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Showing posts from April, 2008

मलखंभ : मल्लिका और खम्भा

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मल्लिका और खम्भा को एक साथ मिला देन तो यही शब्द बनेगा.अगर इस शब्द में किसी को कोई और अर्थ दिख रहा हो तो आगे न पढ़ें। कमल हसन की फ़िल्म दसावतारम आ रही है.इस फ़िल्म में कमल हसन ने दस भूमिकाएं निभायीं हैं.कमल हसन को रूप बदलने का पुराना शौक है.बहरहाल एक रूप में उनका साथ दे रही हैं मल्लिका शेरावत.मल्लिका शेरावत ने अभिनेत्री के तौर पर भले ही अभी तक कोई सिक्का न जमाया हो,लेकिन उनकी चर्चा होती रहती है.इसी फ़िल्म के मुसिक रिलीज के मौके पर वह चेन्नई में मौजूद थीं और ऐसा कहते हैं की जब खास मेहमान के तौर पर आए जैकी चान से उछारण की गलतियां होने लगीं तो मल्लिका ने उनकी मदद की.आखी वह उनकी फ़िल्म में काम जो कर चुकी हैं.पिछले साल वह गुरु में मैंया मैंया गति नज़र आई थीं.और हाँ हिमेश रेशमिया की फ़िल्म आपका सुरूर में भी दिखी थीं.दोनों ही फिल्मों में उनके आइटम गीत थे.बस... मल्लिका शेरावत के बारे में आप क्या सोचते हैं और क्या इस मलखंभ के लिए दसावतारम देखने जायेंगे? और हाँ बिग बी के लिए काफी सवाल आए.कुछ सवालों के जवाब अमिताभ बच्चन ने दिए हैं.जल्दी ही आप उनके जवाब यहाँ पढेंगे.

आमिर खान के भतीजे इमरान खान

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आमिर खान ने अपने भतीजे इमरान खान को पेश करने के लिए एक फ़िल्म बनाई है-जाने तू.यह उनके प्रोडक्शन की तीसरी फ़िल्म होगी.आमिर को उम्मीद है की लगान और तारे ज़मीन पर की तरह यह भी कामयाब होगी और इस तरह वे कामयाबी की हैट्रिक लगन्र में सफल रहेंगे। आप सभी जानते होंगे की आमिर खान को उनके चाचा नासिर खान ने पेश किया था.फ़िल्म थी क़यामत से क़यामत त और उसके निर्देशक थे मंसूर खान.आमिर ने परिवार की उसी परम्परा को निभाते हुए अपने भतीजे को पेश किया है.उनकी फ़िल्म के दिरेक्टोर हैं अब्बास टायरवाला । आज कल की फिल्मों और नए सितारों को पेश करने की चलन से थोड़े अलग जाकर इमरान खान को पड़ोसी चेहरे के तौर पर पेश किया जा रहा है.अगर याद हो तो आमिर खान भी इसी छवि के साथ आए थे। और हाँ याद रखियेगा की इमरान खान को पहली बार आप ने चवन्नी के ब्लॉग पर देखा.

बिग बी के लिए सवाल

big b ke liye aapke paas kai sawal honge.kal hamari mulaqat tay hui hai.chavanni chahta hai ki aap ki jigyashayen bhi unke saamne rakhi jaayen.please apne sawal jaldi se jaldi post karen. maaf karen aaj yah post nagri mein tabdeel nahin ho pa raha hai.shayad server tang kar raha hai. chhonki jaldi baaji hai,isliye aaj roman mein hi padh len. aap apne sawal alag se bhi bhej sakte hain,pataq hoga; chavannichap@gmail.com

