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दरअसल:फिल्में देखने के लिए जरूरत है तैयारी की

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-अजय ब्रह्मात्मज दोष दर्शकों का नहीं है। हम अपने स्वाद के मुताबिक भोजन, वस्त्र, साहित्य, कला और मनोरंजन की सामग्रियां पसंद करते हैं। बचपन से बड़े होने तक परिवार और समाज के प्रभाव और संस्कार से हमारी रुचियां बनती हैं। फिल्मों के मामले में हम रुचियों के इस भेद को बार-बार देखते हैं। कुछ फिल्में किसी एक समूह द्वारा सराही जाती है और दूसरे समूह द्वारा नकार दी जाती हैं। ताजा उदाहरण कमीने का है। इस फिल्म के प्रति दर्शक और समीक्षकों का स्पष्ट विभाजन है। जो इसे पसंद कर रहे हैं, वे बहुत पसंद कर रहे हैं, लेकिन नापसंद करने वाले भी कम नहीं हैं। कमीने इस मायने में अलग है कि इसके बारे में ठीक है टिप्पणी से काम नहीं चल सकता! भारतीय और खासकर हिंदी फिल्मों के संदर्भ में मेरा मानना है कि दर्शकों के बीच विधिवत सिने संस्कार नहीं हैं। हमें न तो परिवार में और न स्कूल में कभी अच्छी फिल्मों के गुणों के बारे में बताया गया और न कभी समझाया गया कि फिल्में कैसे देखते हैं? हम फिल्में देखते हैं। जाति और राष्ट्र के रूप में हम सबसे ज्यादा फिल्में देखते हैं, लेकिन अभी तक फिल्में हमारे पाठ्यक्रम में नहीं आ पाई हैं। जिंदगी

यूजी मेरे गुरुदेव: महेश भट्ट

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मैं यूजी से अपने रिश्ते को परिभाषित नहीं कर सकता। क्या हमारे बीच गुरु-शिष्य का रिश्ता था? हाँ था, लेकिन यूजी खुद को गुरु नहीं मानते थे और न मुझे शिष्य समझते थे। कुछ था उनके अंदर, जो उनके सत्संग और संस्पर्श से मेरे अंदर जागृत हो उठता था। उनके स्पर्श ने मुझे झंकृत कर दिया था, मानो मेरे तन-मन के सारे तार बज उठे हों। उन पर लिखी अपनी पुस्तक ए टेस्ट ऑफ लाइफ की पिछले दिनों मुंबई में रिलीज के मौके पर मैं इतना द्रवित हो उठा था कि खुद को रोकने के लिए मुझे अपनी उंगली दांतों से काटनी पड़ी। अनुपम खेर को मेरा उंगली काटना हास्यास्पद लगा, लेकिन मुझे कोई और उपाय नहीं सूझा। मैंने इंगमार बर्गमैन की फिल्मों में देखा था कि उनके किरदार गहरे दर्द से निकलने के लिए खुद को जिस्मानी तकलीफ पहुंचाते थे, ताकि दर्द कहीं शिफ्ट हो जाए। मैं वही कर रहा था। मेरे अंदर उनकी यादों का ऐसा समंदर है, जो बहना शुरू हो जाए तो रूकेगा ही नहीं। उस दिन जो सभी ने देखा, वह तो एक कतरा था। यूजी से अपने रिश्ते पर मैं घंटों बात कर सकता हूं। मेरी बातचीत में शिद्दत ऊंची होगी और समुद्री ज्वार की तरह मेरे शब्द उछाल मारेंगे। उनकी बातें करते हुए

