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धक्के खाकर ही सीखा है संभलना: राजकुमार हिरानी

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-अजय ब्रह्मात्मज मुन्नाभाई सिरीज की दो फिल्मों और थ्री इडियट की हैट्रिक कामयाबी के बाद राजकुमार हिरानी को दर्शक अच्छी तरह पहचानने लगे हैं। कामयाबी उन्हें काफी कोशिशों के बाद मिली। नागपुर से पूना, फिर मुंबई के सफर में हिरानी की निगाह लक्ष्य पर टिकी रही और उनका सपना साकार हुआ। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं। बचपन के बारे में बताएं? डैड पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी हैं। देश-विभाजन के बाद मां और भाई के साथ उन्हें भारत आना पडा। दादा जी गुजर चुके थे। कुछ समय तक आगरा के पास फिरोजाबाद के रिफ्यूजी कैंप में रहे। फिर काम खोजते हुए नागपुर पहुंचे। कुछ समय नौकरी करने के बाद उन्होंने एक टाइपराइटर खरीदा, जो तब नया-नया शुरू हुआ था। बाद में वह इंस्टीटयूट चलाने लगे। इसके बाद वह टाइपराइटर के वितरक बन गए। मेरी स्मॉल बिजनेस फेमिली में ज्यादातर लोग वकील हैं। बी.कॉम के बाद मुझसे भी चार्टर्ड एकाउंटेंट बनने की अपेक्षा की गई, लेकिन मेरा रुझान थिएटर की तरफ था। कालेज के दिनों में नाटक लिखता था। आकाशवाणी के युववाणी कार्यक्रम के लिए मैंने नाटक लिखे थे। छोटा सा ग्रुप आवाज भी था। कैसे नाटक लिखते थे? दिल्ली-मुंबई

फिल्म समीक्षा : वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई

- ajay brahmatmaj सबसे पहले तो इस फिल्म के शीर्षक पर आपत्ति की जा सकती है। वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई, इस शीर्षक का आशय कितने हिंदी दर्शक समझ पाएंगे या शीर्षक अब अर्थहीन हो गए हैं। बहरहाल, निर्माता-निर्देशक ने समाज और दर्शकों के बदलते रुख को देखते हुए यही शीर्षक जाने दिया है। यह आठवें दशक की मुंबई की कहानी है, जब अंडरव‌र्ल्ड अपनी जड़ें पकड़ रहा था और अपराध की दुनिया में तेजी से नैतिकता बदल रही थी। हिंदी में गैगस्टर फिल्में घूम-फिर कर मुंबई में सिमट आती हैं। पहले कभी डाकुओं के जीवन पर फिल्में बना करती थीं। फिर स्मगलर आए और अब अंडरव‌र्ल्ड से आगे बढ़कर हम टेररिस्ट तक पहुंच चुके हैं। अपराध की अंधेरी गलियों का रोमांच दर्शकों को हमेशा आकर्षित करता है। वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई में इसी आकर्षण को भुनाने का ध्येय स्पष्ट है। मिलन लुथरिया ने आठवें दशक की कहानी चुनने के साथ परिवेश और शैली में भी आठवें दशक का असर रखा है। एक-दो भूलें भी हैं, जैसे कि कागज के बड़े थैलों का इस्तेमाल या डिजीटल वायरलेस सिस्टम..आठवें दशक में ये चलन में नहीं थे। थोड़ी असावधानी कैसे दृश्य का इंपैक्ट खत्म करती

