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रंगमंच पर मुगलेआजम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दशकों पहले बनी ‘ मुगलेआजम ’ का जादू अब तक जारी है। जब यह रंगीन होकर रिलीज हुई थी तो भी दर्शकों ने इसे पसंद किया था। अब फिरोज अब्‍बास खान इसे मंच पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके ही शब्‍दों में... कोशिश और ट्रिब्‍यूट है कि हम ‘ मुगलेआजम ’ को रंगमंच पर लेकर आएं1 मुझे हमेशा लगा कि इस फिल्‍म का स्ट्रक्‍चर थिएट्रिकल ही रहा। परफारमेंस,स्‍टायल और संवाद अदायगी में इसे देख सकते हैं। पारसी रंगमंचा पर ‘ अनारकली ’ देख कर के आसिफ ने मुगलेआजम के बारे में सोचा था। यह मूल फिल्‍म से प्रेरित रहेगा। हमारे लेखक ने रंगमंच के हिसाब से बदला है। बहुत ही स्‍ट्रांग मैसेज है। देश है,तख्‍त है और बाप-बेटे का संबंध है। बेटा अपनी दिलअजीज से शादी करना चाहता है और बाप उसके खिलाफ है। उसे यह मुनासिब नहीं लगता। क्‍लासिक लवस्‍टोरी है। इसमें कोई भी डल मोमेंट नहीं है। हिंदी में म्‍यूजिकल प्‍ले करने का इरादा था। मुझे उसके मुगलेआजम सही लगा। इसमें लाइव म्‍यूजिक रहेगा। नए मीडियम में म्‍यूजिकल थिएटर देख कर आनंद आएगा। स्‍क्रीन से यह कहानी स्‍टेज पर लाने में अधिक दिक्‍कत नहीं हुई,क्‍य

फिल्‍म समीक्षा : इनफर्नो

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जैसी किताब,वैसी फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज डैन ब्राउन के उपन्‍यास पर आधारित रॉन होवार्ड की फिल्‍म ‘ इनफर्नो ’ का भारत में सबसे बड़ा आकर्षण इरफान खान हैं। इनकी वजह से फिल्‍म का एक भारतीय ट्रेलर भारत में जारी किया गया। यह भ्रम बनाया गया कि इस फिल्‍म में इरफान खान की भूमिका टॉम हैंक्‍स को टक्‍कर देगी। ऐसे प्रशंसक दर्शकों को ‘ इनफर्नो ’ निराश करेगी। प्रचार के मुताबिक इसमें इरफान खान हैं। उन्‍हें महत्‍वपूर्ण किरदार भी मिला है,लेकिन स्‍क्रीन प्रेजेंस के लिहाज से यह अपेक्षाकृत छोटा है। डेविड कोएप ने मूल उपन्‍यास को स्क्रिप्‍ट में बदला है। उन्‍होंने पहले भी डैन ब्राउन के उपन्‍यास की फिल्‍म स्क्रिप्‍ट तैयार की है। पिछले अनुभवों से उन्‍हें लाभ हुआ है। उपन्‍यास की आत्‍मा के साथ उसके शरीर को भी उन्‍होंने फिल्‍म में जस का तस रखा है। यही वजह है कि निर्देशक रॉन होवार्ड की कोशिशों के बावजूद फिल्‍म साधारण ही रह जाती है। भारत में डैन ब्राउन लोकप्रिय लेखक हैं। विदेश में उन्‍हें एयरपोर्ट रायटर का दर्जा हासिल है। भारत समेत अनेक देशों में साधारण उपन्‍यासों पर बेहतरीन फिल्‍में बनती रही

