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हिन्दी टाकीज:फिल्म बनाई है तो कोई बात होगी-सचिन श्रीवास्तव

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हिन्दी टाकीज-१५ इस बार सचिन श्रीवास्तव.सचिन नई इबारतें नाम से एक ब्लॉग लिखते हैं.उनके लेखन में एक बांकपन है,जो इन दिनों दुर्लभ होता जा रहा है.आजकल सभी चालाक और सुरक्षित लिखते हैं.अगर सचिन की बात करें तो उनके ही शब्द हैं,'मैं अपने बारे में उतना ही जानता हूं जितना कोई अपने किसी पडोसी के बारे में जानता हो सकता है। गांव देहात में यह भी पता होता है कि पडोसी ने कल कितनी रोटियां खाई थीं और नगरीय सभ्यता ने सिखाया कि पडोसी के बेटी के ब्याह में भी पूछकर ही मदद की जाए... मैं खुद को इतना ही जानता हूं... बडी और दिलचस्प बात यह कि सारी दुनिया का कुछ न कुछ हिस्सा जानने का दम भरता हूं और कभी कभी आइने में अपनी ही शक्ल देखकर बाजू हट जाता हूं कि भाई सहाब को शायद यहां से कहीं जाना है... मैं सफर पर हूं कहां पहुंचना है यह नहीं जानता बस चल रहा हूं थके कदमों से अकेला...' हिन्दी टाकीज सीरिज़ के लिए बात हुई तो आरम्भिक आलस्य के बाद सचिन ने यह लेख भेजा,' पूरी ईमानदारी से बताया,'इसे लिखते हुए मेरे सामने कोई नहीं था बस मुंगावली, गुना, गंजबासौदा और ऐसे ही आसपास के कस्बों के टॉकीज थे। लिखते हुए उन या

प्रेम और विवाह दुर्लभ संबंध है: सोनू सूद -ईशा कोप्पिकर

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पंजाब के छोटे से शहर मोगा के सोनू सूद और एक विवाह ऐसा भी के भोपाल के प्रेम में समानताएं देखी जा सकती हैं। सोनू मोगा से एक्टर बनने निकले और प्रेम सिंगर बनने निकलता है। छोटे शहरों से आए युवकों को महानगरों में आने के बाद एहसास होता है कि अपने बड़े सपनों के लिए वे छोटे हैं। फिर भी छोटे शहरों में रिश्तों की जो अहमियत है, वह बड़े शहरों में नहीं है। ईशा कोप्पिकर मुंबई में पली-बढ़ी हैं। डाक्टर के परिवार से आई ईशा कोप्पिकर आज भी मध्यवर्गी मूल्यों में यकीन करती हैं। उनकी सोच और योजनाओं में उसकी झलक मिलती है। प्रेम, विवाह और समर्पण को वह बहुत जरूरी मानती हैं। उनके घर में हमेशा परस्पर प्रेम को तरजीह दी गयी है। ईशा एक विवाह ऐसा भी में चांदनी के रूप में प्रेम और वैवाहिक संबंधों को प्राथमिकता देती है। प्रेम के बारे में आपकी क्या धारणा है? सोनू सूद: प्रेम के बिना जिंदगी मुमकिन नहीं है। मां-बाप के प्रेम से हमारी जिंदगी जुड़ी होती है। आप को ऐसा लगता है कि अपने प्रियजनों के लिए कुछ करें। एक विवाह ऐसा भी में प्रेम को नए ढंग से चित्रित किया गया है। सुख में तो हम साथ रहते ही हैं। दुख में साथ रहें तो प्रेम का म

