तक मैड्रिड की गलियां और ऐतिहासिक स्‍थल हिंदी फिलमों के

फिल्‍म समीक्षा : सुल्‍तान

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जोश,जीत और जिंदगी -अजय ब्रह्मात्‍मज अली अब्‍बास जफर ने हरियाणा के बैकड्राप में रेवाड़ी जिले के बुरोली गांव के सुल्‍तान और आरफा की प्रेमकहानी में कुश्‍ती का खेल जोड़ कर नए तरीके से एक रोचक कथा बुनी है। इस कथा में गांव,समाज और देश के दूसरी जरूरी बातें भी आ जाती हैं,जिनमें लड़कियों की जिंदगी और प्रगति का मसला सबसे अहम है। लेखक और निर्देशक अली अब्‍बास जफर उन पर टिप्‍पणियां भी करते चलते हैं। उन्‍होंने शुरू से आखिर तक फिल्‍म को हरियाणवी माटी से जोड़े रखा है। बोली,भाषा,माहौल और रवैए में यह फिल्‍म देसी झलक देती है। एक और उल्‍लेखनीय तथ्‍य है कि ‘ सुल्‍तान ’ में नायक-नायिका मुसलमान हैं,लेकिन यह फिल्‍म ‘ मुस्लिम सोशल ’ नहीं है। हिंदी फिल्‍मों में ऐसे प्रयास लगभग नहीं हुए हैं। यह हिंदी की आम फिल्‍म है,जिसके चरित्र आसपास से लिए गए हैं। अली अब्‍बास जफर की इस कोशिश की अलग से सराहना होनी चाहिए। सुल्‍तान गांव का नौजवान है। वह अपने दोस्‍तों के साथ पतंग लूटने और मौज-मस्‍ती करने में खुश रहता है। उसका अजीज दोस्‍त गोविंद है। उनकी अचानक टक्‍कर आरफा से हो जाती है। आरफा अपने एटीट्यूड से

ढेरों चुनौतियां हैं लड़कियों के सामने - अनुष्‍का शर्मा

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    -अजय ब्रह्मात्‍मज हर कलाकार की लाइफ में ऐसा समय आता है जब उसकी स्वीकार्यता बढ़ जाती है। भले उसमें कलाकार विशेष की प्लानिंग न दिखती हो, पर अनुष्का शर्मा उस स्टेज में हैं। वे ‘सुल्तान’ में हरियाणा की रेसलर आरिफा के रोल स्‍वीकारती हैं। वे साथ ही अपने बैनर तले हार्ड हिटिंग फिल्में बना रही हैं।   अनुष्‍का शर्मा कहती हैं, ‘ मुझे स्वीकारा जा रहा है। यह बहुत बड़ी चीज है। इसके बिना कुछ भी नहीं है। मेरी मेहनत के कोई मायने नहीं होंगे। हम लोग एक्टर हैं। लोग हमारे काम के बारे में क्या सोचते हैं, यही हमारी सफलता होती है। चाहे वह अप्रत्यक्ष सफलता हो या प्रत्यक्ष सफलता हो। इससे हमें और फिल्में मिलती हैं। वह चाहे जो भी हो। यह हमारे लिए जरूरी है। मैं बचपन से ऐसी रही हूं। मुझे हमेशा कुछ अलग करने का शौक रहा है। यह मेरा व्यक्तित्व है। मतलब खुद भी खुश होना चाहिए। उससे ज्यादा खुद से संतुष्ट होना चाहिए कि हम जो कर रहें हैं उसके पीछे एक वजह है। यह पूछे जाने पर वे बताती हैं, ‘वजह होना बहुत जरूरी है। उसके बिना कोई उद्देश्य नहीं होता है। मैं यह ‘सुल्तान’ के उदाहरण से समझाना चाहूंगी। मेरे लिए