फिल्‍म समीक्षा : सात उचक्‍के

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गालियां और गलियां -अजय ब्रह्मात्‍मज संजीव शर्मा की ‘ सात उचक्‍के ’ का सबसे बड़ा आकर्षण मनोज बाजपेयी,के के मेनन और विजय राज का एक साथ एक फिल्‍म में होना है।तीनों थिएटर की पृष्‍ठभूमि से आए अभिनेता हैं। तीनों की शैली में हल्‍की भिन्‍नता है। फिल्‍म के कुछ दृश्‍यों में तीनों साथ हैं। उन दृश्‍यों में हंसी की स्‍वच्‍छंद रवानी है। वे एक-दूसरे को स्‍पेस देते हुए अपनी मौजूदगी और शैली से खुश करते हैं। अपने निजी दृश्‍यों में उनका हुनर दिखता है। लेखक-निर्देशक संजीव शर्मा तीनों के साथ पुरानी दिल्‍ली की उन गलियों में घुसे हैं,जिनसे हिंदी सिनेमा अपरिचित सा रहा है। पुरानी दिल्‍ली के निचले तबके के ‘ सात उचक्‍कों ’ की कहानी है यह। ’ सात उचक्‍के ’ में पुरानी दिल्‍ली की गलियां और गालियां हैं। गालियों की बहुतायत से कई बार आशंका होती है कि कहीं लेखक-निर्देशक स्‍थानीयता के लोभ में असंयमित तो नहीं हो गए हैं। फिल्‍म के सातों उचक्‍कों का कोई भी संवाद गालियों के बगैर समाप्‍त नहीं होता। भाषा की यह खूबी फिल्‍म के आनंद में बाधक बनती है। हां,पुरानी दिल्‍ली की तंग गलियां इस फिल्‍म में अपनी खूबसूरती

दरअसल : भिखारी के तीन चेंज

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यह कानाफूसी नहीं है। स्‍वयं करण जौहर ने स्‍वीकार किया है। इस प्रसंग से पता चलता है कि हमारे फिल्‍मकार अपने समाज से कितना कटे हुए हैं। वे जिस दुनिया में रहते हैं और पर्दे पर जिस दुनिया को रचते हैं,वह वास्‍तविक दुनिया से कोसों दूर उनके खयालों में रहती है। हमें पर्दे पर रची उनकी दुनिया भले ही आकर्षक और सपने की तरह लगे,उसमें रमने का मन भी करे,उसकी चौंधियाहट से हम विस्मित होते रहे....लेकिन सच से उनका वास्‍ता नहीं होता। वस्‍तु,चरित्र,दृश्‍य,प्रसंग और कहानियां सब कुछ वायवीय होती हैं। जीवन के कड़वे और मीठे अनुभवों की काल्‍पनिक उड़ान से कहानियां रची जाती हैं। उन कहानियों को जब कलाकार पर्दे पर जीते हैं तो वह फिल्‍म का रूप लेती हैं। जरूरी है जीवनानुभव....इसके अभाव में इधर अनेक फिल्‍मकार आए हैं,जिन्‍होंने फिल्‍मों में एक वायवीय और चमकदार दुनिया रची है। एक बार सुधीर मिश्रा से बात हो रही थी। उनसे मैंने पूछा कि कुछ फिल्‍मकारों की फिल्‍में और उनमें किरदारों की मनोदशा इतनी नकली क्‍यों लगती है ? उन्‍होंने सवाल खत्‍म होते ही कहा, ’ क्‍योंकि उन्‍हें नकली लोग रच रहे होते हैं। ऐ

सजग-सक्रिय महानायक अमिताभ बच्‍चन

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जन्‍मदिन विशेष -अजय ब्रह्मात्‍मज दिलीप कुमार,मनोज कुमार,शशि कपूर,शत्रुघ्‍न सिन्‍हा,अमोल पालेकर,संजय खान,जीतेन्‍द्र कबीर बेदी,विनोद खन्‍ना,रणधीर कपूर,धर्मेन्‍द्र,सुरेश ओबेरा और अमिताभ बच्‍चन में एक समानता है कि सभी 70 की उम्र पार कर चुके हैं। इस सूची में और भी अभिनेताओं के नाम जोड़े जा सकते हैं। इनमें केवल अमिताभ बच्‍चन अभी अपनी सक्रिय मौजूदगी से दर्शकों को विस्मित कर रहे हैं। हिंदी फिल्‍मों के इतिहास में खंगाल कर देखें तो दिलीप कुमार और अशोक कुमार 70 की उम्र के बाद भी फिल्‍मों में अभिनय करते रहे और दमदार मुख्‍य भूमिकाओं में नजर आते रहे।  दूसरे अभिनेताओं को भी छिटपुट फिल्‍में मिलीं। उन सभी में अमिताभ बच्‍चन के अलावा और कोई लीड भूमिकाओं में इतनी लंबी पारी तक अभिनय करता नजर नहीं आता। अमिताभ बच्‍चन फिल्‍मों के साथ ऐड पर्ल्‍ड और सोशल मीडिया में भी सक्रिय हैं। वहां भी लोग उप पर गौर करते हैं। उन्‍हें फॉलो करते हैं। उनके प्रशंसक बने हुए हैं। हालांकि अमिताभ बच्‍चन अपनी पिछली मुलाकातों में लगातार कहते रहे हैं कि अब फिल्‍मों का भार उनके कंधों पर नहीं रहता,लेकिन उनकी पिछली फिल्‍मों

