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नवाजुद्दीन सिद्दिकी पर खुर्शीद अनवर

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खुर्शीद अनवर दोस्‍त हैं मेरे। उन्‍होंने घोषित रूप से 1985 के बाद फिल्‍में नहीं देखी हैं। उनकी दोस्‍ती मुझ से और संजय चौहान से है। हमारी वजह से वे इस दशक की फिल्‍मों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं। फिल्‍में फिर भी नहीं देखते। वैसे एक फिल्‍म 'लीला' के संवाद लिख चुके हैं। और दबाव डालने पर संजय चौहान की लिखी 'पान सिंह तोमर' देखी थी। पिछले दिनों मैं दिल्‍ली में था। नवाजुद्दीन सिद्दिकी भी आए थे। हम एक साथ डिनर पर गए। रास्‍ते में परिचय कराने के बावजूद तीन मर्तबा खुर्शीद ने नवाज को शाहनवाज नाम सं संबोधित किया। गलती का एहसास होने पर उसने माफी मांगी और वादा किया कि उनकी फिल्‍म देखेंगे। और सिर्फ देखेंगे ही नहीं,उन पर कुछ लिखेंगे। तो प्रस्‍तुत है नवाजुद्दीन सिद्दिकी के बारे में खुर्शीद अनवर के विचार.... ज़माना गुज़रा फिल्में मेरे लिए ख़्वाब हुई। नाता रहा तो फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद दोस्तों से. अजय ब्रह्मात्मज और संजय चौहान जो मेरे दोस्त, रिश्तेदार, सब हैं। हाँ, फ़िल्मी गीत संगीत से नाता बना रहा। बस ज़ायके में ज़रा बदमज़गी का एहसास ज़रूर रहा जब नया दौर आया फ़िल्मी संगीत का। पर संस

मीना कुमारी : एक स्थगित आत्मस्वीकृति

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प्रियंवद का यह लेख पाखी में छपा था। चवन्‍नी के पाठकों के लिए यहां पोस्‍ट कर रहा हूं।मीना कुमारी को थोड़े अलग तरीके से देखा है उन्‍होंने।  -प्रियंवद एक स्थगित आत्मस्वीकृति बी. ए. में अंग्रेजी साहित्य पढ़ते हुए तीन या चार साल बड़ी और बेहद सुंदर अध्यापिका ने प्रेम के विभिन्न स्तरों को व्यक्त करने वाले तीन शब्दों का महीन फर्क और सर्तक प्रयोग सिखाया था। ‘लव’, ‘डोट’ और ‘एडोर’। जीवन में ‘एडोर’ का प्रयोग अब तक एक ही बार किया था। संभवतः सत्तर के दशक के शुरुआती सालों के दिन थे। हमारे हाथ एक नया एल.पी. (बड़ा रिकार्ड) लगा था, ‘आइ राइट आइ रिसाइट’। इसमें मीना कुमारी की गजलें और नज्में उनकी अपनी ही आवाज में थीं। इसे सुनने की तैयारी की गई। तैयारी मामूली नहीं थी। न ही उत्तेजना और उत्सुकता। रिकार्ड प्लेयर का इंतजाम किया गया। रात गिरने तक सारे काम खत्म कर लिए गए थे। एक छोटे कमरे की बाहर की तीन सीढि़यों पर हम बैठे थे। मैं, मित्र और उसकी तीन बहनें। बारिश खत्म ही हुई थी। नींबू के पेड़ की गंध अभी बची हुई थी। हममें से कुछ सीढि़यों पर थे, क

प्राण के बहाने लाहौर भी याद करें

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-अजय ब्रह्मात्मज प्राण  (जन्‍मतिथि- 12 फरवरी 1920-पुण्‍यतिथि 12 जुलाई 2013) प्राण ने लाहौर में बनी पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ (1940) में पहली बार अभिनय किया था। देश विभाजन के बाद भारत में रह जाने के पहले तक प्राण ने लाहौर में बनी 20 से अधिक फिल्मों में काम किया। पिछले दिनों सुप्रसिद्ध गायिका शमशाद बेगम का निधन हुआ। उनकी भी शुरुआत लाहौर में हुई थी। आजादी के पहले लाहौर उत्तर भारत में फिल्म निर्माण का प्रमुख केन्द्र था। विभाजन के बाद यहां पाकिस्तान में बनी पंजाबी और उर्दू फिल्मों का निर्माण होता रहा, लेकिन आजादी के पहले की गहमागहमी नदारद हो गई। ज्यादातर हिंदू फिल्मकार, कलाकार और तकनीशियन ने मुंबई में आकर शरण ली। कुछ मुस्लिम फनकार मुंबई से पाकिस्तान चले गए।     विभाजन के बाद पाकिस्तान में फिल्म इंडस्ट्री बहुत कामयाब नहीं रही। फिल्में बननी कम हो गईं, जो बनी भी उनकी क्वालिटी और कंटेंट ने पाकिस्तानी दर्शकों को भी नहीं रिझाया। 1965 तक भारत में बनी हिंदी फिल्में ही पाकिस्तानी दर्शकों को भाती रहीं। उन्हें ही वे अपने थिएटरों में देखते रहे। 1965 में पाबंदी लगने के बाद वीडियो पायरेसी के जरिए हिंद

