फिल्म समीक्षा : शांघाई
जघन्य राजनीति का खुलासा -अजय ब्रह्मात्मज शांघाई दिबाकर बनर्जी की चौथी फिल्म है। खोसला का घोसला, ओय लकी लकी ओय और लव सेक्स धोखा के बाद अपनी चौथी फिल्म शांघाई में दिबाकर बनर्जी ने अपना वितान बड़ा कर दिया है। यह अभी तक की उनकी सबसे ज्यादा मुखर, सामाजिक और राजनैतिक फिल्म है। 21वीं सदी में आई युवा निर्देशकों की नई पीढ़ी में दिबाकर बनर्जी अपनी राजनीतिक सोच और सामाजिक प्रखरता की वजह से विशिष्ट फिल्मकार हैं। शांघाई में उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि मौजूद टैलेंट, रिसोर्सेज और प्रचलित ढांचे में रहते हुए भी उत्तेजक संवेदना की पक्षधरता से परिपूर्ण वैचारिक फिल्म बनाई जा सकती हैं। शांघाई अत्यंत सरल और सहज तरीके से राजनीति की पेंचीदगी को खोल देती है। सत्ताधारी और सत्ता के इच्छुक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की राजनीतिक लिप्सा में सामान्य नागरिकों और विरोधियों को कुचलना सामान्य बात है। इस घिनौनी साजिश में नौकशाही और पुलिस महकमा भी चाहे-अनचाहे शामिल हो जाता है। दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने ग्रीक के उपन्यासकार वसिलिस वसिलिलोस के उपन्यास जी का वर्तमान भारतीय संदर्भ में रूपांत