जन्मदिन विशेष:तब शाहरुख गार्जियन बन जाते हैं

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-अब्बास टायरवाला शाहरुख खान की जिन दो फिल्मों अशोका और मैं हूं ना का लेखन मैंने किया, उन दोनों के वे स्वयं निर्माता भी थे। निर्माता होने के साथ ही उन्होंने फिल्मों में लीड भूमिकाएं भी की थीं। गौर करने वाली बात यह है कि दोनों निर्देशकों को ही उन्होंने पहला अवसर दिया था। हालांकि संतोष शिवन पहले फिल्म बना चुके थे, लेकिन हिंदी में यह उनकी पहली फिल्म थी और यह अवसर उन्हें शाहरुख ने ही दिया। वैसे, संतोष हों या फराह खान, दोनों ही उनके पुराने परिचित और करीबी हैं। संतोष से उनकी मित्रता दिल से के समय हुई थी। इसी तरह फराह उनकी फिल्मों में नृत्य-निर्देशन करती रही हैं। फराह को वे छोटी बहन की तरह मानते हैं। शाहरुख के व्यक्तित्व की यही खास बात है कि वे अपने करीबी लोगों के गार्जियन बन जाते हैं या यूं कहें कि लोग उन्हें उसी रूप में देखने लगते हैं। सच तो यह है कि वे अपने मित्र और भरोसे के व्यक्तियों के साथ काम करना पसंद करते हैं। लोग उनके निर्देशक की सूची बनाकर देख सकते हैं। बतौर ऐक्टर वे अपने निर्देशक पर पूरी तरह से निर्भर करते हैं। शायद इसी वजह से भी वे मित्र निर्देशकों की फिल्में करते हैं। अशोका की

जन्मदिन विशेष:प्रियजनों को नाराज़ नहीं कर सकतीं ऐश्वर्या राय

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-अजय ब्रह्मात्मज जन्मदिन 1 नवंबर पर विशेष.. इंटरनेशनल पहचान वाली ऐश्वर्या राय हिंदी फिल्मों की पॉपुलर हीरोइन होने के साथ ही खूबसूरती की इंटरनेशनल आइकॉन भी हैं। माना जाता है कि नाम, इज्जत और धन पाने के बाद व्यक्ति डगमगा जाता है। उसका दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। ऐसे व्यक्तियों का जीवन दुख में बीतता है। ऐश्वर्या राय की खिलखिलाहट उनकी मौजूदगी की आहट देती है। करीब से देख रहे लोग मानेंगे कि जिंदगी और करियर के उतार-चढ़ाव के बावजूद उनके व्यक्तित्व में निरंतर निखार आया है। एक आशंका थी कि बच्चन परिवार में आने के बाद उनकी खिलखिलाहट की खनक खो सकती है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। आज भी वे भोर की उजास की तरह मुग्ध करती हैं। अपनी हंसी से लोगों का मन शीतल करती हैं। कह सकते हैं कि उनकी खिलखिलाहट की खनक बढ़ी है। वृंदा राय और कृष्णराज राय की बेटी हैं ऐश्वर्या राय। मध्यवर्गीय परिवार की परवरिश और आरंभिक हिंदी मीडियम की पढ़ाई ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा है। हाल ही में सभी ने देखा कि वे अपने पिता की सेवा के लिए हिंदुजा अस्पताल में नजर आई, तो श्वसुर के लिए मायके से सूप बनाकर ले गई। उन्होंने बेटी और बहू क

दरअसल:छोटी सफलता को बड़ी कामयाबी न समझें

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों सीमित बजट की कुछ फिल्मों को अच्छी सराहना मिली। संयोग से वे महानगरों के मल्टीप्लेक्स थिएटरों में सप्ताहांत के तीन दिनों से ज्यादा टिकीं और उनका कुल व्यवसाय लागत से ज्यादा रहा। तीन-चार फिल्मों की इस सफलता को अब नया ट्रेंड बताने वाले पंडित बड़ी भविष्यवाणियां कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि अब छोटी फिल्मों का जमाना आ गया है। इन भविष्य वक्ताओं में एक निर्माता भी हैं। चूंकि वे कवि, पेंटर और पत्रकार भी हैं, इसलिए अपनी धारणा को तार्किक बना देते हैं। उन्होंने इस लेख में अपनी जिन फिल्मों के नाम गिनाए हैं, उनकी न तो सराहना हुई थी और न ही उन्हें कामयाब माना गया। आमिर से लेकर ए वेडनेसडे की सराहना और कामयाबी के बीच हल्ला और अगली और पगली जैसी असफल फिल्में भी आई हैं। हां, चूंकि इन फिल्मों की लागत कम थी, इसलिए नुकसान ज्यादा नहीं हुआ। आमिर, मुंबई मेरी जान और ए वेडनेसडे जैसी फिल्मों का उदाहरण देते समय हमें यह भी देखने की जरूरत है कि इनके निर्माता कौन हैं? लोग गौर करें कि बड़ी फिल्मों के निर्माताओं और निर्माण कंपनियों ने ही छोटी फिल्मों के लिए एक शाखा खोल ली है। वे कुछ फिल्में इ