फिल्‍म समीक्षा : भाग मिल्‍खा भाग

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  नेहरु युग का युवक  दर्शकों को लुभाने और थिएटर में लाने का दबाव इतना बढ़ गया है कि अधिकांश फिल्म अपनी फिल्म से अधिक उसके लुक, पोस्टर और प्रोमो पर ध्यान देने लगी हैं। इस ध्यान में निहित वह झांसा होता है, जो ओपनिंग और वीकएंड कलेक्शन केलिए दर्शकों को थिएटरों में खींचता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा पर भी दबाव रहा होगा,लेकिन अपनी पीढ़ी के एक ईमानदार फिल्म मेकर के तौर पर उन्होंने लुक से लेकर फिल्म तक ईमानदार सादगी बरती है। स्पष्ट है कि यह फिल्म मिल्खा सिंह की आत्मकथा या जीवनी नहीं है। यह उस जोश और संकल्प की कहानी है, जो कड़ी मेहनत, इच्छा शक्ति और समर्पण से पूर्ण होती है। 'भाग मिल्खा भाग' प्रेरक फिल्म है। इसे सभी उम्र के दर्शक देखें और अपने अंदर के मिल्खा को जगाएं। मिल्खा सिंह को हम फ्लाइंग सिख के नाम से भी जानते हैं। उन्हें यह नाम पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने दिया था। किस्सा यह है कि बंटवारे के बाद के कलुष को धोने के साथ प्रेम और सौहा‌र्द्र बढ़ाने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू और अयूब खान ने दोनों देशों के बीच खेल स्पर्धा का आयोजन किया था। अत

दरअसल... धनुष की टंकार

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-अजय ब्रह्मात्मज     आनंद राय की ‘रांझणा’ प्रदर्शित होने के पहले से साउथ के स्टार धनुष के आने की टंकार सुनाई पड़ रही थी। एक तो ‘कोलावरी डी’ ने उन्हें अप्रत्याशित लोकप्रियता दे द थी और दूसरे वे दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत के दामाद हैं। हिंदी फिल्मों के दर्शकों को यह तो एहसास हो गया था कि धनुष दक्षिण के पापुलर स्टार हैं, लेकिन रजनीकांत और कमल हासन के बरक्श वे उनका स्टारडम आज भी नहीं समझते। हम बताते चलें कि धनुष को अपने छोटे से करिअर में एक्टिंग के लिए नेशनल अवार्ड और फिल्मफेअर अवार्ड मिल चुके हैं। आनंद राय की ‘रांझणा’ हिंदी में उनकी पहली फिल्म है, लेकिन तमिल में वे पहले से एक सिद्धहस्त कलाकार की जिंदगी जी रहे हैं।     ‘रांझणा’ आई और धनुष की टंकार एक बार फिर हिंदी दर्शकों ने अपने कानों से सुनी। उन्होंने बड़े पर्दे पर धनुष को तमिल लहजे में हिंदी बोलते सुना और प्यार किया। उन्हें ‘रांझणा’ का कुंदन भा गया। अंग्रेजी प्रेस में शहरी लेखक कुंदन के चरित्र को लेकर ‘रांझणा’ का छीछालेदर कर रहे हैं। सचमुच, हम अपने ही देश की सच्चाइयों और स्थितियों से कितने अनजान हो गए हैं। 21वीं सदी के 2012 से ह

