Posts

कामयाबी की कीमत चुकाती करीना कपूर

Image
कामयाबी की कीमत सभी को चुकानी पड़ती है। इन दिनों करीना कपूर इसी फेज से गुजर रही हैं। दरअसल, जब वी मेट के बाद उनकी जिंदगी हर लिहाज से इसलिए बदल गई, क्योंकि सोलो हीरोइन के रूप में उनकी फिल्म रातोंरात हिट हो गई। इस फिल्म में उनके काम की तारीफ की गई और इसीलिए अब पुरस्कारों की बरसात हो रही है। अभी तक दो बड़े पुरस्कार उनकी झोली में आ चुके हैं और ऐसा माना जा रहा है कि देश-विदेश के सारे पुरस्कार इस बार अकेले करीना कपूर ही ले जाएंगी। पुरस्कारों की बात चलने पर आंतरिक खुशी से उनका चेहरा दीप्त हो उठता है। वे सूफियाना अंदाज में कहती हैं, पुरस्कारों का मिलना अच्छा लगता है। कई बार नहीं मिलने पर भी दुख नहीं होता, लेकिन यदि जब वी मेट के लिए पुरस्कार नहीं मिलता, तो जरूर बुरा लगता। करीना कपूर अभी से लेकर अगले साल के अप्रैल महीने तक व्यस्त हैं, लेकिन उन्होंने सोच रखा है कि समय से सूचना मिल गई, तो वे हर पुरस्कार लेने जाएंगी और कुछ अवार्ड समारोह में परफॉर्म भी करेंगी। करीना पर इधर बेवफाई का आरोप लगा है। कुछ लोगों की राय में उन्होंने शाहिद कपूर को छोड़ कर अच्छा नहीं किया। वास्तव में करीना के प्रशंसक आज भी सै

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:आखिरी दशक

पिछली सदी का आखिरी दशक कई अभिनेत्रियों के लिए याद किया जायेगा.सबसे पहले काजोल का नाम लें.तनुजा की बेटी काजोल ने राहुल रवैल की 'बेखुदी'(१९९२) से सामान्य शुरुआत की.'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' उनकी और हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की अभी तक सबसे ज्यादा हफ्तों तक चलनेवाली फ़िल्म है.यह आज भी मुम्बई में चल ही रही है. ऐश्वर्या राय १९९४ में विश्व सुंदरी बनीं और अगला कदम उन्होंने फिल्मों में रखा,उन्होंने मणि रत्नम की फ़िल्म 'इरुवर'(१९९७) से शुरूआत की.आज वह देश की सबसे अधिक चर्चित अभिनेत्री हैं और उनके इंटरनेशनल पहचान है.जिस साल ऐश्वर्या राय विश्व सुंदरी बनी थीं,उसी साल सुष्मिता सेन ब्रह्माण्ड सुंदरी घोषित की गई थीं.सुष्मिता ने महेश भट्ट की 'दस्तक'(१९९६) से फिल्मी सफर आरंभ किया. रानी मुख़र्जी 'राजा की आयेगी बारात' से फिल्मों में आ गई थीं,लेकिन उन्हें पहचान मिली विक्रम भट्ट की 'गुलाम' से.'कुछ कुछ होता है' के बाद वह फ़िल्म इंडस्ट्री की बड़ी लीग में शामिल हो गयीं.इस दशक की संवेदनशील अभिनेत्री ने तब्बू ने बाल कलाकार के तौर पर देव आनंद की फ़ि

