Posts

Showing posts with the label सिने संस्‍कार

DDLJ किसी को आहत नहीं करती

- मृणाल वल्लरी डीडीएलजे की चर्चा पढ़के मन थोड़ा रूमानी हो गया। यकीन नहीं होता कि डीडीएलजे चैदह साल पहले की बात है। वह साल स्कूल में मेरा आखिरी साल था। यानी अगले साल से कॉलेज में जाना था। पटना जैसे शहर में आज से चैदह साल पहले हमें अपनी सहेलियों के साथ सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखने की इजाजत नहीं थी। लेकिन डीडीएलजे देखने की हमारी हसरत लोकल केबल वाले ने पूरी कर दी। मंैने मोहल्ले की सभी दोस्तों के साथ बैठ कर फिल्म देखी। पिक्चर क्वालिटी थोड़ी खराब जरूर थी और संवादों के साथ घर्र-घर्र की आवाज भी आ रही थी। लेकिन ये बात अब समझ में आती है। उस वक्त तो उसी पिक्चर क्वालिटी में राज हमारे दिलों पर राज कर रहा था। कहीं एक लेख में मैंने पढ़ा था कि पायरेसी आपका दोस्त है। सच है, अगर पायरेटेड सीडियां नहीं रहतीं तो...। स्कूल के खाली पीरियड में जिनका गला अच्छा था, वह गाने लग जातीं- मेरे ख्वाबो में जो आए... और हम सभी ब्लैक बोर्ड के पास डांस करना शुरू कर देतीं। हर ग्रुप में चर्चा के केंद्र में थे सिमरन और राज। किसी के साथ कुछ भी हुआ तो डायलॉग निकलता- बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें हो जाया करती हैं। हद तो

DDLJ के जादू का बाकी है असर

-प्रशांत प्रियदर्शी आजकल जिसे देखो वही डीडीएलजे की बातें कर रहा है.. करे भी क्यों ना? आखिर इसने चौदह साल पूरा करने के साथ ही जाने कितने ही लोगों और लगभग दो पीढि़यों को प्यार करना सिखाया होगा.. चलिये सीधे आते हैं अपने अनुभव के ऊपर.. उस समय हमलोग आधा पटना और आधा बिक्रमगंज में रहते थे.. पापा बिक्रमगंज में पदस्थापित थे और हम बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के चलते एक घर हमें पटना में भी लेकर रखना पड़ा था, क्योंकि बिक्रमगंज में " केंद्रीय विद्यालय" नहीं था.. उस समय हमारे घर में सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखने का प्रचलन लगभग ना के बराबर ही था और डीडीएलजे से पहले हमने अंतिम बार किसी सिनेमा हॉल में जाकर सिनेमा कब देखा था यह भी मुझे याद नहीं है.. हमलोग नये-नये जवान होना शुरू हुये थे और इस सिनेमा के आने से घर में हमारी जिद शुरू हो चुकी थी कि इसे देखेंगे तो सिनेमा हॉल में ही.. स्कूल में कई लड़के स्कूल से भागकर यह सिनेमा देखने जाते थे.. जिस दिन उन्हें स्कूल से भागकर सिनेमा देखना होता था उससे एक दिन पहले ही सभी मिलकर प्लानिंग करते थे.. शायद 10 साल बाद आये रौबिन शर्मा के उपन्यास(द मौंक हू सोल्ड हिज फरा

DDLJ हम न थे ‘राज’ और और न वो थी ‘सिमरन’

-विनीत उत्‍पल राष्ट्रीय सहारा में वरिष्ठ उपसंपादक विनीत उत्पल अपने नाम से ब्लॉग का संचालन करते हैं। राजनीति, सामाजिक, संस्कृतिक सहित विभिन्न विषयों पर लगातार लेखन करने वाले विनीत अनुवादक भी हैं। मैथिली और हिंदी में कविता भी लिखते हैं . अब जब फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाए जायेंगे’ की बात उठी है तो जिन्दगी के अतीत के झरोखे से रूबरू होना ही पड़ेगा। वरना इतने फिसले, इतने उठे, गिर-गिरकर उठे कि शाहरूख़ खान की जीभ भी उस कदर पूरी फिल्म में नहीं फिसली होगी। साल था 1995, पर मुंगेर जिले के तारापुर कस्बे में यह फिल्म जब लगी तब 1996 आ चुका था। पोस्टर देखता तिरछी आँखों से, क्योंकि जिस कल्पना सिनेमा हाल में यह फिल्म लगी थी उसके मेन गेट के पास शहर की सबसे बड़ी कपड़े की दुकान ‘जियाजी शूटिंग’ थी, जहां हमेशा कोई न कोई परिचित बैठा रहता। यह वह दौर था जब छोटे शहरों में फिल्म देखना अच्छा नहीं माना जाता। हमारे उम्र का कोई फिल्म देखने जाता तो लोग कहते, ‘वह तो ‘लफुआ’ हो गया है। आखिर और लोगों की तरह काजोल और शाहरूख़ मुझे भी अच्छे लगते। यह वही समय था जब लोगों की जुबान पर छाया था, ‘बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी

DDLJ चौदह साल बाद हॉल में देखनी

- रघुवेन्द्र सिंह दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे हम पहिली बार कब देखनी ? इ याद ना ह , लेकिन एतना पता ह कि जब ए फिलिम के हम पहिली बार देखनी तबसे इ हमार फेवरेट हो गइल। अब तक हम डीडीएलजे के टीवी पर अनगिनत बार देख भयल हंई , लेकिन हमरे मन में हमेसा अपने ए फेवरेट फिलिम के सिनेमा हॉल में न देख पउले क पछतावा अउर दुख रहे। डीडीएलजे जब रिलीज भइल रहे तब हम गांव में रहनीं। शहर में फिलिम देखे जाए क परमिशन हमहन के कब्बो ना मिले। सच कहीं त डीडीएलजे हमरे सहर में कब लगल रहे , हमके पते ना ह। काहें से कि तब हम छोट रहनीं। शुक्र हो , फिलिम रिपोर्टर के नौकरी के , जेकरे वजह से हमके इ फिलिम अब हॉल में देखले के सौभाग्य मिलल , और शुक्र हो मराठा मंदिर हॉल के करता-धरता लोगन के , जे चौदह साल बाद भी अपने इहां इ फिलिम के चलावत हवें। पन्द्रह अक्टूबर दो हजार नौ के दिने ऑफिस से डीडीएलजे पर इस्पेसल इस्टोरी करे क जिम्मा दिहल गइल। हम और हमार सहकर्मी मिलके इ फैसला कइनी जा कि पहिले हॉल में चलके फिलिम देखल जाइ ओकरे बाद इस्टोरी लिखल जाइ। एही बहाने हॉल में डीडीएलजे देखले क हमार पेंडिंग ख्वाहिश भी पूरी हो जाई। मराठा मंदिर म

DDLJ ने लाखों सपने दिए,लेकिन...

-आकांक्षा गर्ग आकांक्षा बंगलुरू में रहती और एक फायनेशियल कंपनी चलाती हैं।छठी कक्षा से कहानी-कविता लिखने का शौक जागा,जो जिंदगी की आपाधापी में मद्धम गति से चत रहा है।समय मिलते ही कुछ लिखती हैं। अभी निवेश के गुर सिखाती हैं और मदद भी करती हैं।आप उनसे iifpl@yahoo.com पर संपर्क कर सकते हैं। १९९५ में जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तब कॉलेज में आये- आये थे । फिल्मो से कुछ एलर्जी सी थी।लगता था टाइम वेस्ट मनी वेस्ट। मेरे फ्रेंड्स ने मेरा नाम रखा हुआ था किताबी कीडा, क्यूंकि लाइब्रेरी में सबसे ज्यादा टाइम गुजारना मेरा पसंदीदा शगल था । कॉलेज की सभी फ्रेंड जैसे इस मूवी के पीछे पागल हो गयी थी . उनका हॉट टोपिक हुआ करता था इस मूवी का डिस्कशन करना । कई बार उन्होंने कहा जाने के लिए लेकिन उन सब के रोज़-रोज़ के डिस्कशन ने इतना ज्यादा बोरियत कर दी तो कभी मूड ही नहीं हुआ । फ्रेंड्स ने नए- नए नाम रखने शुरू कर दिए। किसी ने कहा I am unromantic। किसी किसी ने तो ये भी कहा that I love the four letter word, HATE and I hate the four letter word,LOVE from the deep of my heart । अब मैं क्या करती, सबका अपना -अपना नजरिया

DDLJ:अच्छा है कि 'राज' हमारी यादों में जिंदा एक फिल्म किरदार है

-रश्मि रवीजा डीडीएलजे से जुड़ी मेरी यादें कुछ अलग सी हैं. इनमे वह किशोरावस्था वाला अनुभव नहीं है,क्यूंकि मैं वह दहलीज़ पार कर गृहस्थ जीवन में कदम रख चुकी थी.शादी के बाद फिल्में देखना बंद सा हो गया था क्यूंकि पति को बिलकुल शौक नहीं था और दिल्ली में उन दिनों थियेटर जाने का रिवाज़ भी नहीं था.पर अब हम बॉम्बे(हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) में थे और यहाँ लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे.एक दिन पति ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'फिल्म देखने चलना है?'(शायद उन्होंने भी ऑफिस में डीडीएलजे की गाथा सुन रखी थी.) मैं तो झट से तैयार हो गयी.पति ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था.जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए.चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था.यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था.मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख पति को भी लौटना पड़ा.पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए. फिल्म शुरू हुई तो काजोल की क

DDLJ : नहीं भायी,दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे,क्‍यों??

