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फ़िल्म समीक्षा:देव डी

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आत्मलिप्त युवक की पतनगाथा -अजय ब्रह्मात्मज घिसे-पिटे फार्मूले और रंग-ढंग में एक जैसी लगने वाली हिंदी फिल्मों से उकता चुके दर्शकों को देव डी राहत दे सकती है। हिंदी फिल्मों में शिल्प और सजावट में आ चुके बदलाव का सबूत है देव डी। यह फिल्म आनंद और रसास्वादन की पारंपरिक प्रक्रिया को झकझोरती है। कुछ छवियां, दृश्य, बंध और चरित्रों की प्रतिक्रियाएं चौंका भी सकती हैं। अनुराग कश्यप ने बहाना शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के देवदास का लिया है, लेकिन उनकी फिल्म के किरदार आज के हैं। हम ऐसे किरदारों से अपरिचित नहीं हैं, लेकिन दिखावटी समाज में सतह से एक परत नीचे जी रहे इन किरदारों के बारे में हम बातें नहीं करते। चूंकि ये आदर्श नहीं हो सकते, इसलिए हम इनकी चर्चा नहीं करते। अनुराग कश्यप की फिल्म में देव, पारो, चंदा और चुन्नी के रूप में वे हमें दिखते हैं। देव डी का ढांचा देवदास का ही है। बचपन की दोस्ती बड़े होने पर प्रेम में बदलती है। एक गलतफहमी से देव और पारो के रास्ते अलग होते हैं। अहंकारी और आत्मकेंद्रित देव बर्दाश्त नहीं कर पाता कि पारो उसे यों अपने जीवन से धकेल देगी। देव शराब, नशा, ड्रग्स, सेक्स वर्कर और दला