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शालीन हास्‍य के अभिनेता देवेन वर्मा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज 149 फिल्‍मों में काम कर चुके देवेन वर्मा का आज पूना में निधन हो गया। वे 78 साल के थे। 1961 से 2003 तक हिंदी फिल्‍मों में काम करने के बाद उन्‍होंने अभिनय से संन्‍यास ले लिया था। वक्‍त के साथ हिंदी फिल्‍मों में आए बदलाव के साथ वे तालमेल नहीं बिठा सके थे। उन्‍होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि जब कोई असिस्‍टैंट डायरेक्‍टर सिगरेट झाड़ते हुए शॉट के लिए बुलाने आती है तो अच्‍छा नहीं लगता। हमारे समय में कलाकारों की इज्‍जत थी। उम्र बढ़ने के साथ नई किस्म की फिल्‍मों में रोल मिलने भी कम हो गए थे। ऐसी स्थिति में देवेन वर्मा ने विश्राम करना ही उचित समझा। फिल्‍मों से उनका नाता टूट नहीं सकता था। वे पूना में दोस्‍तों के निजी थिएटर में फिल्‍में देखा करते थे। उन्‍हें ‘ विकी डोनर ’ बहुत अच्‍छी लगी थी। नए कलाकारों में उन्‍हें रणबीर कपूर सबसे ज्‍यादा पसंद थे।       देवेन वर्मा कच्‍छ के रहने वाले थेत्र उनके पिता बलदेव सिंह वर्मा का चांदी का कारोबार था। बड़ी बहन की पढ़ाई के लिए उनके माता-पिता पूना शिफ्ट कर गए थे। देवेन वर्मा को मिमिक्री का शौक था। पढ़ाई के सिलसिले में मुंबई आने के ब

श्रद्धांजलि : सितारा देवी

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बोटी-बोटी थिरकती थी सितारा देवी की -अजय ब्रह्मात्मज सितारा देवी नहीं रहीं। 72 साल की भरपूर जिंदगी जीने के बाद वह चिरनिद्रा में सो गईं। अपने उत्साह,जोश,ऊर्जा और नृत्य की वजह से वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सभी की चहेती रहीं। उन्होंने अपनी शर्तों पर जिंदगी जी और नृत्य के लिए समर्पित रहीं। बनारस के सुखदेव महाराज की बेटी सितारा देवी ने बचपन से ही कथक का अभ्यास किया। तत्कालीन बनारस में उनके घर से आती घुंघरुओं की आवाज पर पड़ोसियों ने आपत्ति भी की,लेकिन उनके पिता ने किसी की नहीं सुनी। वे कहा करते थे कि अगर राधा ने कृष्ण के लिए नृत्य किया तो उनकी बेटियां क्यों नहीं नृत्य कर सकतीं? उनके पिता ने कथक को धार्मिक परिप्रेक्ष्य दिया। वे उसे कोठों से मंच पर ले आए। सितारा देवी ने बाद में कथक शैली में तांडव और लास्य तक की प्रस्तुति की। पिता के प्रोत्साहन से सितारा देवी ने हमेशा अपने मन की बात सुनी। उन्होंने कभी जमाने की परवाह नहीं की। चूंकि वह दीपावली के दिन पैदा हुई थीं,इसलिए उनका नाम धनलक्ष्मी रखा गया था। प्यार से उन्हें सभी धन्नो कहते थे। बाद में उनके पिता ने ही उन्हें सितारा नाम दिया। गुरू रवींद्र

