हमने भी ‘हैदर’ देखी है - मृत्युंजय प्रभाकर
-मृत्युंजय प्रभाकर बचपन से मुझे एक स्वप्न परेशान करता रहा है. मैं कहीं जा रहा हूँ और अचानक से मेरे पीछे कोई भूत पड़ जाता है. मैं जान बचाने के लिए बदहवास होकर भागता हूँ. जाने कितने पहाड़-नदियाँ-जंगल लांघता दौड़ता-भागता एक दलदल में गिर जाता हूँ. उससे निकलने के लिए बेतरह हाथ-पाँव मारता हूँ. उससे निकलने की जितनी कोशिश करता हूँ उतना ही उस दलदल में धंसता जाता हूँ. भूत मेरे पीछे दौड़ता हुआ आ रहा है. मैं बचने की आखिर कोशिश करता हूँ पर वह मुझ पर झपट्टा मारता है और तभी मेरी आँखें खुल जाती हैं. आँखें खुलने पर एक बंद कमरा है. घुटती हुई सांसें हैं. पसीने से भीगा बदन है. अपनी बेकसी है. भाग न पाने की पीड़ा है. पकड़ लिए जाने का डर है. उससे निकल जाने की तड़प है. एक अजब सी बेचारगी है. फिर भी बच निकलने का संतोष है. जिंदा बच जाने का सुखद एहसास है जबकि जानता हूँ यह मात्र एक स्वप्न है. ‘हैदर’ फिल्म में वह बच्चा जब लाशों से भरे ट्रक में आँखें खोलता है और ट्रक से कूदकर अपने जिंदा होने का जश्न मनाता है तब मैं अपने बचपन के उस डरावने सपने को एक बार फिर जीता हूँ. उसके जिंदा निकल आने पर वैसे