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बाल यौन शोषण : इस यातना की अनदेखी न करें- आमिर खान

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बच्चों के यौन शोषण की घटनाओं पर शोध के दौरान मुझे एक बड़ी सीख तब मिली जब मैंने अपनी विशेषज्ञ डॉ. अनुजा गुप्ता से पूछा कि यौन शोषण का शिकार होने के बाद भी बच्चे अपने मां-बाप से उसके बारे में बताने में कठिनाई महसूस क्यों करते हैं? उनका जवाब था, क्या हम बच्चों की सुनते हैं? क्या हम उनकी बात सुनने के लायक हैं? और यह वास्तव में एक बड़ा सवाल है। मेरा अपने बच्चों के साथ क्या संबंध है? क्या मैं अपने बच्चों से उनकी परेशानियां पूछता हूं? क्या वास्तव में बच्चों की बात सुनता हूं? क्या मैं जानता हूं कि मेरे बच्चे के दिमाग में क्या चल रहा है? क्या मैं उसके भय, सपनों, उम्मीदों के बारे में जानता हूं? क्या वास्तव में मैं यह सब जानना भी चाहता हूं। क्या मैं अपने बच्चों का दोस्त हूं? यद्यपि पहली पीढ़ी की तुलना में हमारी पीढ़ी बच्चों के साथ अधिक बातचीत करती है। या कम से कम हम ऐसा मानना पसंद करते हैं..फिर भी हममें से कितने हैं जो अपने बच्चों के साथ मजबूती से जुड़े हैं? हममें से कितनों के पास एक स्वस्थ संबंध के लिए जरूरी समय और सोच है? सच्चाई यह है कि अगर आपका अपने बच्चों के साथ स्वस्थ संवाद

जूनियर शॉटगन सोनाक्षी सिन्हा

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- अजय ब्रह्मात्मज अभिनव सिंह कश्यप की फिल्म दबंग से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दमदार दस्तक दे चुकी सोनाक्षी सिन्हा की दूसरी फिल्म अभी तक नहीं आई है। 10 सितंबर 2010 को रिलीज हुई दबंग ने कई मायने में इतिहास रचा और सोनाक्षी की जगह फिल्म इंडस्ट्री में पक्की कर दी। उन्हें कई पुरस्कार मिले और कंज्यूमर प्रोडक्ट के विज्ञापन भी। कुछ फिल्में भी मिलीं , लेकिन उनके निर्माण में ही पिछला साल निकल गया। 2011 में सोनाक्षी ने सिनेमाघरों में दर्शकों को दर्शन नहीं दिया। हल्की फुसफुसाहट भी सुनने को मिली कि कहीं सोनाक्षी वन फिल्म वंडर तो नहीं हैं। शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी पर सभी की नजर है। स्टारपुत्र और पुत्रियों को खारिज करने के लिए आलोचकों का एक समूह डटा रहता है। अपनी दूसरी-तीसरी फिल्मों में सोनाक्षी को ऐसी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा। अभी की बात करें तो सोनाक्षी अपनी फिल्मों के चक्कर में देश के विभिन्न शहरों के दौरे कर रही हैं। कभी बादामी तो कभी डलहौजी , कभी पटियाला तो कभी कोलकाता , हंपी और मुंबई... चार फिल्मों की शूटिंग की तारीखों और किरदारों को संभालने के साथ देश के भिन्न इलाकों में लगे से

फिल्‍म समीक्षा : इशकजादे

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मसालेदार फार्मूले में रची -अजय ब्रह्मात्‍मज एक काल्पनिक बस्ती है अलमोर। लखनऊ के आसपास कहीं होगी। वहां कुरैशी और चौहान परिवार रहते हैं। जमींदार,जागीरदार और रईस तो अब रहे नहीं,इसलिए सुविधा के लिए उन्हें राजनीति में दिखा दिया गया है। कुरैशी परिवार के मुखिया अभी एमएलए है। चुनाव सिर पर है। चौहान इस बार बाजी मारना चाहते हैं। मजेदार है कि दोनों निर्दलीय हैं। देश में अब कौन से विधान सभा क्षेत्र बचे हैं,जहां राजनीतिक पाटियों का दबदबा न हो? निर्दलियों के जीतने के बाद भी उनके झंडे और नेता तो नजर आने चाहिए थे। देश में समस्या है कि काल्पनिक किरदारों को किसी पार्टी का नहीं बताया जा सकता। कौन आफत मोल ले? दोनों दुश्मन परिवारों के नई पीढ़ी जवान हो चुकी है। इशकजादे का नायक चौहान परिवार का है और नायिका कुरैशी परिवार की। यहां से कहानी शुरू होती है। परमा और जोया लंपट और बदतमीज किस्म के नौजवान हैं। हिंदी फिल्मों के नायक-नायिका के प्रेम के लिए जरूरी अदतमीजी में दोनों काबिल हैं। उन्हें कट्टे और पिस्तौल से प्यार है। मनमानी करने में ही उनकी मौज होती है। दोनों परिवारों में बच्चों को बचपन स

