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सिनेमालोक : फिल्म ‘मंडी’ का मजार

सिनेमालोक फिल्म ‘मंडी’ का मजार -अजय ब्रह्मात्मज श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंडी’ में शबाना आज़मी और उनकी मंडली को शहर से निकलकर वीराने में अपना कोठा बनाना पड़ा था. कोठा बनने के बाद शहर के लोगों को ही आने-जाने लगते हैं और वह इलाका गुलज़ार हो जाता है. फिल्म देखी हो तो आपको याद होगा कि ‘मंडी’ में एक मजार भी था. बाबा खड़ग शाह का मजार. उस मजार का एक दिलचस्प किस्सा है. सालों पहले एक इंटरव्यू में श्याम बेनेगल ने यह किस्सा खुद सुनाया था. हुआ यों कि ‘मंडी’ का सेट जिस स्थान पर लगाया गया था, वह वास्तव में पाकिस्तान चले गए एक मुसलमान परिवार की खाली जमीन थी. वह खाली जमीन मुसलमान परिवार के जाने के बाद स्थानीय रेड्डी परिवार के कब्जे में थी. उन्होंने ने ही श्याम बेनेगल को वह ज़मीं फिल्म का सेट लगाने के लिए दी थी. सेट लगना शुरू हुआ तो श्याम बेनेगल और उनके कला निर्देशक नीतीश राय ने कोने की एक ढूह को मजार का रूप दे दिया. फिल्म के हिसाब से बने सेट के लिए वह मजार माकूल था. कुछ जोड़ ही रहा था. ‘मंडी’ का यह मजार मलाली पहाड़ी तलहटी के पास की जमीन पर बना था. मलाली पहाड़ी बहुत ही पवित्र मानी जाती है, क्यों

सिनेमालोक : मनाएं फॅमिली फिल्म फेस्टिवल

सिनेमालोक मनाएं फॅमिली  फिल्म फेस्टिवल -अजय ब्रह्मात्मज अनेक राज्यों में सिनेमाघर बंद कर दिए गए हैं. कोरोना वायरस के प्रकोप को देखते हुए केंद्र सरकार की पहल पर राज्य सरकारों ने एहतियातन यह कदम उठाया है. कोशिश है कि भीड़ इकट्ठी ना हो और लोग एक=दूसरे के संपर्क में ना आएं. इसी के तहत सिनेमाघरों को बंद रखने के आदेश दिए गए हैं. आम नागरिकों(दर्शकों) की सेहत के मद्देनजर सरकारों के इस जरूरी कदम का स्वागत होना चाहिए. फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने के शौकीन दर्शकों के लिए यह मुश्किल घड़ी है. हम सभी जानते हैं कि फिल्में देश में मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन हैं और सिनेमाघर इन फिल्मों के प्रदर्शन का माध्यम हैं. सिनेमाघरों के बंद होने से फिलहाल थिएटर में जाकर फिल्म देखना मुमकिन नहीं   होगा. सचमुच इस वक्त दर्शकों को मनोरंजन का विकल्प खोजना होगा. कामकाज ठप है. बाहर निकलना बंद है. ऐसे में घर में बैठे-बैठे और भी बोरियत होगी. अभी तो पहला हफ्ता ही है. हालांकि अभी तक यह आदेश 31 मार्च तक ही है, लेकिन कोरोलाग्रस्त मरीजों की बढ़ती संख्या देखते हुए कहा जा सकता है कि अप्रैल महीने में भी सिनेमाघर बंद रह सकते

सिनेमालोक : चांटा या पुचकार ?

