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गुंडे फिल्‍म का जिया गीत

गुंडे फिल्‍म के इस गाने में प्रियंका चोपड़ा के परिधानों के बदलते लाल,सफेद,हरे और बैंगनी रंगों का कोई खास मतलब भी है क्‍या ? क्‍या फिल्‍म में और भी रंग दिखेंगे ?

निर्माता बन कर खुश हैं दीया मिर्जा

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-अजय ब्रह्मात्मज     फिल्म निर्माण में सक्रिय दीया मिर्जा मानती हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में निर्माता की छवि किसी सेठ जैसी हो गई है। ऐसा लगता है कि उसका काम केवल चेक काटना भर है। वह फिल्म निर्माण को अपने सपनों का ही विस्तार मानती हैं। उनकी दूसरी फिल्म ‘बॉबी जासूस’ इन दिनों हैदराबाद में शूट हो रही है। इस फिल्म में विद्या बालन फिल्म की शीर्षक भूमिका निभा रही हैं।     दीया कहती हैं, ‘मैं फिल्म निर्माण को एक ऐसे बड़े मौके के तौर पर देखती हूं, जब आप अपनी पसंद की कहानियां फिल्मों में बदल सकते हैं। कैमरे के सामने एक्ट करने से यह बड़ी और जिम्मेदार भूमिका होती है। फिल्म की स्क्रिप्ट के पहले शब्द से लेकर उसके थिएटर में लगने तक की प्रक्रिया का हिस्सा बनना बहुत ही रोचक और क्रिएटिव होता है। फिल्म देख कर दर्शकों की प्रतिक्रिया से सुख मिलता है। मैं इसे एक चुनौती के रूप में लेती हूं। इस चुनौती का आनंद एक बार उठा चुकी हूं। इस बार और ज्यादा मजा आ रहा है।’     वह आगे बताती हैं, ‘लोग मुझ से हमेशा पूछते हैं कि कैमरे के आगे और पीछे में मुझे कहां अधिक आनंद आता है? मेरे ख्याल से दोनों ही अलग दुनिया है

सिनेमा: अभिव्यक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम: कमल स्वरुप

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कमल स्‍वरूप की ओम दर-ब-दर 17 जनवरी को रिलीज हो रही है। निर्माण के 25 सालों बाद यह फिल्‍म थिएटर में प्रदर्शित होगी।  यह इंटरव्‍यू हंस में छपा था। चवन्‍नी पर तिरछी स्‍पेलिंग से लिया गया है।  भारतीय सिनेमा के सौ होने के उपलक्ष्य में अपने तरह का एकदम अलहदा फिल्म-निर्देशक कमल स्वरुप से  ’हंस- फरवरी- 2013- हिन्दी सिनेमा के सौ साल’ के लिए   उदय शंकर द्वारा लिया गया एक साक्षात्कार (८० - ९० के दशक में सिनेमा की मुख्या धारा और सामानांतर सिनेमा से अलग भी एक धारा का एक अपना रसूख़ था . यह अलग बात है कि तब इसका बोलबाला अकादमिक दायरों में ज्यादा था . मणि कौल , कुमार साहनी के साथ - साथ कमल स्वरुप इस धारा के प्रतिनिधि फ़िल्मकार थे . वैकल्पिक और सामाजिकसंचार साधनों और डिजिटल के इस जमाने में ये निर्देशक फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। संघर्षशील युवाओं के बीच गजब की लोकप्रियता हासिल करने वाले इन फिल्मकारों की फिल्में ( दुविधा , माया दर्पण और ओम दर बदर जैसी ) इधर फिर से जी उठी हैं। आज व्यावसायीक और तथाकथिक सामानांतर फिल्मों का भेद जब अपनी समाप्ति के कगार पर पहुँच चुका है , तब इन निर्देशकों की विगत मह

