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फिल्म समीक्षा : सत्यमेव जयते

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फिल्म समीक्षा : सत्यमेव जयते  सत्य की जीत  -अजय ब्रह्मात्मज शब्दों को ढंग से संवाद में पिरोया जाये तो उनसे निकली ध्वनि सिनेमाघर में ताली बन जाती है.मिलाप मिलन जावेरी की फिल्म 'सत्यमेव जयते' देखते समय यह एहसास होता है कि लेखक की मंशा संवादों से तालियाँ बटोरने की है.मिलाप को 10 में से 5 मौकों पर सफलता मिलती है. पिछले दिनों एक निर्देशक बता रहे थे कि हिंदी फिल्मों के संवादों से हिंदीपन गायब हो गया है.लेखकों से मांग रहती  है कि वे संवादों में आम बोलचाल की भाषा लिखें.कुछ फिल्मों के लिए यह मांग उचित हो सकती है,लेकिन फिल्में इक किस्म का ड्रामा हैं.उनके किरदार अगर अडोस-पड़ोस के नहीं हैं तो संवादों में नाटकीयता रखने में क्या हर्ज है. 'सत्यमेव जयते' संवादों के साथ ही चरित्र चित्रण और प्रस्तुति में भी नौवें दशक की याद दिलाती है. यह वह समय था,जब खानत्रयी का हिंदी सिनेमा के परदे पर उदय नहीं हुआ था और हिंदी सिनेमा घिसी-पिटी एकरसता से गर्त में जा रही थी. इस फिल्म के प्रीव्यू शो से निकलती एक फिल्म पत्रकार की टिपण्णी थी - बचपन याद आ गया. 'सत्यमेव जयते' हिंदी

फिल्म समीक्षा : गोल्ड

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फिल्म समीक्षा : गोल्ड  एक और जीत  -अजय ब्रह्मात्मज  इस फिल्म में अक्षय कुमार हैं और इसके पोस्टर पर भी वे ही हैं. उनकी चर्चा बाद में. 'गोल्ड' के बारे में प्रचार किया गया है कि यह 1948 में लंदन में आयोजित ओलिंपिक में आजाद भारत की पहली जीत की कहानी है.तपन दास के निजी प्रयास और उदार वाडिया के सहयोग से यह संभव हो सका था.तपन दस 1936 के उस विख्यात मैच के साक्षी थे,जब बर्लिन में बिटिश इंडिया ने गोल्ड जीता था.तभी इम्तियाज़ और तपन दास ने सोचा था कि किसी दिन जीत के बाद भारत का तिरंगा लहराएगा.आखिरकार 22 सालों के बाद यह सपना साकार हुआ,लेकिन तब इम्तियाज़ पाकिस्तानी टीम के कप्तान थे और तपन दास भारतीय टीम के मैनेजर.तपन दास भारत के पार्टीशन की पृष्ठभूमि में मुश्किलों और अपमान के बावजूद टीम तैयार करते हैं और गोल्ड लाकर 200 सालों कि अंग्रेजों कि ग़ुलामी का बदला लेते हैं. 'गोल्ड' जैसी खेल फ़िल्में एक उम्मीद से शुरू होती है. बीच में निराशा,कलह,मारपीट और अनेक रोचक मोड़ों से होते हुए फतह की ओर बढती है.सभी खेल फ़िल्में या खिलाडियों के जीवन पर आधारित फिल्मों का मूल मंत्र हिंदी फ

