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एक थे मोईन अख्‍तर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मोईन अख्तर से मेरा पहला परिचय चीन में हुआ था। पाकिस्तानी दोस्त रहमान साहब और उनके परिवार के यहां आना-जाना था। हमारे बीच कई समानताएं थीं। हम लगभग एक ही जबान बोलते थे। खाना-पीना भी एक सा था। वे हिंदी फिल्में देखने के शौकीन तो हम पाकिस्तानी टीवी ड्रामे के। उनके यहां ही वीडियो कैसेट पर पहली बार बकरा किस्तों पे और बुड्ढा घर पे है के कुछ एपीसोड देखे थे। इन ड्रामों का तंजिया अंदाज बहुत भाता था। ड्रामा थोड़ा लाउड और वोकल लगता था, लेकिन उसका अपना मजा था। इन ड्रामों के जरिए ही मोईन अख्तर और उमर शरीफ से परिचय हुआ था। यह 1990 से पहले की बात है। पाकिस्तान में फिल्मों का विकास भले ही अवरुद्ध हो गया था, लेकिन वहां के टीवी पर ड्रामे की शक्ल में कुछ नया मनोरंजन दर्शकों का दिल बहला रहा था। हालांकि पाकिस्तान में ज्यादातर समय सैन्य शासन ही रहा, फिर भी इन ड्रामों में पाकिस्तान की पॉलिटिक्स और पॉलिटिशियन को हमेशा निशाना बनाया गया। मुसलमान, इस्लाम और पाकिस्तान को लेकर संवादों में किए गए फिकरे और ताने वहां के माहौल का बयां करने के साथ ही बताते थे कि पूरी कौम खुद पर हंसना जानती है। 1947 से पह

रूठे हुए दर्शक थियेटर में कैसे आए

-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों के प्रचार पर अभी करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। छोटी से छोटी फिल्म की पब्लिसिटी में भी इतनी रकम लग ही जाती है। निर्माता-निर्देशक और फिल्म के स्टारों का पूरा जोर रहता है कि रिलीज के पहले दर्शकों के दिमाग में फिल्म की छवि बिठा दी जाए। वे शुक्रवार को उनकी फिल्म देखने जरूर जाएं। व्यापार के बदले स्वरूप की वजह से प्रचार भी सघन और केंद्रित होता जा रहा है। अभी फिल्मों का व्यापार मल्टीप्लेक्स थिएटरों के वीकऐंड बिजनेस पर ही निर्भर कर रहा है। पहले वीकऐंड में ही पता चल जाता है कि फिल्म के प्रति दर्शकों का क्या रवैया होगा? इन दिनों शायद ही कोई फिल्म सोमवार के बाद फिल्मों से कमाई कर पाती है। मल्टीप्लेक्स मुख्य रूप से महानगरों में हैं। हिंदी फिल्मों के बिजनेस के लिहाज से मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, चंडीगढ़ और इंदौर मुख्य ठिकाने हैं। निर्माता और प्रोडक्शन कंपनियों का जोर रहता है कि इन शहरों के दर्शकों को किसी भी तरह रिझाकर सिनेमाघरों में पहुंचाया जाए। इस उद्देश्य से इन शहरों में ही प्रचार संबंधी इवेंट और गतिविधियों पर उनका ध्यान रहता है। बाकी शहरों और इलाकों की तरफ वे गौर भी

फिल्‍म समीक्षा : आई एम्...

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पहचान से जूझते किरदार -अजय ब्रह्मात्‍मज *इस फिल्म के लिए पैसे चंदे से जुटाए गए हैं। आई एम.. क्राउड फंडिंग से बनी भारत की पहली फिल्म है। ओनिर और संजय सूरी की मेहनत और कोशिश और एक्टरों के समर्थन से फिल्म तो बन गई। अब यह ढंग से दर्शकों के बीच पहुंच जाए तो बात बने। यहीं फिल्म के ट्रैडिशनल व्यापारी पंगा करते हैं। *आई एम .. लिंग, जाति, धर्म और प्रदेश से परे व्यक्ति के पहचान और आग्रह की फिल्म है। हम अपनी जिंदगी में विभिन्न मजबूरियों की वजह से खुद को एसर्ट नहीं करते। अपना आग्रह नहीं रखते और पहचान के संकट से बिसूरते रहते हैं। *आई एम.. में आशु उर्फ अभि (संजय सूरी) से सारे किरदार जुड़ते हैं, लेकिन वे एक कहानी नहीं बनते। नैरेशन का यह शिल्प नया और रोचक है। *आफिया, मेघा, अभिमन्यु और ओमर के जरिए ओनिर ने आधुनिक औरत के मातृत्व के आग्रह, कश्मीर से विस्थापित पंडित के द्वंद्व, सौतेले पिता के शारीरिक शोषण की पीड़ा और वैकल्पिक सेक्स की दिक्कतों के मुद्दों को संवेदनशील तरीके से चित्रित किया है। फिल्म में इन मुद्दों के ग्राफिक विस्तार में गए बिना ओनिर संकेतों और प्रतीकों में अपना मंतव्य रखते हैं। वे