फिल्‍म समीक्षा : डेंजरस इश्‍क

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  जन्म-जन्मांतर की प्रेमकहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज च्छी है 21 वीं सदी। जन्म-जन्मांतर से मिलने के लिए भटकती आत्माओं का मिलन हो जाता है। अधूरे प्रेम और पुनर्जन्म के साथ विक्रम भट्ट ने रहस्य भी जोड़ दिया है। यह फिल्म एक प्रकार से करिश्मा कपूर की रीलांचिंग या दूसरी पारी की शुरूआत है। करिश्मा कपूर को यह जाहिर करने का अच्छा मौका मिला है कि वह हर प्रकार की भूमिकाएं निभा सकती हैं। उन्होंने संजना और उसके पूर्वजन्म के किरदारों को पूरे इमोशन और आवेग के साथ निभाया है। ऐसी प्रेमकहानियां फैंटेसी ही होती हैं। देश की श्रुति परंपरा और पुराने साहित्य मैं पुनर्जन्म और भटकती आत्माओं के अनेक किस्से मिलते हैं। कुछ रोचक और मनोरंजक फिल्में भी बनी हैं। डेंजरस इश्क उसी श्रेणी की फिल्म है। मुमकिन है कि मल्टीप्लेक्स के दर्शक ऐसी कहानी की अवधारणा से ही बिदके,लेकिन छोटे शहरों,कस्बों और देहातों में यह फिल्म पसंद की जा सकती है। विक्रम भट़ट रोचकता बनाए रखने की कोशिश करते हैं। पिछले जन्मों की कहानियों को एक-एक कर उन्होंने लेखक की मदद से गूंथा है। हर जन्म की घटनाओं और वियोग में नाटकीयता का प्रभाव

बेशकीमतीहैं बच्चियां-आमिर खान

दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्‍ठ पर आमिर खान का यह लेख प्रकाशित हुआ है। सत्‍यतेव जयते' की हर कड़ी के बाद वे उसमें उठाए गए विषय प‍र निखेंगे। चवन्‍नी की कोशिश है कि हर लेख यहां उसके पाठकों को अपनी सुविधा से पढ़ने के लिए मिलें। लड़कों अथवा पुरुषों में ऐसा क्या है जो हमें इतना अधिक आकर्षित करता है कि हम एक समाज के रूप में सामूहिक तौर पर कन्याओं को गर्भ में ही मिटा देने पर आमादा हो गए हैं। क्या लड़के वाकई इतने खास हैं या इतना अधिक अलग हैं कि उनके सामने लड़कियों की कोई गिनती नहीं। हमने जब यह पता लगाने के लिए अपने शोध की शुरुआत की कि क्यों वे अपनी संतान के रूप में लड़की के बजाय लड़का चाहते हैं तो मुझे जितने भी कारण बताए गए उनमें से एक भी मेरे गले नहीं उतरा। उदाहरण के लिए किसी ने कहा कि यदि हमारे लड़की होगी तो हमें उसकी शादी के समय दहेज देना होगा, किसी की दलील थी कि एक लड़की अपने माता-पिता अथवा अन्य परिजनों का अंतिम संस्कार नहीं कर सकती। किसी ने कहा कि लड़की वंश अथवा परिवार को आगे नहीं ले जा सकती आदि-आदि। ये सभी हमारे अपने बनाए हुए कारण हैं। हमने खुद दहेज की प्रथा रची और अब यह