डायरेक्टर न होता तो जर्नलिस्ट होता: मधुर भंडारकर

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-अजय ब्रह्मात्मज पहली बार चांदनी बार से ख्याति अर्जित की निर्देशक मधुर भंडारकर ने। इसके पहले बतौर निर्देशक उनकी एक फिल्म आई थी, जिसने निराश किया था। चांदनी बार भी मुश्किल से पूरी हुई। फैंटेसी एवं रिअलिटी के तत्वों को जोडकर सिनेमा की नई भाषा गढी है मधुर ने। उनकी फिल्में सीमित बजट में संवेदनशील तरीके से मुद्दे को उठाती हैं। इन दिनों वे कॉमेडी फिल्म दिल तो बच्चा है जी की तैयारियों में लगे हैं। कब खयाल आया कि फिल्म डायरेक्ट करनी है? बचपन में गणपति महोत्सव, सत्यनारायण पूजा, जन्माष्टमी जैसे त्योहारों पर सडक घेर कर 16 एमएम प्रोजेक्टर से दिखाई जाने वाली ब्लैक-व्हाइट और कलर्ड फिल्में देखता था। किसी से कह नहीं पाता था कि डायरेक्टर बनना है। मेरे दोस्त हीरो, विलेन या कॉमेडियन की बातें करते थे, मैं टेकनीक के बारे में सोचता था। शॉट आगे-पीछे या ऊपर-नीचे हो तो चौंकता था कि इसे कैसे किया होगा? ट्रॉली और क्रेन के बारे में नहीं जानता था। तभी समझ में आ गया था कि वी. शांताराम, विजय आनंद और राज खोसला की फिल्में अलग होती हैं। फिर.. मैंने विडियो कैसेट का बिजनेस शुरू किया जो पांच साल से ज्यादा चला। मेरे पास 17

राजनीति को फिल्म से अलग नहीं कर सकता: प्रकाश झा

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=अजय ब्रह्मात्मज हिप हिप हुर्रे से लेकर राजनीति तक के सफर में निर्देशक प्रकाश झा ने फिल्मों के कई पडाव पार किए हैं। उन्होंने डॉक्यूमेंट्री फिल्में भी बनाई। सामाजिकता उनकी विशेषता है। मृत्युदंड के समय उन्होंने अलग सिनेमाई भाषा खोजी और गंगाजल एवं अपहरण में उसे मांजकर कारगर और रोचक बना दिया। राजनीति आने ही वाली है। इसमें उन्होंने सचेत होकर रिश्तों के टकराव की कहानी कही है, जिसमें महाभारत के चरित्रों की झलक भी देखी जा सकती है। फिल्मों में हाथ आजमाने आप मुंबई आए थे? शुरुआत कैसे हुई? दिल्ली यूनिवर्सिटी से फिजिक्स ऑनर्स करते समय लगा कि सिविल सर्विसेज की परीक्षा दूं, लेकिन फिर बीच में ही पढाई छोडकर मुंबई आ गया। सिर्फ तीन सौ रुपये थे मेरे पास। जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स का नाम सुना था, वहां पढना चाहता था। यहां आकर कुछ-कुछ काम करना पडा और दिशा बदलती गई। मुंबई आते समय ट्रेन में राजाराम नामक व्यक्ति मिले, जो शुरू में मेरे लिए सहारा बने। वे कांट्रेक्टर थे। उनके पास दहिसर में सोने की जगह मिली। फिर जे. जे. स्कूल नहीं गए? वहां गया तो मालूम हुआ कि सेमेस्टर आरंभ होने में अभी समय है। मेरे पास कैमरा था। फोट

आजादी है इश्क-बारबरा मोरी

- अजय ब्रह्मात्मज  उनका अंदाज जितना बिंदास है, बोल उतने ही बेबाक। काइट्स की विदेशी नायिका बारबरा मोरी से बातचीत के अंश-  [काइट्स के बारे में क्या कहना चाहेंगी?] अमेजिंग लव स्टोरी है। मैं फाच्र्युनेट हूं कि इस फिल्म का पार्ट बनने का मौका मिला। यह मेरी पहली एक्शन, इंग्लिश और बॉलीवुड मूवी है। मैं सचमुच बहुत खुश हूं। [इस फिल्म के पहले भारत के बारे में आप क्या विचार रखती थीं? कितना जानती थीं?] मैं भारत और यहां के सिनेमा के बारे में अधिक नहीं जानती थी। यह जानती थी कि यहां की फिल्म इंडस्ट्री बहुत बड़ी है, लेकिन यहां की फिल्में नहीं देखी थीं। मैं छुट्टी बिताने के लिए भारत आना चाहती थी। संयोग देखिए कि छुट्टी मनाने के बजाए काम करने आ गई और लगभग दो महीने रही। इस बार भी दस दिनों तक रहूंगी। भारत में मेरा हर अनुभव नया और आनंददायक रहा। यहां मैं जिससे भी मिली, उसने मेरे दिल को छुआ। [भारत में कौन-कौन सी जगहें देख पाई?] अभी तक मुंबई और गोवा ़ ़ ़ दूसरे ट्रिप में छुट्टी मनाने के लिए गोवा गई थी। वहां के समुद्रतट बहुत अच्छे हैं। [रितिक के साथ काम का अनुभव अपने देश के एक्टरों से कितना अलग रहा?] रितिक परफेक्श