फ़िल्म समीक्षा:गोलमाल रिट‌र्न्स

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पिछली फिल्म की कामयाबी को रिपीट करने के लोभ से कम ही डायरेक्टर व प्रोड्यूसर बच पाते हैं। रोहित शेट्टी और अष्ट विनायक इस कोशिश में पिछली कामयाबी को बॉक्स ऑफिस पर भले ही दोहरा लें लेकिन फिल्म के तौर पर गोलमाल रिट‌र्न्स पहली गोलमाल से कमजोर है। ऐसी फिल्मों की कोई कहानी नहीं होती। एक शक्की बीवी है और उसका शक दूर करने के लिए पति एक झूठ बोलता है। उस झूठ को लेकर प्रसंग जुड़ते हैं और कहानी आगे बढ़ती है। कहानी बढ़ने के साथ किरदार जुड़ते हैं और फिर फिल्म में लतीफे शामिल किए जाते हैं। कुछ दर्शकों को बेसिर-पैर की ऐसी फिल्म अच्छी लग सकती है लेकिन हिंदी की अच्छी कॉमेडी देखने वाले दर्शकों को गोलमाल रिट‌र्न्स खास नहीं लगेगी। अजय देवगन संवादों के माध्यम से अपना ही मजाक उड़ाते हैं। तुषार कपूर गूंगे की भूमिका में दक्ष होते जा रहे हैं। मालूम नहीं एक कलाकार के तौर पर यह उनकी खूबी मानी जाएगी या कमी? फिल्म में अरशद वारसी की एनर्जी प्रभावित करती है। श्रेयस तलपड़े हर फिल्म में यह जरूर बता देते हैं कि वे अच्छे मिमिक्री आर्टिस्ट हैं। उन्हें इस लोभ से बचने की जरूरत है। गानों के फिल्मांकन में रोहित ने अवश्य भव्यता

फ़िल्म समीक्षा:फैशन

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प्रियंका की फिल्म है फैशन -अजय ब्रह्मात्मज हाई सोसायटी के बारे में जानने की ललक सभी को रहती है। यही कारण है कि इस सोसायटी की खबरें चाव से पढ़ी और देखी जाती हैं। फैशन जगत की चकाचौंध के पीछे की रहस्यमय दुनिया खबरों में छिटपुट तरीके से उजागर होती रही है। मधुर भंडारकर ने उन सभी खबरों को समेटते हुए यह फिल्म बनाई है। चूंकि फैशन फीचर फिल्म है इसलिए कुछ किरदारों के इर्द-गिई उन घटनाओं को बुन दिया गया है। फैशन मधुर भंडारकर की बेहतरीन फिल्म है। सिनेमाई भाषा और तकनीक के लिहाज से उनका कौशल परिष्कृत हुआ है। फिल्म फैशन जगत की साजिशों, बंदिशों और हादसों को छूती भर है। मधुर कहीं भी रुक कर उन साजिशों, बंदिशों और हादसों की पृष्ठभूमि की पड़ताल नहीं करते। हिंदी फिल्मकार पापुलर फिल्मों में गहराई में उतरने से बचते हैं और कहीं न कहीं ठोस बाते कहने से घबराते हैं। उन्हें डर रहता है कि दर्शक भाग जाएगा। यही वजह है कि मधुर की फिल्म विशेष होने के बावजूद साधारण ही रह जाती है। हां, प्रतिनिधि के तौर पर चुनी गई तीन माडलों की कहानी दिल को छूती है। मेघना माथुर, सोनाली राजपाल और जेनेट के नाम भले ही अलग हों लेकिन उनकी पृष