फिल्‍म समीक्षा : शोर

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मुंबई की सेंट्रल लाइन के सपने -अजय ब्रह्मात्‍मज राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की शोर छोटे स्केल पर बनी सारगर्भित फिल्म है। बाद में एकता कपूर के जुड़ जाने से फिल्म थोड़ी बड़ी दिखने लगी है। अगर इस फिल्म को एक बड़े निर्माता की फिल्म के तौर पर देखेंगे तो निराशा होगी। राज और कृष्णा की कोशिश के तौर पर इसका आनंद उठा सकते हैं। *हर फिल्म का अपना मिजाज और स्वरूप होता है। अगर दर्शकों के बीच पहुंचने तक वह आरंभिक सोच और योजना के मुताबिक पहुंचे तो दर्शक भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं। इधर एक नया ट्रेंड चल रहा है कि फिल्म बनती किसी और नजरिए से है और उसकी मार्केटिंग का रवैया कुछ और होता है। शोर ऐसे ही दो इरादों के बीच फंसी फिल्म है। *शोर में तीन कहानियां हैं। एक कहानी में विदेश से आया एक उद्यमी मुंबई में आकर कुछ करना चाहता है। दूसरी कहानी में मुंबई की सेंट्रल लाइन के उपनगर के तीन उठाईगीर हैं, जो कुछ कर गुजरने की लालसा में रिस्क लेते हैं। तीसरी कहानी एक युवा क्रिकेटर की है। तीनों कहानियों के किरदारों का साबका अपराध जगत से होता है। अपराधियों के संसर्ग में आने से उनकी सोच में तब्दीली आती

एक्शन फिल्म है दम मारो दम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज रोहन सिप्पी और अभिषेक बच्चन का साथ पुराना है। 'कुछ न कहो', 'ब्लफ मास्टर' के बाद 'दम मारो दम' उनकी तीसरी फिल्म है। 'दम मारो दम' के बारे में बता रहे हैं रोहन सिप्पी दम मारो दम एक सस्पेंस थ्रिलर है, जिसमें अभिषेक बच्चन पुलिस अधिकारी की भूमिका निभा रहे हैं। उनके साथ प्रतीक बब्बर और राणा दगुबटी भी हैं। फिल्म में बिपाशा बसु की खास भूमिका है, जबकि दीपिका पादुकोण सिर्फ एक गाने में दिल धड़काती दिखेंगी। 'दम मारो दम' को कॉप स्टोरी कह सकते हैं, लेकिन यह एक सस्पेंस थ्रिलर है। हमने एक नई कोशिश की है। फिल्म में तीन कहानिया हैं, जो एक दूसरे से गुंथी हुई हैं। पहली कहानी प्रतीक की है। वह स्टुडेंट है। एक खास मोड़ पर लालच में वह गलत फैसला ले लेता है। उसकी भिड़ंत एसीपी कामत से होती है। फिर अभिषेक की कहानी आती है। वह एक इंवेस्टीगेशन के सिलसिले में बाकी किरदारों से टकराता है। तीसरी कहानी में राणा और बिपाशा की लव स्टोरी है। राणा भी अभिषेक के रास्ते में आता है। हमारी कहानी पूरी तरह से फिक्शनल है। खूबसूरती की वजह से हमने गोवा की पृष्ठभूमि रखी। गोवा की छव

पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे-लारा दत्‍ता

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-अजय ब्रह्मात्‍मज लारा दत्ता के जीवन में उत्साह का संचार हो गया है। हाल ही में महेश भूपति से उनकी शादी हुई है। 16 अप्रैल को उनका जन्मदिन था और इसी महीने 29 अप्रैल को उनके प्रोडक्शन हाउस भीगी बसंती की पहली फिल्म 'चलो दिल्ली' रिलीज हो रही है। उनसे बातचीत के अंश- इस सुहाने मोड़ पर कितने सुकून, संतोष और जोश में हैं आप? हर इंसान की जिंदगी में कभी न कभी ऐसा मोड़ आता है, जब वह खुद को सुरक्षित और संतुष्ट महसूस करता है। मैं अभी उसी मोड़ पर हूं। एक औरत होने के नाते कॅरिअर के साथ यह टेंशन बनी रहती है कि शादी तो करनी ही है। वह ठीक से हो जाए। लड़का अच्छा हो। ग्लैमरस कॅरिअर में आने से एक लाइफस्टाइल बन जाती है। हम खुद के लिए उसे तय कर लेते हैं। कोशिश रहती है कि ऐसा लाइफ पार्टनर मिले, जो साथ चल सके। मैं अभी बहुत खुश हूं। मेरी शादी एक ऐसे इंसान से हुई है, जो मुझे कंट्रोल नहीं करता। मेरे कॅरिअर और च्वाइस में उनका भरपूर सपोर्ट मिलता है। अभी लग रहा है कि मैं सब कुछ हासिल कर सकती हूं। मेरा ऑब्जर्वेशन है कि आपने टैलेंट का सही इस्तेमाल नहीं किया या यों कहें कि फिल्म इंडस्ट्री ने आप को वाजिब मौके नहीं

फिल्‍म समीक्षा : 3 थे भाई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज किसी फिल्म में रोमांस का दबाव नहीं हो तो थोड़ी अलग उम्मीद बंधती है। मृगदीप सिंह लांबा की 3 थे भाई तीन झगड़ालु भाइयों की कहानी है, जिन्हें दादाजी अपनी वसीयत की पेंच में उलझाकर मिला देते हैं। किसी नीति कथा की तरह उद्घाटित होती कथानक रोचक है, लेकिन भाषा, कल्पना और बजट की कमी से फिल्म मनोरंजक नहीं हो पाई है। चिस्की, हैप्पी और फैंसी तीन भाई है। तीनों के माता-पिता नहीं हैं। उन्हें दादाजी ने पाला है। दादाजी की परवरिश और प्रेम के बावजूद तीनों भाई अलग-अलग राह पर निकल पड़ते हैं। उनमें नहीं निभती है। दादा जी एक ऐसी वसीयत कर जाते हैं, जिसकी शर्तो को पूरी करते समय तीनों भाइयों को अपनी गलतियों का एहसास होता है। उनमें भाईचारा पनपता है और फिल्म खत्म होती है। नैतिकता और पारिवारिक मूल्यों का पाठ पढ़ाती यह फिल्म कई स्तरों पर कमजोर है। तीनों भाइयों में हैप्पी की भूमिका निभा रहे दीपक डोबरियाल अपनी भूमिका को लेकर केवल संजीदा हैं। उनकी ईमानदारी साफ नजर आती है। ओम पुरी लंबे अनुभव और निरंतर कामयाबी के बाद अब थक से गए हैं। उनकी लापरवाही झलकने लगती है। श्रेयस तलपडे को मिमिक्री का

फिल्‍म समीक्षा : फालतू

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नाच-गाना और मैसेज -अजय ब्रह्मात्‍मज रेमो डिसूजा की फिल्म में नाच-गाना है। मस्ती है। दोस्ती है। संदेश है। देश की शिक्षा व्यवस्था पर किए गए सवाल हैं। पूरा माहौल है। फिल्म पूरी गति के साथ बांधे रखती हैं। बीच-बीच में हंसी भी आ जाती है। रेमो डिसूजा अपने कंफ्यूजन के साथ कभी कहानी तो कभी कभी नाच-गाने के बीच डोलते रहते हैं। फिल्म पूरी हो जाती है। मुद्दा समझ में नहीं आता तो किरदारों के जरिए छोटी-मोटी भाषणबाजी भी हो जाती है। कोरियोग्राफी के कमाल और युवकों के धमाल के लिहाज से फिल्म रोचक है। रेमो ने कोरियोग्राफी में कल्पनाशीलता का परिचय दिया है। क्लाइमेक्स के पहले के डांस सिक्वेंस में उन्होंने कुछ नया किया है। विषय और मुद्दे की बात करें तो लेखक-निर्देशक तय नहीं कर पाए हैं कि वे पढ़ाई में रुचि-अरुचि या ग्रेडिंग सिस्टम पर फोकस करें। कुछ समय पहले आई 3 इडियट के बाद शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाती फालतू का प्रयास बचकाना लगता है। यहां मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के विकल्प के रूप में एक कालेज की ही कल्पना की जाती है। लेखक-निर्देशक ठीक से जानते भी नहीं कि यूनिवर्सिटी का मतलब क्या होता है? बस बोर्ड चिपक