फिल्म समीक्षा :फूँक 2

-अजय ब्रह्मात्मज दावा था कि फूंक से ज्यादा खौफनाक होगी फूंक-2, लेकिन इस फिल्म के खौफनाक दृश्यों में हंसी आती रही। खासकर हर डरावने दृश्य की तैयारी में साउंड इफेक्ट के चरम पर पहुंचने के बाद सिहरन के बजाए गुदगुदी लगती है। कह सकते हैं कि राम गोपाल वर्मा से दोहरी चूक हो गई है। पहली चूक तो सिक्वल लाने की है और दूसरी चूक खौफ पैदा न कर पाने की है। इस फिल्म के बारे में रामू कहते रहे हैं कि मिलिंद का आइडिया उन्हें इतना जोरदार लगा कि उन्होंने निर्देशन की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंप दी। अफसोस की बात है कि मिलिंद अपने आइडिया को पर्दे पर नहीं उतार पाए। रामू ने भी गौर नहीं किया कि फूंक-2 हॉरर फिल्म है या हॉरर के नाम पर कामेडी। किसी ने सही कहा कि जैसी कामेडी फिल्म में लाफ्टर ट्रैक चलता है, पाश्‌र्र्व से हंसी सुनाई पड़ती रहती है और हम भी हंसने लगते हैं। वैसे ही अब हॉरर फिल्मों में हॉरर ट्रैक चलना चाहिए। साथ में चीख-चित्कार हो तो शायद डर भी लगने लगे। फूंक-2 में खौफ नहीं है। आत्मा और मनुष्य केबीच का कोई संघर्ष नहीं है, इसलिए रोमांच नहीं होता। फिल्म में कुछ हत्याएं होती हैं, लेकिन उन हत्याओं से भी डर

दरअसल: पा‌र्श्व गायन बढ़ती भीड़, खोती पहचान

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों के पा‌र्श्व गायन में बड़ा परिवर्तन आ चुका है। अभी फिल्मों में अनेक गीतकार और संगीतकारों के गीत-संगीत के उपयोग का चलन बढ़ गया है। कुछ फिल्मों में छह से अधिक गीतकार और संगीतकार को एक-एक गीत रचने के मौके दिए जाते हैं। गायकों की सूची देखें, तो वहां भी एक लंबी फेहरिस्त नजर आती है। अब किसी फिल्म का नाम लेते ही उसके गीतकार और संगीतकार का नाम याद नहीं आता, क्योंकि ज्यादातर फिल्मों में उनकी संख्या दो से अधिक होने लगी है। अगर भूले से कभी कोई गीत याद आ जाए, तो उसके गीतकार और संगीतकार का नाम याद करने में भारी मशक्कत करनी पड़ती है। गायकी की बात करें, तो जावेद अली, शाबिर तोषी, शिल्पा राव, मोहित चौहान, कविता सेठ, आतिफ असलम, पार्थिव गोहिल, अनुष्का मनचंदा, बेनी दयाल, श्रद्धा पंडित, जुबीन, हरद कौर, मीका, तुलसी कुमार, नेहा भसीन आदि दर्जनों गायक विभिन्न फिल्मों में एक-दो गाने गाते सुनाई पड़ते हैं। अगर आप हिंदी फिल्म संगीत के गंभीर शौकीन हों, तो भी कई बार आवाज पहचानने में दिक्कत होती है। संगीत का मिजाज बदलने से आर्केस्ट्रा पर ज्यादा जोर रहता है। ऐसे में गायकों की आवाज संगीत म

