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फिल्‍म समीक्षा : फ्रीकी अली

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स्‍ट्रीट स्‍मार्ट -अजय ब्रह्मात्‍मज सोहेल खान की ‘ फ्रीकी अली ’ के नायक अली और एक्‍टर नवाजुद्दीन सिद्दीकी की कहानी और चरित्र में समानता है। फिलम का नायक हुनरमंद है। वह छह गेंद पर छह छक्‍के लगा सकता है तो गोल्‍फ में भी बॉल को होल में डाल सकता है। थोड़ी सी ट्रेनिंग के बाद वह गोल्‍फ के चैंपियन के मुकाबले में खड़ा हो जाता है। एक्‍टन नवाजुद्दीन सिद्दीकी हुनरमंद हैं। वे इस फिल्‍म में बतौर हीरो अपने समकालीनों के साथ खड़े हो गए हैं। नवाज ने पहले भी फिल्‍मों में लीड रोल किए हैं,लेकिन वे फिल्‍में मेनस्‍ट्रीम मसाला फिल्‍में नहीं थीं। मेनस्‍ट्रीम की फिल्‍मों में छोटी-मोटी भूमिकाओं से उन्‍होंने पॉपुलर पहचान बना ली है। दर्शक उन्‍हें पसंद करने लगे हैं। लेखक व निर्देश सोहेल खान ने उनकी इस पॉपुलैरिटी का इस्‍तेमाल किया है। उन्‍हें लीड रोल दिया है और साथ में अपने भार्अ अरबाज खान को सपोर्टिंग रोल दिया है। ‘ फ्रीकी अली ’ पर अलग से बात की जाए तो यह नवाजुद्दी सिद्दीकी की भी जीत की कहानी है। स्क्रिप्‍ट की सीमाओं के बावजूद नवाज अपनी प्रतिभा से फिल्‍म को रोचक बनाते हैं। उनकी संवाद अदायगी औ

फिल्‍म समीक्षा : धनक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज नागेश कुकुनूर की ‘ धनक ’ छोटू और परी भाई-बहन की कहानी है। वे अपने चाचा-चाची के साथ रहते हैं। चाचा बीमार और निकम्‍मे हें। चाची उन्‍हें बिल्‍कुल पसंद नहीं करती। उनके जीवन में अनेक दिक्‍कतें हैं। भाई-बहन को फिल्‍मों का शौक है। उनके अपने पसंदीदा कलाकार भी है। बहन शाह रुख खान की दीवानी है तो भाई सलमान खान को पसंद करता है। अपने हिसाब से वे पसंदीदा स्‍टारों की तारीफें करते हें। और उनसे उम्‍मीदें भी पालते हैं। भाई की आंखें चली गई हैं। बहन की कोशिश है कि भाई की आंखों में रोशनी लौटे। पिता के साथ एक फिल्‍म देखने के दौरान बहन को तमाम फिल्‍मी पोस्‍टरों के बीच एक पोस्‍टर दिखता है। उस पोस्‍टर में शाह रुख खान ने नेत्रदान की अपील की है। यह पोस्‍टर ही परी का भरोसा बन जाता है। घर की झंझटों के बीच परी और छोटू का उत्‍साह कभी कम नहीं होता। उनका आधा समय तो सलमान और शाह रुख में कौन अच्‍छा के झगड़े में ही निकल जाता है। छोटू जिंदादिल और प्रखर लड़का है। उसे किसी प्रकार की झेंप नहीं होती। हमेशा दिल की बात कह देता है। सच बता देता है। परी और छोटू को पता चलता है कि जैसलमेर में शा

