Posts

रामू की '...आग

Image
चवन्नी को वह पहला दिन याद है.राम गोपाल वर्मा की फैक्ट्री के आगे टीवी चैनलों को ओबी वैन लगाने की jagah नहीं मिल रही थी.कानोकान सभी को खबर लग चुकी थी कि आज एक बड़ी घोषणा होगी.इंतज़ार चल रह था.सारे चैनलों को जगह दे दी गयी थी.सभी अपने कैमरे बंदूक की तरह ताने बेसब्री से जीं पी सिप्पी के आने की प्रतीक्षा कर राहे थे.रामू के होंठों पर संगीन मुस्कराहट तैर रही थी.रामू खुश होते हैं तो उनके होंठों की रंगत बदल जाती है.खुश होने पर सभी की आंखों से नूर टपकता है.रामू कि कोशिश रहती है कि कोई उनकी खुशी पकड़ ना पाए.हैं कुछ विचित्र बातें रामू के साथ.बहरहाल,उस दिन ऐतिहासिक घोषणा हुई कि रामू 'शोले' बनायेंगे.बताया गया कि आज जीं पी सिप्पी ने रामू को ये अधिकार दे दिए. सारे चैनलों ने उस दोपहर और शाम रामू की फैक्ट्री से सीधा प्रसारण किया.ऐसा हंगामा हुआ कि हिंदी सिनेमा की तस्वीर बदलने की संभावना दिखने लगी.रामू भी इतरा रहे थे और जो कुछ मन में आ रहा था...बोल रहे थे.चवन्नी चकित है कि आम लोगों की तो छोड़िए...मीडिया के सक्रिय संवाददाताओं की स्मृति भी इतनी कमजोर हो सकती है.उस दिन रामू के कसीदे पढ़ रहे लोग '

खोया खोया चांद और सुधीर भाई-३

Image
अपनी बात कहने के बाद सुधीर भाई मुस्कुराते हैं तो रूकते हैं... उनकी मुस्कराहट ठहर जाती है ... उन क्षणों में वह आपको समय देते हैं कि उनकी कही बातों को अ।प अपने दिमाग में प्रिंट कर लें. बोलते समय उनकी पुतलियां नाचती रहती हैं, लेकिन बातें मुद्दे पर ही टिकी रहती हैं. यह कला उन्होंने बोलते-बोलते सीख ली है. मीडिया विस्फोट के इस दौर में सुधीर भाई जैसे फिल्मकार टीवी चैनलों के लिए अत्यंत उपययोगी होते हैं, क्योंकि वे मुंह के करीब माइक अ।ते ही बोलना शुरू कर देते हैं. आप इसे कतई किसी अवगुण के रूप में न लें. यह खूबी बहुत कम लोगों में हैं. चवन्नी अपने अनुभवों से कह सकता है कि यह खूबी श्याम बेनेगल में है, महेश भट्ट में है, सुधीर मिश्र में हैं और नयी पीढ़ी के अनुराग कश्यप में है. ये सभी फिल्म पर सामाजिक.राजनीतिक ... और किसी भी ... इक के परिप्रेक्ष्य से बोल सकते हैं. सुधीर भाई 'खोया खोया चांद' को अपनी खास फिल्म मानते हैं. उनकी नजर में, 'यह फिल्म हमारी इंडस्ट्री के उन अनछुए पहलुओं और कोणों को प्रकाशित करेगी, जिनके बारे में हम फिल्मी पत्रिकाऔं के 'गपशप' कॉलमों में चटकारे लेकर प