ओलंपिक से मिला आइडिया - अली अब्‍बास जफर

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अजय ब्रह्मात्मज अली अब्बास जफर वक्त के साथ और परिपक्व हुए हैं। यशराज बैनर के संग उनका नाता पुराना है। ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’, ‘गुंडे’ के बाद अब वे ‘सुल्तान’ लेकर आए हैं। यहां वे इंडस्ट्री के सबसे बड़े सितारे के संग काम कर रहे हैं। अली बताते हैं, ‘ मैं वक्त के साथ कितना प्रबुद्ध हुआ हूं, यह तो ‘सुल्तान’ व भविष्‍य की फिल्में तय करेंगी। मैं जहां तक अपने सफर को समझ पाया हूं तो मेरे काम में अतिरिक्त ठहराव आया है। मैंने पहली फिल्म ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’ महज 27-28 में बना ली थी। उसकी कहानी तो मैंने 26 साल में ही लिख ली थी। तब मैं बुलबुले की भांति था। उस बुलबुले में काफी ऊर्जा थी। उस वक्त मैं अपना सब कुछ देकर फटने को आतुर था। उस फिल्म के चलने की वजह भी यही थी कि मैंने वह फिल्म जिस ऑडिएंस के लिए व जिन कलाकारों के संग बनाई थी, वह जुड़ाव स्‍थापित करने में सफल रही थी। उसमें ऐसे मुद्दे थे, जो तत्कालीन समाज के हालात थे। ‘गुंडे’ के वक्त चुनौतियां थीं। मैंने जिस दौर की कहानी के साथ डील किया था, उस वक्त तो मैं पैदा भी नहीं हुआ था। ऐसी कहानी कह रहा था, जिसमें विभाजन व माइग्रेशन का दर्द

गिटार मास्‍टर हैं तिग्मांशु : संजय चौहान

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हिंदी सिनेमा में बदलाव के प्रणेताओं में तिग्‍मांशु धूलिया का नाम भी शुमार होता है। वह लेखक, निर्देशक, अभिनेता, निर्माता और कास्टिंग डायरेक्‍टर हैं। ‘हासिल’, ‘पान सिंह तोमर’, और ‘साहब बीवी और गैंग्‍स्‍टर’ जैसी उम्‍दा फिल्‍में तिग्‍मांशु धूलिया की देन हैं। तीन जुलाई को तिग्‍मांशु का जन्‍मदिन है। संजय चौहान उनके करीबी दोस्‍त हैं। पेश है तिग्‍मांशु के व्‍यक्तित्‍व की कहानी संजय की जुबानी : यह कहना गलत नहीं होगा कि तिग्मांशु धूलिया , जिन्हें हम दोस्त प्यार से तीशू कहकर बुलाते हैं , से मेरी मुलाकात बिज्जी ( प्रख्यात कहानीकार विजन दान देथा ) के जरिए हुई थी। जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय ( जेएनयू ) से मैंने बिज्जी की कहानियों पर एम फिल की थी। मुंबई आने के बाद मैं टीवी सीरियल लिख रहा था। उन दिनों स्टार बेस्ट सेलर सीरीज के तहत कई निर्देशक अलग-अलग कहानियां कर रहे थे। उनमें से कई आज नामी निर्देशक हो चुके हैं। मसलन श्रीराम राघवन , इम्तियाज अली , अनुराग कश्यप और तिशु। बिज्जी राजस्थान की एक बोली मारवाठी में लिखते थे। उनकी एक कहानी अलेखुन हिटलर के हिंदी अनुवाद अनेकों हिटलर को तिशु ने इ

दरअसल : रिकार्डिंग और डाक्‍युमेंटेशन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों एक अनौपचारिक मुलाकात में अमिताभ बच्‍चन ने मीडिा से शेयर किया कि अपने यहां डाक्‍यूमेंटेशन का काम नहीं के बराबर होता है। गौर करें तो इस तरफ न तो सरकारी संस्‍थाओं का ध्‍यान है और न ही फिल्‍मी संस्‍थाओं और संगठनों का। किसी के पास आंकड़े नहीं हैं। इन दिनों फिल्‍मों सं संबंधित किसी भी जानकारी के लिए गूगल,विकीपीडिया और आईएमडीबी का सहारा लिया जाता है। वहां सब कुछ प्रामाणिक तरीके से संयोजित नहीं किया गया है। कई बार ऐसा हुआ है कि कोई एक गलत जानकारी ही चलती रहती है। यहां तक कि फिल्‍म बिरादरी के संबंधित सदस्‍य भी उसमें सुधार की कोशिश नहीं करते हैं। खुद के प्रति ऐसी लापरवाही भारत में ही देखी जा सकती है। कुछ लोगों का यह सब फालतू काम लगता है। यह एक दूसरे किस्‍म का अहंकार है कि हम अपने बारे में सब कुछ क्‍यों लिखें और बताएं ? इतिहासकार बताते हैं कि देश में दस्‍तावेजीकरण की परंपरा नहीं रही। हम मौखिक परंपरा के लोग हैं। सब कुछ सुनते और बताते रहे हें। उन्‍हें लिपिबद्ध करने का काम बहुत बाद में किया गया। पहले महाकाव्‍यों और काव्‍य में राजाओं की गौरव गाथाएं लिखी जाती