अमिताभ बच्‍चन 75

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अमिताभ बच्‍चन के 75 वें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर चवन्‍नी चैप में पोस्‍ट किए कुछ संस्‍माणों,लेखों और इंटरव्‍यू के लिंक यहां दे रहा हूं। पढ़ें,मजा आएगा। http://chavannichap.blogspot.in/2008/10/blog-post_11.html http://chavannichap.blogspot.in/2008/12/blog-post.html http://chavannichap.blogspot.in/2008/12/blog-post_08.html http://chavannichap.blogspot.in/2010/10/blog-post_10.html http://chavannichap.blogspot.in/2010/10/blog-post_10.html http://chavannichap.blogspot.in/2013/10/blog-post_3739.html http://chavannichap.blogspot.in/2013/10/blog-post_9.html http://chavannichap.blogspot.in/2013/10/2.html http://chavannichap.blogspot.in/2013/10/blog-post_7.html http://chavannichap.blogspot.in/2012/10/70.html http://chavannichap.blogspot.in/2013/10/blog-post_8.html

दरअसल : तनिष्‍ठा और सोनम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज तनिष्‍ठा चटर्जी की फिल्‍म ‘ पार्च्‍ड ’ हाल ही में रिलीज हुई। इस फिल्‍म में तनिष्‍ठा चटर्जी ने रानी का किरदार निभाया था। छोटी उम्र में शादी के बाद विधवा हो गई रानी अपने बेटे को पालती है और आदर्श मां के तौर पर समाज में पूछी जाती है। अचानक उसके जीवन में एक चाहनेवाला आता है और फिर वह शरीर के स्‍फुरण से परिचित होती है। तनिष्‍ठा ने इस किरदार को बखूबी निभाया। एनएसडी से प्रशिक्षित तनिष्‍ठा ने अनेक हिंदी और इंटरनेशनल फिल्‍मों में काम कर प्रतिष्‍ठा अर्जित की है। वह पुरस्‍कृत भी हो चुकी हैं। हिंदी सिनेमा में जो थोड़ी-बहुत पैरेलल और कलात्‍मक फिल्‍में बन रही हैं,उनमें सभी की चहेती हैं तनिष्‍ठा चटर्जी। उनका एक अलग मुकाम है। पिछले दिनों इसी फिल्‍म के प्रचार के सिलसिले में वह एक कॉमेडी शों में गई थीं। यह विडंबना है कि मास अपील रखने वाली हिंदी फिल्‍में प्रचार के लिए टीवी शो का सहारा लेती हैं। ऐसे ही एक कॉमेडी शो में तनिष्‍ठा चटर्जी का मजाक उड़ाया गया। यह मजाक उनके रंग(वर्ण) को लकर था। तनिष्‍ठा ने आपत्ति की और बाद में चैनल के अधिकारियों से भी शिकायत की। उन्‍होंने फेसबुक

फिल्‍म समीक्षा : तूतक तूतक तूतिया

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न डर,न हंसी -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म के लिए एक कहानी लिखी गई। उस कहानी के एक किरदार के लिए सोनू सूद से बात हुई। सोनू सूद को कहानी इतनी पसंद आई कि उन्‍होंने निर्माता बनने का फैसला कर लिया। उन्‍होंने फिल्‍म को अपने हिसाब से संजोया। लेखक और निर्देशक ने भी उनकी सोच का खयाल रखा। प्रभुदेवा हीरो बन गए। साथ में तमन्‍ना आ गईं। फिल्‍म तैयार हो गई। ‘ तूतक तूतक तूतिया ’ कुछ दोस्‍तों के सामूहिक प्रयास से एक प्रोपोजल को फिल्‍म में ढालने का नमूना है। दक्षिण के निर्देशक ए एल विजय की पहली हिंदी फिल्‍म है। कृष्‍णा मुंबई में रहता है। वह तमिल है। उसे तलाश है अंग्रेजी बोलने में माहिर मॉडर्न लड़की की,जिसका ग्रामर ठीक हो। वह 27 लड़कियों को प्रोपोज कर तीस बार रिजेक्‍ट हो चुका है। संयोग कुछ ऐसा बनता है कि उसे पैतृक गांव जाना पड़ता है। वहां आनन-फानन में उसकी शादी देवी से कर दी जाती है। मुंबई लौटने पर वह देहाती बीवी से दुखी रहता है। एक परालौकिक घटना घटती है। उसमें रुबी की आत्‍मा प्रवेश कर जाती है। रुबी हिंदी फिल्‍मों की हीरोइन बनने में असफल रहने पर हताशा में आत्‍महत्‍या कर चुकी ह

