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फिल्‍म समीक्षा : आक्रोश

ऑनर किलिंग पर उत्तर भारत की पृष्ठभूमि पर बन रही आक्रोश की दक्षिण भारत में चल रही शूटिंग की खबर ने ही चौंकाया था कि क्या कोई फिल्मकार इस असंगत प्रयास के बावजूद सफल हो सकता है? फिल्म को रियल और विश्वसनीय टच देने की सबसे बड़ी चुनौती होती है कि वह परिवेश, वेशभूषा और भाषा में समय और स्थान विशेष को सही ढग से चित्रित करे। प्रियदर्शन ने विषय तो प्रासंगिक चुना, लेकिन उसकी प्रस्तुति में अप्रासंगिक और बेढब हो गए। आक्रोश का परिवेश कहानी का साथ नहीं देता। प्रियदर्शन को कांजीवरम के लिए नेशनल अवार्ड मिल चुका है और वे कामेडी फिल्मों के सफल निर्देशक हैं। कामेडी, कॉमर्स और कंटेंट के बीच वे आसानी से घूमते रहते हैं, लेकिन आक्रोश में उनकी क्रिएटिव कोताही साफ नजर आती है। कहानी बिहार के एक अजीब काल्पनिक स्थान की है, जो गांव, कस्बा और शहर का मिश्रण है। वहां पुलिस विभाग के आईजी और कलक्टर रहते हैं। भूतपूर्व एमएलए सुकुल वहां के बाहुबली हैं, लेकिन अजातशत्रु नामक पुलिस अधिकारी अपने आईजी और बाहुबली से भी ज्यादा खास किरदार है। प्रियदर्शन कथा के परिवेश और पात्रों को गढ़ने में पूरी तरह से चूक गए हैं, जिसकी वजह से फिल्

मुंबई आए रजनीकांत

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मुंबई आए रजनीकांत तमिल, तेलुगू और हिंदी तीनों ही भाषाओं में मणि शंकर निर्देशित रजनीकांत की रोबोट दर्शकों को भा रही है। पिछली फिल्म शिवाजी के बाद रजनीकांत के दर्शकों में भारी इजाफा हुआ है। अब वे केवल तमिल तक सीमित नहीं रह गए हैं। निश्चित रूप से भारतीय फिल्म स्टारों की अग्रिम पंक्ति में खड़े रजनीकांत को सभी भाषाओं के दर्शक देखना चाहते हैं। मुझे लगता है कि जिन भाषाओं में उनकी फिल्म डब नहीं हुई है और जो दर्शक तमिल, तेलुगू और हिंदी नहीं जानते, वे किस कदर 21वीं सदी के इस फेनोमेना से वंचित हैं। पॉपुलर कल्चर के अध्येताओं को रजनीकांत की लोकप्रियता के कारणों पर शोध और विमर्श करना चाहिए कि आखिर कैसे 61 साल का बुजुर्ग अभिनेता किसी भी जवान स्टार से अधिक लोकप्रिय हो गया? पिछले हफ्ते रजनीकांत मुंबई आए। यहां उन्होंने अपनी फिल्म का विशेष शो रखा था, जिसमें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की सभी हस्तियों को आमंत्रित किया गया था। आमिर खान और अमिताभ बच्चन समेत सभी उनसे मिलने और उनकी फिल्म देखने गए और अभिभूत होकर लौटे। दक्षिण के इस स्टार का जादू मुंबई के स्टारों के सिर चढ़ कर बोल रहा है। खुद को नेशनल स्टार समझने वाले