फिल्‍म समीक्षा : उड़ता पंजाब

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-अजय ब्रह्मात्‍मज (हिंदी फिल्‍म के रूप में प्रमाणित हुई ‘ उड़ता पंजाब ’ की मुख्‍य भाषा पंजाबी है। एक किरदार की भाषा भोजपुरी है। बाकी संवादों और संभाषणों में पंजाबी का असर है।) विवादित फिल्‍मों के साथ एक समस्‍या जुड़ जाती है। आम दर्शक भी इसे देखते समय उन विवादित पहलुओं पर गौर करता है। फिल्‍म में उनके आने का इंतजार करता है। ऐसे में फिल्‍म का मर्म छूट जाता है। ‘ उड़ता पंजाब ’ और सीबीएफसी के बीच चले विवाद में पंजाब,गालियां,ड्रग्‍स और अश्‍लीलता का इतना उल्‍लेख हुआ है कि पर्दे पर उन दृश्‍यों को देखते और सुनते समय दर्शक भी जज बन जाता है और विवादों पर अपनी राय कायम करता है। फिल्‍म के रसास्‍वादन में इससे फर्क पड़ता है। ‘ उड़ता पंजाब ’ के साथ यह समस्‍या बनी रहेगी। ‘ उड़ता पंजाब ’ मुद्दों से सीधे टकराती और उन्‍हें सामयिक परिप्रेक्ष्‍य में रखती है। फिल्‍म की शुरूआत में ही पाकिस्‍तानी सीमा से किसी खिलाड़ी के हाथों से फेंका गया डिस्‍कनुमा पैकेट जब भारत में जमीन पर गिरने से पहले पर्दे पर रुकता है और उस पर फिल्‍म का टायटल उभरता है तो हम एकबारगी पंजाब पहुंच जाते हैं। फिल्‍म के टाय

फिल्‍म समीक्षा : दो लफ्जों की कहानी

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बासी और घिसी-पिटी -अजय ब्रह्मात्‍मज छल,प्रपंच,प्रेम,पश्‍चाताप,त्‍याग और समर्पण की ‘ दो लफ्जों की कहानी ’ सूरज और जेनी की प्रेमकहानी है। अनाथ सूरज मलेशिया के क्‍वालालमपुर श्‍हर में बड़ा होकर स्‍टॉर्म बॉक्‍सर के तौर पर मशहूर होता है। उसके मुकाबले में कोई दूसरा अखाड़े में खड़ा नहीं हो सकता। एक मुकाबले के समय धोखे से उसे कोई हारने के लिए राजी कर लेता है। वह हार भी जाता है,लेकिन यहां से उसके करिअर और जिंदगी में तब्‍दीली आ जाती है। सच की जानकारी मिलने पर वह आक्रामक और आहत होता है। उससे कुछ गलतियां होती हैं और वह पश्‍चाताप की अग्नि में सुलगता रहता है। संयोग से उसकी जिंदगी में जेनी आती है। वह एक दुर्घटना से दृष्टि बाधित है। सूरज को वह अच्‍छी लगती है। दोनों करीब आते हैं और अपनी गृहस्‍थी शुरू करते हैं। बाद में पता चलता है कि जिस दुर्घटना में जेनी की आंखों की रोशनी गई थी,वह सूरज की वजह से हुई थी। फिल्‍म की कहानी छह महीने पहले से शुरू होकर छह महीने बाद तक चलती है। इस एक साल की कहानी में ही इतनी घटनाएं होती हैं कि उनके बीच संबंध बिठाने-पिरोने में धागे छूटने लगते हैं। पंद्रह-बीस

फिल्‍म समीक्षा : हाउसफुल 3

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फूहड़ और ऊलजुलूल      -अजय ब्रह्मात्‍मज साजिद नाडियाडवाला हाउसफुल सीरिज के निर्माता हैं। 2010 में ‘ हाउसफुल ’ और 2012 में ‘ हाउसफुल 2 ’ के बाद उन्‍होंने 2016 में ‘ हाउसफुल 3 ’ का निर्माण किया है। इस बार उन्‍होंने डायरेक्‍टर बदल दिया है। साजिद खान की जगह अब साजिद-फरहाद आ गए हैं। एक से भले दो...दो दिमागों ने मिलकर ‘ हाउसफुल 3 ’ का लेखन और निर्देशन किया है। तय कर पाना मुश्किल है कि यह पहली दोनों से किस मायने में कमतर या बेहतर है। मन में यह भी सवाल उठ सकता है कि साजिद खान कैसे साजिद-फरहाद से अच्‍छे या बुरे हैं कि साजिद नाडियाडवाला ने उन पर भरोसा किया। बता दें कि ‘ हाउसफुल 3 ’ के क्रिएटिव डायरेक्‍टर स्‍वयं साजिद नाडियाडवाला हैं। फिल्‍म की कहानी...माफ करें कहानी बताने के नाम पर घटनाएं लिखनी होंगी,जिनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है और उनके होने के पीछे कोई तर्क भी नहीं है। साजिद-फरहाद इस कला में माहिर हैं। उन्‍होंने ‘ इट्स एंटरटेनमेंट ’ के बाद फिर से साबित किया है कि उन्‍हें ह्वाट्स ऐप लतीफों को सीन बनाने आता है। शुक्रिया कपिल शर्मा और उन जैसे कॉमेडी के टीवी होस्‍ट