सिनेमालोक : इस 15 अगस्त को

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सिनेमालोक   इस  15 अगस्त को  - अजय ब्रह्मात्मज कल 15 अगस्त है. दिन बुधवार... बुधवार होने के बावजूद दो फिल्में रिलीज हो रही हैं. अमूमन हिंदी फिल्में शुक्रवार को रिलीज होती हैं , लेकिन इस बार दोनों फिल्मों के निर्माताओं ने जिद किया कि वे दो दिन पहले ही अपनी फिल्में लेकर आएंगे. रिलीज की तारीख को लेकर वे टस से मस ना हुए. दोनों 15 अगस्त की छुट्टी का लाभ उठाना चाहते हैं. इस तरह उन्हें पांच दिनों का वीकेंड मिल जाएगा. इन दिनों शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्मों के बारे में रविवार इन दिनों में पता चल जाता है एक ऐसा व्यवसाय करेगी ?   इस बार परीक्षा के लिए दोनों फिल्मों को पांच दिनों का समय मिल जाएगा.देखना रोचक होगा इन दोनों फिल्मों को दर्शक क्या प्रतिसाद देते हैं ? रीमा कागटी की ‘ गोल्ड ’ और मिलाप मिलन झावेरी की फिल्म ‘ सत्यमेव जयते ’ आमने-सामने होंगी. पहली फिल्म ‘ गोल्ड ’ की पृष्ठभूमि में हॉकी है. हॉकी खिलाड़ी तपन दास के नेतृत्व में 1948 में भारत ने पहला गोल्ड जीता था. पिछले रविवार को इस उपलब्धि के 70 साल होने पर देश के सात स्थापत्यों और जगहों को सुनहरी रोशनी से आलोकित किया गया

दरअसल करण जौहर की ‘तख़्त' में मुग़ल सल्तनत

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दरअसल करण जौहर की ‘ तख़्त ' में मुग़ल सल्तनत - अजय ब्रह्मात्मज करण जौहर ने आज अपनी नई फिल्म ‘ तख़्त ' की घोषणा की है. अभी केवल यह बताया गया है कि यह फिल्म 2020 में आएगी. इस फिल्म में रणवीर सिंह , करीना कपूर खान , आलिया भट्ट , विकी कौशल , भूमि पेडणेकर , जान्हवी कपूर और अनिल कपूर मुख्य भूमिकाओं में हैं. धर्मा प्रोडक्शन की यह सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म है. इस फिल्म से करण जौहर की एक नई निर्देशकीय यात्रा शुरू होगी. वह इतिहास के किरदारों को भव्य भंगिमा के साथ पर्दे पर ले आयेंगे. इस फिल्म की कहानी सुमित राय ने लिखी है   घोषणा के अनुसार   इसके संवाद   हुसैन हैदरी   और सुमित राय लिखेंगे. घोषणा में तो नहीं लेकिन करण जौहर ने एक ट्विट में सोमेन मिश्र का उल्लेख   किया है. दरअसल , इस फिल्म के पीछे सोमेन मिश्रा का बड़ा योगदान है.उन्होंने ही इस फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार करवाई है. ‘ तख्त ’ मुग़ल सल्तनत के के बादशाह शाहजहां के अंतिम दिनों की कहानी होगी. बादशाह बीमार हो गए थे और उनके बेटों के बीच तख़्त पर काबिज होने की लड़ाई चालू हो गई थी. हम सभी जानते हैं कि शाहजहां के बाद औरंगजेब

सिनेमालोक : फैशन पत्रिका के कवर पर सुहाना

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सिनेमालोक   फैशन पत्रिका के कवर पर सुहाना - अजय ब्रह्मात्मज महंगी फैशन पत्रिका ‘ वोग ' के कवर पर सुहाना खान का आना अस्वाभाविक नहीं है.वह शह रुख खान की बेटी हैं.फिल्मों में काम करने को उत्सुक हैं.उनकी इस उत्सुकता के बारे में शाह रुख खान अपने इंटरव्यू में बता चुके हैं.किसी समय वे सुहाना के लिए अभिनय के टिप्स कलमबद्ध कर रहे थे.सुहाना आगे की पढाई के लिए फ़िलहाल अमेरिका जा रही है. यह तय है कि देर-सवेर वह फिल्मों में ज़रूर काम करेंगी , बिना शक उन्हें अच्छी लॉन्चिंग मिलेगी. फिल्मों के आने के पहले से वह सेलिब्रिटी का दर्जा रखती हैं.फिल्म की घोषणा के साथ उनका स्टारडम भी निश्चित है. आगे सब कुछ   उनकी प्रतिभा पर निर्भर करेगा. फिल्म बिरादरी के बच्चों को मौके आसानी से मिल जाते हैं और बार-बार मिलते हैं , लेकिन दर्शक ही उनका भविष्य तय करते हैं. चर्चा गर्म है कि क्या सुहाना खान अपनी योग्यता से फैशन पत्रिका के कवर पर आई हैं ? बिलकुल....फ़िलहाल शाह रुख खान की बेटी होना ही उनकी योग्यता है. इस योग्यता को नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता. भारत उपमहाद्वीप में जीवन के सभी क्षेत्रों में माता-