कुछ तो बात है इस खान में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अपनी हर फिल्म में दोनों हाथों को फैलाकर जब शाहरुख खान जुंबिश लेते हैं तो लगता है कि वे पूरी दुनिया को अपने अंकवार में भर लेना चाहते हैं। उनकी यह अदा सभी को भाती है। शाहरुख को भी पता है कि दर्शक उनकी इस भावमुद्रा का इंतजार करते हैं और उनके हाथों के फैलने के साथ सिनेमाघर सीटियों और सिसकारियों से गूंजने लगते हैं। यही कारण है कि हर विधा, विषय, भाव और पीरियड की फिल्मों में शाहरुख इसे दोहराने से नहीं हिचकते। ऐसी भावमुद्राओं की वजह से ही उनके आलोचक कहते हैं कि शाहरुख अपनी हर फिल्म में शाहरुख ही रहते हैं। मजेदार तथ्य यह है कि वे आलोचकों के इस आरोप से इत्तफाक रखते हैं। वे कहते हैं, मेरे प्रशंसक मेरी फिल्मों में मुझे देखने आते हैं। मैं उन्हें किसी और रूप और अंदाज से निराश नहीं कर सकता। इस तर्क के साथ वे यह जोडना नहीं भूलते कि मैंने फिर भी दिल है हिंदुस्तानी, अशोक, स्वदेस, पहेली और चक दे जैसी फिल्में भी की हैं। इन सारी फिल्मों में मैं बिलकुल अलग था। छोटे पर्दे का फौजी अलग तो हैं शाहरुख। दूरदर्शन के दिनों में फौजी और सर्कस जैसे धारावाहिकों से ही उन्हें राष्ट्रीय पहचान मिल गई थी।

क्रिकेट और सिनेमा

'अजय ब्रह्मात्‍मज क्या कभी ऐसा भी होगा कि किसी फिल्म की पूर्वघोषित रिलीज की तारीख देख कर क्रिकेट व‌र्ल्ड कप या आईपीएल के आयोजक अपने मैच की तारीख बदल दें या उस तारीख को पहले ही से कोई मैच न रखें? फिलहाल इसकी कोई संभावना नहीं बनती, क्योंकि हम देख रहे हैं कि क्रिकेट मैचों के डर से फिल्मों की रिलीज आगे-पीछे खिसकाई जा रही हैं। इस साल 19 फरवरी को व‌र्ल्ड कप आरंभ हुआ। उसके ठीक एक दिन पहले विशाल भारद्वाज की फिल्म 7 खून माफ रिलीज हुई। फिल्म को दर्शकों ने माफ नहीं किया। कुछ ट्रेड पंडितों और प्रियंका चोपड़ा को लगता है कि व‌र्ल्ड कप ने उनके दर्शकों को घरों में बांध लिया। हालांकि इस धारणा का कोई प्रमाण नहीं है, फिर भी हर फ्लॉप के दस कारण होते हैं। व‌र्ल्ड कप तो एक ठोस कारण बनता है। इस धारणा को इस तथ्य से बल मिलता है कि उसके बाद केवल चार मार्च को तनु वेड्स मनु ही रिलीज हो पाई। वैसे व‌र्ल्ड कप के दरम्यान इस फिल्म का कारोबार औसत से बेहतर रहा। इस फिल्म के चलने से 7 खून माफ के पक्ष में व‌र्ल्ड कप का कारण थोड़ा कमजोर हो जाता है। 7 खून माफ और तनु वेड्स मनु के विपरीत बिजनेस के बावजूद सच यही है कि व‌र्ल