सुचित्रा सेन : पर्दे पर बखूबी उतारा महिला दर्प

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-अजय ब्रह्मात्मज सुचित्रा सेन को हिंदी फिल्मों के दर्शक आज भी ‘देवदास’ और ‘आंधी’ की वजह से जानते हैं। ‘देवदास’ की पारो और ‘आंधी’ की आरती देवी के चरित्रों को उन्होंने जिस सादगी,गरिमा और आधिकारिक भाव से निभाया,वह समय के साथ पुराना नहीं हो सका है। 1955 में आई ‘देवदास’ की पारो को उस फिल्म की विभिन्न भाषाओं की रीमेक में पारो बनी अभिनेत्रियां पार नहीं कर सकीं। हालांकि फिल्म के हीरो दिलीप कुमार थे और आशंका था कि बंगाल की यह अभिनेत्री उनके सामने परफारमेंस में डगमगा जाएंगी। सुचित्रा सेन ने फिल्म के लेखक राजेन्दर सिंह बेदी और निर्देशक बिमल राय के विजन को बखूबी पर्दे पर उतार कर दमदार बना दिया। सुचित्रा सेन के इस योगदान का अंतर ‘देवदास’ पर बनी सभी फिल्मों को एक साथ देखने पर ठीक से समझा जा सकता है। गुलजार निर्देशित ‘आंधी’ की आरती कपूर के चरित्रांकन में इंदिरा गांधी की छटा देखी गई थी। वास्तव में सुचित्रा सेन के अभिनय ने इस किरदार को चरित्र को आत्मविश्वास और स्वातंत्र्य के साथ दर्प दिया था। आरती कपूर को पति से अलग होने का दुख तो है,लेकिन वह फिर से आज्ञाकारी पत्नी होने के लिए तैयार नहीं है। संजीव

फारुख शेख : जीवन और अभिनय में रही नफासत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज                  उनसे मिलने के बाद आप उनके प्रशंसक हुए बिना नहीं रह सकते थे। शालीन, शिष्ट, अदब, इज्जत और नफासत से भरा उनका बात-व्यवहार हिंदी फिल्मों के आम कलाकारों से उन्हें अलग करता था। उन्हें कभी ओछी, हल्की और निंदनीय बातें करते किसी ने नहीं सुना। विनोदप्रिय, मिलनसार और शेर-ओ-शायरी के शौकीन फारुख शेख ने अपनी संवाद अदायगी का लहजा कभी नहीं छोड़ा। पहली फिल्म 'गर्म हवा' के सिकंदर से लेकर 'क्लब 60' तारीक तक के उनके किरदारों को पलट कर देखें तो एक सहज निरंतरता नजर आती है।                वकील पिता मुस्तफा शेख उन्हें वकील ही बनाना चाहते थे, लेकिन कॉलेज के दिनों में उनकी रुचि थिएटर में बढ़ी। वे मुंबई में सक्रिय इप्टा [इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन] के संपर्क में आए और रंगमंच में सक्रिय हो गए। उनकी इस सक्रियता ने ही निर्देशक एमएस सथ्यू को प्रभावित किया। इप्टा के सहयोग से सीमित बजट में बन रही 'गर्म हवा' में उन्हें सलीम मिर्जा के प्रगतिशील बेटे सिकंदर की भूमिका सौंपी गई। पिछले दिनों एमएस सथ्यू ने 'गर्म हवा' के कलाकारों के स्वाभावि

शमशाद बेगम : खामोश हो गयी खनकती शोख आवाज

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-अजय ब्रह्मात्मज     1932 में सिर्फ 13 साल की उम्र में शमशाद बेगम ने गुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में पंजाबी गीत ‘हथ जोड़ा पंखिया दा’ गाया था। इसके आठ सालों के बाद उन्होंने पंचोली आर्ट फिल्म की ‘यमला जट’ के लिए पहला पाश्र्व गायन किया। यह प्राण की पहली फिल्म थी। प्राण 3 मई को दादा साहेब फालके पुरस्कार से सम्मानित होंगे। पंचोली की फिल्मों में वह नूरजहां के साथ गाने गाती रहीं। उन दिनों लता मंगेशकर ने शमशाद बेगम के साथ कोरस गायन किया और फिर  मशहूर होने के बाद लता मंगेशकर ने उनके साथ अनेक डुएट (दोगाने) गाए। उनके संरक्षक संगीत निर्देशक गुलाम हैदर को शमशाद बेगम की आवाज में झरने की गति और सहजता दिखती थी तो ओ पी नय्यर को उनकी आवाज मंदिर की घंटी से निकली गूंज की तरह लगती थी। शमशाद की आवाज पतली नहीं थी। वह खुले गले से गाती थीं। किशोर उम्र का चुलबुला कंपन से उनके गाए गीतों के शब्द कानों में अठखेलियां करते थे। आजादी के पहले की वह अकेली आवाज थीं,जो लता मंगेशकर की गायकी का साम्राज्य स्थापित होने पर भी स्वायत्त तरीके से श्रोताओं का चित्त बहलाती रहीं। उन्होंने 1972 में ‘बांके लाल’ के लिए आखिरी गीत