धूम तो सेलिब्रेशन है-विजय कृष्ण आचार्य

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-अजय ब्रह्मात्मज     कानपुर के विक्टर ऊर्फ विजय कृष्ण आचार्य ‘धूम 3’ के लेखक और निर्देशक हैं। साफ-सफ्फाक और बेलाग व्यक्तित्व के धनी विक्टर में अपने शहर का मिजाज घुला हुआ है। ‘धूम 3’ की कामयाबी ने उनका आत्मविश्वास बढ़ा दिया है। पहली निर्देशित फिल्म ‘टशन’ से लगे झटके से वे उबर चुके हैं। उन्होंने विश्वास दिलाया कि जल्दी ही वे उत्तर भारतीय सोच की मनोरंजक फिल्म लेकर आएंगे। उन्होंने ‘धूम 3’ की सफलता के कारणों और पहलुओं पर बातें की। - क्या ‘धूम 3’  से ऐसी सफलता की उम्मीद थी? 0 उम्मीद तो हर निर्माता करता है। हमारी दुनिया सफलता से आगे बढ़ती है। सफलता के साथ सराहना मिले तो मेरे जैसे निर्देशक को अधिक खुशी होती है। पहले फिल्में सिल्वर और गोल्डन जुबली मनाती थी। फिल्में गाढ़ी हुआ करती थी। हफ्तों सिनेमाघरों से नहीं उतरती थीं। दर्शकों की उमड़ी भीड़ से अपना प्रयास सार्थक लगा है। ताकत मिली है कि अगला काम भी अच्छा और इससे बेहतर करें। महत्वाकांक्षा के साथ विनम्रता भी बढ़ी है। रिलीज होने के बाद हर फिल्म दर्शकों की हो जाती है। दर्शकों की प्रतिक्रिया से बहुत प्रभावित हूं,लेकिन अब आगे बढऩे का वक्त आ गया ह

विभाजन-आलोक धन्‍वा

तहलका में छपी आलोक धन्‍वा की इस कविता का संबंध फिल्‍मों से भी है। अआप पढ़ें और स्‍वयं समझें। -आलोक धन्‍वा  'गरम हवा’ में आखिरी बार देखा बलराज साहनी को जिसे खुद बलराज साहनी नहीं देख पाए जब मैंने पढ़ी किताब भीष्म साहनी की लिखी ‘मेरा भाई बलराज’ तो यह जाना कि हमारे इस महान अभिनेता के मन में कितना अवसाद था वे शांतिनिकेतन में प्रोफेसर भी रहे और गांधी के वर्धा आश्रम में भी रहे गांधी के कहने पर उन्होंने बीबीसी लंदन में भी काम किया लेकिन उनके मन की अशांति उनके रास्तों को बदलती रही जब वे बंबई के पृथ्वी थियेटर में आए इप्टा के नाटकों में काम करने जहां उनकी मुलाकात हुई ए.के. हंगल और दूसरे कई बड़े अभिनेताओं और पटकथा लेखकों और शायरों से दो बीघा जमीन में काम करते हुए बलराज साहनी ने देखा फिल्मों और समाज के किरदारों के जटिल रिश्तों को धीरे-धीरे वे अपने भीतर की दुनिया से बाहर बन रहे नए समाज के बीच आने-जाने लगे वे अक्सर पाकिस्तान में मौजूद अपने घर के बारे में सोचते थे और एक बार गए भी वहां लेकिन लौटकर बंबई आना ही था अपने आखिरी दिनों में वे फिल्मों के आ

फिल्‍म रिव्‍यू : डेढ़ इश्किया

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  नवाब तो नहीं रहे। रह गई हैं उनकी बेगम और बांदी। दोनों हमजान और हमजिंस हैं। खंडहर हो रही हवेली में बच गई बेगम और बांदी के लिए शराब और लौंडेबाजी में बर्बाद हुए नवाब कर्ज और उधार छोड़ गए हैं। बेगम और बांदी को शान-ओ-शौकत के साथ रसूख भी बचाए रखना है। कोशिश यह भी करनी है कि उनकी परस्पर वफादारी और निर्भरता को भी आंच न आए। वे एक युक्ति रचती हैं। दिलफेंक खालू बेगम पारा की युक्ति के झांसे में आ जाते हैं। उन्हें इश्क की गलतफहमी हो गई है। उधर बेगम को लगता है कि शायर बने खालू के पास अच्छी-खासी जायदाद भी होगी। फैसले के पहले भेद खुल जाता है तो उनकी मोहब्बत की अकीदत भी बदल जाती है। और फिर साजिश, अपहरण, धोखेबाजी,भागदौड़ और चुहलबाजी चलती है। अभिषेक चौबे की 'डेढ़ इश्किया' उनकी पिछली फिल्म 'इश्किया' के थ्रिल और श्रिल का डेढ़ा और थोड़ा टेढ़ा विस्तार है। कैसे? यह बताने में फिल्म का जायका बिगड़ जाएगा। अभिषेक चौबे ने अपने उस्ताद विशाल भारद्वाज के साथ मिल कर मुजफ्फर अली की 'उमराव जान' के जमाने की दुनिया रची है, लेकिन उसमें अमेरिकी बर्गर, नूडल और आ

