फिल्‍म समीक्षा : पीके

-अजय ब्रह्मात्‍मज
....बहुत ही कनफुजिया गया हूं भगवान। कुछ तो गलती कर रहा हूं कि मेरी बात तुम तक पहुंच नहीं रही है। हमारी कठिनाई बूझिए न। तनिक गाइड कर दीजिए... हाथ जोड़ कर आपसे बात कर रहे हैं...माथा जमीन पर रखें, घंटी बजा कर आप को जगाएं कि लाउड स्पीकर पर आवाज दें। गीता का श्लोक पढ़ें, कुरान की आयत या बाइबिल का वर्स... आप का अलग-अलग मैनेजर लोग अलग-अलग बात बोलता है। कौनो बोलता है सोमवार को फास्ट करो तो कौनो मंगल को, कौनो बोलता है कि सूरज डूबने से पहले भोजन कर लो तो कौनो बोलता है सूरज डूबने के बाद भोजन करो। कौनो बोलता है कि गैयन की पूजा करो तो कौनो कहता है उनका बलिदान करो। कौना बोलता है नंगे पैर मंदिर में जाओ तो कौनो बोलता है कि बूट पहन कर चर्च में जाओ। कौन सी बात सही है, कौन सी बात लगत। समझ नहीं आ रहा है। फ्रस्टेटिया गया हूं भगवान...