खोया खोया चांद और सुधीर भाई-२

Image
सुधीर मिश्र को सभी सुधीर भाई कहना पसंद करते हैं. उन्हें भी शायद यह संबोधन अच्छा लगता है. कद में लंबे और छरहरे सुधीर भाई लंबे डग भरते हैं. वे चलते हैं तो उनके छेहर हो गए लंबे बाल हवा में अयाल की तरह लहराते हैं. प्रभावशाली और आकर्षक होता है उनका आगमन और चूंकि वह परिचित चेहरा हैं, इसलिए लोगों को वह तत्क्षण आकृष्ट कर लेते हैं. सुधीर भाई की खूबी है कि वह बेबाक और बेलाग बोलते हैं और हमेशा बोलने के लिए तैयार रहते हैं. सुधीर भाई खुद को फिल्म इंडस्ट्री के बाहर का व्यकित मानते हैं. कहते भी हैं, 'मेरे बाप-दादा ने कोई फिल्म नहीं बनायी और न ही मेरे लिए फिल्मों की कमाई (धन और यश) छोड़ी. हमें तो जिंदगी ने उछाल कर यहां पहुंचा दिया. हमें तो हादसों ने पाला और तूफानों ने संभाला है. ऐसे जीवट के व्यक्ति का निर्भीक होना स्वाभाविक है. एक तरह से सुधीर भाई के पास खोने के लिए कुछ है भी नहीं... हां तो उस दिन पंचसितारा होटल के काफी शॉप में वह 'खोया खोया चांद' के बारे में बताने लगे. उन्होंने बताया, 'मुझे छठे-सातवें दशक के उपर एक फिल्म बनानी थी. उस दौर की उत्कृष्ट फिल्मों और फिल्मकारों को इसे मेरी

खोया खोया चांद और सुधीर भाई -१

Image
चवन्नी को सुधीर मिश्र की फिल्म 'खोया खोया चांद' का बेसब्री से इंतजार है.सुधीर मिश्र ने इस फिल्म में हिंदी सिनेमा के स्वर्ण काल के कई पहलुओं को आज के संदर्भ में चित्रित किया है.सुधीर मिश्र से चवन्नी की मुलाकातें होती रही हैं.चवन्नी सुधीर मिश्र को हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा का विरोधी स्वर मानता रहा है.चवन्नी को हमेशा वे जुझारू और कभी-कभी झगड़ालू फिल्मकार के तौर पर दिखे.चवन्नी को याद है एक मुलाकात...मुंबई के एक पंचसितारा होटल में किसी फिल्मी कार्यक्रम का अायोजन था.होटल की लॉबी में ही चवन्नी उनसे टकरा गया.न जान! उस दिन सुधीर मिश्र किस मूड में थे...उन्होंने कॉफी के लिए ऑफर किया...सकुचाता हुआ चवन्नी उनके साथ लग गया...बात 'खोया खोया चांद' पर होने लगी.कुछ दिनों पहले ही चवन्नी गोरेगांव में फिल्मिस्तान स्टूडियो में लगे उनकी फिल्म के सेट पर गया था.सुधीर मिश्र हमेशा बड़े आवेश में बातें करते हैं...उनके भाव और स्वभाव से ऐसा लगता है कि आप को उनसे सहमत होना ही होगा.वे कंधे पर हाथ रख देते हैं...अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से को विस्फारित कर आप के मन में प्रश्न पैदा करते हैं और फिर मौका मिलते ह

करिश्मा और करीना

करिश्मा और करीना हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पहले मशहूर परिवार की बेटियाँ हैं.राज कपूर जब तक जीवित और सक्रिय रहे ,तब तक उनहोंने अपने परिवार की किसी बेटी को फिल्मों में नहीं आने दिया.वजह चवन्नी समझ सकता है.चवन्नी ने राज कपूर और उनकी हीरोइनों दस काफी किस्से सुन और पढ़ रखे हैं .कहा जाता है कि राज कपूर आशिक मिजाज इन्सान थे और अपनी हीरोइनों से प्रेम कर बैठते थे.राज कपूर और नर्गिस के प्रेम के बारे में सभी जानते है.दुनिया उसे दिव्य और अदभुत मानती है,लेकिन चवन्नी लगता है कि संजय दत्त की एक समस्या नर्गिस का सार्वजनिक प्रेम रहा है.संजय दत्त के जवान होने के दिनों के किस्से पढ़ लें.वे अपनी मम्मी से काफी नाराज़ थे.जब उनकी मम्मी कैंसर से मर रही थीं तो वे बाथरूम में बंद होकर नशे के कश ले रहे थे. कोई ग्रंथि तो थी,जो बाद में किसी और शक्ल में सामने आयी.चवन्नी की यही दिक्कत है,बात कहीँ से शुरू करता है और कहीँ और चला जाता है.बात तो राज कपूर ...अरे नहीं करिश्मा और करीना कि हो रही थी.माफ़ करें यहाँ बबीता का ज़िक्र आएगा.राज कपूर के बेटे रणधीर कपूर से शादी करने के बाद बबीता को लगा था कि वह पहले कि तरह फिल्मों मे

चुंबन और सेक्स

महेश भट्ट शर्म और दुख की बात यह है कि रिचर्ड गैर और शिल्पा शेट्टी के बीच के औपचारिक चुंबन और व्यवहार को दुष्कर्म के रूप में पेश किया गया है। दो सार्वजनिक व्यक्तियों के बीच की सामान्य घटना को मुद्दा बनाने वालों ने अगर इसकी आधी सक्रियता भी बालिकाओं की भ्रूण-हत्या के खिलाफ दिखाई होती, तो बड़ी बात होती। सच तो यह है कि घर-परिवार और समाज में हो रही स्त्रियों की दिन-रात की बेइज्जती पर आम नागरिकों की खामोशी खलती है। क्या हमारे समाज में चुंबन और सेक्स वर्जित है? मुंबई और दूसरे शहरों में प्रेमी युगलों को पार्क और अन्य सार्वजनिक स्थलों से पुलिस द्वारा भगाने की खबरों को पढ़ कर भी हैरत होती है कि आखिर हम किधर जा रहे हैं? यकीन भी नहीं होता कि इसी देश में कभी वात्सयायन ने कामसूत्र की रचना की थी और खजुराहो के मंदिरों में हमारे पूर्वजों ने यौनाचार की मुद्राओं को पत्थरों में उकेरा था। चुंबन और सेक्स मनुष्य की स्वाभाविक क्रियाएं हैं। एक उम्र के बाद हर मनुष्य इस अहसास से गुजरता है। हां, सामान्य रूप से समाज के बनाए नियमों का पालन करना और अभद्र और अश्लील आचरण से बचना जरूरी है, लेकिन इस अहसास को दबाना कतई जर

सावरिया या सांवरिया ?

Image
चवन्नी परेशां है .हाल ही में संजय लीला भंसाली की नयी फिल्म सांवरिया की पहली झलक दिखी.नीले माहौल में धीमी गति में लड़का,लडकी और बाकी चीजें चलती, उड़ती, गिरती आयीं .भाई,संजय की फिल्म है,उन्हें पूरा हक है...वे चाहे जैसे दृश्य स्थापित करें.चवन्नी को फिलहाल एक ही सवाल करना है कि फिल्म के शीर्षक को सावरिया लिखना कहॉ तक उचित है ? सावारिया का सही उच्चारण सांवरिया ही होगा .यह शब्द सांवर से बना हुआ है,जो साँवल का देशज उच्चारण है। सांवर से बने शब्द सांवरिया का उपयोग कृष्ण के लिए होता रहा है.मोरे श्याम साँवरे जैसे गीत हम सुनते रहे हैं.हिंदी फिल्मों में सांवरिया का उपयोग प्रेमी के लिए होता रहा है. हो सकता है संजय की फिल्म में इसी अर्थ में इसका इस्तेमाल जुआ हो। चवन्नी समझ नहीं पा रहा है कि संजय से ऐसी भारी भूल कैसे हो गयी ?क्या संजय को इतनी हिंदी भी नहीं आती. वैसे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में फिल्मों के नाम हिंदी में लिखने का चलन खत्म हो रहा है.ज़्यादातर फिल्मों के पोस्टर में सिर्फ अंग्रेजी में नाम दिए जाते हैं.उन नामों में भी एक्स्ट्रा अक्षर जोड़ दिए जाते हैं कि फिल्म की कहानी या स्टार से नहीं तो कम स

हे बेबी

Image
पधारिए को अगर पाद हारिए उच्चारित करने से कॉमेडी क्रिएट हो जाती है तो हे बेबी एक सफल कॉमेडी फिल्म है। कॉमेडी में अभिनय और प्रसंग के साथ संवाद का भी योगदान रहता है। साजिद खान वैसे तो वाक्पटु हैं लेकिन फिल्म में मिलाप झावेरी के ऐसे संवादों को वे क्यों नहीं सुधार पाए? कहीं कुछ गड़बड़ है..या तो फिल्म बनाने की हड़बड़ी थी या फिर सिरे से सोच गायब था। हे बेबी के हे और बेबी में अतिरिक्त वाई लगाकर कामयाबी की उम्मीद करने वाले अंधविश्वासियों का यह हश्र स्वाभाविक है। फिल्म शुरू से लड़खड़ाती है और अंत तक संभल ही नहीं पाती। अक्षय कुमार, फरदीन खान, रितेश देखमुख और विद्या बालन जैसे लोकप्रिय और बिकाऊ नाम भी बांध कर नहीं रख पाते। तीन आवारागर्दो, आरुश (अक्षय), एल (फरदीन) और तन्मय (रितेश) की ब्रेफिक्र और मनचली जिंदगी में तब एक मोड़ आता है, जब कोई उनके दरवाजे पर एक बच्ची छोड़ जाता है। तीनों उसे पुलिस के हवाले करने के बजाय पालने का जोखिम उठाते हैं। फिर उनके स्वभाव में बदलाव शुरू होता है। बच्ची से उनका लगाव बढ़ता है, तभी बच्ची की मां ईशा आकर उसे ले जाती है। बाद में पता चलता है कि बच्ची तो आरुश की बेटी है और ईश