फिल्‍म समीक्षा : तमाशा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रेम और जिंदगी की नई तकरीर     इम्तियाज अली ने रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण जैसे दो समर्थ कलाकारों के सहारे प्रेम और अस्मिता के मूर्त-अमूर्त भाव को अभिव्‍यक्ति दी है। सीधी-सपाट कहानी और फिल्‍मों के इस दौर में उन्‍होंने जोखिम भरा काम किया है। उन्‍होंने दो पॉपुलर कलाकारों के जरिए एक अपारंपरिक पटकथा और असामान्‍य चरित्रों को पेश किया है। हिंदी फिल्‍मों का आम दर्शक ऐसी फिल्‍मों में असहज हो जाता है। फिल्‍म देखने के सालों के मनोरंजक अनुभव और रसास्‍वादन की एकरसता में जब भी फेरबदल होती है तो दर्शक विचलित होते हैं। जिंदगी रुटीन पर चलती रहे और रुटीन फिल्‍मों से रुटीन मनोरंजन मिलता रहे। आम दर्शक यही चाहते हैं। इम्तियाज अली इस बार अपनी लकीर बदल दी है। उन्‍होंने चेहरे पर नकाब चढ़ाए अदृश्‍य मंजिलों की ओर भागते नौजवानों को लंघी मार दी है। उन्‍हें यह सोचने पर विवश किया है कि क्‍यों हम सभी खुद पर गिरह लगा कर स्‍वयं को भूल बैठे हैं ?     वेद और तारा वर्तमान पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। परिवार और समाज ने उन्‍हें एक राह दिखाई है। उस राह पर चलने में ही उनकी कामयाबी मानी जाती है1 जिंद

फिल्‍म समीक्षा : तितली

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रियल सिनेमा में रियल लोग -अजय ब्रह्मात्‍मज पहले ही बता दूं कि ‘ तितली ’ देखते हुए मितली आ सकती है।      नियमित तौर पर आ रही हिंदी फिल्‍मों ने हमें रंग,खूबसूरती,सुदर लोकेशन,आकर्षक चेहरों और सुगम कहानी का ऐसा आदी बना दिया है कि अगर पर्दे पर यथार्थ की झलक भी दिखे तो सहज प्रतिक्रिया होती है कि ये क्‍या है ? सचमुच सिनेमा का मतलब मनोरंजन से अधिक सुकून और उत्‍तेजना हो गया है। अगर कोई फिल्‍म हमें अपने आसपास की सच्‍चाइयां दिखा कर झकझोर देती हैं तो हम असहज हो जाते हैं। ‘ तितली ’ कोई रासहत नहीं देती। पूरी फिल्‍म में सांसत बनी रहती है कि विक्रम,बावला और तितली अपनी स्थितियों से उबर क्‍यों नहीं जाते ?           जिंदगी इतनी कठोर है कि जीने की ललक में आदमी घिनौना भी होता चला जाता है। तीनों भाइयों की जिंदगी से अधिक नारकीय क्‍या हो सकता है ? अपने स्‍वर्थ के लिए किसी का खून बहा देना उनके लिए साधारण सी बात है। जिंदगी की जरूरतों ने उन्‍हें नीच हरकतों के लिए मजबूर कर दिया है। पाने की कोशिश में जिंदगी उनके हाथ से फिसलती जाती है। वे इस कदर नीच हैं कि हमें उनसे अधिक सहानुभूति भी नहीं होती। अपनी

फिल्‍म समीक्षा # जज्‍़बा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज       संजय गुप्‍ता की ‘ जज्‍बा ’ दक्षिण कोरियाई फिल्‍म ‘ सेवन डेज ’ की अधिकृत रीमेक है। दक्षिण कोरिया में यह फिल्‍म आठ साल पहले रिलीज हुई थी। संजय गुप्‍ता अपनी अनधिकृत रीमेक के लिए बदनाम रहे हैं,इस बार उन्‍होंने अधिकार लेकर हिंदी फिल्‍म बनाई है। उनकी फिल्‍मों में एक्‍शन के साथ जांबाज मर्दों की खास मौजूदगी रहती है। यहां भी एक मर्द है योहान,लेकिन इस बार एक्‍शन के साथ फिल्‍म के सेंटर में है एक महिला। अनुराधा वर्मा पेशे से वकील हैं। वह कोई भी केस नहीं हारतीं। अपनी वकालत में व्‍यस्‍त होने के साथ ही वह मां भी हैं। वह मां के सारे दायित्‍व निभाती हैं। आम फिल्‍मों की तरह निर्देशक ने यह नहीं दिखाया है कि कामकाजी महिला होने की वजह से वह पारिवारिक जिम्‍मेदारियों के प्रति लापरवाह हैं।       अनुराधा वर्मा और योहान की भूमिका निभा रहे ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन और इरफान की अनोखी जोड़ी हैरान करती है। भारतीय दर्शक दोनों ही एक्‍टर की पृष्‍ठभूमि जानते हैं और उनके करिअर ग्राफ से परिचित रहे हैं। इस फिल्‍म में दोनों का साथ बेमेल तो नहीं है,लेकिन दोनों की सार्वजनिक छवि फिल्‍म के संयुक्

फिल्‍म समीक्षा : सिंह इज ब्लिंग

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चमकदार हंसी -अजय ब्रह्मात्‍मज     प्रभुदेवा निर्देशित ‘ सिंह इज ब्लिंग ’ का नायक रफ्तार सिंह इतना सरल और बुद्धू है कि उसकी सामान्‍य हरकतों पर भी हंसी आती है। काम को अधूरा छोड़ना या काम पूरा करने में गलतियां करना उसकी आदत है। परिवार में सबसे छोटा और मां का दुलारा रफ्तार सिंह उम्र बढ़ने के बावजूद बड़ा नहीं हो पाया है। उके व्‍यवहार और प्रतिक्रियाओं में बचपना है। अपनी इस मासूमियत की वजह से ही वह प्‍यारा भी लगता है। अपने भोलेपन में ही वह साहसी और ताकतवर भी है। वह सरदार है। सवा लाख से एक लड़ाऊं जैसी उक्ति पर अमल करता है। मूल्‍यों और पगड़ी की बात आने पर वह किसी से भी भड़ सकता है।     ‘ सिह इज ब्लिंग ’ पूरी तरह से अक्षय कुमार की फिल्‍म है। निर्देशक प्रभुदेवा ने उनकी कॉमिक टाइमिंग और मसखरे अंदाज को अच्‍छी तरह पेश किया है। फिल्‍म में जब तक असंगत और अतार्किक दूश्‍य चलते हैं,जब तक फिल्‍म रोचक लगती है। फिल्‍म इमोशनल और तार्किक होने की कोशिश में विफल हो जाती है। ‘ सिंह इज ब्लिंग ’ में नायिका एमी जैक्‍सन को भरपूर एक्‍शन दृश्‍य मिले हैं। वह उन द,श्‍यों में फबती भी हैं। अक्षय कुमार की कॉ

फिल्‍म समीक्षा : तलवार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     नोएडा के मशहूर डबल मर्डर केस पर आधारित एक फिल्‍म ‘ रहस्‍य ’ पहले आ चुकी है। दूसरी फिल्‍म का लेखन विशाल भारद्वाज ने किया है और इसका निर्देशन मेघना गुलजार ने किया है। पिछली फिल्‍म में हत्‍या के एक ही पक्ष का चित्रण था। विशाल और मेघना ने सभी संभावित कोणों से दोनों हत्‍याओं का देखने और समझने की कोशिश की है। फिल्‍म का उद्देश्‍य हत्‍या के रहस्‍य को सुलझाना नहीं है। लेखक-निर्देशक ने बहुचर्चित हत्‍याकांड को संवेदनशील तरीके से पेश किया है। यह हत्‍याकांड मीडिया,चांच प्रक्रिया और न्‍याय प्रणाली की खामियों से ऐसी उलझ चुकी है कि एक कोण सही लगता है,लेकिन जैसे ही दूसरा कोण सामने आता है वह सही लगने लगता है।       फिल्‍म सच्‍चीर घटनाओं का हूबहू चित्रण नहीं है। घटनाएं सच्‍ची हैं,लेखक और निर्देशक ने उसे अपने ढंग से गढ़ा है। उन्‍होंने पूरी कोशिश की है कि वे मल घटनाओं के आसपास रहें। बस,हर बार परिप्रेक्ष्‍य बदल जाता है। मूल घटनाओं से जुड़ा रहस्‍य फिल्‍म में बना रहता है। निर्देशक ने उन्‍हें मूल परिवेश के करीब रखा है। परिवेश,भाषा और मनोदशा में फिल्‍मी नाटकीयता नहीं जोड़ी गई है

फिल्‍म समीक्षा : कैलेंडर गर्ल्‍स

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज मधुर भंडारकर की 'पेज 3’, 'फैशन’ और 'हीरोइन’ की कहानियां एक डब्बे में डाल कर जोर से हिलाएं और उसे कागज पर पलट दें तो दृश्यों और चरित्र के हेर-फेर से 'कैलेंडर गर्ल्स’ की कहानी निकल आएगी। मधुर भंडारकर की फिल्मों में ग्लैमर की चकाचौंध के पीछे के अंधेरे के मुरीद रहे दर्शकों को नए की उम्मीद में निराशा होगी। हां, अगर मधुर की शैली दिलचस्प लगती है और फिर से वैसे ही प्रसंगों को देखने में रूचि है तो 'कैलेंडर गर्ल्स’ भी रोचक होगी। कैलेंडर गर्ल्स मधुर भंडारकर ने हैदराबाद, कोलकाता, रोहतक, पाकिस्तान और गोवा की पांच लड़कियां नंदिता मेनन, परोमा घोष, मयूरी चौहान, नाजनीन मलिक और शैरॉन पिंटो को चुना है। वे उनके कैलेंडर गर्ल्स’ बनने की कहानी बताते हैं। साथ ही ग्लैमर वर्ल्ड में आ जाने के बाद की जिंदगी की दास्तान भी सुनाते हैं। उनकी इस दास्तान को फिल्म के गीत 'ख्वाहिशों में...’ गीतकार कुमार ने भावपूर्ण तरीके से व्यक्त किया है। यह गीत ही फिल्म का सार है- 'कहां ले आई ख्वाहिशें, दर्द की जो ये बारिशें, है गलती दिल की या फिर

फिल्‍म समीक्षा : हीरो

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पैकेजिंग और शोकेसिंग नए स्‍टारों की हीरो     1983 में सुभाष घई की फिल्‍म ‘ हीरो ’ आई थी। सिंपल सी कहानी थी। एक गुंडा टाइप लड़का पुलिस कमिश्‍नर की बेटी को अगवा करता है। लड़की की निर्भीकता और खूबसूरती उसे भती है। वह उससे प्रेम करने लगता है। लड़की के प्रभाव में वह सुधरने का प्रयास करता है। कुछ गाने गाता है। थोड़ी-बहुत लड़ाई होती है और अंत में सब ठीक हो जाता है। जैकी हीरो बन जाता है। उसे राधा मिल जाती है। ‘ था ’ और ‘ है ’ मैं फर्क आ जाता है। 2015 की फिल्‍म में 32 सालों के बाद भी कहानी ज्‍यादा नहीं बदली है। यहां सूरज है,जो राधा का अपहरण करता है। और फिर उसके प्रभाव में बदल जाता है। पहली फिल्‍म का हीरो जैकी था। दूसरी फिल्‍म का हीरो सूरज है। दोनों नाम फिल्‍म के एक्‍टर के नाम पर ही रखे गए हैं1 हिरोइन नहीं बदली है। वह तब भी राधा थी। वह आज भी राधा है। हां,तब मीनाक्षी शेषाद्रि राधा थीं। इस बार आथिया शेट्टी राधा बनी हैं।     तात्‍पर्य यह कि 32 सालों के बाद भी अगर कोई फिल्‍मी कहानी प्रासंगिक हो सकती है तो हम समझ सकते हैं कि निर्माता,निर्देशक और उनसे भी