पीके के इस स्वगत के कुछ दिनों पहले पाकिस्तान के पेशावर में आतंकवादी मजहब के नाम पर मासूम बच्चों की हत्या कर देते हैं तो भारत में एक धार्मिक संगठन के नेता को सुर्खियां मिलती हैं कि 2021 तक वे भारत से इस्लाम और ईसाई धर्म समाप्त कर देंगे। धर्माडंबर और अहंकार में मची लूटपाट और दंगों से भरी घटनाओं के इस देश में दूर ग्रह से एक अंतरिक्ष यात्री आता है और यहां के माहौल में कनफुजियाने के साथ फ्रस्टेटिया जाता है। वह जिस ग्रह से आया है, वहां भाषा का आचरण नहीं है, वस्त्रों का आवरण नहीं है और झूठ तो बिल्कुल नहीं है। सच का वह हिमायती, जिसके सवालों और बात-व्यवहार से भौंचक्क धरतीवासी मान बैठते हैं कि वह हमेशा पिए रहता है, वह पीके है।
धर्म के नाम पर चल रही राजनीति और तमाम किस्म के भेदभाव और आस्थाओं में बंटे इस समाज में भटकते हुए पीके के जरिए हम उन सारी विसंगतियों और कुरीतियों के सामने खड़े मिलते हैं, जिन्हें हमने अपनी रोजमर्रा जिंदगी का हिस्सा बना लिया है। आदत हो गई है हमें, इसलिए मन में सवाल नहीं उठते। हम अपनी मुसीबतों के साथ सोच में संकीर्ण और विचार में जीर्ण होते जा रहे हैं। राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी की कल्पना का यह एलियन चरित्र पीके हमारे ढोंग को बेनकाब कर देता है। भक्ति और आस्था के नाम पर 'रौंग नंबर' पर भेजे जा रहे संदेश की फिरकी लेता है। वह अपनी सच्चाई और लाजवाब सवालों से अंधी आस्था और धंधा बना चुकी धार्मिकता के प्रतीक तपस्वी को टीवी के लाइव प्रसारण में खामोश करता है। 'पीके' आज के समय की जरूरी फिल्म है। राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी का संदेश स्पष्ट है कि अलग-अलग भगवान के मैनेजर बने स्वामी, बाबा, गुरु, मौलवी और पादरी वास्तव में डर का आतंक फैला कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी की कथा-पटकथा सामाजिक विसंगति और कुरीति की गहराइयों में उतर कर विश्लेषण और विमर्श नहीं करती। वह सतह पर तैरते पाखंड को ही अपना निशाना बनाती है। मान सकते हैं कि 2 घंटे 33 मिनट की फिल्म में सदियों से चली आ रही आस्था की जड़ों और वजहों में जाने की गुंजाइश नहीं हो सकती थी, लेकिन धर्म सिर्फ कथित मैनेजरों और तपस्वियों का प्रपंच नहीं है। इसके पीछे सुनिश्चित सामाजिक सोच और राजनीति है। 'पीके' एक धर्महीन समाज की वकालत करती है,लेकिन वह ईश्वर की अदृश्य सत्ता से इंकार नहीं करती। फिल्म यहीं अपने विचारों में फिसल जाती है। वैज्ञानिक सोच और आचार-व्यवहार के समर्थक किसी भी रूप में ईश्वर की सत्ता स्वीकार करेंगे तो कालांतर में फिर से विभिन्न समूहों के धर्म और मत पैदा होंगे। फिर से तनाव होगा, क्योंकि सभी अपनी आस्था के मुताबिक भगवान रचेंगे और फिर उनकी रक्षा करने का भ्रमजाल फैला कर भोली और नादान जनता को ठगेंगे। 'पीके' सरलीकरण से काम लेती है।
वैचारिक स्तर पर इस कमी के बावजूद 'पीके' मनोरंजक तरीके से कुछ फौरी और जरूरी बातें करती है। भेद और मतभेद के मुद्दे उठाती है। उनके समाधान की कोशिश भी करती है। राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने खूबसूरती से पीके की दुनिया रची है, जिसमें भैंरो और जग्गू (जगत जननी) जैसे किरदार हैं। जग्गू की मदद से पीके अपने ग्रह पर लौट पाने का रिमोट हासिल करता है। और फिर एक साल के बाद अपने ग्रह से दूसरे यात्री को लेकर आगे के शोध के लिए आता है। सवाल है कि रिमोट मिलते हैं, उसे लौट जाने की ऐसी क्या हड़बड़ी थी? वह अपना शोध पूरा करता या फिर मानवीय व्यवहार और आचरण से ही वह धरतीवासियों को परख लेता है?
इस दरम्यान जग्गू की उपकथा भी चलती है। पाकिस्तानी सरफराज से उसके प्रेम और गलतफहमी की कहानी बाद में मूल कथा में आकर मिलती है। बाबाओं के आडंबर और ईश्वर के नाम पर चल रहे ढोंग और प्रपंच को अनके फिल्मों में विषय बताया गया है। हिरानी और जोशी इस विषय के विवरण और चित्रण में कुछ नया नहीं जोड़ते। नयापन उनके किरदार पीके में है, जो 'कोई मिल गया' में जादू के रूप में आ चुका है। 'पीके' की विचित्रता ही मौलिकता है। पता चलता है कि सभ्यता और विकास के नाम पर अपनाए गए आचरण और आवरण ही मतभेद और आडंबर के कारण हैं।
पटकथा अनेक स्थानों पर कमजोर पड़ती है। कहीं उसकी क्षिप्र गति तो कहीं उसकी तीव्र गति से मूल कथा को झटके लगते हैं। सरफराज और जग्गू के बीच प्रेम की बेल तेजी से फैलती है, फिर सरफराज परिदृश्य से गायब हो जाते हैं। जग्गू भारत लौट आती है। और यहां उसकी मुलाकात पीके से हो जाती है। अपने रिमोट की तलाश में भटकता पीके पहले जग्गू के लिए एक स्टोरी मात्र है, जो कुछ मुलाकातों और संगत के बाद प्रेम और समझ का प्रतिरूप बन जाता है। पीके के किरदार को आमिर खान ने बखूबी निभाया है। यह किरदार हमें प्रभावित करता है। ऐसे किरदारों की खासियत है कि वे दिल को छूते हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में सहयात्री के रूप में आए रणबीर कपूर भी उतने ही जंचते हैं। तात्पर्य यह कि हिरानी और जोशी की काबिलियत है कि पीके में आमिर खान की प्रतिभा निखरती है। जग्गू की भूमिका में अनुष्का निराश नहीं करतीं। वह सौंपी गई भूमिका निभाकर ले जाती हैं। सरफराज की छोटी भूमिका में आए सुशांत सिंह राजपूत में आकर्षण है। अन्य भूमिकाओं में सौरभ शुक्ला, परीक्षित साहनी, बोमन ईरानी, संजय दत्त आदि अपने किरदारों के अनुरूप हैं।
फिल्म का गीत-संगीत थोड़ा कमजोर है। इस बार स्वानंद किरकिरे और शांतनु मोइत्रा जादू नहीं जगा पाए हैं। अन्य गीतकारों में अमिताभ वर्मा और मनोज मुंतजिर भी खास प्रभावित नहीं करते। पीके पर फिल्माए गाने अतिरंजित और अनावश्यक हैं। ईश्वर की खोज का गाने से अधिक प्रभावपूर्ण उसके बाद का स्वगत संवाद है।
अवधि- 153 मिनट 
**** चार स्‍टार

