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कभी-कभी ही दिखता है शहर

-अजय ब्रह्मात्मज हर शहर की एक भौगोलिक पहचान होती है। अक्षांश और देशांतर रेखाओं की काट के जरिये ग्लोब या नक्शे में उसे खोजा जा सकता है। किताबों में पढ़कर हम उस शहर को जान सकते हैं। उस शहर का अपना इतिहास भी हो सकता है, जिसे इतिहासकार दर्ज करते हैं। किंतु कोई भी शहर महज इतना ही नहीं होता। उसका अपना एक स्वभाव और संस्कार होता है। हम उस शहर में जीते, गुजरते और देखते हुए उसे महसूस कर पाते हैं। जरूरी नहीं कि हर शहरी अपने शहर की विशेषताओं से वाकिफ हो, जबकि उसके अंदर उसका शहर पैबस्त होता है। साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में विभिन्न शहरों के मर्म का चित्रण किया है। उनकी धड़कनों को सुना है। फिल्मों की बात करें, तो हम देश-विदेश के शहरों को देखते रहे हैं। ज्यादातर फिल्मों में शहर का सिर्फ बैकड्रॉप रहता है। शहर का इस्तेमाल किसी प्रापर्टी की तरह होता है। शहरों के प्राचीन और प्रसिद्ध इमारतों, वास्तु और स्थानों को दिखाकर शहर स्थापित कर दिया जाता है। मरीन लाइंस, वीटी स्टेशन, बेस्ट की लाल डबल डेकर, काली-पीली टैक्सियां, स्टाक एक्सचेंज और गेटवे ऑफ इंडिया आदि को देखते ही हम समझ जाते हैं कि फिल्म के किरदार मु

फिल्म समीक्षा:नॉट ए लव स्टोरी

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अनचाही हत्या में फंसे प्रेमी -अजय ब्रह्मात्मज निर्देशक राम गोपाल वर्मा का डिस्क्लेमर है कि यह फिल्म किसी सच्ची घटना या व्यक्ति से प्रभावित नहीं है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह किस घटना और व्यक्ति से प्रभावित है। राम गोपाल वर्मा ने किरदारों के नाम और पेशे बदल दिए हैं। कहानी वही रखी है। एक महात्वाकांक्षी लड़की हीरोइन बनने के सपने लेकर मुंबई पहुंचती है और अनजाने ही एक क्रूर हादसे का हिस्सा बन जाती है। राम गोपाल वर्मा ने प्राकृतिक रोशनी में वास्तविक लोकेशन पर अपने कलाकारों को पहुंचा दिया है और डिजिटल कैमरे से सीमित संसाधनों में यह फिल्म पूरी की है। मुंबई से दूर बैठे युवा निर्देशक गौर करें। नॉट ए लव स्टोरी देखकर लगता है कि अगर आप के पास एक पावरफुल कहानी है और सशक्त अभिनेता हैं तो कम से कम लागत में भी फिल्में बनाई जा सकती हैं। राम गोपाल वर्मा ने इस फिल्म के लिए पेशेवर कैमरामैन को भी नहीं चुना। उन्होंने प्रशिक्षित और उत्साही युवा फोटोग्राफरों को यह जिम्मेदारी सौंप कर सुंदर काम निकाला है। रामू की यह फिल्म युवा फिल्मकारों को प्रयोग करने का आश्वासन देती है। चूंकि फिल्म प्रेम, हत्या और

कला निर्देशक समीर चंदा-रवि शेखर

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समीर चंदा हैदराबाद फिल्म स्टूडियो.श्याम बेनेगल की पूरी यूनिट पहुंच चुकी है। यंहा एक महीना रह कर हम लोग -हरी भरी फिल्‍म की शूटिंग करने वाले हैं।यहीं सबसे पहले मिलता हूं मैं कला निर्देशक समीर चंदा से. मैं नया था,पर मैंने समीर चंदा को दोस्त मान लिया था। वे अपने काम में पूरी तरह समर्पित.और दोस्तों के दोस्त। हम एक महीने लगभग साथ रहे। वे दूसरी फिल्मों का काम देखने के लिए बीच-बीच मैं गायब भी हो जाते थे। फिर वापस आ जाते थे। उनके पास लोकेशन खोजने के किस्से होते थे जिसे वे दोस्तों को सुनाते थे। मुझे याद है जब उन्होंने 'दिल से' के छैया छैयां गाने के लिए ट्रेन रूट खोजने का किस्सा सुनाया था। अनेक ट्रेन यात्राएं कीं। ड्राइवर के साथ बैठ कर उन्होंने विडियो शूट किया था। फिल्म के दर्शक ज्यादातर अभिनेताओं को ही जानते हैं. पर फिल्म प्रेमी जानते हैं की फिल्म के बनाने में निर्देशक और कैमरा मैन का पूरा सहारा होता है कला निर्देशक। यह कला निर्देशक ही है जो फिल्म का वह दृश्य तैयार करता है जिसे कैमरा शूट करता है। दीवार का रंग परदे का रंग भवन निर्माण तक का सारा काम कला निर्देशक के ही देख रेख में उसकी