अमिताभ बच्‍चन : हो जाए डबल आपकी खुशी -सौम्‍या अपराजिता /अजय ब्रह्मात्‍मज

कल 11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन का 68वां जन्मदिन है और कल ही शुरू हो रहा है 'कौन बनेगा करोड़पति' का चौथा संस्करण। इस अवसर पर उनसे एक विशेष साक्षात्कार के अंश.. [कल आपका जन्मदिन है। प्रशंसकों को क्या रिटर्न गिफ्ट दे रहे हैं?] उम्मीद करता हूं कि मेरा जन्मदिन मेरे चाहने वालों के लिए खुशियों की डबल डुबकी हो। जन्मदिन तो आते रहते हैं, पर इस बार कौन बनेगा करोड़पति मेरे जन्मदिन पर शुरू हो रहा है, यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। अभी तक मैंने जितने भी एपिसोड की शूटिंग की है, उसमें ज्यादातर प्रतियोगी छोटे शहरों और गांवों के लोग हैं। इंटरनेट और कंप्यूटराइजेशन की वजह से उनके पास भी बहुत सारा ज्ञान है। वे सब जानते हैं, पर धनराशि के अभाव में वे प्राइमरी एजुकेशन के बाद ज्यादा नहीं पढ़ पाते हैं। कई ऐसे प्रतियोगी केबीसी में आए हैं, जिन्होंने मुझे बताया कि मेरे पास पचास हजार रुपए नहीं थे, इसलिए मैं एमबीए नहीं कर पाया। सिविल सर्विसेज की तैयारी करनी थी, पर पैसे नहीं थे, तो आम लोगों के लिए यह एक अच्छा अवसर है। अभी कौन बनेगा करोड़पति शुरू होगा उसके बाद फिल्में होगी, जो अगले साल प्रदर्शित होंगी। राज

दबंग देखने लौटे दर्शक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पटना, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और मधुबनी..। पिछले दिनों इन चार शहरों से गुजरने का मौका मिला। हर शहर में दबंग की एक जैसी स्थिति नजर आई। अभिनव सिंह कश्यप की यह फिल्म जबरदस्त हिट साबित हुई है। तीन हफ्तों के बाद भी इनके दर्शकों में भारी गिरावट नहीं आई है। बिहार के वितरक और प्रदर्शकों से लग रहा है कि दबंग सलमान खान की ही पिछली फिल्म वांटेड से ज्यादा बिजनेस करेगी। उल्लेखनीय है कि बिहार में वांटेड का कारोबार 3 इडियट्स से अधिक था और सलमान खान बिहार में सर्वाधिक लोकप्रिय स्टार हैं। पटना में फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम दबंग की कामयाबी से बहुत अधिक चकित नहीं हैं। बातचीत के क्रम में उन्होंने अपनी एक राय जाहिर की, गौर से देखें तो दबंग हिंदी में बनी भोजपुरी फिल्म है। यही कारण है कि पिछले दस सालों में हिंदी सिनेमा से उपेक्षित हो चुके दर्शकों ने इसे हाथोंहाथ अपनाया। पिछले दस सालों में भोजपुरी सिनेमा ने उत्तर भारत और खासकर बिहार और पूर्वी यूपी में दर्शकों के मनोरंजन की जरूरतें पूरी की है। उनकी रुचि और पसंद पर दबंग खरी उतरी है। विनोद अनुपम की राय में सच्चाई है। दबंग में हिंदी सिनेमा में पिछले

नेहा शर्मा

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पटना से अपनी फिल्म क्रुक का प्रचार कर के लौटी नेहा शर्मा को खुशी है कि उन्हें उनके गृह राज्य में लोगों ने इतना प्यार दिया। भागलपुर और दिल्ली में पली-बढ़ी नेहा शर्मा ने सोचा नहीं था कि वह फिल्मों में आएंगी। वह तो फैशन डिजायनिंग का कोर्स करने दिल्ली गई थीं। पढ़ाई के दौरान ही उन्हें तेलुगू फिल्म कुराडो मिल गई। चूंकि चिरंजीवी के बेटे राम चरण की भी वह पहली फिल्म थी, इसलिए अच्छा प्रचार मिला। अनायास मिले इस मौके का नेहा ने सदुपयोग किया और फिल्मों में कॅरियर बनाने का फैसला कर लिया। उत्तर भारत से दक्षिण भारत और फिर वहां से हिंदी फिल्मों में प्रवेश के रास्ते में कई बाधाएं आती हैं। नेहा इन सभी के लिए तैयार थीं। उन्हें पता चला कि विशेष फिल्म्स को अपनी नई फिल्म के लिए एक नयी हीरोइन की जरूरत है। उन्होंने कोशिश की। कोशिश कामयाब हुई, क्योंकि क्रुक के निर्देशक मोहित सूरी ने उनकी तेलुगू फिल्में देख रखी थीं। एक ऑडिशन हुआ और नेहा शर्मा को क्रुक में सुहानी की भूमिका के लिए चुन लिया गया। इसमें वह आस्ट्रेलिया में पली-बढ़ी एक लड़की का किरदार निभा रही हैं। भागलपुर जैसे स्माल टाउन से ग्लैमर की राजधानी मुंबई तक

गुलज़ार :गीत यात्रा के पांच दशक-अमितेश कुमार

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‘ गंगा आये कहां से ’ ‘ काबुलीवाला ’ के इस गीत के साथ गुलजार का पदार्पण फ़िल्मी गीतों के क्षेत्र में हुआ था। ‘ बंदिनी ’ के गीत ‘मोरा गोरा अंग लईले’ से गुलज़ार फ़िल्म जगत में प्रसिद्धी पा गये। लगभग पांच दशकों से वे लगातार दर्शकों को अपनी लेखनी से मंत्रमुग्ध किये हुए हैं। इस सफ़लता और लोकप्रियता को पांच दशकों तक कायम रखना निश्चय ही उनकी असाधारण प्रतिभा का परिचय़ देता है। इस बीच में उनकी प्रतिस्पर्धा भी कमजोर लोगो से नहीं रही। जनता और प्रबुद्ध दोनों वर्गों मे उनके गीत लोकप्रिय हुए। उनका गीत देश की सीमाओं को लांघ कर विदेश पहुंचा और उसने आस्कर पुरस्कार को भी मोहित कर लिया और ग्रैमी को भी | गुलज़ार बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। फ़िल्मों मे निर्देशन, संवाद और गीत लेखन के साथ अदबी जगत में भी सक्रिय हैं। गुलज़ार का फ़िल्मकार रूप मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है। लोकप्रिय सिनेमा की सरंचना में रहते हुए उन्होंने सार्थक फ़िल्में बनाई हैं। उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्मों की सिनेमा के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण जगह है। मेरे अपने, कोशिश, मौसम, आंधी, खुशबु, परिचय, इजाजत, माचिस इत्यादि उनके द्वार

आन बान और खान-सौम्‍या अपराजिता/रघुवेंद्र सिंह

देखते ही देखते सलमान खान की दबंग ने आमिर खान की 3 इडियट के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को पीछे छोड़ दिया। दबंग ने पहले हफ्ते में 81 करोड़ रुपए से अधिक का व्यवसाय किया, जबकि 3 इडियट ने 80 करोड़ रुपए की कमाई की थी। बॉक्स ऑफिस पर इस नए रिकॉर्ड को कायम कर सलमान ने आमिर से बाजी मारते हुए शाहरुख के लिए चुनौती पेश की है। रा.वन फिल्म से अब इस चुनौती पर खरा उतरना शाहरुख खान की आन, बान और शान के लिए जरूरी हो गया है। उनके सामने पहले ही हफ्ते में 80-81 करोड़ रुपए से अधिक कमाई करने की चुनौती रहेगी। [स्टार पॉवर की होगी परीक्षा] ''दबंग के रिकॉर्ड को शाहरुख अवश्य चुनौती के रूप में लेंगे। यह उनकी फितरत है। वे हर चीज को चुनौती के रूप में लेते हैं'', वरिष्ठ फिल्म पत्रकार मीना अय्यर के इस कथन से ज्ञात होता है कि दबंग से मिली चुनौती से शाहरुख खान भली-भांति वाकिफ हैं। जब भी सलमान या आमिर की कोई फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए सोपान छूती है, तब उनके स्टार पॉवर की परीक्षा की घड़ी आ जाती है। ऐसा ही कुछ दबंग की रिलीज के बाद हो रहा है। ट्रेड व‌र्ल्ड एवं फिल्म इंडस्ट्री में इस बात पर बहस छिड़ चुकी है कि क्