Comments

Unknown said…
koi mil gaya + OMG + chutkule aur aamir............:) par hai mazedar.
Unknown said…
Bakwas film ki achhi sameeksha koi aap se sikhe
Zaitoon said…
हॉलीवुड में २००९ डैन ब्राउन की नॉवेल पर रॉन हॉवर्ड ने एक फिल्म ‘एंजेल्स एंड डेमन्स’ बनाई थी. उसमें एक बेहतरीन संवाद है कि ‘धर्म में दोष है, क्योंकि इंसान में दोष है.’ उस संवाद की ही तरह ‘पीके’ भी हमें धर्म के कई पहलुओं पर सोचने को मजबूर करती है. लेकिन आपका यह कहना कि फिल्म इश्वरीयता को नकारती नहीं है इसलिए यह इसकी कमजोर कड़ी है तो यह उचित नहीं है.
फिल्म अच्छी थी। समीक्षा भी। बाकी वापस जाने पर सवाल उठाना अजीब सा लगा क्यूंकि वो फिल्म का एंड थे और वापसी वाला सीन तो बस मनोरंजन और एक दो और कटाक्ष के लिए था ताकि दर्शक हँसते हुए बाहर जाए। और अगर रीज़न की बात करे तो भी वापस जाना स्वाभाविक ही जान पड़ता है। एक बार घर जाने का दिल करता ही है और बाद में वो अकेला नहीं आया
sanjeev5 said…
साधारण फिल्मों को ४ स्टार देना अब आम हो गया है और आप भी इसका अपवाद नहीं हैं. ये फिल्म आसानी से १२० मिनट की हो सकती थी. एक संपादक जो की राजू हिरानी हैं की फिल्म खिंची हुई लगे तो इसका सीधा मतलब है की कहीं उनका निर्देशक संपादक पर हावी हो गया है. कुछ दृश्यों में लगी अपनी महनत को न दिखाने का लोभ संवरण न कर पायें हों ऐसा प्रतीत होता है.कई जगह पर लगा की दर्शक अतिशयोक्ति का शिकार हो गया है. गीत संगीत तो ऑस्कर के स्तर का है क्योंकि आजकल ऐसा ही कूढ़ा वहां चल रहा है. सुना है की रहमान साहब इस बार फिर से उस दौड़ में शामिल हैं. फिल्म ओह माय गाड से कहीं जुडती है. आमिर जब सब कुछ सीख गए थे तो उन्हें अपनी आँखें फाड़े रखने की क्या जरुरत थी? अनेक स्थानों पर संवाद ठीक से संपत नहीं पढ़े. फिल्म अपनी शुरुआत के करीब २० मिनट तक पटरी पर नहीं आती है. लगने लगा था की नाम बढे और दर्शन छोटे तो नहीं हो रहा है. भारतीय क्रिकेट टीम की तरह. फिर कुछ संभल जाती है. कई दृश्य काफी लम्बे हैं. ठीक फिल्म है मेरे ख्याल से बस ठीक ठीक. अनुष्का ने बेहद निराश किया. उनकी वेशभूषा और चेहरा अजीब लगता है.....चलिए जब इतना सब कुछ अजीब है तो उनसे क्या गिला करें....

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम