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ऑस्कर के लिए मारामारी

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ऑस्कर के लिए परेशान हैं सभी.चवन्नी की समझ में नहीं आ रहा है कि विदेशी पुरस्कार के लिए एेसी मारामारी क्यों चल रहीं है?याद करें तो ऑस्कर पुरस्कारों की विदेशी भाषा श्रेणी की नामांकन सूची में लगान के पहुंचने के बाद सभी भारतीय फिल्मकारों को लगने लगा है कि उनकी फिल्म इस प्रतियोगिता के लिण अवश्य भेजी जानी चाहिए.अस साल एकलव्य भेजी जा रही है या यों कहें कि भेजी जा चुकी है,लेकिन धर्म की निर्देशक भावना तलवार को लगता है िक एकलव्य के निर्माता निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने अपने प्रभाव से अपनी फिल्म को चुनवा लिया.फिल्म इंडस्ट्री तो क्या हर क्षेत्र में इस तरीके के मैनीपुलेशन चलते हैं. आइए,आाप को किस्सा सुनाते हैं.ऑस्कर के नियमों के मुताबिक हर देश से एक फिल्म िवदेशी भाषा श्रेणी के पुरस्कार के लिए भेजी जा सकती हैणयमं तो हर साल एक फिल्म जाती है,लेकिन लगान के नामांकन सूची में पहुंचने के बाद फिल्म इंडस्ट्री और आम लोग इस पुरस्कार के प्रति जागरूक हुए.भारत से फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ही ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली फिल्म का चुनाव करती है.इस कार्य के लिए एक ज्यूरी बनायी जाती है.इस ज्यूरी में फिलहाल मुंबई के ज्या

दीवाली के दिन टकराएगी सांवरिया से ओम शांति ओम

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-अजय ब्रह्मात्मज नवंबर महीने में 9 तारीख को दो बड़ी फिल्में आमने-सामने होंगी। दोनों ही फिल्मों के शुभचिंतकों की राय में इन फिल्मों को टकराना नहीं चाहिए था। इस टकराहट से दोनों का नुकसान होगा, लेकिन वहीं कुछ ट्रेड विशेषज्ञों की राय में दोनों ही फिल्मों को दर्शक मिलेंगे। इन दिनों दर्शक इतने संपन्न हो गए हैं कि फिल्में अच्छी हों, तो वे पैसे जेब से निकाल ही लेते हैं। रिलीज डेट 9 नवंबर ही क्यों? इस बार 9 नवंबर को दीवाली है और उस दिन शुक्रवार भी है। त्योहार के दिनों में फिल्में रिलीज हों, तो उन्हें ज्यादा दर्शक मिलते हैं। त्योहार की छुट्टियों में मौज-मस्ती और मनोरंजन के लिए सिनेमा से अधिक सुविधाजनक कोई माध्यम नहीं होता। बड़े शहरों में लोग सपरिवार फिल्में देखने जाते हैं। मल्टीप्लेक्स बनने के बाद तो सपरिवार फिल्म देखने की प्रवृत्ति महानगरों में और बढ़ी ही है। फिल्म वितरक, प्रदर्शक और आखिरकार निर्माताओं के लिए रिलीज के सप्ताहांत में दर्शकों की भीड़ मुनाफा ले आती है। संजय लीला भंसाली की सांवरिया की रिलीज की तारीख पहले से तय थी। फराह खान की ओम शांति ओम भी उसी दिन रिलीज करने की योजना बनी। बीच में