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:नौवां दशक

नौवें दशक में आई मधुर मुस्कान माधुरी दीक्षित को दर्शक नहीं भूल पाये हैं.धक्-धक् गर्ल के नाम से मशहूर हुई इस अभिनेत्री ने अपने नृत्य और अभिनय से सचमुच दर्शकों की धड़कनें बढ़ा दी थीं.राजश्री कि १९८४ में आई 'अबोध' से उनका फिल्मी सफर आरंभ हुआ.उनकी पॉपुलर पहचान सुभाष घई की 'राम लखन' से बनी.'तेजाब'के एक,दो ,तीन.... गाने ने तो उन्हें नम्बर वन बना दिया.माधुरी की तरह ही जूही चावला की १९८४ में आई पहली फ़िल्म 'सल्तनत' पर दर्शकों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया.हाँ,१९८८ में आमिर खान के साथ 'कयामत से कयामत तक' में वह सभी को पसंद आ गयीं. श्रीदेवी की 'सोलवा सावन' भी नहीं चली थी,लेकिन १९८३ में जीतेन्द्र के साथ 'हिम्मतवाला' में उनके ठुमके भा गए .पद्मिनी कोल्हापुरे कि शुरूआत तो देव आनंद की 'इश्क इश्क इश्क' से हो गई थी,लेकिन उन्हें दर्शकों ने राज कपूर की 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' से पहचाना.इस फ़िल्म में उन्होंने जीनत अमन के बचपन का रोल किया था.इस दशक की अन्य अभिनेत्रियों में अमृता सिंह,मंदाकिनी,किमी काटकर आदि का उल्लेख किया जा सकता है.

उम्मीदों पर पानी फेरती 26 जुलाई..

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्म का संदर्भ और बैकड्राप सिनेमाघरों में दर्शकों को खींच सकता है। आप पूरी उम्मीद से सिनेमा देखने जा सकते हैं लेकिन, अफसोस कि यह फिल्म सारी उम्मीदों पर पानी फेर देती है। 2005 में मुंबई में आई बाढ़ को यह फिल्म असंगत तरीके से छूती है और उस आपदा के मर्म तक नहीं पहुंच पाती। घटना 26 जुलाई, 2005 की है। उस दिन मुंबई में बारिश ने भयावह कहर ढाया था। चूंकि घटना ढाई साल ही पुरानी है, इसलिए अभी तक हम सभी की स्मृति में उसके खौफनाक दृश्य ताजा हैं। मुंबई के अंधेरी उपनगर में स्थित एक बरिस्ता आउटलेट में चंद नियमित ग्राहक आते हैं। बाहर वर्षा हो रही है। वह तेज होती है और फिर खबरें आती हैं कि भारी बारिश और बाढ़ के कारण शहर अस्त-व्यस्त हो गया है। टीवी पर चंद फुटेज दिखाए जाते हैं। इसी बरिस्ता में राशि और शिवम भी फंसे हैं। एक फिल्म लेखक हैं। एक सरदार दंपती है। दो-चार अन्य लोगों के साथ बरिस्ता के कर्मचारी हैं। इनके अलावा कुछ और किरदार भी आते हैं। फिल्म में बैंक डकैती, एड्सग्रस्त महिला, खोई हुई बच्ची का प्रसंग आता है। रात भर की कहानी सुबह होने के साथ समाप्त हो जाती है। हम देखते हैं कि राशि और

अजय देवगन की परीक्षा!

-अजय ब्रह्मात्मज आमिर खान के समान ही अजय देवगन के बारे में भी यही कहा और सुना जाता रहा है कि वे निर्देशन में दखलंदाजी करते हैं। सेट पर और सेट के बाहर डायरेक्टर के साथ ही उनका ज्यादा समय गुजरता है। दरअसल, करियर के आरंभ से अभिनेता अजय देवगन ने निर्देशक की कुर्सी के पास ही अपनी कुर्सी रखी और फिल्म निर्देशन की बारीकियों को सीखने-समझने की कोशिश करते रहे। इसलिए अगर यू मी और हम उनके निर्देशन में आ रही है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उल्लेखनीय है कि अजय देवगन एक जमाने के स्टंट मास्टर और फिर ऐक्शन डायरेक्टर रहे वीरू देवगन के बेटे हैं, जिन्होंने सुनील दत्त की फिल्म रेशमा और शेरा से अपना फिल्मी जीवन आरंभ किया। पापा की देखादेखी अजय देवगन जब बड़े हो रहे थे, तो उनकी आंखों में भी फिल्मी सपने तैर रहे थे। इसीलिए उन्होंने अपने पिता के साथ काम आरंभ कर दिया था और शौकिया तौर पर वीडियो कैमरे से कुछ शूटिंग भी कर लेते थे। इच्छा तो थी कि फिल्म के हीरो बनें, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि स्टारों के इस माया प्रदेश में कौन ऐक्शन डायरेक्टर के सामान्य चेहरे के बेटे को तरजीह देता? इसीलिए अजय देवगन का ध्यान कैमरे के