फिल्‍म समीक्षा : आल द बेस्ट

हीरो और डायरेक्टर के बीच समझदारी हो और संयोग से हीरो ही फिल्म का निर्माता भी हो तो देखने लायक फिल्म की उम्मीद की जा सकती है। इस दीवाली पर आई ऑल द बेस्ट इस उम्मीद पर खरी उतरती है। हालांकि रोहित शेट्टी गोलमाल और गोलमाल रिटंर्स से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। लेकिन जब हर तरफ हीरो और डायरेक्टर फिसल रहे हों, उस माहौल में टिके रहना भी काबिले तारीफ है। आगे बढ़ने के लिए रोहित शेट्टी और अजय देवगन को अब बंगले की कॉमेडी से बाहर निकलना चाहिए। वीर म्यूजिशियन है। वह खुद का म्यूजिक बैंड बनाना चाहता है। वीर विद्या से प्यार करता है और अपनी बेकारी के बावजूद दोस्त प्रेम की मदद भी करता है। प्रेम का सपना कांसेप्ट कार बनाना है। वीर का एनआरआई भाई उसे हर महीने एक मोटी रकम भेजता है। भाई से ज्यादा पैसे लेने के लिए प्रेम की सलाह पर वीर भाई को झूठी जानकारी देता है कि उसने विद्या से शादी कर ली है। इस बीच वीर और प्रेम एक और मुसीबत में फंस जाते हैं। रेस के जरिए रकम को पचास गुना करने के चक्कर में वे मूल भी गंवा बैठते हैं। पैसे लौटाने के लिए वे बंगला किराए पर देते हैं। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है कि अचानक विदेश में रह रहा

दरअसल:बिग बॉस अमिताभ बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्मज लोकप्रियता की ऊंचाई के दिनों में अमिताभ बच्चन की औसत और फ्लॉप फिल्में भी दूसरे हीरो की सफल फिल्मों से ज्यादा बिजनेस करती थीं। शो बिजनेस का पुराना दस्तूर है। यहां जो चलता है, खूब चलता है। अगर कभी रुक या ठहर जाता है, तो फिर उसे कोई नहीं पूछता। अमिताभ बच्चन के करियर में ऐसा दौर भी आया था। अमिताभ बच्चन नाम से फिल्म इंडस्ट्री को एलर्जी हो गई थी, लेकिन मोहब्बतें और कौन बनेगा करोड़पति के बाद वे फिर केंद्र में आ गए। उन्होंने करियर के उत्तरा‌र्द्ध में धमाकेदार मौजूदगी से फिल्म और टीवी के मनोरंजन की परिभाषा बदल दी। मानदंड ऊंचे कर दिए हैं। आज भी उनके व्यक्तित्व का चुंबकीय आकर्षण दर्शकों को अपनी ओर खींचता है। इसीलिए बिग बॉस तृतीय की टीआरपी ने पिछले दोनों सीजन के रिकॉर्ड तोड़ दिए। अब समस्या होगी कि बिग बॉस चतुर्थ की योजना कैसे बनेगी? अमिताभ बच्चन की लोकप्रिय मौजूदगी और टीआरपी के बावजूद बिग बॉस तृतीय में जोश और रवानी की कमी महसूस हो रही है। 68 साल के हो चुके अमिताभ बच्चन की प्रस्तुति में ढलती उम्र की थकान झलक रही है। टीवी शो में मेजबान का स्वर थोड़ा ऊंचा रहता है और ओवर द बोर्ड परफार

दरअसल: पॉपुलर नामों के गेम हैं टीवी शो

-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों तेजी से ऊपर आए मनोरंजन चैनल कलर्स ने अमिताभ बच्चन के साथ बिग बॉस के अगले सीजन की घोषणा की है। शो के लिए अमिताभ बच्चन की रजामंदी को कलर्स की बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है। कयास लगाए जा रहे हैं कि बिग बॉस आरंभ होने के बाद टीवी के पॉप फिलास्फर बने बिग-बी को सुनने और देखने के लिए इस चैनल पर दर्शक टूट पड़ेंगे। यह भी उम्मीद की जा रही है कि उनकी वजह से इस शो में थोड़े ज्यादा पॉपुलर सेलिब्रिटी हिस्सा लेंगे। वैसे अभी तक किसी प्रतिभागी की आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है। कौन बनेगा करोड़पति-2 के बाद अमिताभ बच्चन फिर से टीवी पर लौटे हैं। उनके इस वापसी को एक चक्र के पूर्ण होने के रूप में देखा जा रहा है। बाजार और टीवी अधिकारियों को ऐसा लगता है कि इस बार वे अपनी मौजूदगी से टीवी शो को नई ऊंचाई पर ले जाएंगे। कालांतर में वह ऊंचाई नया मानदंड स्थापित करेगी। टीआरपी और लोकप्रियता की इस होड़ का कोई अंत नहीं दिखता। चैनलों की तरफ से कोशिश जारी है कि वे होड़ में आगे रहें। इसके लिए वे ज्यादा से ज्यादा फिल्मी सेलिब्रिटी का इस्तेमाल कर रहे हैं। टीवी के पुराने दर्शकों को याद होगा। वर्षो