फिल्‍म समीक्षा : यारियां

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज  कैंपस लाइफ और यूथ इधर की कई फिल्मों के विषय रहे हैं। सभी फिल्मकारों की एक ही कोशिश दिखाई पड़ती है। वे सभी यूथ को तर्क और व्यवहार से सही रास्ते पर लाने के बजाय कोई इमोशनल झटका देते हैं। इस इमोशनल झटके के बाद उनके अंदर फिल्मों से तय किए गए भारतीय सामाजिक और पारिवारिक मूल्य जागते हैं। कभी प्रेम तो कभी स्कूल, कभी कैंपस तो कभी देश, कभी महबूबा तो कभी परिवार... इन सभी के लिए वे जान की बाजी लगा देते हैं। स्टूडेंट लाइफ के मूल काम पढ़ाई से उनका वास्ता नहीं रहता। पढ़ाई के लिए कोई प्रतियोगिता नहीं होती। दिव्या खोसला कुमार ने पहली फिल्म के लिए ऐसे पांच यूथ को चुना है। ऑस्ट्रेलिया के एक बिजनेसमैन से स्कूल को बचाने के लिए जरूरी हो गया है कि उस स्कूल के बच्चे ऑस्ट्रेलिया की टीम के मुकाबले में उतरें। पांच किस्म की प्रतियोगिताओं में जीत के बाद वे अपने स्कूल को बचा सकते हैं। यह मत सोचें कि क्या कहीं कोई ऐसी स्पर्धा होती है, जहां एक स्कूल के छात्रों का मुकाबला किसी देश से हो। यह फिल्म है। फिल्म के आरंभ में सभी को बिगड़ा और भटका हुआ दिखाया गया है। पढ़ाकू मिजाज की ल

माधुरी दीक्षित और जुही चावला भिड़ंत

गुलाब गैंग में माधुरी दीक्षित और जुही चावला की यह भिड़ंत मुझे देखनी है। आप का क्‍या इरादा है ?

दरअसल : निराश कर रहे हैं नसीर

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-अजय ब्रह्मात्मज     मालूम नहीं यह मजबूरी है या लापरवाही। 2013 में आई नसीरुद्दीन शाह की सभी फिल्मों में उनका काम साधारण रहा। पिछले साल उनकी ‘सोना स्पा’, ‘जॉन डे’ और ‘जैकपॉट’ तीन फिल्में आईं। तीनों फिल्मों में उनकी भूमिकाएं देख कर समझ में नहीं आया कि उन जैसे सिद्ध और अनुभवी कलाकार ने इन फिल्मों के लिए हां क्यों कहा होगा? फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा है कि इन दिनों नसीरुद्दीन शाह फिल्मों में अपना रोल नहीं देखते। उनकी नजर रकम पर रहती है। अगर पैसे सही मिल रहे हों तो वे किसी भी फिल्म के लिए हां कह सकते हैं। एक संवेदनशील, प्रशिक्षित और पुरस्कृत कलाकार का यह विघटन तकलीफदेह है।     इसी हफ्ते उनकी फिल्म ‘डेढ़ इश्किया’ आएगी। विशाल भारद्वाज के प्रोडक्शन की इस फिल्म के निर्देशक उनके सहयोगी अभिषेक चौबे हैं। अभिषेक चौबे की पहली फिल्म ‘इश्किया’ में उनकी और अरशद की जोड़ी जमी थी। ऊपर से विद्या बालन की मादक छौंक ने फिल्म को पॉपुलर कर दिया था। इस बार अभिषेक चौबे ने फिल्म में माधुरी दीक्षित और हुमा कुरेशी को नसीर और अरशद के साथ लिया है। माना जा रहा है और ऐसा लग भी रहा है कि पर्दे पर नसीर और माधुरी के अंतरं

बेटी के नाम फिल्‍मकार पिता का पत्र

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए सिनेमा के भविष्‍य पर बेटी फ्रांसेस्‍का को लिखा पिता मार्टिन स्‍कॉर्सिस का पत्र  Dearest Francesca, I’m writing this letter to you about the future. I’m looking at it through the lens of my world. Through the lens of cinema, which has been at the center of that world. For the last few years, I’ve realized that the idea of cinema that I grew up with, that’s there in the movies I’ve been showing you since you were a child, and that was thriving when I started making pictures, is coming to a close. I’m not referring to the films that have already been made. I’m referring to the ones that are to come. I don’t mean to be despairing. I’m not writing these words in a spirit of defeat. On the contrary, I think the future is bright. We always knew that the movies were a business, and that the art of cinema was made possible because it aligned with business conditions. None of us who started in the 60s and 70s had any illusions on that front. We