फिल्‍म समीक्षा : मोनिका

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इस फिल्म की कथाभूमि लखनऊ है। मोनिका और चंद्रकांत पंडित हमें भोपाल, पटना, देहरादून और जयपुर में भी मिल सकते हैं। हर प्रदेश में मोनिका और चंद्रकांत पंडित की कहानियां हैं। किसी प्रदेश में मोनिका का नाम मनीष भी हो सकता है। तात्पर्य यह कि लेखक-निर्देशक सुषेन भटनागर ने एक मौजूं विषय पर फिल्म बनाई है। पत्रकार की महत्वाकांक्षा और राजनीतिज्ञों द्वारा उनके इस्तेमाल की कहानियों में अक्सर राजनीतिज्ञों का खलनायक की तरह चित्रित किया जाता है। मोनिका को ही गौर से देखें तो मोनिका की मनोग्रंथि और महत्वाकांक्षा ही उसे राजनीतिक शिकंजे में ले जाती है और इस्तेमाल होने के लिए तैयार करती है। हमें इस कड़वे सच केदूसरे पक्ष को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। मध्यवर्गीय परिवार की मोनिका की महत्वाकांक्षाएं परिवार और लखनऊ जैसे शहर से बड़ी हो जाती हैं। उसकी इस कमजोरी को स्वार्थी राजनीतिज्ञ, संपादक और बिजनेस घराने के लोग ताड़ जाते हैं। वे उसकी मेधा का दुरूपयोग करते हैं। मोनिका एक-दो दफा अपनी सामान्य जिंदगी में लौटना भी चाहती है, लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी है कि उसका असहाय पति भी उसकी मदद नहीं कर

आइटम के दम पर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यह सच है कि मुन्नी और शीला के क्रेज ने फिल्मों में आइटम गीतों की मांग बढ़ा दी है। निस्संदेह दबंग के हिट होने में मलाइका अरोड़ा और सलमान खान पर फिल्माए गीत मुन्नी बदनाम.. का बड़ा योगदान रहा। इस एक गीत की पॉपुलैरिटी ने दबंग के दर्शक तैयार किए। फराह खान की तीस मार खान ने रिलीज के पहले शीला की जवानी.. से ऐसा समां बांधा कि दर्शकों ने वीकएंड की एडवांस बुकिंग करवा ली। हालांकि तीस मार खान को दबंग जैसे दर्शक नहीं मिले, लेकिन जो भी दर्शक मिले, वे इसी गीत की वजह से मिले। फिल्म देखकर निकलते दर्शकों की जुबान पर एक ही बात थी कि फिल्म में शीला.. के अलावा कुछ था ही नहीं। दोनों फिल्मों की कामयाबी से हिंदी फिल्मों में आइटम गीतों की मांग सुनिश्चित हुई। यही वजह है कि दम मारो दम, रेडी और रा वन के आइटम गीतों की चर्चा की जा रही है। कहा जा रहा है कि अभी कुछ समय तक आइटम गीतों का जोर रहेगा। हिंदी फिल्मों में आइटम गीतों का होना कोई नई बात नहीं है। पहले इन गीतों का फिल्म की कहानी से तालमेल बिठाया जाता था। राज कपूर और गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में ऐसे गीतों को फिल्म का हिस्सा बना कर पेश किया। फिर

देश के अंदर ही हैं अनेक दर्शक

-अजय ब्रह्मात्‍मज मेरी धारणा मजबूत होती जा रही है कि हिंदी सिनेमा पर अलग-अलग दृष्टिकोण से विचार-विमर्श करने की जरूरत है। मुंबई या दूसरे महानगरों से हम हिंदी सिनेमा को जिस दृष्टिकोण से देखते और सही मानते हैं, वह पूरे देश में लागू नहीं किया जा सकता। हिंदी फिल्मों के विकास, प्रगति और निर्वाह के लिए मुंबइया दृष्टिकोण का खास महत्व है। उसी से हिंदी फिल्में संचालित होती हैं। सितारों की पॉपुलैरिटी लिस्ट बनती है, लेकिन हिंदी फिल्मों की देसी अंतरधाराओं को भी समझना जरूरी है। तभी हम दर्शकों की पसंद-नापसंद का सही आकलन कर सकेंगे। मैं पिछले बीस दिनों से बिहार में हूं। राजधानी पटना में कुछ दिन बिताने के बाद नेपाल की सीमा पर स्थित सुपौल जिले के बीरपुर कस्बे में आ गया हूं। इस कस्बे की आबादी एक लाख के आसपास होगी। कोसी नदी में आई पिछली बाढ़ में यह कस्बा और इसके आसपास के गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे। इस इलाके के नागरिकों को पलायन करना पड़ा था। जलप्लावन की विभीषिका के बाद कस्बे में जीवन लौटा, तो लोगों की पहली जिज्ञासाओं में सिनेमाघर के खुलने का इंतजार भी था। यह बात मुझे स्थानीय कृष्णा टाकीज के मालिक और