मुझे भी बेलने पड़े हैं पापड़-रणवीर सिंह

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-अजय ब्रह्मात्मज रणवीर सिंह का पहली ही फिल्म से पहचान और स्टारडम मिल गई। ऐसा लगता है कि उनके लिए शुरूआत आसान रही। पहली बार रणवीर सिंह शेयर कर रहे हैं अपने हिस्से का संघर्ष ़  ़ ़     फिल्मों में स्ट्रगल करने के दौरान एक बर्थडे पर मेरी बहन केक के ऊपर कैंडिल नहीं लगाया था। उन्होंने कैंडिल की जगह फिल्मों के छोटे-छोटे कार्ड लगाए थे और उनमें स्टारों की जगह मेरी तस्वीर लगा दी थी। मैंने उन्हें फेंका नहीं। उन्हें अपने विजन बोर्ड पर लगा दिया। आते-जाते उसे ही देखता रहता था। आप यकीन करें छह-आठ महीने के अंदर मुझे ऑडिशन के लिए कॉल मिल गए। ऑडिशन सफल रहा। ‘बैंड बाजा बारात’ मिल गई। फिल्म हिट रही। और आज देखो, कमाल ही हो गया।     मुझ में योग्यता है। चाहत है। हिंदी फिल्मों की मेनस्ट्रीम में आने की चाहत थी। मुझे पहले भी फिल्मों के ऑफर मिल रहे थे, लेकिन मैंने ‘बैंड बाजा बारात’ का दांव खेला। मैंने तीन-चार फिल्में छोड़ दी थीं। उनके निर्माताओं ने मुझे पागल करार कर दिया था। अपना थोबड़ा तो देखो। हम 15-20 करोड़ निवेश करने को तैयार हैं और तुम रिजेक्ट कर रहे हो। तुम्हारा कोई बाप-दादा यहां नहीं है। न जाने क्या

फिल्‍म समीक्षा : लुटेरा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  आप किसी भी पहलू से 'लुटेरा' का उल्लेख करें। आप पाएंगे कि चाहे-अनचाहे उसकी मासूमियत और कोमलता ने आप को भिगो दिया है। इस प्रेम कहानी का धोखा खलता जरूर है,लेकिन वह छलता नहीं है। विक्रमादित्य मोटवाणी ने अमेरिकी लेखक ओ हेनरी की कहानी 'द लास्ट लीफ' का सहारा अपनी कहानी कहने के लिए लिया है। यह न मानें और समझें कि 'लुटेरा' उस कहानी पर चित्रित फिल्म है। विक्रम छठे दशक के बंगाल की पृष्ठभूमि में एक रोचक और उदास प्रेम कहानी चुनते हैं। इस कहानी में अवसाद भी है,लेकिन वह 'देवदास' की तरह दुखी नहीं करता। वह किरदारों का विरेचन करता है और आखिरकार दर्शक के सौंदर्य बोध को उष्मा देता है। अपनी दूसरी फिल्म में ही विक्रम सरल और सांद्र निर्देशक होने का संकेत देते हैं। ठोस उम्मीद जगते हैं। फिल्म बंगाल के माणिकपुर में दुर्गा पूजा के समय के एक रामलीला के आरंभ होती है। बंगाली परिवेश,रोशनी और संवादों से हम सीधे बंगाल पहुंच जाते हैं। विक्रम बहुत खूबसूरती से बगैर झटका दिए माणिकपुर पहुंचा देते हैं। फिल्म की नायिका पाखी रायचौधरी (सोनाक्षी सिन्हा)को ज

जयप्रकाश चौकसे के साथ अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज          जयप्रकाश चौकसे लगातार लिखते रहे हैं और जानकारी देने के अलावा आप दिशा भी देते रहे कि कैसे फिल्मों को देखा जाए और कैसे समझा जाए। एक पीढ़ी नहीं अब तो कई पीढिय़ां हो गई हैं जो उनको पढ़ कर फिल्मों के प्रति समझदार बनी। हम उनका नाम रोजाना पढ़ते हैं , लेकिन बहुत सारे लोग उनके बारे में जानते नहीं हैं। -पहला सवाल यही कि आप अपने बारे में संक्षेप में बताएं। कहां रहते हैं ? कहां रहते थे ? कहां से शुरुआत हुई ? 0 खांडवा से आगे एक छोटा शहर है बुरहानपुर। यह महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश का बॉर्डर टाउन है। मेरा जन्म बुरहानपुर में हुआ है। उस समय वह एकदम छोटा शहर था। दस-पंद्रह हजार आबादी वाला शहर होगा, लेकिन उस छोटे शहर में एजुकेशन की फैसीलिटी थी। कम पॉपुलेशन के बावजूद करीब सात-आठ स्कूल थे। आगे जा कर कुछ समय बाद कॉलेज भी खुल गया था वहां। मेरे पिता व्यापारी थे, पर एजुकेशन प्रति उनका लगाव बहुत गहरा था। हम चार भाई हैं। मैं सबसे छोटा हूं। हमारे परिवार में नौकर इसलिए रखा था हमारे पिता जी ने कि वह साइकिल से लालबाग रेलवे स्टेशन जाता था और अखबार खरीद कर लाता था। बुरहानपुर में रे