राजनीतिक फिल्म है दिल दोस्ती एटसेट्रा

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-अजय ब्रह्मात्मज इस फिल्म का भी पर्याप्त प्रचार नहीं हुआ। फिल्म के पोस्टर और फेस वैल्यू से नहीं लगता कि दिल दोस्ती.. इतनी रोचक फिल्म हो सकती है। दिल दोस्ती.. लंबे अरसे के बाद आई राजनीतिक फिल्म है। इस फिल्म के राजनीतिक टोन को समझे बिना फिल्म को समझना मुश्किल होगा। ऊपरी तौर पर संजय मिश्रा (श्रेयस तलपड़े) और अपूर्व (ईमाद शाह) दो प्रमुख चरित्रों की इस कहानी में संवेदना की कई परते हैं। इस फिल्म को समझने में दर्शक की पृष्ठभूमि भी महत्वपूर्ण होगी। संजय मिश्रा बिहार से दिल्ली आया युवक है, जो छात्र राजनीति में सक्रिय हो गया है। दूसरी तरफ अपूर्व विभिन्न तबकों की लड़कियों के बीच जिंदगी और प्यार के मायने खोज रहा है। दिल दोस्ती.. विरोधी प्रतीत हो रहे विचारों की टकराहट की भी फिल्म है। मध्यवर्गीय मूल्यों और उच्चवर्गीय मूल्यों के साथ ही इस टकराहट के दूसरे पहलू और छोर भी हैं। निर्देशक मनीष तिवारी ने युवा पीढ़ी में मौजूद इस गूढ़ता, अस्पष्टता और संभ्रम को समझने की कोशिश की है। फिल्म अपूर्व के दृष्टिकोण से प्रस्तुत की गई है। अगर इस फिल्म का नैरेटर संजय मिश्रा होता तो फिल्म का अंत अलग हो सकता था। फिल्म में

आनंद और रोमांच का संगम है जॉनी गद्दार

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-अजय ब्रह्मात्मज एक हसीना थी में श्रीराम राघवन की दस्तक फिल्म इंडस्ट्री और दर्शकों ने सुन ली थी। वह फिल्म बॉक्स आफिस पर गिर गई थी, लेकिन थ्रिलर का आनंद मिला था। उस आनंद और रोमांच को श्रीराम राघवन ने जॉनी गद्दार में पुख्ता किया है। जॉनी गद्दार एक तरफ विजय आनंद की थ्रिलर फिल्मों की याद दिलाती है तो दूसरी तरफ फिल्मों की नई शैली का परिचय देती है। जॉनी गद्दार पांच व्यक्तियों की कहानी है। वे मिलकर कारोबार करते हैं। उनके गैंग को एक आफर मिला है, जिससे चार दिनों में उनकी किस्मत पलट सकती है। योजना बनती है, लेकिन पांचों में से एक गद्दारी कर जाता है। उस गद्दार की जानकारी हमें हो जाती है, लेकिन बाकी किरदार नावाकिफ रहते हैं। जॉनी गद्दार की यह खूबी दर्शकों को बांधे रहती है। घटनाओं का ऐसा क्रम नहीं बनता कि पहले से अनुमान लगाया जा सके। श्रीराम राघवन ने बार-बार चौंकाया है और हर बार कहानी में ट्विस्ट पैदा किया है। श्रीराम राघवन की पटकथा और फिल्म का संपादन इतना चुस्त है कि संवाद की गति से दृश्य बदलते हैं। शार्प कट और बदलते दृश्यों की निरंतरता हिलने नहीं देती। कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां दर्शक अपनी सुध भूल जा