सिनेमालोक चांटा या पुचकार ? -अजय ब्रह्मात्मज इन दिनों ‘थप्पड़’ के कलेक्शन को लेकर बहस चल रही है. एक ट्रेड पत्रिका ने लिखा कि दर्शकों ने ‘थप्पड़’ को मारा चांटा. उनका आशय था कि ‘थप्पड़’ पसंद नहीं की गई है. फिल्म का कलेक्शन उत्साहवर्धक नहीं है. उन्होंने इसी कड़ी में ‘पंगा’ और ‘छपाक’ फिल्मों के नाम भी जोड़ दिए थे. थोड़ा और पीछे चलें और बॉक्स ऑफिस की खबरें याद करें तो ‘सांड की आंख’ के लिए भी ऐसा ही कुछ नकारात्मक लिखा और कहा गया था. फिल्म इंडस्ट्री के कुछ निर्माताओं और उनके इशारों को चल रहे ट्रेड पंडितों को यह बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है कि महिला केंद्रित फिल्में आकर तारीख पा रही हैं. उनका कलेक्शन भी संतोषजनक हो रहा है. फिल्मों की सफलता-असफलता मापने के कई तरीके हैं. लागत और लाभ के सही आकलन के लिए जरूरी है कि दोनों के बीच का अनुपात निकाला जाए. अधिकांश ट्रेड खबरों में यह बताया जाता है कि फलां फिल्म ने कितने करोड़ का कलेक्शन किया, लेकिन उनकी लागत नहीं बताई जाती. दहाई करोड़ और सैकड़ों करोड़ का फर्क आम दर्शक नहीं समझ पाता. जाहिर सी बात है कि 12 करोड़ और 130 करोड़ के आंकड़े सामने हों तो 1

सिनेमालोक : फनीश्वरनाथ रेणु और 'तीसरी कसम'

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सिनेमालोक फनीश्वरनाथ रेणु और 'तीसरी कसम' -अजय ब्रह्मात्मज कल 4 मार्च को फनीश्वरनाथ रेणु का जन्मदिन है. यह साल उनकी जन्मशती का साल भी है. जाहिर सी बात है कि देशभर में उन्हें केंद्र में रखकर गोष्ठियां होंगी. विमर्श होंगे. नई व्याख्यायें भी हो सकती हैं. कोई और वक्त होता तो शायद बिहार में उनकी जन्मशती पर विशेष कार्यक्रमों का आयोजन होता. उन्हें याद किया जाता है. उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया जाता. फिलहाल सरकार और संस्थाओं को इतनी फुर्सत नहीं है. उनकी मंशा भी नहीं रहती कि साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित आयोजन और अभियान चलाए जाएं. साहित्य स्वभाव से ही जनपक्षधर रोता है. साहित्य विमर्श में वर्तमान राजनीति में पचलित जनविरोधी गतिविधियां उजागर होने लगती हैं, इसलिए खामोशी ही बेहतर है. हालांकि अभी देश भर में लिटररी फेस्टिवल चल रहे हैं, लेकिन आप गौर करेंगे कि इन आयोजनों में आयोजकों और प्रकाशकों की मिलीभगत से केवल ताजा प्रकाशित किताबों और लेखकों की चर्चा होती है. फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 को हुआ था. स्कूल के दिनों से ही जा

सिनेमालोक : कामयाब संजय मिश्रा

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सिनेमालोक कामयाब संजय मिश्रा   अजय ब्रह्मात्मज जल्दी ही संजय मिश्रा अभिनीत ' कामयाब ' रिलीज होगी.हार्दिक मेहता के निर्देशन में बनी इस फिल्म की चर्चा 2018 से हो रही है. इस फिल्म में संजय मिश्रा नायक सुधीर की भूमिका निभा रहे हैं. सुधीर ने 499 फिल्में कर ली हैं. अब वह 500 वीं फिल्में करना चाहता है. सुधीर की इस महात्कावाकांक्षा का चित्रण करने में उसकी जिंदगी के पन्ने पलटते हैं. हम सुधीर के जरिए सिनेमा के उन कलाकारों को जान पाते हैं , जिन्हें एक्स्ट्रा कहा जाता है. ' कामयाब ' एक एक्स्ट्रा की एक्स्ट्राऑर्डिनरी कहानी है. फिल्मों में बार-बार दिखने से ये परिचित चेहरे तो बन जाते हैं , लेकिन उनके बारे में हम कुछ नहीं जानते. दर्शकों की अधिक रूचि नहीं होती और मीडिया को लोकप्रिय सितारों से फुर्सत नहीं मिलती. इस फिल्म को शाह रुख खान की कंपनी रेड चिलीज पेश कर रही है और इसका निर्माण दृश्यम फिल्म्स ने किया है. संजय मिश्रा सुपरिचित चेहरा बन चुके हैं. उनके बारे में अलग से बताने की जरूरत नहीं होती. फिल्मों में उनकी मौजूदगी से दर्शकों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है. मैंने तो दे