-वाणी शर्मा इस नाम ने शशि कपूर के उस गीत की याद दिला दी ..." ले जायेंगे ले जायेंगे ...दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे "... बहुत चर्चा हो रही थी इस मूवी की ...वैसे भी शाहरुख़ खान की ज्यादतर मूवी देख ही लेते हैं ...इसलिए.. दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे को भी देखा ... इस मूवी का नायक आदर्शवादी था ...माता पिता की आज्ञा के बिना शादी नहीं करना चाहता ...भले ही लड़की घर से भाग कर उससे शादी करने को तैयार हो ... बहुत अच्छा आदर्श है ...माता पिता के लिए तो खूब सोच लिया ...मगर उस लड़के का क्या जिससे सगाई का नाटक किया गया और जिससे नजदीकियां बढाकर सिमरन के पिता को प्रभावित करने का ड्रामा रचा गया ... फिल्म के एक दृश्य में नायिका काजोल करवा चौथ का व्रत करती है ...सगाई होने के बाद ...मगर चूँकि वो शाहरुख़ से प्यार करती है इसलिए व्रत उनके हाथों पानी पीकर ही खोलेंगी ....सगाई होनी किसी के साथ है मगर धोखे से अंगुली में अंगूठी पहनाता है दुल्हे का दोस्त शाहरुख़ ....दुल्हे की ओर से दुल्हन के लिए चढावा लेकर आया शाहरुख़ दुल्हन को डोली सजा कर रखने का सन्देश देता है अपने लिए ... ये आदर्शवाद है .....!! और

DDLJ ने ख्वाब देखना सिखाया...

-पूजा उपाध्‍याय दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, पहली फिल्म थी जिसका शोर्ट हमने ज्यादा बोला...तो ये फिल्म हमारे लिए हमेशा DDLJ रही. ये उन दिनों की बात है जब फिल्में रिलीज़ होने के काफी वक़्त बाद छोटे शहरों में आती थी. और आने के काफी दिन बाद देखने का प्रोग्राम बनता था. इस फिल्म के बारे में काफी दिनों से चर्चा थी, तो दो और जान पहचान के लोगों के साथ फिल्म देखने गए थे हम सब लोग. उस वक़्त उम्र बहुत कम थी, और प्यार मुहब्बत के वाइरस से हम दूर ही थे. पर फिल्म का आखिरी सीन, जब सिमरन का पिता सच में उसे जाने देता है अपने प्रेमी के पास, मन में गहरे बैठ गयी थी. वो गाय के गले में बंधी घंटी भी बहुत पसंद आई थी...और पहली बार ट्रेन छूटना अच्छा हो सकता है ऐसा कुछ सोचा था...इसके गाने मुझे पागलों की तरह पसंद आये थे...घंटों घंटों सुनती रहती थी, और डांट खाती रहती थी इस कारण, आखिर एक ही गाने को सारे घर वाले कितनी बार सुनना पसंद करेंगे. आज फ्लै में देखती हूँ तो सोचती हूँ की क्या था इस फिल्म में जो एक पूरा जेनरेशन इसके पीछे दीवाना था...कई और बार देखी ये फिल्म और बार बार वो आखिरी सीन जैसे मन पर छपता चला गया और गहरी

पहिला इंजेक्शन तो डीडीएलजे ही दिहिस

- चण्डीदत्त शुक्ल दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे से जुड़ी चण्डीदत्त शुक्ल की भी एक याद. यूपी के गोंडा ज़िले में जन्मे चण्डीदत्त की ज़िंदगी अब दिल्ली में ही गुज़र रही है. लखनऊ और जालंधर में पंच परमेश्वर और अमर उजाला जैसे अखबारों व मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने , दूरदर्शन-रेडियो और मंच पर तरह-तरह का काम करने के बाद दैनिक जागरण , नोएडा में चीफ सब एडिटर रहे. अब फोकस टीवी के प्रोग्रामिंग सेक्शन में स्क्रिप्टिंग की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं. लिखने-पढ़ने का वक्त नहीं मिलता , लेकिन जुनून बरकरार है. एक्टिंग , वायस ओवर , एंकरिंग का शौक है. सुस्त से ब्लागर भी हैं. इनका ब्लॉग है... www.chauraha1.blogspot.com .. इनसे chandiduttshukla@gmail.com पर भी मुलाकात की जा सकती है. 20 अक्टूबर , 1995. पक्का यही तारीख थी...याद इसलिए नहीं कि इस दिन डीडीएलजे देखी थी...भुलाइ इसलिए नहीं भूलती , क्योंकि इसी तारीख के ठीक पांच दिन बाद सलीम चच्चा ने पहली बार इतना ठोंका-पीटा-कूटा-धुना-पीसा था कि वो चोट अब भी सर्दी में ताज़ा हो जाती है...। हुआ यूं कि सलीम चच्चा बीज के लिए लाया पैसा अंटी में छुपाए थे औ