फिल्‍म समीक्षा : दिल धड़कने दो

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स्‍टार ***1/2 साढ़े तीन स्‍टार  दरकते दिलों की दास्‍तान   -अजय ब्रह्मात्‍मज                  हाल ही में हमने आनंद राय की 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' में उत्तर भारत के मध्यरवर्गीय समाज और किरदारों की कहानी देखी। जोया अख्तरर की 'दिल धड़कने दो' में दिल्ली के अमीर परिवार की कहानी है। भारत में अनेक वर्ग और समाज हैं। अच्छी बात है कि सभी समाजों की मार्मिक कहानियां आ रही हैं। अगर कहानी आम दर्शकों के आर्थिक स्तर से ऊपर के समाज की हो तो तो उसमें अधिक रुचि बनती है, क्योंकि उनके साथ अभिलाषा और लालसा भी जुड़ जाती है। कमल मेहरा के परिवार में उनकी बेटी आएशा, बेटा कबीर, बीवी नीलम और पालतू कुत्ता प्लूटो है।                  यह कहानी प्लूटो ही सुनाता है। वही सभी किरदारों से हमें मिलाता है। प्लूटो ही उनके बीच के रिश्तों की गर्माहट और तनाव की जानकारी देता है। आएशा के दोस्ते सन्नी गिल ने ही कभी प्लूाटो को गिफ्ट किया था, जो उनके प्यार की निशानी के साथ ही परिवार का सदस्य बन चुका है।                कमल और नीलम की शादी के 30 साल हो गए हैं। कमल मेहरा बाजार में गिर रही अपनी साख को बचाने

फिल्‍म समीक्षा : जय हो डेमोक्रेसी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज स्टार: 1.5  ओम पुरी, सतीश कौशिक, अन्नू कपूर, सीमा बिस्वास, आदिल हुसैन और आमिर बशीर जैसे नामचीन कलाकार जब रंजीत कपूर के निर्देशन में काम कर रहे हों तो 'जय हो डेमोक्रेसी' देखने की सहज इच्छा होगी। सिर्फ नामों पर गए तो धोखा होगा। 'जय हो डेमोक्रेसी' साधारण फिल्म है। हालांकि राजनीतिक व्यंग्य के तौर पर इसे पेश करने की कोशिश की गई है, लेकिन फिल्म का लेखन संतोषजनक नहीं है। यही कारण है कि पटकथा ढीली है। उसमें जबरन चुटीले संवाद चिपकाए गए हैं। फिल्म का सिनेमाई अनुभव आधा-अधूरा ही रहता है। अफसोस होता है कि एनएसडी के प्रशिक्षित कलाकार मिल कर क्यों ऐसी फिल्में करते हैं? यह प्रतिभाओं का दुरूपयोग है।  सीमा के आरपार भारत और पाकिस्तान की फौजें तैनात हैं। दोनों देशों के नेताओं की सोच और सरकारी रणनीतियों से अलग सीमा पर तैनात दोनों देशों के फौजियों के बीच तनातनी नहीं दिखती। वे चौकस हैं, लेकिन एक-दूसरे से इतने परिचित हैं कि मजाक भी करते हैं। एक दिन सुबह-सुबह एक फौजी की गफलत से गोलीबारी आरंभ हो जाती है। इस बीच नोमैंस लैंड में एक मुर्गी चली आती है। मुर्गी पकडऩे भारत के