फिल्‍म समीक्षा : मिर्जिया

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दो युगों की दास्‍तान -अजय ब्रह्मात्‍मज राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘ मिर्जिया ’ दो कहानियों को साथ लेकर चलती है। एक कहानी पंजाब की लोककथा मिर्जा-साहिबा की है। दूसरी कहानी आज के राजस्‍थान के आदिल-सूची की है। दोनों कहानियों का अंत एक सा है। सदियों बाद भी प्रेम के प्रति परिवार और समाज का रवैया नहीं बदला है। मेहरा इस फिल्‍म में अपनी शैली के मुताबिक दो युगों में आते-जाते हैं। ‘ रंग दे बसंती ’ उनकी इस शैली की कामयाब फिल्‍म थी। इस बार उनकी फिल्‍म दो कहानियों को नहीं थाम सकी है। दोनों कहानियों में तालमेल बिठाने में लेखक और निर्देशक दोनों फिसल गए हैं। अपारंपरिक तरीके से दो कहानियों का जोड़ने में वे ‘ रंग दे बसंती ’ की तरह सफल नहीं हो पाए हैं। गुलजार के शब्‍दों के चयन और संवादों में हमेशा की तरह लिरिकल खूबसूरती है। उन्‍हें राकेश ओमप्रकाश मेहरा आकर्षक विजुअल के साथ पेश करते हैं। फिल्‍म के नवोदित कलाकारो हर्षवर्धन कपूर और सैयमी खेर पर्दे पर उन्‍हें जीने की भरपूर कोशिश करते हैं। सभी की मेहनत के बावजूद कुछ छूट जाता है। फिल्‍म बांध नहीं पाती है। यह फिल्‍म टुकड़ों में अच्‍छी लगती है। द,

कॉमेडी की है मेरी अपनी परिभाषा - मनोज बाजपेयी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मनोज बाजपेयी को हाल ही में 7वें जागरण फिल्‍म फेस्टिवल में ‘ अलीगढ़ ’ के लिए श्रेष्‍ठ अभिनेता का पुरस्‍कार मिला है। उनकी ‘ सात उचक्‍के ’ रिलीज पर है। इस साल यह उनकी तीसरी फिल्‍म होगी। तीनों फिल्‍मों में वे बिल्‍कुल भिन्‍न भूमिकाओं में दिखे। - बधाई। 7वें जागरण फिल्‍म फेस्टिवल में श्रेष्‍ठ अभिनेता का पुरस्‍कार पाने पर आप की क्‍या प्रतिक्रिया है ? 0 मुझे बहुत अच्‍छा लगा। दैनिक जागरण और जागरण फिल्‍म फेस्टिवल से मैं जुड़ा रहा हूं। बेहतरीन सिनेमा के प्रचार-प्रसार में वे बहुत अच्‍छा काम कर रहे हैं। मेरे लिए ‘ अलीगढ़ ’ का पुरस्‍कार खास मानी रखता है। दूसरे पुरस्‍कारों में मेनस्‍ट्रीम की फिल्‍मों पर फोकस रहता है। ‘ अलीगढ़ ’ जैसी फिल्‍मों को पहचान और पुरस्‍कार मिले तो अच्‍छा लगता है। ‘ अलीगढ़ ’ को फस्टिवल सर्किट में काफी सराही गई है। मुझे मिला पुरस्‍कार एक तरीके से प्रोफेसर सिरस का भी सम्‍मान है। -इस बीच आप की ‘ बुधिया सिंह ’ भी सराही गई,लेकिन वह ढंग से दर्शकों के बीच पहुंच नहीं सकी। 0 मुझे भी लगता है कि ‘ बुधिया सिंह ’ को सही बैकअप नहीं मिल पाया। उस