शुक्रवार, 28 सितंबर, 2007

इस हफ्ते श्रीराम राघवन की 'जॉनी गद्दार' और मनीष तिवारी की 'दिल दोस्ती एट्सेट्रा' फिल्में रिलीज हो रही हैं. श्रीराम राघवन की पिछली फिल्म 'एक हसीना थी' चवन्नी ने देखी थी. उस फिल्म से ही लगा था कि श्रीराम राघवन में पॉपुलर सिनेमा और थ्रिलर की अच्छी समझ है. अ।पको याद होगा कि अपने छोटे नवाब के एटीट्यूड में भी इसी फिल्म से बदलाव अ।या था, जिसकी परिणति 'ओमकारा' के लंगड़ा त्यागी में हुई. एक्टर को एक्टिंग से परिचित कराने का काम समर्थ डायरेक्टर करते रहे हैं. हृषीकेष मुखर्जी, गुलजार, महेश भट्ट जैसे फिल्मकारों ने समय-समय पर एक्टरों को नयी छवि दी और उन्हें खिलने के नए अ।याम दिए. धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, संजय दत्त, जीतेन्द्र, हेमामालिनी, डिंपल कपाड़िया अ।दि एक्टरों की फिल्मों से डायरेक्टर के योगदान के इस पहलू को चवन्नी ने समझा. बहरहाल, श्रीराम राघवन की 'जॉनी गद्दार' थ्रिलर फिल्म है. एक ऐसा थ्रिलर , जिसमें दर्शकों को मालूम है कि गद्दार कौन है? लेकिन दर्शक भी उसकी अगली हरकत से चौंकते हैं. कहते हैं, श्रीराम राघवन ने बेहद चुस्त फिल्म बनायी है. चवन्नी को अजय ब्र

रणबीर कपूर को जन्मदिन की बधाई

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चवन्नी की मुलाकात रणबीर कपूर से हो गई.जी हां,उनका नाम हिंदी में रणबीर लिखा जाएगा.कुछ लोग रणवीर तो कुछ लोग रनबीर लिख रहे थे.कल चवन्नी ने उनसे पूछा तो उन्होंने अपना नाम रणबीर लिखा.और चवन्नी को आपको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि आज यानी 28 सितंबर को रणबीर कपूर का जन्मदिन है. उन्हें जन्मदिन की बधाई.और हां,चैनल वालों की तरह बात करें तो आप यह याद रखिएगा कि चवन्नी ने सबसे पहने उनका सही नाम और उनके जन्मदिन के बारे में आप को बताया था. रणबीर का आत्मविश्वास उनकी बातों से छलकता है.कपूर खानदान के इस लड़के को मालूम है कि उनसे लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं. उन्हें मालूम है कि आरके बैनर के वारिस के तौर पर उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है.वे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार हैं.छोटी सी मुलाकात में रणबीर ने भरोसा दिलाया कि आरके बैनर को सक्रिय किया जाएगा.रणबीर ने तो यह भी कहा कि एक दिन वह फिल्म निर्देशित भी करेगा.शायद आप नहीं जानते हों कि राज कपूर का पूरा नाम रणबीर राज कपूर था.ऋषि कपूर ने अपने बैटे को पिता का नाम दिया.चवन्नी चाहता है कि रणबीर अपने दादा का मुकाम हासिल करे.रणबीर की तैयारी अच्छी है और उसका

फिल्म कैसे बनती है - ख्वाजा अहमद अब्बास

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हर बार जब तुम अच्छी फिल्म देखने के लिए टिकट खरीदते हो तो तुम अच्छी फिल्मों के निर्माण में सहायक होते हो और जब बुरी फिल्म का टिकट खरीदते हो तो बुरी फिल्मों को बढ़ावा देते हो - ख्वाजा अहमद अब्बास ख्वाजा अहमद अब्बास ने यह बात अ।ज से तीस साल पहले 'फिल्म कैसे बनती है' में लिखी. बच्चों को फिल्म निर्माण की जानकारी देने के उद्देश्य से लिखी गयी यह किताब नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी थी. अभी तक इसके बारह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. पिछली बार दिल्ली प्रवास में चवन्नी ने यह पुस्तक हासिल की. सिर्फ 12 रूपए मूल्य की यह पुस्तक सभी सिनेप्रेमियों को पढ़नी चाहिए. और हां, चवन्नी महसूस करता है कि इसे रिफ्रेश या अद्यतन करने की जरूत है. इस बीच सिनेमा का तकनीकी विकास बहुत तेजी से हुअ। है. विकास के इन तत्वों को जोड़कर पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है. इस पुस्तक के अध्याय हैं - 1. पर्दे का जादू 2. चलचित्र जो चलते नहीं 3. एक समय की बात है 4. अलादीन और उसका जादुई चिराग 5. सागर तट पर पिकनिक 6. छद्म गायक 7. फिल्म का संपादन 8. लाखों के लिए संगीत 9. दुल्हन का श्रृंगार 10. सिनेमा का गणित 11. फिल्म कैसे देखे