फ़िल्म समीक्षा:सिकंदर

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आतंकवाद के साए में तबाह बचपन -अजय ब्रह्मात्मज निर्देशक पीयूष झा ने आतंकवाद के साए में जी रहे दो मासूम बच्चों की कहानी के मार्फत बड़ी सच्चाई पर अंगुली रखी है। आम जनता ने नुमाइंदे बने लोग कैसे निजी स्वार्थ के लिए किसी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सिकंदर मुश्किल स्थितियों में फंसे बच्चे तक ही सीमित नहीं रहती। कश्मीर की बदल रही परिस्थिति में राजनीति के नए चेहरों को भी फिल्म बेनकाब करती है। सिकंदर के मां-बाप को जिहादियों ने मार डाला है। अभी वह अपने चाचा के साथ रहता है। स्कूल में उसके सहपाठी उसे डपटते रहते हैं। फुटबाल के शौकीन सिकंदर की इच्छा है कि वह अपने स्कूल की टीम के लिए चुन लिया जाए। स्कूल में नई आई लड़की नसरीन उसकी दोस्त बनती है। कहानी टर्न लेती है। सिकंदर के हाथ रिवाल्वर लग जाता है। वह अपने सहपाठियों को डरा देता है। रिवाल्वर की वजह से जिहादियों का सरगना उससे संपर्क करता है। वह वाशिंग मशीन खरीदने की उसकी छोटी ख्वाहिश पूरी करने का दिलासा देता है और एक खतरनाक जिम्मेदारी सौंपता है। दिए गए काम के अंजाम से नावाकिफ सिकंदर गफलत में जिहादी सरगना का ही खून कर बैठता है। एक मासूम जिंदगी तबाह होत

निगाह है इंटरनेशनल मार्केट पर

-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों शाहरुख खान और करण जौहर की कामयाब जोड़ी ने अमेरिका की मशहूर फिल्म कंपनी ट्वेंटीएथ सेंचुरी फॉक्स की एशिया में कार्यरत कंपनी फॉक्स स्टार स्टूडियो से समझौता किया। इस समझौते के तहत फॉक्स उनकी आगामी फिल्म माई नेम इज खान का विश्वव्यापी वितरण करेगी। इस समझौते की रकम नहीं बताई जा रही है, लेकिन ट्रेड पंडित शाहरुख और काजोल की इस फिल्म को 80 से 100 करोड़ के बीच आंक रहे हैं। करण जौहर की फिल्में पहले यशराज फिल्म्स द्वारा वितरित होती थीं। उन्होंने अपने प्रोडक्शन की अयान मुखर्जी निर्देशित वेकअप सिड और रेंजिल डी-सिल्वा निर्देशित कुर्बान के वितरण अधिकार यूटीवी को दिए। तभी लग गया था कि करण अपनी फिल्मों के लिए यशराज के भरोसे नहीं रहना चाहते। दोस्ती और संबंध जरूरी हैं, लेकिन फिल्मों का बिजनेस अगर नए पार्टनर की मांग करता है, तो नए रिश्ते बनाए जा सकते हैं। अपनी फिल्म के लिए एक कदम आगे जाकर उन्होंने फॉक्स से हाथ मिलाया। उन्हें ऐसा लगता है कि फॉक्स उनकी फिल्म माई नेम इज खान को इंटरनेशनल स्तर पर नए दर्शकों तक ले जाएगी। हम सभी जानते हैं कि करण हिंदी फिल्मों के ओवरसीज मार्केट में बहुत

एक तस्वीर:अजब प्रेम की गजब कहानी

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रणबीर कपूर और कैटरिना कैफ के इस इस अजब प्रेम की गजब कहानी राज कुमार संतोषी लेकर आ रहे है। यह पहली तस्वीर है। आप बताएं कि इस गजब कहनी की फ़िल्म को देखने के लिए कितने उत्सुक हैं।

सुनहरे दिनों की सुनहरी नायिका लीला नायडू-विपिन चौधरी

सुन्दरता सच में बेहद मासूम होती है। मासूम के साथ-साथ सहज भी। खूबसूरती, मासूमयिता और नफासत देखनी हो कई नामों की भीड से गुजरते हुये हिंदी फिल्मों में अपनी छोटी लेकिन मजबूत उपस्तिथी दर्ज करवाने वाली नायिका लीला नायडू का नाम हमारे सामने आता है। उन दिनों जब जीवन बेहद सरल होता था और लोग भी सीधे-साधे। उन सुनहरे दिनों की बात की जाये जब सोना सौ प्रतिशित खरा सोना होता था। उनही दिनों के आगे पीछे की बात है जब हरिकेश मुखजी की' अनुराधा' फिल्म आई थी। नायक थे बलराज साहनी और नायिका थी लीला नायडू। जिस सहजता, सरलता का ताना बाना ले कर मुखर्जी फिल्में बनाते है उसी का एक और उदाहरण है उनकी यह फिल्म। उनकी फिल्मों में आपसी रिश्तों की बारीकियों सहज ही दिखाई देती थी। अनुराधा,फिल्म की नायिका लीला नायडू का मासुम सौन्दर्य देखते ही बनता था और उससे भी मधुर था उनके संवादों की अदायगी। सहअभिनेता भी वो जो सहज अभिनय के लिये विख्यात हो और अभिनेत्री की सहजता भी काबिले दाद। महीन मानवीय सम्बंधों पर पैनी पकड वाले निदेशक ऋषिकेश मुखर्जी ने १९८० में फिल्म बनाई थी अनुराधा। दांपत्य जीवन के सम्बंधो में तमाम तरह के उतार चढाव

दरअसल:आशुतोष की युक्ति, प्रियंका की चुनौती

- अजय ब्रह्मात्मज आशुतोष गोवारीकर ने अपनी नई फिल्म ह्वाट्स योर राशि? के लिए अपनी गंभीर मुद्रा छोड़ी है। लगान के बाद वे लंबी और गंभीर फिल्में ही निर्देशित करते रहे। आशुतोष को करीब से जो लोग जानते हैं, वे उनके विनोदी स्वभाव से परिचित हैं। ऐसा लगता है कि हरमन बवेजा और प्रियंका चोपड़ा की इस फिल्म में लोग आशुतोष के इस रूप से परिचित होंगे। फिल्म ह्वाट्स योर राशि? गुजराती के उपन्यासकार मधु राय की कृति किंबाल रैवेंसवुड पर आधारित है। मधु वामपंथी सोच के लेखक हैं। उन्होंने इस कृति में भारतीयता की खोज में भारत लौट रहे आप्रवासी भारतीयों की समझ का मखौल उड़ाया है। वे भारत के मध्यवर्गीय परिवारों पर भी चोट करते हैं। उपन्यास के मुताबिक योगेश ईश्वर पटेल पर दबाव है कि वह भारत की ऐसी लड़की से शादी करे, जो सुसंस्कृत और भारतीय परंपरा में पली हो। भारत आने के बाद योगेश को अहसास होता है कि भारत की लड़कियों का नजरिया और रहन-सहन बदल चुका है। योगेश की इन मुठभेड़ों पर ही कहानी रची गई है। वर्षो पहले 1989 में केतन मेहता ने इसी उपन्यास पर मिस्टर योगी नाम का धारावाहिक बनाया था। धारावाहिक में मोहन गोखले ने योगेश की

फ़िल्म समीक्षा:कमीने

**** बैड ब्वाय के एंगल से गुड ब्वाय की कहानी -अजय ब्रह्मात्मज वह चलता है, मैं भागता हूं-चार्ली (लेकिन दोनों अंत में साथ-साथ एक ही जगह पहुंचते हैं। जिंदगी है ही ऐसी कमीनी।) समकालीन युवा निर्देशकों में विशाल भारद्वाज महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। अगर आपने विशाल की पिछली फिल्में देखी हैं तो कमीने देखने का रोमांच ज्यादा होगा। अगर उनकी कोई फिल्म पहले नहीं देखी है तो शैली, शिल्प, संवाद, दृश्य, दृश्य संयोजन, संरचना, बुनावट, रंग, प्रकाश और टेकिंग सभी स्तरों पर नवीनता का एहसास होगा। एकरेखीय कहानी और पारंपरिक शिल्प के आदी दर्शकों को झटका भी लग सकता है। यह 21वीं सदी का हिंदी सिनेमा है, जो गढ़ा जा रहा है। इसका स्वाद और आनंद नया है। विशाल भारद्वाज ने जुड़वां भाइयों की कहानी चुनी है। उनमें से एक बैड ब्वाय और दूसरा गुड ब्वाय है। बचपन की एक घटना की वजह से दोनों एक-दूसरे को नापसंद करते हैं। उनकी मंजिलें अलग हैं। बैड ब्वाय जिंदगी में कुछ भी हासिल करने के दो ही रास्ते जानता है-एक शार्टकट और दूसरा छोटा शार्टकट। जबकि गुड ब्वाय ने अपनी आलमारी के भीतरी पल्ले पर 2014 तक का अपना लाइफ ग्राफ बना रखा है। नएपन के लि