बी आर चोपड़ा का सफ़र-प्रकाश के रे

भाग-7 नया दौर (1957) बी आर चोपड़ा की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म है. इस फ़िल्म को न सिर्फ़ आजतक पसंद किया जाता है, बल्कि इसके बारे में सबसे ज़्यादा बात भी की जाती है. नेहरु युग के सिनेमाई प्रतिनिधि के आदर्श उदाहरण के रूप में भी इस फ़िल्म का ज़िक्र होता है. पंडित नेहरु ने भी इस फ़िल्म को बहुत पसंद किया था. लेकिन इस फ़िल्म को ख़ालिस नेहरूवादी मान लेना उचित नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं नेहरु औद्योगिकीकरण के कट्टर समर्थक थे और बड़े उद्योगों को 'आधुनिक मंदिर' मानते थे, लेकिन यह फ़िल्म अंधाधुंध मशीनीकरण पर सवाल उठती है. और यही कारण है कि इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. बरसों बाद एक साक्षात्कार में चोपड़ा ने कहा था कि तब बड़े स्तर पर मशीनें लायी जा रही थीं और किसी को यह चिंता न थी कि इसका आम आदमी की ज़िंदगी पर क्या असर होगा. प्रगति के चक्के के नीचे पिसते आदमी की फ़िक्र ने उन्हें यह फ़िल्म बनाने के लिये उकसाया. फ़िल्म की शुरुआत महात्मा गांधी के दो कथनों से होती है जिसमें कहा गया गया है कि मशीन मनुष्य के श्रम को विस्थापित करने और ताक़त को कुछ लोगों तक सीमित कर देने मात्र का साधन नहीं होनी

..और भी फिल्में हुई हैं 50 की

-सौम्‍या अपराजिता इन दिनों मुगलेआजम के प्रदर्शन की स्वर्णजयंती मनायी जा रही है। हर तरफ इस फिल्म की भव्यता, आकर्षण और महत्ता की चर्चा हो रही है, पर क्या आपको पता है कि वर्ष 1960 में मुगलेआजम के साथ-साथ कई और क्लासिक फिल्मों के प्रदर्शन ने हिंदी सिनेमा को समृद्ध बनाया था। बंबई का बाबू, चौदहवीं का चांद, छलिया, बरसात की रात, अनुराधा और काला बाजार जैसी फिल्मों ने मधुर संगीत और शानदार कथ्य से दर्शकों का दिल जीत लिया था। आज भी जब ये फिल्में टेलीविजन चैनलों पर दिखायी जाती हैं, तो दर्शक इन क्लासिक फिल्मों के मोहपाश में बंध से जाते हैं। 'छलिया मेरा नाम.हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई सबको मेरा सलाम' इस गीत से बढ़कर सांप्रदायिक सौहा‌र्द्र का संदेश क्या हो सकता है? एक साधारण इंसान के असाधारण सफर की कहानी बयां करती छलिया को राज कपूर, नूतन और प्राण ने अपने बेहतरीन अभिनय और मनमोहन देसाई ने सधे निर्देशन से यादगार फिल्मों में शुमार कर दिया। प्रयोगशील सिनेमा की तरफ राज कपूर के झुकाव की एक और बानगी उसी वर्ष जिस देश में गंगा बहती है में दिखी। राज कपूर-पद्मिनी अभिनीत और राधु करमाकर निर्देशित इस फिल्म को उस

लाइट और ग्रीन रूम की खुशबू खींचती थी मुझे: संजय लीला भंसाली

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खूबसूरत सोच और छवियों के निर्देशक संजय लीला भंसाली की शैली में गुरुदत्त और बिमल राय की शैलियों का प्रभाव और मिश्रण है। हिंदी फिल्मों के कथ्य और प्रस्तुति में आ रहे बदलाव के दौर में भी संजय पारंपरिक नैरेटिव का सुंदर व परफेक्ट इस्तेमाल करते हैं। उनकी फिल्मों में उदात्तता, भव्यता, सुंदरता दिखती है। उनके किरदार वास्तविक नहीं लगते, लेकिन मन मोहते हैं। उनकी अगली फिल्म गुजारिश जल्द ही रिलीज होगी। उसमें रितिक रोशन व ऐश्वर्या राय प्रमुख भूमिकाओं में हैं। आज के संजय लीला भंसाली को सभी जानते हैं। हम उन्हें यादों की गलियों में अपने साथ उनकी पहली फिल्म खामोशी से भी पहले के सफर पर ले गए। बचपन कहां बीता? कहां पले-बढे? बचपन मुंबई में ही बीता। सी पी टैंक, भुलेश्वर के पास रहते थे। किस ढंग का इलाका था? मम्मी-डैडी के अलावा मैं, बहन व दादी थे। वार्म एरिया था। चॉल लाइफ थी, लेकिन अच्छी थी। आजकल हम जहां रहते हैं, वहां नीचे कौन रहता है इसका भी पता नहीं होता। वहां पूरे मोहल्ले में, रास्ते में, गली में सब एक-दूसरे को जानते थे। स्कूलिंग कैसी हुई? अंग्रेजी माध्यम, हिंदी