देव आनंद: रोमांसिंग विद लाइफ

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-अजय ब्रह्मात्मज देव आनंद की आत्मकथा का इससे अधिक उपयुक्त शीर्षक नहीं हो सकता था। उन्होंने अपनी आत्मकथा पूरी कर ली है। उनके 84वें जन्मदिन के मौके पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसका विमोचन करेंगे। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह एक अनोखी घटना होगी, जब देश के प्रधानमंत्री के हाथों किसी फिल्मी व्यक्तित्व की किताब का विमोचन हो रहा हो। भारतीय राजनीति और भारत सरकार सिनेमा और फिल्मी हस्तियों से एक दूरी बनाकर रहती है। हालांकि अभी संसद में कई फिल्मी हस्तियां हैं, फिर भी इस रवैए में ज्यादा फर्क अभी तक नहीं आया है। बहरहाल, देव आनंद की आत्मकथा की बात करें, तो आजादी के बाद लोकप्रिय हुई अभिनेताओं की त्रयी (दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद) में केवल देव आनंद ही अभी तक सक्रिय हैं। राज कपूर असमय काल कवलित हो गए। दिलीप कुमार केवल समारोह या अपने प्रोडक्शन की गतिविधियों में बीवी सायरा बानो के साथ दिखते हैं। दरअसल, सालों पहले उन्होंने अभिनय से संन्यास ले लिया। केवल देव आनंद ही अपनी क्रिएटिविटी के साथ मौजूद हैं और वे लगातार फिल्में बना रहे हैं और साथ ही साथ देश-विदेश घूम भी रहे हैं। अपनी कोई भी फिल्म पूरी करन

सांवरिया: रंग,रोगन और रोमांस

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-अजय ब्रह्मात्मज अभी सिर्फ एक मिनट तीस सेकॅन्ड का ट्रेलर आया है और बातें होने लगी हैं। सभी को संजय लीला भंसाली की अगली फिल्म का इंतजार है। इस फिल्म का नाम अंग्रेजी में सावरिया लिखा गया है, जबकि बोलचाल और प्रचलन में सांवरिया शब्द है। सांवरिया शब्द सांवर से बना है, जो सांवल का अपभ्रंश और देशज रूप है। स्वयं सांवल शब्द श्यामल से बना है। गौरतलब यह है कि श्यामल और उसके सभी उच्चारित रूपों का उपयोग कृष्ण के लिए होता रहा है। हिंदी फिल्में कई स्तरों पर मिथकों से प्रभावित हैं। फिल्मों के लेखक, निर्देशक और गीतकार अनेक शब्दों, स्थितियों और भावों का उत्स जाने बगैर उनका उपयोग करते रहते हैं। ऐसे ही सांवरिया शब्द धीरे-धीरे प्रेमी और पति का पर्याय बन गया। मालूम नहीं कि भंसाली ने अपनी फिल्म के नाम में सांवरिया/सावरिया का उपयोग किस अर्थ में किया है! सांवरिया शब्द में से बिंदी गायब होने का एक कारण यह हो सकता है कि महाराष्ट्र में आनुनासिक ध्वनि का उच्चारण नहीं होता, क्योंकि मराठी भाषी हिंदी बोलते समय हैं नहीं है ही बोलते हैं। ऐसा लगता है इसी उच्चारण दोष से सांवरिया सावरिया बन गया है। वैसे, यहां यह बता दें क

अनिल-सोनम कपूर:चार भावमुद्राएं

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पिता अनिल कपूर निहार रहे हैं बेटी सोनम कपूर को... क्या ख़ूब है बाप-बेटी का इठलाना दोहरी खुशी का वक़्त बेटी के कंधे पर सिर टिकाने का भरोसा