हिन्दी टाकीज:काश, लौटा दे मुझे कोई वो सिनेमाघर ........ -सुदीप्ति

हिन्दी टाकीज-४५ चवन्नी को यह पोस्ट अचानक अपने मेल में मानसून की फुहार की तरह मिला.सुदीप्ति से तस्वीर और पसंद की १० फिल्मों की सूची मांगी है चवन्नी ने.कायदे से इंतज़ार करना चाहिए था,लेकिन इस खूबसूरत और धड़कते संस्मरण को मेल में रखना सही नहीं लगा.सुदीप्ति जब तस्वीर भेजेंगी तब आप उन्हें देख सकेंगे.फिलहाल हिन्दी टाकीज में उनके साथ चलते हैं पटना और सिवान... bबिहार के एक छोटे से गाँव से निकलकर सुदीप्ति ने पटना वूमेन'स कॉलेज और जे एन यू में अपनी पढ़ाई की है। छोटी-छोटी चीजों से अक्सरहां खुश हो जाने वाली, छोटी-छोटी बातों से कई बार आहत हो जाने वाली, बड़े-बड़े सपनों को बुनने वाली सुदीप्ति की खुशियों की चौहद्दी में आज भी सिनेमा का एक बहुत बड़ा हिस्सा मौजूद है।जितनी ख़ुशी उनको इतिहास,कहानियों,फिल्मों और मानव-स्वभाव के बारे में बात करके मिलती है, उससे कहीं ज्यादा खुश वो पटनहिया सिनेमाघरों के किस्सों को सुनाते हुए होती हैं. झूठ बोलकर या छुपाकर ही सही, खुद सिनेमा देखने बिहार में सिनेमाघर में चले जाना, बगैर किसी पुरुष रिश्तेदार/साथी के, साहस और खुदमुख्तारी को महसूस करने का इससे बड़ा जरिया भला और क्य

शर्मीले, नुकीले और हठीले विशाल की कमीने

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-अजय ब्रह्मात्मज कम लोग जानते हैं कि विशाल भारद्वाज ने पहली फिल्म की प्लानिंग अजय देवगन के साथ की थी। शायद इसी वजह से अगला मौका मिलते ही अजय देवगन ने विशाल भारद्वाज के निर्देशन में ओमकारा की। विशाल ने मकड़ी और मकबूल बनायी। इस बार विशाल भारद्वाज ने फिल्म का शीर्षक ही कमीने रख दिया है। कमीने विशाल भारद्वाज का ओरिजनल आइडिया नहीं है। उन्होंने नैरोबी के एक लेखक से इसे खरीदा है। उन्होंने अपने जीवन के अनुभव इसमें जोड़े हैं और इस समकालीन भारत की फिल्म बना दिया है। शहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा इसे अपने करिअर की श्रेष्ठ फिल्म कह रहे हैं। उम्मीद करें कि वे आदतन यह नहीं कह रहे हों। शर्मीले,नुकीले और हठीले विशाल भारद्वाज फिलहाल इस बात से दुखी हैं कि उनकी फिल्म को यूए सर्टिफिकेट नहीं मिला है। वे चाहते हैं कि उनकी फिल्म कमीने सभी देखें, लेकिन सेंसर से ए सर्टिफिकेट मिलने की वजह से उनके दर्शक कम हो जाएंगे। चाहे-अनचाहे वे विवादों में भी फंसे हैं। कहा जा रहा है कि यह फिल्म आमिर खान और सैफ अली खान ने रिजेक्ट कर दी थी। विशाल सफाई देते फिर रहे हैं। इतना ही नहीं पापुलर हुए गीत, धन दे तान.. की लोकप्रियता का श्र