लोगों को 'एक विवाह ऐसा भी' वास्तविक लगेगी-कौशिक घटक

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राजश्री की फिल्म एक विवाह ऐसा भी के निर्देशक हैं कौशिक घटक। उन्होंने अनुराग बसु के सहायक के रूप में निर्देशन यात्रा आरंभ की। उनकी तरह ही कौशिक ने भी पहले टीवी सीरियलों का निर्देशन किया। उन्हें जब एक विवाह ऐसा भी के निर्देशन की जिम्मेदारी दी गई, तब वे राजश्री के ही एक सीरियल का निर्देशन कर रहे थे। बातचीत कौशिक घटक से.. सबसे पहले यह बताएं कि फिल्म के नाम में ऐसा भी लगाने की क्या वजह है? क्या आप किसी नए प्रकार के विवाह की बात कर रहे हैं? देश में हर समुदाय और समाज में विवाह की अपनी-अपनी पद्धतियां होती हैं। हम इसमें एक खास किस्म के रिश्ते की बात कर रहे हैं, जो बाद में विवाह में बदलता है। न मिलने की कसमें, न साथ का वादा, न कोई बंधन.., बंधन तो है ही नहीं! हम इस प्रकार के एक विवाह की बात कर रहे हैं। इसमें लिव इन रिलेशनशिप भी नहीं है। यह लड़का-लड़की की एक कहानी है, जिनकी जिंदगी में ऐसा कुछ होता है कि वे साथ नहीं हो पाते। एक-दूसरे को छूना तो दूर, उनकी नजरें तक नहीं मिलती हैं। शारीरिक संबंध का तो सवाल ही नहीं उठता! इस रिश्ते में वे बारह सालों तक रहते हैं। उस रिश्ते की गहराई को व्यक्त करने के लिए

हिन्दी टाकीज:स से सिनेमा-निधि सक्सेना

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हिन्दी टाकीज-१४ इस बार निधि सक्सेना की यादें...निधि जयपुर की हैं। फिल्में देखने का उन्हें जुनून है... बनाने का भी। तमाम एनजीओ के लिए डॉक्यूमेंट्री बनाती हैं। खासकर कुदरत (पानी, जंगल, परिंदों, मिट्टी) पर. दूरदर्शन के लिए भी काम कर चुकी हैं।पढ़ने की आदत जबर्दस्त है और घूमने की भी . स्कल्पचर बनाने के हुनर पर खुद यकीन है और पेंटिंग्स बनाने के कौशल पर बाकियों को. उनका एक सीधा-सादा सा ब्लॉग भी है http://ismodhse.blogspot.com निधि को गाने सुनना भी अच्छा लगता है. नए-पुराने हर तरह के. उन्होंने निराले अंदाज़ में अपने अनुभव रखे हैं। स से सिनेमा क़र्ज़ अदा करूं पहले इस लेख के बहाने मैं बचपन का एक क़र्ज़ अदा कर दूँ। सबसे पहले मेरा धन्यवाद एन। चंद्रा को। अगर वो न होते तो जो भी एक-डेढ़ डिग्री मेरे पास है, अच्छे बुरे अंकों के साथ, वो कभी ना होती। तेजाब वो पहली फ़िल्म हैं, जो मैंने देखी। इससे पहले टीवी या और कुछ देखा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। तेजाब को मेरी देखी पहली फ़िल्म होने के लिए धन्यवाद नहीं, बल्कि उस गाने के कारण धन्यवाद। जिसमे गुलाबी माधुरी थिरकते हुए गाती है...एक दो तीन चार.... स्कूल मैंने जाना श

फ़िल्म समीक्षा:हीरोज

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विषय और भाव से भटकी फिल्म फौज के चार जवानों और उनके परिवार के सदस्यों की भावनाओं के जरिए समीर कर्णिक ने आज के संदर्भ में देशभक्ति और देश सेवा की याद दिलाई है। इसके लिए उन्होंने कुछ पापुलर स्टार चुने और वे स्टार ही फिल्म के विषय पर भारी पड़ गए। समीर सितारों की लोकप्रियता भुनाने के चक्कर में मूल भाव से भटक गए। दुर्भाग्य की बात है कि हीरोज समेत अपनी तीनों फिल्मों में समीर से समान भूलें हुई हैं। मोटर साइकिल और हजार किलो मीटर के सफर से माना जा रहा था कि हीरोज चेग्वेरा के जीवन को लेकर बनी मोटरसाइकिल डायरी से प्रभावित होगी। लेकिन, समीर ने बिल्कुल अलग फिल्म बनाई है। विचार नया और अद्भुत है लेकिन उसके फिल्मांकन में उन्होंने सलमान खान और सनी देओल पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दे दिया है। अगर वे स्टार के बजाए किरदार पर ध्यान केंद्रित कर चलते तो फिल्म ज्यादा प्रभावकारी होती और अपने विषय व भाव के साथ न्याय कर पाती। सलमान का प्रसंग बेवजह लंबा खींचा गया है। सनी देओल के मुक्के और बहादुरी को दिखाने के लिए भी सीन ठूंसे गए हैं। नतीजा यह हुआ कि हीरोज न तो मसाला फिल्म बन पाई और न ही अपना संदेश ढंग से रख पाई। समीर