फ़िल्म समीक्षा: ह्वाट्स योर राशि?

-अजय ब्रह्मात्मज *** आशुतोष गोवारिकर की फिल्म सामान्य नहीं हो सकती। असमान्य फिल्मों के साथ यह जोखिम रहता है कि वह या तो खूब पसंद आती हैं या बिल्कुल नहीं। इसके अलावा लगान के बाद आशुतोष लंबी फिल्म बनाने के लिए भी मशहूर हो गए। वह हर बार एक नए विषय के साथ फिल्म लेकर आते हैं। उनकी ह्वाट्स योर राशि? रोमांटिक कामेडी है। गंभीर और पीरियड फिल्मों के बाद आशुतोष की यह कोशिश सराहनीय है। उन्होंने मूल लेखक की मदद से समाज में विवाह संबंधी प्रचलित मान्यताओं व मूल्यों को छूने और अप्रत्यक्ष रूप से सवाल खड़े करने की कोशिश की है। मध्यवर्गीय परिवार का योगेश पटेल एमबीए की पढ़ाई के लिए अमेरिका के शिकागो चला गया है। वह नफा-नुकसान की मानसिकता से बाहर निकलना चाहता है। इधर उसका परिवार कई मायनों में पारंपरिक और रूढि़वादी है। परिवार पर एक आर्थिक मुसीबत आ खड़ी हुई है। उससे निजात पाने का एक ही तरीका है कि आकस्मिक धन आए। कुछ ऐसा संयोग बनता है कि अगर योगेश की शादी एक निश्चित तारीख तक कर दी जाए तो आवश्यक धन मिल जाएगा। योगेश को झूठ बताकर भारत बुलाया जाता है। यहां आने के बाद उस पर भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जाता

दरअसल:निराश न हों हिंदी फिल्मप्रेमी

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के राष्ट्रीय पुरस्कारों को लेकर इस बार कोई घोषित विवाद नहीं है, लेकिन जानकार बताते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बनाम दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के द्वंद्व के रूप में इसे देखा जा रहा है। ऐसी खबरें भी आई और सुर्खियां बनीं कि दक्षिण भारतीय फिल्मों ने हिंदी फिल्मों (बॉलीवुड) को पछाड़ा। किसी भी पुरस्कार और सम्मान को एक की जीत और दूसरे की हार के रूप में पेश करना सामान्य खबर में रोमांच पैदा करने की युक्ति हो सकती है, लेकिन सामान्य पाठकों के दिमाग में हारे हुए की कमतरी का एहसास भरता है। इस बार के पुरस्कारों की सूची देखकर ऐसा लग सकता है कि हिंदी फिल्में निकृष्ट कोटि की होती हैं, इसलिए उन्हें पुरस्कार नहीं मिल पाते। अगर फिल्मों में राष्ट्रीय पुरस्कारों के इतिहास में जाएं, तो इसमें कॉमर्शिअॅल और मेनस्ट्रीम सिनेमा को पहले तरजीह नहीं दी जाती थी। एक पूर्वाग्रह था कि कथित कलात्मक फिल्मों पर ही विचार किया जाए। मेनस्ट्रीम फिल्मों के निर्माता सफलता और मुनाफे के अहंकार में राष्ट्रीय पुरस्कारों की परवाह भी नहीं करते थे। वे अपने पॉपुलर अवार्ड से ही संतुष्ट रहते थे और आज भी कमोवे