आमिर खान से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

आमिर खान से लंबी बातचीत। दो साल पहले हुई यह बातचीत कई खास मुद्दों को छूती है. - आमिर आप लगातार चर्चा में हैं। अभी थोड़ा ठहरकर देखें तो आप क्या कहना चाहेंगे? 0 सच कहूं तो मैं कंफ्यूज हूं। मैं अपने इर्द-गिर्द जो देख रहा हूं। मीडिया में जिस तरह से रिपोर्टिग चल रही है। टेलीविजन और प्रेस में जो रिपोर्टिग चल रही है, जिस किस्म की रिपोर्टिग चल रही है, जिस किस्म का नेशनल न्यूज दिखाया जा रहा है उससे मैं काफी कंफ्यूज हूं कि यह क्या हो रहा है हम सबको। हम किस दौर से गुजर रहे हैं। झूठ जो है, वह सच दिखाया जा रहा है। सच जो है, वह झूठ दिखाया जा रहा है। जो चीजें अहमियत की नहीं हैं, वह नेशनल न्यूज बनाकर दिखायी जा रही है। लोगों की जिंदगी नेशनल न्यूज बनती जा रही है। समाज के लिए जो महत्वपूर्ण चीजें हैं, उन्हें पीछे धकेला जा रहा है। यह सब देखकर मैं हैरान हूं, कंफ्यूज हूं।- आप फिल्म इंडस्ट्री से हैं, आपने बहुत करीब से इसे जिया और देखा है। अभी के दौर में एक एक्टर होना कितना आसान काम रह गया है या मुश्किल हो गया है?0 जिंदगी अपने मुश्किलात लेकर आती है। हर करियर में अपनी तकलीफें और मुश्किलात होती हैं।

हिन्दी फिल्म:महिलायें:आठवां दशक

आठवां दशक हर लिहाज से खास और अलग है.श्याम बेनेगल ने १९७४ में 'अंकुर' फ़िल्म में शबाना आज़मी को मौका दिया.उनकी इस कोशिश के पहले किसी ने सोचा नहीं था कि साधारण नैन-नक्श की लड़की हीरोइन बन सकती है.मशहूर शायर कैफी आज़मी की बेटी शबाना ने साबित किया कि वह असाधारण अभिनेत्री हैं.उनके ठीक पीछे आई स्मिता पाटिल ने भी दर्शकों का दिल जीता.हालांकि हेमा मालिनी को राज कपूर की फ़िल्म 'सपनों का सौदागर' १९६८ में ही मिल चुकी थी,लेकिन १९७० में देव आनंद के साथ'जॉनी मेरा नाम' से हेमा के हुस्न का ऐसा जादू चला कि आज तक उसका असर बरकरार है.एक और अभिनेत्री हैं इस दौर की,जो उम्र बढ़ने के साथ अपना रहस्य गहरा करती जा रही हैं.जी हाँ, रेखा के ग्लैमर की घटा 'सावन भादो' से छाई.अमिताभ और रेखा की जोड़ी ने इस दशक में दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया.अपने अलग अंदाज और अभिनय के लिए सिम्मी गरेवाल जानी गयीं.सफ़ेद कपडों में वह आज भी टीवी पर अवतरित होती हैं तो दर्शक उनकी मृदुता के कायल होते हैं.१९७३ में राज कपूर की 'बॉबी' से आई डिंपल कपाडिया पहली फ़िल्म के बाद ही राजेश खन्ना के घर में गायब