फिल्‍म समीक्षा : भोपाल-ए प्रेयर फॉर रेन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  अपने कथ्य और संदर्भ के कारण महत्वपूर्ण 'भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन' संगत और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ भोपाल गैस ट्रैजेडी का चित्रण करती तो प्रासंगिक और जरूरी फिल्म हो जाती। सन् 1984 में हुई भोपाल की गैस ट्रैजेडी पर बनी यह फिल्म 20वीं सदी के जानलेवा हादसे की वजहों और प्रभाव को समेट नहीं पाती। रवि कुमार इसे उस भयानक हादसे की साधारण कहानी बना देते हैं। 'भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन' की कहानी पत्रकार मोटवानी( फिल्म में उनका रोल पत्रकार राजकुमार केसवानी से प्रेशर है) के नजरिए से भी रखी जाती तो पता चलता कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां तीसरी दुनिया के देशों में किस तरह लाभ के कारोबार में जान-माल की चिंता नहीं करतीं। अफसोस की बात है कि उन्हें स्थानीय प्रशासन और सत्तारूढ़ पार्टियों की भी मदद मिलती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिंसक और हत्यारे पहलू को यह फिल्म ढंग से उजागर नहीं करती। निर्देशक ने तत्कालीन स्थितियों की गहराई में जाकर सार्वजनिक हो चुके तथ्यों को भी फिल्म में समाहित नहीं किया है। फिल्म में लगता है कि यूनियन कार्बाइड के आला अधिकारी चिंतित और

फिल्‍म समीक्षा : एक्‍शन जैक्‍सन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  सही कहते हैं। अगर बुरी प्रवृत्ति या आदत पर आरंभ में ही रोक न लगाई जाए तो वह आगे चल कर नासूर बन जाती है। प्रभु देवा ने फिल्म 'वांटेड' से हिंदी फिल्मों में कदम रखा। तभी टोक देना चाहिए था। वे रीमेक बना रहे हों या कथित ऑरिजिनल कहानी चुन रहे हों। उनकी फिल्में एक निश्चित फॉर्मूले पर ही चलती हैं। उनकी फिल्मों में एक्शन, वायलेंस, डांस, रोमांस... इन चार तत्वों का अनुपात और क्रम बदलता रहता है। कथानक पटकथा और संवाद जैसी चीजें तो भूल ही जाएं। प्रभु देवा शब्दों से ज्यादा दृश्यों में यकीन करते हैं। उनकी फिल्मों में स्क्रिप्ट राइटर से बड़ा योगदान कैमरामैन, साउंड रिकॉर्डिस्ट, कोरियोग्राफर, एक्शन डायरेक्टर और हीरो का होता है। 'एक्शन जैक्सन' में तो उन्होंने दो-दो अजय देवगन रखे हैं। दो हीरोइनें भी हैं - सोनाक्षी सिन्हा और मनस्वी ममगई। दोनों का काम या तो हीरो पर रीझना है या फिर खीझना है। 'एक्शन जैक्सन' जैसी फिल्में देखते समय अजय देवगन सरीखे कद्दावर और लोकप्रिय अभिनेता की बेचारगी का एहसास होता है। 'जख्म', 'तक्षक', 'अपहर

फिल्‍म समीक्षा : यंगिस्‍तान

नई सोच की प्रेम कहानी -अजय ब्रह्मात्मज     निर्माता वासु भगनानी और निर्देशक सैयद अफजल अहमद की ‘यंगिस्तान’ राजनीति और चुनाव के महीनों में राजनीतिक पृष्ठभूमि की फिल्म पेश की है। है यह भी एक प्रेम कहानी, लेकिन इसका राजनीतिक और संदर्भ सरकारी प्रोटोकोल है। जब सामान्य नागरिक सरकारी प्रपंचों और औपचारिकताओं में फंसता है तो उसकी अपनी साधारण जिंदगी भी असामान्य हो जाती है।     देश के प्रधानमंत्री का बेटा अभिमन्यु कौल सुदूर जापान की राजधानी टोकियो में आईटी का तेज प्रोफेशनल है। वहां वह अपनी प्रेमिका के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहता है। वह पूरी मस्ती के साथ जी रहा है। एक सुबह अचानक उसे पता चलता है कि उसके पिता मृत्युशय्या पर हैं। अंतिम समय में वह पिता के करीब तो पहुंच जाता है, लेकिन अगले ही दिन उसे एक बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। पार्टी की तरफ से उसे पिता का पद संभालना पड़ता है। इस कार्यभार के साथ ही उसकी जिंदगी बदल जाती है। उसे नेताओं, अधिकारियों और जिम्मेदारियों के बीच रहना पड़ता है। वह अपनी सहचर प्रेमिका के साथ पहले की तरह मुक्त जीवन नहीं जी पाता।     जिम्मेदारी मिलने पर अभिमन्यु कौल स्थिति