दरअसल:विदेशी लोकेशन का आकर्षण

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-अजय ब्रह्मात्मज आए दिन हिंदी फिल्मों के जरिए हम किसी न किसी देश की यात्रा करते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड के शहर और ऐतिहासिक स्थापत्य की झलक हम वर्षो से फिल्मों में देखते आ रहे हैं। एक दौर ऐसा आया था, जब किसी न किसी बहाने मुख्य किरदार यानी नायक-नायिका विदेश पहुंच जाते थे और फिर हिंदी के गरीब दर्शक अपने गांव-कस्बे और शहरों के सिनेमाघरों में उन विदेशी शहरों को देखकर खुश होते थे। एक टिकट में दो फायदे हो जाते थे, यानी मनोरंजन के साथ पर्यटन भी होता था। गौर करें, तो उस दौर में विदेशी लोकेशनों को फिल्मकार कहानी में अच्छी तरह पिरोकर पेश करते थे। फिर एक दौर ऐसा आया कि कहानी देश में चलती रहती थी और गाने आते ही नायक-नायिका विदेशी लोकेशनों में पहुंच जाते थे। यश चोपड़ा की फिल्मों में सुंदर और रोमांटिक तरीके से स्विट्जरलैंड की वादियां दिखती रहीं। उसके बाद करण जौहर जैसे निर्देशक अपनी फिल्म को लेकर विदेश चले गए। कभी खुशी कभी गम में उन्होंने जो विदेश प्रवास किया, वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। उनके बैनर की फिल्में अभी तक भारत नहीं लौटी हैं। उनकी अगली फिल्म माई नेम इज खान भी अमेरिका में शूट हुई है। पिछले

पुरस्कृत हुई हैं पहली फिल्में

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के 55वें राष्ट्रीय पुरस्कार में हिंदी की किसी फिल्म को मुख्य श्रेणी में श्रेष्ठ फिल्म, श्रेष्ठ अभिनेता, श्रेष्ठ अभिनेत्री और श्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार नहीं मिलने से हिंदी फिल्म प्रेमी थोड़े उदास हैं। उनकी उदासी को समाचार चैनलों और अखबारों की सुर्खियों की प्रस्तुति ने और बढ़ा दिया है। खबरें चलीं कि बॉलीवुड को कांजीवरम ने पछाड़ा या आमिर-शाहरुख पर भारी पड़े प्रकाश राज। दरअसल, पुरस्कारों में प्रतिद्वंद्विता नहीं होती है। निर्णायक मंडल के सदस्य व्यक्तिगत रुचि और पसंद के आधार पर कलाकार, तकनीशियन और फिल्मों को पुरस्कार के लिए चुनते हैं। निर्णायक मंडल के सदस्यों की अभिरुचि से पुरस्कार तय होते हैं। बहरहाल, उदासी के इस वातावरण में उल्लेखनीय तथ्य है कि जिन हिंदी फिल्मों को विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कार मिले हैं, वे सभी फिल्में निर्देशक की पहली फिल्में हैं। तारे जमीं पर को तीन पुरस्कार मिले। इस फिल्म के निर्देशक आमिर खान हैं और तारे जमीं पर उनकी पहली फिल्म है। इसी प्रकार गांधी माय फादर भी फिरोज अब्बास खान की पहली फिल्म है। इस फिल्म को भी तीन पुरस्कार मिले हैं। किसी निर

निगाह है इंटरनेशनल मार्केट पर

-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों शाहरुख खान और करण जौहर की कामयाब जोड़ी ने अमेरिका की मशहूर फिल्म कंपनी ट्वेंटीएथ सेंचुरी फॉक्स की एशिया में कार्यरत कंपनी फॉक्स स्टार स्टूडियो से समझौता किया। इस समझौते के तहत फॉक्स उनकी आगामी फिल्म माई नेम इज खान का विश्वव्यापी वितरण करेगी। इस समझौते की रकम नहीं बताई जा रही है, लेकिन ट्रेड पंडित शाहरुख और काजोल की इस फिल्म को 80 से 100 करोड़ के बीच आंक रहे हैं। करण जौहर की फिल्में पहले यशराज फिल्म्स द्वारा वितरित होती थीं। उन्होंने अपने प्रोडक्शन की अयान मुखर्जी निर्देशित वेकअप सिड और रेंजिल डी-सिल्वा निर्देशित कुर्बान के वितरण अधिकार यूटीवी को दिए। तभी लग गया था कि करण अपनी फिल्मों के लिए यशराज के भरोसे नहीं रहना चाहते। दोस्ती और संबंध जरूरी हैं, लेकिन फिल्मों का बिजनेस अगर नए पार्टनर की मांग करता है, तो नए रिश्ते बनाए जा सकते हैं। अपनी फिल्म के लिए एक कदम आगे जाकर उन्होंने फॉक्स से हाथ मिलाया। उन्हें ऐसा लगता है कि फॉक्स उनकी फिल्म माई नेम इज खान को इंटरनेशनल स्तर पर नए दर्शकों तक ले जाएगी। हम सभी जानते हैं कि करण हिंदी फिल्मों के ओवरसीज मार्केट में बहुत