सिनेमालोक : आरके स्टुडियो का संताप

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सिनेमा स्टुडियो  का संताप -अजय ब्रह्मात्मज 69 की उम्र में मेरी चिता सज गई थी. उसके दो सालों के बाद मेरे वारिसों ने मुझे किसी और के हवाले कर दिया. इसके एवज में उन्हें कुछ पैसे मिल गए. देश और मुंबई शहर के एक बड़े बिल्डर ने मुझे खरीद लिया. अभी पिछले शनिवार यानी 15 फरवरी को उस बिल्डर ने एक विज्ञापन के जरिये मेरे बारे में आप सभी को बताया. मेरी सज-धज चल रही है. कायाकल्प हो गया है मेरा. कभी जहां राज कपूर,उनकी नायिकाएं, उनके दोस्तों और फिल्म बिरादरी के दूसरे सदस्यों के ठहाके गूंजा करते थे. बैठकी लगती थी. बोल लिखे जाते थे. धुनें सजती थीं. रात-रात भर शूटिंग होती थी. पार्टियाँ चलती थीं. फिल्मकारों के सपने साकार होते थे. जल्द ही वहां तीन-चार कमरों के आलीशान अपार्टमेंट रोशन हो जाएंगे. धड़कने वहां भी होंगी, लेकिन उनमें वे किस्से और कहकहे नहीं होंगे. आह नहीं होगी.वाह नहीं होगी. जी आपने सही समझा मैं आर के स्टुडियो हूँ. मैं अपने बारे में आप सभी को बताना चाहता हूं. मैं राज कपूर का ख्वाब था. पहली फिल्म के निर्माण और निर्देशन के समय ही आप सभी के राजू ने मेरे बारे में सोचा था. अपनी पीढ़ी का वह

सिनेमालोक : कोरियाई सिनेमा के 100वें साल में पैरासाइट का रिकॉर्ड

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सिनेमालोक कोरियाई सिनेमा के 100वें साल में पैरासाइट का रिकॉर्ड  -अजय ब्रह्मात्मज कल 52 में एकेडमी का अवार्ड का सीधा प्रसारण था. दुनिया के सबसे चर्चित और प्रतिष्ठित अवार्ड पर सभी फिल्मप्रेमियों की निगाहें लगी रहती हैं. एकेडमी अवार्ड मिलना गौरव की बात मानी जाती है. यह ऐसी पहचान है, जिसे विजेता तमगे की तरह पहनते और घर दफ्तर में सजाते हैं. इस अवार्ड के नामांकन सूची में आ जाना भी गुणवत्ता की कसौटी पर खरा उतरना माना जाता है. मुख्य रूप से अमेरिका में बनी अंग्रेजी फ़िल्में ही पुरस्कारों की होड़ में रहती हैं. गैरअंग्रेज़ी फिल्मों के लिए विदेशी भाषा फिल्म की श्रेणी है. हॉलीवुड के नाम पर दुनिया भर में वितरित हो रही मसालेदार फिल्मों से अलग सिनेमाई गुणों से भरपूर ऐसी फिल्मों का स्वाद सुकून, शांति और विरेचन देता है. फिल्मप्रेमी एकेडमी अवार्ड से सम्मानित फिल्मों के फेस्टिवल करते हैं. टीवी चैनलों पर इनके विशेष प्रसारण होते हैं. ग्लोबल दुनिया में भारत के फिल्मप्रेमियों की जिज्ञासा भी ऑस्कर से जुड़ गई हैं. इस साल कोरियाई फिल्म ‘पैरासाइट’ को चार ऑस्कर मिले हैं. सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर

सिनेमालोक : दिखता नहीं है सच

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सिनेमालोक दिखता नहीं है सच   - अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों की राजधानी मुंबई से निकलने और देश के सुदूर शहरों के दर्शकों पाठकों से मिलने के रोचक अनुभव होते हैं. उनके सवाल जिज्ञासाओं अनुभवों को सुनना और समझना मजेदार होता है. जानकारी मिलती है कि वास्तव में दर्शक क्या देख , सोच और समझ रहे हैं ? हिंदी फिल्मों की जानकारियां मुंबई में गढ़ी जाती हैं.मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए यह जानकारियां दर्शकों तक पहुंचती हैं और देखी पढ़ी-जाती हैं. उनसे ही सितारों के बारे में दर्शकों के धारणाएं बनती और बिगड़ती हैं. पिछले दिनों गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट में जाने का मौका मिला..एक छोटे से इंटरएक्टिव सेशन में फिल्म इंडस्ट्री की कार्यशैली और उन धारणाओं पर बातें हुईं. कुछ लोग मानते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री और उसके सितारों के बारे में कायम रहस्य सोशल मीडिया और मीडिया के विस्फोट के दौर में टूटा है. फिल्मप्रेमी दर्शक और पाठक अपने सितारों के बारे में ज्यादा जानने लगे हैं. सच कहूं तो यह भ्रम है कि हम मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए सितारों के जीवन में झांकने लगे हैं.

सिनेमालोक : अब फैसलों का इंतजार

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सिनेमालोक अब फैसलों का इंतजार  -अजय ब्रह्मात्मज   21 वी सदी का तीसरा दशक आरंभ हो चुका है. दो दशक बीत गए. इन दो दशकों में हिंदी फिल्मों ने कुछ नए संकेत दिए. साथ में यह भी जाहिर किया कि दिख रहे बदलावों के स्थाई होने में वक्त लगेगा. मसलन ऐसा लगता रहा कि अब लोकप्रिय खानत्रयी(आमिर, सलमान और शाह रुख) का दबदबा खत्म हुआ. नए सितारे उभरे और चमके लेकिन दो दशकों के इस कयास के बावजूद हम देख रहे हैं कि लोकप्रियता का उनका रुतबा कायम है. उनकी फ्लॉप फिल्में भी 100 करोड़ से अधिक का कारोबार करती हैं. पिछले साल को ही नजर में रखें तो आमिर खान और शाह रुख खान की कोई फिल्म नहीं आई. सलमान खान की दो फिल्में आईं, लेकिन उन फिल्मों का कारोबार अपेक्षा के मुताबिक नहीं हुआ. उनकी आखिरी फिल्म ‘दबंग 3’ का प्रदर्शन बेहद खराब रहा. बावजूद इसके तीनों खान खबरों में छाए रहते हैं. उनकी फिल्मों का इंतजार रहता है और निर्माता और प्रोडक्शन हाउस उनकी फिल्मों में निवेश करने के लिए तैयार रहते हैं, हां, वे खुद संभल और ठहर गए हैं. उनका संभलना और ठहरना ही संकेत दे रहा है कि कुछ नया हो सकता है. गौर करें तो इसमें नएपन के प्

संडे नवजीवन : हिंदी फिल्मों का ‘नया हिंदुस्तान’

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संडे नवजीवन हिंदी फिल्मों का ‘नया हिंदुस्तान’ -अजय ब्रह्मात्मज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘न्यू इंडिया’ शब्द बार-बार दोहराते हैं. हिंदी फिल्मों में इसे ‘नया हिंदुस्तान’ कहा जाता है. इन दिनों हिंदी फिल्मों के संवादों में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है. गणतंत्र दिवस के मौके पर हिंदी फिल्मों में चित्रित इस नए हिंदुस्तान की झलक,भावना, आकांक्षा और समस्याओं को देखना रोचक होगा. यहां हम सिर्फ 2019 के जनवरी से अभी तक प्रदर्शित हिंदी फिल्मों के संदर्भ में इसकी चर्चा करेंगे. सभी जानते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. सिनेमा के अविष्कार के बाद हम देख रहे हैं कि सिनेमा भी समाज का दर्पण हो गया है. साहित्य और सिनेमा में एक फर्क आ गया है कि तकनीकी सुविधाओं के बाद इस दर्पण में समाज का प्रतिबिंब वास्तविक से छोटा-बड़ा, आड़ा-टेढ़ा और कई बार धुंधला भी होता है. बारीक नजर से ठहराव के साथ देखें तो हम सभी प्रतिबिंबित आकृतियों में मूल तक पहुंच सकते हैं. पिछले साल के अनेक लेखों में मैंने ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ की बात की थी. फिल्मों की समीक्षा और प्रवृत्ति के संदर्भ में इस ‘नवाचार’ की व