भोजपुरी सिनेमा : सवाल भी है पचास के

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍मों के ग्लैमर से इतर भोजपुरी फिल्मों का अपना अलग बाजार है। दर्शक हैं, जिनमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में दूसरे प्रदेशों और भाषाओं के निर्माता तक शामिल हो रहे हैं। पिछले कई सालों से हर साल 50 से अधिक भोजपुरी फिल्में बनती हैं। मुख्य रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पंजाब और सभी महानगरों में पॉपुलर भोजपुरी फिल्मों के दर्शक मजदूर और सर्विस सेक्टर में शामिल 'बिदेसिया' हैं। गौर करें तो मध्यवर्ग के दर्शक भोजपुरी फिल्में देखने से परहेज करते हैं। तर्क है भोजपुरी फिल्मों का फूहड़, अश्लील, घटिया और भोंडी होना। इनका प्रदर्शन जीर्ण-शीर्ण थिएटरों में होता है, जिनमें मध्यवर्गीय दर्शक जाने से गुरेज करते हैं। 16 फरवरी 1961 को पटना के शहीद स्मारक पर भोजपुरी की पहली फिल्म गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो का मुहू‌र्त्त हुआ था। पचास साल हो गए हैं। भोजपुरी समाज के लिए यह सोचने की घड़ी है कि वे अपने सिनेमा को किस रूप में देखना चाहते हैं और आगे कहां ले जाना चाहते हैं? भोजपुरी फिल्मों के विकास का अध्ययन कर रहे विनोद अनुपम भोजपुरी सिनेमा के प्रति

गालियों का उपयोग, दुरुपयोग

-अजय ब्रह्मात्‍मज अधिकांश लोग समय के साथ नहीं चलते। ऐसे लोग हमेशा नए चलन का विरोध करते हैं। उनकी आपत्तियों का ठोस आधार नहीं होता, फिर भी वे सबसे ज्यादा शोर करते हैं। वे अपने ऊपर जिम्मेदारी ओढ़ लेते हैं। इधर फिल्मों में बढ़ रहे गालियों के चलन पर शुद्धतावादियों का विरोध आरंभ हो गया है। नो वन किल्ड जेसिका और ये साली जिंदगी में गाली के प्रयोग को अनुचित ठहराते हुए वे परिवार और समाज की दुहाई देने लगे हैं। कई लोगों का तर्क है कि गालियों के बगैर भी इन फिल्मों का निर्माण किया जा सकता था। उनकी राय में राजकुमार गुप्ता और सुधीर मिश्र ने पहले दर्शकों को चौंकाने और फिर उन्हें सिनेमाघरों में लाने के लिए दोनों निर्देशकों ने गालियों का इस्तेमाल किया। इन फिल्मों को देख चुके दर्शक स्वीकार करेंगे कि इन फिल्मों में गालियां संवाद का हिस्सा थीं। अगर गालियां नहीं रखी जातीं, तो लेखक-निर्देशक को अपनी बात कहने के लिए कई दृश्यों और अतिरिक्त संवादों की जरूरत पड़ती। मुझे याद है कि विशाल भारद्वाज की फिल्म ओमकारा की रिलीज के समय देश के एक अंग्रेजी अखबार और उसके एफएम रेडियो ने फिल्म की आलोचना करते हुए लिखा और बोला था