मेरे लिए तो मेरा कच्चा रास्ता उनकी सड़क से बेहतर है-विशाल भारद्वाज

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  फिल्मकार विशाल भारद्वाज से अजय ब्रह्मात्मज से बातचीत पर आधारित आलेख मेरा बचपन मेरठ में गुजरा. मेरे पिता कवि थे और एक सरकारी दफ्तर में काम करते थे. सिनेमा ही हमारे मनोरंजन का इकलौता साधन था. बचपन की देखी फिल्में याद करूं तो मुझे ‘परदे के पीछे’ याद आती है. उसमें विनोद मेहरा और नंदा थे. लेकिन फिल्मों में असली रुचि ‘शोले’ से जगी. तब हम पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ते थे. उसके बाद तो अमिताभ बच्चन के ऐसे दीवाने हुए कि उनकी ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘नसीब’, ‘सुहाग’, हर फिल्म देखी. ऐसी फिल्में ही हम देखते थे. इन फिल्मों ने ही असर डालना शुरू किया. श्याम बेनेगल की एक-दो फिल्में भी देखी थीं. कॉलेज में आते-आते ‘उत्सव’ और ‘कलयुग’ आ गई थीं. उस दौर की फिल्म ‘विजेता’ याद है. ज्यादातर फिल्में दोस्तों के साथ देखीं. फिल्मों में इंटरेस्ट था, लेकिन मैं इतना सीरियस दर्शक नहीं था. सच कहूं तो बहुत बाद में म्यूजिक डायरेक्टर बन जाने के बाद भी फिल्मों और डायरेक्शन का खयाल नहीं आया था. मेरे पिता जी ने मुंबई आकर फिल्मों के लिए कुछ गाने भी लिखे. उनकी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से दोस्ती थी. मेरे पिता जी का ना

वाया एनएसडी

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  एनएसडी से हर साल कुछ स्‍नातक मुंबई का रुख करते हैं। उनमें से कुछ ने हिंदी सिनेमा के विकास में बड़ी भूमिकाएं निभाई हैं। एनएसडी और हिंदी फिल्‍मों के रिश्‍ते पर एक सरसरी नजर .... वाया एनएसडी -अजय ब्रह्मात्मज ‘पान सिंह तोमर’ में इरफान की एक्टिंग देख कर विस्मित हो रहे दर्शकों को शायद नहीं मालूम हो कि राजस्थान के जयपुर में शौकिया रंगमंच करने के बाद उन्होंने एनएसडी से तीन सालों की थिएटर में एक्टिंग की ट्रेनिंग ली है। मकसद उनका सिनेमा में आना था। वे आए। उन्हें फिल्में भी मिलीं। ‘मानसून वेडिंग’ से ‘पान सिंह तोमर’ की इस यात्रा में प्रशिक्षण से मिले अभिनय के ज्ञान को उन्होंने साधा और खुद को फिल्मों की एक्टिंग के अनुकूल बनाया। थिएटर एक्टिंग और फिल्म एक्टिंग में कैमरा सबसे बड़ा फर्क पैदा करता है। एनएसडी के छात्र और स्क्रिप्ट रायटर अतुल तिवारी बताते हैं, ‘थिएटर में अभिनेता आप को एक भुलावे में रखता है। फिल्म का कैमरा एक्टर के इतने करीब आ जाता है कि थिएट्रिकल अभिनय की जरूरत नहीं रह जाती। बाल गंधर्व जैसे थिएटर के सशक्त अभिनेता फिल्मों में सफल नहीं हो सके थे। यह साधारणीकरण न करें कि थिएटर के ह

मुझे मालूम है कि जो मुझे अच्‍छा लगता है,वह पब्लिक को भी अच्‍छा लगता है-आमिर खान

 -अजय ब्रह्मात्‍मज -   'लगान' का निर्माण आपका अहम फैसला था। उस फिल्‍म की प्रेरणा से हिंदी फिल्‍म इडस्‍ट्री में कई बदलाव आए। आज के आमिर खान को बनाने में 'लगान' का कितना बड़ा योगदान रहा ? 0         निश्चित ही 'लगान' मेरे करिअर की अहम फिल्‍म है। 'लगान' के निर्माण में मेरा जुड़ाव एक्‍टर, क्रिएटिव पर्सन और प्रोड्यूसर का था। उन सभी जिम्‍मेदारियों को मैंने निभाया। मेरा फर्ज था। 'लगान' ने भी हमें बहुत कुछ दिया। मेनस्‍ट्रीम सिनेमा में उस मैग्‍नीट्यूड की फिल्‍में नहीं बनती थीं। उस फिल्‍म से हिम्‍मत मिली कि एक्‍सपेरिमेंट और बड़े पैमाने पर नए विषय की फिल्‍म भी दर्शक पसंद कर सकते हैं। उस फिल्‍म ने हमारे दिमाग की खिड़कियां खोल दीं। मेरे प्रोडक्‍शन को सेटअप करने में 'लगान' का योगदान है। 'लगान' मेरे करिअर का माइलस्‍टोन है। दरअसल, मै तो प्रोडक्‍शन करना ही नहीं चाहता था। -             ऐसा क्‍यो ? 0          अभिनेता के तौर पर जब मैं इंडस्‍ट्री मे आया तो मेरे चाचा जान (नासिर हुसैन) और अब्‍बा जान (ताहिर हुसैन) फिल्‍में बना रहे थे। उन