बॉक्स ऑफिस १२.०३.२००८

चवन्नी चैप पर बॉक्स ऑफिस का नया सिलसिला जारी हो रहा है.कोशिश रहेगी कि हर हफ्ते इसे यहाँ प्रकाशित किया जाए.अजय ब्रह्मात्मज नियमित रूप से हफ्तावार यह बॉक्स ऑफिस जागरण में लिखते हैं,वहीं से साभार यह यहाँ पोस्ट होगा.चवन्नी मानता है के ब्लॉग के पाठक और अखबार के पाठक एक होने के साथ ही अलग-अलग भी होते हैं। फीकी रही ब्लैक एंड ह्वाइट सुभाष घई की ब्लैक एंड ह्वाइट को खाली मैदान मिला था। फिल्म का विशेष प्रचार भी किया गया था। इसके बावजूद बॉक्स ऑफिस पर यह उम्मीद के मुताबिक सफल साबित नहीं हुई। हालांकि इस फिल्म में नए अभिनेता अनुराग सिन्हा और अनुभवी अनिल कपूर के अभिनय की तारीफ जरूर हुई। सुभाष घई ने इस फिल्म में अपनी शैली बदली थी और सीमित बजट में रियलिस्टिक फिल्म बनाने की कोशिश की थी। एक ट्रेंड पंडित के मुताबिक कमर्शियल फिल्ममेकर को रियलिस्टिक फिल्म बनाने के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए। ऐसे में वे न घर के रह पाते हैं और न घाट के। ब्लैक एंड ह्वाइट का पहला दिन बुरा रहा। समीक्षकों की तारीफ के बाद शनिवार और रविवार को दर्शक बढ़े। फिर सोमवार से दर्शकों की संख्या में गिरावट दिखी। इधर दिल्ली में इस फिल्म को ट

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:सातवां दशक

क्या आप ने आयशा सुलतान का नाम सुना है?चलिए एक हिंट देता है चवन्नी.वह नवाब मंसूर अली खान पटौदी की बीवी है.जी,सही पहचाना- शर्मिला टैगोर . शर्मीला टैगोर को सत्यजित राय ने 'अपु संसार' में पहला मौका दिया था.उन्होंने सत्यजित राय के साथ चार फिल्मों में काम किया,तभी उन पर हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की नज़र पड़ी.शक्ति सामन्त ने उन्हें 'कश्मीर की कली' के जरिये हिन्दी दर्शकों से परिचित कराया. जया भादुड़ी की पहली हिन्दी फ़िल्म 'गुड्डी' १९७१ में आई थी,लेकिन उन्हें सत्यजित राय ने 'महानगर' में पहला मौका दिया था.दारा सिंह की हीरोइन के रूप में मशहूर हुई मुमताज की शुरूआत बहुत ही साधारण रही,लेकिन अपनी मेहनत और लगन से वह मुख्य धारा में आ गयीं.राजेश खन्ना के साथ उनकी जोड़ी जबरदस्त पसंद की गई. साधना इसी दशक में चमकीं.नाजी हुसैन ने आशा पारेख को 'दिल देके देखो' फ़िल्म १९५९ में दी,लेकिन इस दशक में वह लगातार उनकी पाँच फिल्मों में दिखाई पड़ीं.वह हीरोइन तो नही बन सकीं,लेकिन उनकी मौजूदगी दर्शकों ने महसूस की. हेलन को कोई कैसे भूल सकता है?उनके नृत्य के जलवों से फिल्में कामयाब होती

पेन उठाओ,बॉलीवुड हिलाओ

यह एक मौका है.अगर आप को लगता है कि आप की किसी कहानी पर फ़िल्म बन सकती है और आप को कोई जरिया नहीं मिल रहा हो किसी फ़िल्म निर्माता या स्टार तक पहुँचने का तो आप मिर्ची मूवीज के इस अभियान और खोज में शामिल हो सकते हैं.आपको १००० से ३००० शब्दों में अपनी कहानी लिखनी है और इनके पास भेज देनी है.आप की कहानी के निर्णायक होंगे अज़ीज़ मिर्जा और कमलेश पण्डे.इस प्रतियोगिता या खोज में प्रथम को १० लाख रुपये,द्वितीय को ५ लाख रुपये और तृतीय को ३ लाख रुपये का पारितोषिक मिलेगा.उन कहानियो पर स्क्रिप्ट लिखी जायेगी और फिर फ़िल्म भी बनेगी.इन तीन विजेताओं के अलावा ५० लेखकों को पांच-पाँच हजार के पुरस्कार मिलेंगे.तो यह मौका है आप के लेखक बन जाने का.आप ज्यादा जानकारी के लिए मिर्ची मूवीज लिंक पर जाएं.या फिर उन्हें mirchimovies@indiatimes.com पर लिखें। जी इस प्रतियोगिता में हिन्दी या अंग्रेज़ी में कहानी भेजी जा सकती है .