बर्फी में रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा

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अनुराग बसु निर्देशित बर्फी में रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा अहम भूमिकाओं में हैं। दोनों को अनुराग ने नए अंदाज में पेश करने की कोशिश की है। इन दिनों इस फिल्‍म की शूटिंग कोलकाता में चल रही है। ये तस्‍वीर इंटरनेट सर्फिंग में दिख गई।

हिंदी फिल्मों के पहले रॉकस्टार थे शम्मी कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज 21 अक्टूबर 1931 को मुंबई के कपूर परिवार में पैदा हुए शम्मी कपूर ने 14 अगस्त 2011 को अंतिम सासें लीं। वे किडनी की बीमारी से ग्रस्त थे। उनके निधन पर अमिताभ बच्चन ने ट्विट किया ़ ़ ़ जिंदादिल शम्मी कपूर खामोश हो गए। शम्मी कपूर की पहली ख्वाहिश इंजीनियर बनने की थी। वे वैमानिकी में योगदान करना चाहते थे। उड़ान भरने की उनकी लालसा हिंदी सिनेमा के पर्दे पर पूरी हुई। मैट्रिक पास करने के बाद वे कालेज भी गए,लेकिन दिल फिल्मों की तरफ खिंचता गया। पिता की सलाह पर वे पृथ्वी थिएटर में शामिल हो गए। यह 1948 की बात है। जूनियर आर्टिस्ट के तौर पर उनकी पगार रखी गई 50 रूपए महीने। 4 सालों तक पृथ्वी थिएटर में सीखने और मंजने के बाद उन्होंने 1952 में पृथ्वी थिएटर छोड़ा तो उनकी पगार 300 रूपए थी। फिल्मों में उनकी शुरूआत कारदार फिल्म्स की फिल्म जीवन ज्योति से हुई। इस फिल्म के निर्देशक महेश कौल थे और हीरोइन थीं चांद उस्मानी। 1952 से 55 के बीच उन्होंने दर्जन भर से अधिक फिल्मों में मधुबाला,नूतन,सुरैया और नलिनी जयवंत जैसी मशहूर अभिनेत्रियों के साथ काम किया,लेकिन इनमें से किसी फिल्म को उल्लेखनीय सफलता नहीं

राष्ट्रीय एकता के पुरस्कार से सम्मानित हिंदी फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्मज अभी न तो हम गुलाम हैं और न ही कोई आजादी की लड़ाई चल रही है। युद्ध और आक्रमण की स्थिति भी नहीं है। हालांकि पड़ोसी देशों से तनाव बना हुआ है और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से हम अछूते नहीं हैं। फिर भी आजादी के 64 सालों में देश ने काफी प्रगति की है। दुनिया के विकसित देशों में हमारी गिनती होने लगी है। इस माहौल में देश की संप्रभुता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम राष्ट्रीय एकता पर ध्यान दें। भारत सरकार की राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समिति सन् 1966 से हर साल एक फिल्म को राष्ट्रीय एकता की सर्वोत्तम फिल्म का पुरस्कार देती है। अभी तक हिंदी में बनी पंद्रह फिल्मों को राष्ट्रीय एकता की सर्वोत्तम फिल्मों के रूप में चुना गया है। राष्ट्रीय एकता पुरस्कार आरंभ हुए को पहला पुरस्कार मनोज कुमार अभिनीत ‘शहीद’ को मिला। 1966 - शहीद 1967 - सुभाष चंद्र 1970 - सात हिंदुस्तानी 1974 - गरम हवा 1975 - परिणय 1984 - सूखा 1985 - आदमी और औरत 1988 - तमस 1994 - सरदार 1998 - बोर्डर 1999 - जख्म 2001 - पुकार 2004 - पिंजर 2005 - नेताजी सुभाष चंद्र बोस 2008 - धर्म 2010 - दिल्ली-6 अगर आपने ये फिल्में नहीं देखी ह

पेद्रो अलमोदोवार

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द टेलीग्राफ में पेद्रो अलमोदोवार की नई फिल्‍म 'द स्किन आई लिव इन' के सिलसिले में डेविड ग्रिटेन ने यह प्रोफाइल और बातचीत लिखी है। पेद्रो अलमोदोवार के प्रशंसकों और उनके बारे में कम या नहीं जानने वालों के लिए मैं इसे वहां से कट-पेस्‍ट कर रहा हूं। Pedro Almodóvar interview for The Skin I Live In Over three decades, Pedro Almodóvar has almost single-handedly brought Spain’s film industry to world attention. He talks about his latest release. By David Gritten My visit to the filmmaker Pedro Almodóvar in Madrid e