दरअसल:आशुतोष की युक्ति, प्रियंका की चुनौती

- अजय ब्रह्मात्मज आशुतोष गोवारीकर ने अपनी नई फिल्म ह्वाट्स योर राशि? के लिए अपनी गंभीर मुद्रा छोड़ी है। लगान के बाद वे लंबी और गंभीर फिल्में ही निर्देशित करते रहे। आशुतोष को करीब से जो लोग जानते हैं, वे उनके विनोदी स्वभाव से परिचित हैं। ऐसा लगता है कि हरमन बवेजा और प्रियंका चोपड़ा की इस फिल्म में लोग आशुतोष के इस रूप से परिचित होंगे। फिल्म ह्वाट्स योर राशि? गुजराती के उपन्यासकार मधु राय की कृति किंबाल रैवेंसवुड पर आधारित है। मधु वामपंथी सोच के लेखक हैं। उन्होंने इस कृति में भारतीयता की खोज में भारत लौट रहे आप्रवासी भारतीयों की समझ का मखौल उड़ाया है। वे भारत के मध्यवर्गीय परिवारों पर भी चोट करते हैं। उपन्यास के मुताबिक योगेश ईश्वर पटेल पर दबाव है कि वह भारत की ऐसी लड़की से शादी करे, जो सुसंस्कृत और भारतीय परंपरा में पली हो। भारत आने के बाद योगेश को अहसास होता है कि भारत की लड़कियों का नजरिया और रहन-सहन बदल चुका है। योगेश की इन मुठभेड़ों पर ही कहानी रची गई है। वर्षो पहले 1989 में केतन मेहता ने इसी उपन्यास पर मिस्टर योगी नाम का धारावाहिक बनाया था। धारावाहिक में मोहन गोखले ने योगेश की

पढ़े गए चवन्नी के एक लाख (१,००,०००) पृष्ठ

चवन्नी के पढ़े गए पृष्ठों की संख्या एक लाख से अधिक हो गई है.चवन्नी को नहीं मालूम कि इसका कोई महत्त्व है या नहीं? चवन्नी को यही खुशी है कि आप उसे पढ़ते हैं.ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत के सहयोग से यह सम्भव हुआ है.आजकल कुछ पाठक सीधे आते हैं.उन्होंने सीधी राह पकड़ ली है.कल तो घोर आश्चर्य हुआ.अचानक चवन्नी ने पाया कि उसके भारतीय पाठकों की संख्या अमेरिकी पाठकों से कम हो गई.अब आप की बधाई और सुझावों का इंतज़ार है.

हिन्दी फिल्मों में मौके मिल रहे हैं-आर माधवन

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-अजय ब्रह्मात्मज आर माधवन का ज्यादातर समय इन दिनों मुंबई में गुजरता है। चेन्नई जाने और दक्षिण की फिल्मों में सफल होने के बावजूद उन्होंने मुंबई में अपना ठिकाना बनाए रखा। अगर रहना है तेरे दिल में कामयाब हो गयी रहती, तो बीच का समय कुछ अलग ढंग से गुजरा होता। बहरहाल, रंग दे बसंती के बाद आर माधवन ने मुंबई में सक्रियता बढ़ा दी है। फोटोग्राफर अतुल कसबेकर के स्टूडियो में आर माधवन से बातचीत हुई। आपकी नयी फिल्म सिकंदर आ रही है। कश्मीर की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में क्या खास है? सिकंदर दो बच्चों की कहानी है। कश्मीर के हालात से हम सभी वाकिफ हैं। वहां बच्चों के साथ जो हो रहा है, जिस तरीके से उनकी मासूमियत छिन रही है। इन सारी चीजों को थ्रिलर फार्मेट में पेश किया गया है। वहां जो वास्तविक स्थिति है, उसका नमूना आप इस फिल्म में देख सकेंगे। क्या इसमें आतंकवाद का भी उल्लेख है? हां, यह फिल्म आतंकवाद की पृष्ठभूमि में है। आतंकवाद से कैसे लोगों की जिंदगी तबाह हो रही है, लेकिन लंबे समय सेआतंकवाद के साए में जीने के कारण यह उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। उन्हें ऐसी आदत हो गयी है कि लाश, हत्या या

