बलराज साहनी की नज़र में फिल्मों की पंजाबियत

चवन्नी यह बात जोर-शोर से कहता रहा है कि हिन्दी फिल्मों में पंजाब और पंजाबियत का दबदबा है.कुछ लोग इसे चवन्नी की उत्तर भारतीयता से जोड़ कर देखते हैं.आप खुद गौर करें और गिनती करें कि अभी तक जितने हीरो हिन्दी फिल्मों में दिखे हैं ,वे कहाँ से आये हैं.आप पाएंगे कि ज्यादातर हीरो पंजाब से ही आये हैं.बलराज साहनी भी इस तथ्य को मानते हैं।
बलराज साहनी की पुस्तक मेरी फिल्मी आत्मकथा के पृष्ठ २४ पर इसका उल्लेख हुआ है.बलराज साहनी के शब्द हैं:

और यह कोई अनहोनी बात भी नहीं थी. पंजाब प्राचीन काल से ही आर्यों, युनानी, तुर्की और अन्य गोरी हमलावर कौमों के लिए भारत का प्रवेश-द्वार रहा है। यहां कौमों और नस्लों का खूब सम्मिश्रण हुआ है। इसी कारण इस भाग में आश्चर्यचकित कर देने की सीमा तक गोरे, सुन्दर लोग देखने में आते हैं. इसकी पुष्टि करने के लिए केवल इतना ही कहना पर्याप्त है कि पंजाब सदैव से हीरो-हीरोइनों के लिए फिल्म-निर्माताओं की तलाशगाह रहा है. दिलीप कुमार, राजकपूर, राजकुमार, राजिन्दर कुमार, देव आनन्द, धर्मेन्द्र, शशि कपूर, शम्मी कपूर, तथा अन्य कितने ही हीरो इसी ओर के लोग हैं. इस लिहाज से हमारा पिंडी-पिशौर तो और भी ज्यादा मुमताज रहा है.
इस नाचीज लेखक की भी उसके फिल्मी जीवन में कई बार गैरी कपूर, रोनाल्ड कोलमैन, हम्फरी, एन्थनी क्विन आदि से तुलना की गई है. देव आनन्द के भारतीय ग्रैगरी पैक कहलाने से तो सब परिचित हैं.
अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए शेष भारत में भारतीयों ने गांधीजी का अनुसरण किया. पर पंजाबियों के लिए नकल की राह पर चलना बहुत लाभदायक रहा, और इसे वे इस स्वतन्त्रता के युग में भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. बल्कि सच तो यह है कि बाकी हिन्दुस्तान भी गांधीजी की राह छोड़कर उन्हीं के रास्ते की ओर खिंचता चला आ रहा है.
हमारी फिल्म इंडस्ट्री में भी कभी गांधी तथा टैगोर से प्रेरणा लेकर राष्ट्रीय भावनाएं जागी थीं और न्यू थियेटर और प्रभात फिल्म कम्पनी जैसी संस्थाएं बनी थीं. लेकिन आज पंजाबियों के प्रभाव के कारण इस क्षेत्र में भी नकल का झंडा बड़ी मजबूती से गाड़ा जा चुका है.

Comments

sanjay patel said…
मुझे लगता है कि पंजाबियत में कला के अलावा एक और चीज़ है जो कलाकारों को फ़िल्मों में टिके रहने का शऊर देती है और वह है उनका जज़्बा. दीगर इलाक़ो में वह नहीं होता मैं ऐसा क़तई नहीं कहना चाहता लेकिन पंजाब की सरज़मी में साहस और शोर्य का जो रंग शामिल है वह अन्य अंचलों के मुक़ाबले थोड़ा अधिक है . फ़िल्मों में वाक़ई अतिरिक्त धैर्य और साहस की ज़रूरत होती है .क़ामयाबी अथक परिश्रम भी मांगती है जिसमें पंजाबी लोगों का कोई सानी नहीं..क़द काठी और ख़ूबसूरती...माशाअल्लाह ! क्या कहने . साथ ही पंजाबियों में अपने बूते पर कुछ कर गुज़रने का दमख़म भी होता है जिसकी वजह लहलहाती खेतियों से परिवारों को मिली आर्थिक सुरक्षा का भाव भी शामिल है. पंजाबियत को सौ सौ सलाम .
Udan Tashtari said…
आपके माध्यम से सिनेमा जगत के बारे में तरह तरह की जानकारियाँ मिलती हैं. आभार.
गैरी कपूर -- को बदल कर "गेरी कूपर " कर देँ तो ठीक हो जायेगा
बहुत बढिया आत्मकथा का अँश पढवाया आपने -- अन्य हिन्दी फिल्म जगत की बातेँ भी दीलचस्प लगतीँ हैँ जो आपके ब्लोग पर पढने को मिलतीँ हैँ --दीपावली की शुभ कामना सह:

लावण्या

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