नील से मिला चव्वनी चैप

Image
नील का पूरा नाम नील नितिन मुकेश है.अब शायद अ।प ने उसे पहच।न लिया हो.नील मुकेश का पोता और नितिन मुकेश क। बेटा है.फिल्म इंडस्ट्री में अ।ज कल बैठे ठाले लोग बहस कर रहे हैं कि नील के बेटे का नाम क्या रख। ज।एगा.. उसके न।म के अ।गे --- नील नितिन मुकेश लगाया जाएगा..मुंबई के लोगों को इस न।म से अचरज हो रहा है,लेकिन चवन्नी के गृह प्रदेश में तो ऐसे नामों का चलन है. बाप के नाम के स।थ द।द। का पहला न।म जुड़ा रहत। है तो बेटे के न।म में बाप का पहला न।म जुड़ा होना अ।म ब।त है.यहं। तक की बीवियां भी अपने न।म के साथ पति का पहला नाम जोड़ लेती हैं. बहरहाल, नील ने श्रीराम राघवन की फिल्म 'ज।नी गद्दार' में खास भूमिका निभायी है. उनके साथ धर्मेन्द्र, जाकिर हुसैन, विनय पाठक और दया शेट्टी भी हैं. पांच किरदारों की इस फिल्म को 'रिवर्स थ्रिलर' कहा जा रहा है. फिल्म देखते समय दर्शकों का सारा रहस्य पहले से मालूम होगा. हां, 'जानी गद्दार' में सरप्राइज से ज्यादा सस्पेंस है. तो बात चल रही थी नील की ... नील ने गायकी सीखी है, लेकिन वह अपने पिता और दादा की तरह गायक बनने की इच्छा नहीं रखता. उसे अभिनय का

चवन्नी का किस्सा

अच्छा है अं।प पढ रहे हैं.बस यही गुजारिश है कि मेरे नाम को चवन्नी छाप उच्चारित न करें. मैं चवन्नी चैप हूं. चवन्नी छाप समूहवाचक संज्ञा है. कभी दरशकों के ख।स समूह को चवन्नी छ।प कह। ज।त। थ।.अ।ज के करण जौहर जैसे निरदेशक चवन्नी छाप को नहीं जानते. हां , विधु विनोद चोपड। ज।नते हैं,लेकिन अब वे चवन्नी छ।प दरशकों के लिए फिल्में नहीं बनाते.सिरफ विधु विनोद चोपड। ही क्यों...इन दिनों किसी भी निरदेशक को चवन्नी छ।प दरशकों की परवाह नहीं है.वैसे भी ब।ज।र में जब चवन्नी ही नहीं चलती ताे चवन्नी छ।प दरशकों की चिंता कोई क्यों करे ...मुंबई में केवल बेस्ट के बसों में चवन्नी चलती है.कंडक्टर मुंबई के बस यात्रियों को चवन्नी वापस करते हैं और बस यात्री फिर से कंडक्टर को किराए के रूप में चवन्नी थम। देते हैं. आज के हमारे परिचित पाठक चवन्नी मे बारे में ठीक से नहीं जानते.चलिए हम अपने अतीत के बारे में बता दें.चवन्नी का चलन तब ज्यादा थ।,जब रुपए में सोलह अ।ने हुअ। करते थे और चार पैसों का एक अ।न। होता थ।.तब रुपए में केवल चौंसठ पैसे ही होते थे.देश अ।ज।द हुआ तो बाजार की सुविधा और एकरूपता के लिए रुपए के सौ पैसे किए गए तो