राजेश खन्‍ना : जिंदगी पर हावी रहा स्टारडम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  राजेश खन्ना के आने की आहट तो फिल्मफेअर टैलेंट हंट में चुने जाने के साथ ही मिल गई थी, जिसे देश के कुछ दर्शकों ने पहली बार ‘आखिरी खत’ में पहचाना। 1969 में आई ‘आराधना’ से पूरा देश उनका दीवाना हो गया। उसके बाद एक-एक कर उनकी फिल्में गोल्डन जुबली और सुपरहिट होती रहीं। एकाएक हमें देव आनंद, राजेंद्र कुमार और शम्मी कपूर का रोमांस पुराना लगने लगा। तिरछी चाल से पर्दे पर आकर दाएं-बाएं गर्दन झटकते हुए दोनों पलकों को झुकाकर आमंत्रित करती उन आंखों ने दर्शकों पर सीधा जादू किया। देश भर के नौजवान राजेश खन्ना बनने और दिखने को बेताब नजर आए और लड़कियों का तो हसीन ख्वाब बन गए राजेश खन्ना। कहते हैं उनकी सफेद गाड़ी शाम में आशीर्वाद लौटती तो दूर से गुलाबी नजर आती थी। गाड़ी के शीशे, बोनट और डिक्की पर लड़कियों के होंठों की लिपस्टिक उतर आती थी। उनके पहले हिंदी फिल्मों के रूपहले पर्दे पर देव आनंद, राजेंद्र कुमार और शम्मी कपूर की रोमांटिक छवि की धूम थी। तीनों अलग-अलग अंदाज के अभिनेता थे। उन तीनों को पीछे करते हुए राजेश खन्ना अपनी शरारती मुस्कराहट के साथ अवतरित हुए। तब तक हिं

मोना कपूर की मौत

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- अजय ब्रह्मात्मज उस दिन सुबह से ट्विटर पर एक खास ग्रुप के ब्लड की जरूरत को फिल्म बिरादरी से जुड़े सभी लोग रीट्विट कर रहे थे। यह तो समझ में आ गया था कि फिल्म इंडस्ट्री के किसी खास व्यक्ति की तबियत क्रिटिकल हो चुकी है। लगभग 12 बजे मेरी एक दोस्त ने ट्विटर पर दिए गए नंबर पर फोन किया, तो पता चला कि काफी ब्लड डोनेटर मिल गए हैं। अब कोई जरूरत नहीं है। पता चला कि अगले दिन हिंदुजा अस्पताल में उक्त मरीज के लिए ब्लड की जरूरत थी। कुछ मिनट ही बीते होंगे कि ट्विट पर मोना कपूर आरआईपी की सूचना आ गई। मोना कपूर को फिल्म बिरादरी के लोग अच्छी तरह जानते थे और पत्रकार भी। बोनी कपूर की पत्‍‌नी मोना कपूर ने तलाक नहीं लिया था। केवल अमिताभ ब"ान ने अपने ट्विट में उन्हें बोनी कपूर की पत्‍‌नी बताते हुए शोक जाहिर किया था। वे ब्याह कर गए घर में ही अपने सास-श्वसुर, (श्वसुर सुरेंद्र कपूर, जो हाल ही में गुजरे हैं) देवर और पटरानी के साथ रहती रहीं। उन्होंने अपने बेटे अर्जुन और बेटी अंशुला की सिंगल पैरेंट की तरह परवरिश की। वे फ्यूचर स्टूडियो की मालकिन थीं। जिंदादिल और सभी की गतिविधियों में रुचि रखने व