दरअसल:सोचें जरा इस संभावना पर

-अजय ब्रह्मात्मज आए दिन देश के कोने-कोने से फिल्मों में जगह पाने की कोशिश में हजारों युवक मुंबई पहुंचते हैं। हिंदी फिल्मों का आकर्षण उन्हें खींच लाता है। इनमें से सैकड़ों सिनेमा की समझ रखते हैं। वे किसी उन्माद या भावातिरेक में नहीं, बल्कि फिल्मों के जरिए अपनी बात कहने की गरज से मुंबई आते हैं। फिल्मों में आने के लिए उत्सुक हर युवक पर्दे पर ही चमकना नहीं चाहता। कुछ पर्दे के पीछे हाथ आजमाना चाहते हैं। उनके पास अपनी कहानी है, अपना नजरिया है और वे कुछ कर दिखाना चाहते हैं। मुंबई में सक्रिय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे निश्चित समयावधि में अवसर और परिणाम हासिल किया जा सके। फिल्मी परिवार के बच्चों को इस विमर्श से अलग कर दें, तो भी कुछ उदाहरण मिल जाते हैं, जहां कुछ को तत्काल अवसर मिल जाते हैं। वे अपनी मेहनत, कोशिश और फिल्म से दर्शकों को पसंद आ जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद परिवारवाद, लॉबिंग और संकीर्णता के बावजूद हर साल 20 से 25 नए निर्देशक आ ही जाते हैं। पर्दे के पीछे और पर्दे के आगे भी हर साल नए तकनीशियन और कलाकार आते हैं। यह कहना अनुचित होगा कि हिंदी फ

दरअसल:न्यूयॉर्क की कामयाबी के बावजूद

-अजय ब्रह्मात्मज 26 जून को रिलीज हुई न्यूयॉर्क को दर्शक मिले। जॉन अब्राहम, कैटरीना कैफ और नील नितिन मुकेश के साथ यशराज फिल्म्स के बैनर का आकर्षण उन्हें सिनेमाघरों में खींच कर ले गया। मल्टीप्लेक्स मालिक और निर्माता-वितरकों के मतभेद से पैदा हुआ मनोरंजन क्षेत्र का अकाल दर्शकों को फिल्मों के लिए तरसा रहा था। बीच में जो फिल्में रिलीज हुई, वे राहत सामग्री के रूप में बंटे घटिया अनाज के समान थीं। उनसे दर्शक जिंदा तो रहे, लेकिन भूख नहीं मिटी। ऐसे दौर में स्वाद की बात कोई सोच भी नहीं सकता था। न्यूयॉर्क ने मनोरंजन के अकाल पीडि़त दर्शकों को सही राहत दी। भूख मिटी और थोड़ा स्वाद मिला। यही वजह है कि इसे देखने दर्शक टूट पड़े हैं। मुंबई में शनिवार-रविवार को करंट बुकिंग में टिकट मिलना मुश्किल हो गया था। साथ ही कुछ थिएटरों में टिकट दोगुने दाम में ब्लैक हो रहे थे। ट्रेड सर्किल में न्यूयॉर्क की सफलता से उत्साह का संचार नहीं हुआ है। ट्रेड विशेषज्ञों के मुताबिक यशराज फिल्म्स को न्यूयॉर्क से अवश्य फायदा होगा, क्योंकि यह अपेक्षाकृत कम बजट की फिल्म है। अगले हफ्तों में आने वाली फिल्मों की लागत ज्यादा है और उन्हे