फिल्म समीक्षा : मुल्क

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फिल्म समीक्षा : मुल्क  समस्या और समाधान के 140मिनट  -अजय ब्रह्मात्मज  मुख्यधारा की फिल्मों के कलाकार ऋषि कपूर को अनुभव सिन्हा ने बनारस की एक गली में जाकर रोपा और उन्हें मुराद अली बना दिया.ऋषि कपूर और प्रतिक स्मिता बब्बर ही इस फिल्म में मुबई के पले-बढे मुख्य कलाकार हैं.इन दोनों की तब्दीली की मुश्किलें हैं.दोनों ही अपने किरदार को ओढ़ते हैं.खास कर प्रतीक शहीद जैसे प्रमुख किरदार को निभा नहीं पाते.उनका लहजा और व्यवहार बनारस का तो बिल्कुल नहीं लगता.दिक्कतें ऋषि कपूर के साथ भी हैं,लेकिन लुक,मेकअप ,संवाद और किरदार पर फिल्म की टीम का पूरा ध्यान होने से वे मुराद अली से लगते हैं.ऋषि कपूर का निजी लहजा उनके हर किरदार पर हावी हो जाता है.अगर वे लेखक-निर्देशक की मदद से उसे छोड़ने की कोशिश करते हैं तो उनके किरदार की गति में व्यतिक्रम पड़ता है.वह 'मुल्क' में भी है. मनोज पाहवा और ऋषि कपूर के साथ के दृश्यों को देख लें तो अंतर पता चल जायेगा.मुख्य किरदारों को रहने दें.फिल्म के सहयोगी किरदारों में आये उत्तर भारतीय कलाकारों को देखें तो उनकी सहजता ही ऋषि कपूर की कृत्रिमता जाहिर कर देती है. अ

सिनेमालोक : जब गीतों के बोल बनते हैं मुहावरा

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सिनेमालोक जब गीतों के बोल बनते हैं मुहावरा -अजय ब्रह्मात्मज दस दिनों पहले अतुल मांजरेकर  की फिल्म ‘फन्ने खान' का एक गाना जारी हुआ था.इस सवालिया गाने की पंक्तियाँ हैं,’ खुदा तुम्हें प्रणाम है सादर पर तूने दी बस एक ही चादर क्या ओढें क्या बिछायेंगे मेरे अच्छे दिन कब आयेंगे मेरे अच्छे दिन कब आयेंगे दो रोटी और एक लंगोटी एक लंगोटी और वो भी छोटी इसमें क्या बदन छुपाएंगे मेरे अच्छे दिन कब आयेंगे अच्छे दिन कब आयेंगे? गाना बेहद पोपुलर हुआ.इसे सोशल मीडिया पर शेयर किया गया.यह देश के निराश नागरिकों का गाना बन गया.’अच्छे दिनों' के वाडे के साथ आई वर्तमान सरकार से लोग इसी गाने के बहाने सवाल करने लगे.सवाल का स्वर सम्मोहिक हुआ तो नुमैन्दों के कान खड़े हुए.कुछ तो हुआ कि जल्दी ही महज दस दिनों में इसी गाने की कुछ और पंक्तिया तैरने लगीं.अब उसी गाने का विस्तार है… जो चाह था हो ही गया वो अब न कोई खुशियाँ रोको सपनों ने पंख फैलाये रे मेरे अच्छे दिन हैं आये रे. ऐसा माना जा रहा है कि निर्माता-निर्देशक पर दबाव पड़ा तो उन्होंने इस गीत को बदल दिया.’अच्छे दिन कब आय