हर किरदार को शिद्दत से जीती हैं विद्या बालन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज Publish Post सिर्फ साढे पांच साल पहले उनकी पहली हिंदी फिल्म परिणीता रिलीज हुई थी, लेकिन न जाने क्यों ऐसा लगता है कि वह कई सालों से पर्दे पर हैं। अभिनय में उनकी दक्षता और चरित्रों को साकार करने की सहजता से यह भ्रम होता है। नो वन किल्ड जेसिका उनकी बारहवीं फिल्म थी। इसमें जेसिका की बहन सबरीना लाल की जद्दोजहद, जिद और जोश को विद्या बालन ने बगैर नाटकीय हुए जाहिर किया। न किसी दृश्य में उनकी नसें तनीं, न वह कहीं चिल्लाती नजर आई। फिर भी उनकी खामोश चीख ने हमारे कानों के पर्दे फाड डाले। उन्हें अभिनय के लिए किसी श्रृंगार या एक्सेसरीज की जरूरत नहीं पडती। उनकी सादगी पसंद आती है और उनकी अदायगी मोह लेती है। हिंदी फिल्मों की हीरोइनें जिस उम्र में रिटायर होने लगती हैं, उसमें विद्या की पहली फिल्म परिणीता आई। पा में उन्होंने खुद से दोगुने उम्र के कद्दावर अभिनेता अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई। प्रेमी से अलग होकर अपने विशेष बच्चे को पालने वाली डॉ.विद्या की भूमिका को उन्होंने बखूबी निभाया। प्रेमी की मांग से डॉ. विद्या का मुकरना और फिर से हुई मुलाकात पर बिफरना एक लेखक-निर्देशक की आजाद

फिल्‍म समीक्षा : 7 खून माफ

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-अजय ब्रह्मात्‍मज विशाल भारद्घाज की हर फिल्म में एक अंधेरा रहता है, यह अंधेरा कभी मन को तो कभी समाज का तो कभी रिश्तों का होता है। 7 खून माफ में उसके मन के स्याहकोतों में दबी ख्वाहिशें और प्रतिकार है। वह अपने हर पति में संपूर्णता चाहती है। प्रेम, समर्पण और बराबरी का भाव चाहती है। वह नहीं मिलता तो अपने बचपन की आदत के मुताबिक वह राह नहीं बदलती, कुत्ते का भेजा उड़ा देती है। वह एक-एक कर अपने पतियों से निजात पाती है। फिल्म के आखिरी दृश्यों में वह अरूण से कहती है कि हर बीवी अपनी शादीशुदा जिंदगी में कभी-न-कभी आपने शौहर से छुटकारा चाहती है। विशाल भारद्घाज की 7 खून माफ थोड़े अलग तरीके से उस औरत की कहानी कह जाती है, जो पुरूष प्रधान समाज में वंचनाओं की शिकार है। सुजैन एक सामान्य लड़की है। सबसे पहले उसकी शादी मेजर एडविन से होती है। लंग्ड़ा और नपुंसक एडविन सुजैन पर शक करता है। उसकी स्वछंदता पर पाबंदी लगाते हुए सख्त स्वर में कहता है कि तितली बनन े की कोशिश मत करो। सुजैन उसकी हत्या कर देती है, इसी प्रकार जिम्मी, मोहम्मद, कीमत, निकोलाई और मधूसूदन एक-एक कर उसकी जिंदगी में आते हैं। इन स

राजकपूर के जीवन और फिल्मों की अंतरंग झलक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों पर हिंदी में अपर्याप्त लेखन हुआ है। प्रकाशकों की उदासीनता से लेखक निष्क्रिय हैं। चंद लेखक अपना महात्वाकांक्षी लेखन समुचित पारिश्रमिक नहीं मिलने की वजह से दरकिनार कर देते हैं। जयप्रकाश चौकसे पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों पर नियमित लेखन कर रहे हैं। दैनिक भास्कर में पर्दे के पीछे नाम से उनका पॉपुलर स्तंभ काफी पढ़ा जाता है। गौर करें तो हिंदी फिल्मों में मुख्य रूप से तीन तरह का लेखन होता है। पहली श्रेणी में सिद्धांतकार लेखक आते हैं। वे देश-विदेश में प्रचलित तकनीकी सिनेमाई सिद्धांतों की अव्यावहारिक खोज करते हैं। दूसरे प्रकार के लेखक फिल्मों का मूल्यांकन साहित्यिक मानदंडों के आधार पर करते हैं। दुर्भाग्य से चंद साहित्यकार इस श्रेणी में चर्चित हैं। वे अजीब किस्म की भावगत आलोचना और विश्लेषण से सिनेमा से सम्यक आकलन नहीं कर पाते। तीसरी श्रेणी जयप्रकाश चौकसे जैसे लेखकों की है, जो हिंदी सिनेमा की वास्तविक समझ रखते हैं और व्यावहारिक लेखन करते हैं। अगर आप जयप्रकाश चौकसे को नियमित पढ़ते हों तो उनकी सादगी और स्पष्टता के कायल होंगे। चौकसे के पास संस्मरणों का खजाना है। अप