पैसे कमाने का शॉर्टकट हैं मल्टीस्टारर फिल्में

-ajay brahmatmaj पिछले साल की कामयाब फिल्मों पर सरसरी निगाह डालने पर हम पाते हैं कि उन फिल्मों में से अधिकांश में एक से अधिक स्टार थे। अक्षय कुमार, सलमान खान, गोविंदा और बाकी स्टार भी जमात में आने पर ही कामयाब हो सके। ऐसा लगता है कि सोलो हीरो की फिल्मों का रिस्क बढ़ गया है और इसीलिए उनके प्रति दर्शकों की रुचि भी अब कमहो गई है। सैफ अली खान का ही उदाहरण लें। हां, इस साल उनकी रेस कामयाब जरूर हुई, लेकिन पिछले साल ता रा रम पम पिट गई। हालांकि आमिर खान और शाहिद कपूर अपवाद कहे जा सकते हैं, क्योंकि तारे जमीं पर और जब वी मेट में उन्होंने अकेले ही दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। ओम शांति ओम में भी अकेले शाहरुख खान थे, लेकिन एक स्तर पर उसमें भी स्टारों की भारी भीड़ थी। भले ही वह भीड़ एक गाने में रही हो! दरअसल, इस साल भी वही ट्रेंड आगे बढ़ता दिख रहा है। रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय के भावपूर्ण अभिनय से सजी फिल्म जोधा-अकबर को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। उसकी तुलना में रेस साधारण फिल्म थी, लेकिन सैफ, अक्षय खन्ना, अनिल कपूर, कैटरीना कैफ और बिपाशा बसु की मौजूदगी ने दर्शकों को आकर्षित किया। इस हफ्ते रिली

बॉक्स ऑफिस:२४.०४.२००८

तनुजा चंद्रा की होप एंड ए लिटिल शुगर से फिल्म इंडस्ट्री को बहुत लिटिल होप थी। एक तो यह फिल्म अंग्रेजी में है और सीमित प्रिंट के साथ रिलीज हुई है। रिलीज होने के बाद दर्शकों ने पाया कि फिल्म में दम नहीं है। विषय अच्छा था। फिल्म नहीं बन सकी। यह समस्या कई फिल्मकारों के साथ है कि वे संवेदनशील विषय चुनते हैं, पर फिल्म पूरी करने में चूक जाते हैं। इससे विषय का नुकसान हो जाता है। दावा है कि अजय देवगन की यू मी और हम ने दस दिनों में 41 करोड़ का बिजनेस कर लिया है और पहली बार अजय की फिल्म विदेशों में चल रही है। इस फिल्म को समीक्षकों ने सराहा, लेकिन फिल्म अध्येताओं को यू मी और हम अच्छी नहीं लगी। जयदीप सेन की क्रेजी 4 सामान्य बिजनेस कर रही है। लगता है कॉमेडी फिल्मों के प्रति दर्शक उदासीन हो रहे हैं या फिर कॉमेडी के नाम पर उदासी परोसी जा रही है। यू मी और हम तथा क्रेजी 4 औसत फिल्में साबित होंगी। इस हफ्ते 2008 की पहली छमाही की धमाकेदार फिल्म टशन का इंतजार है। यशराज फिल्म्स की टशन बॉक्स ऑफिस की रंगत बदल सकती है।

टशन: एक फंतासी

-अजय ब्रह्मात्मज इसे यशराज फिल्म्स की टशन ही कहेंगे। इतने सारे स्टार, ढेर सारे खूबसूरत लोकेशन, चकाचक स्टाइल और लुक, नई तकनीक से लिए गए एक्शन दृश्य, थोड़ा-बहुत सीजीआई (कंप्यूटर जेनरेटड इमेजेज), नॉर्थ इंडिया का कनपुरिया लहजा और इन सभी को घोल कर बनायी गयी टशन। ऊपर से आदित्य चोपड़ा की क्रिएटिव मार्केटिंग ़ ़ ़ हिंदी फिल्मों के सबसे बड़े और कामयाब प्रोडक्शन हाउस से आई फिल्म है टशन का बाजार गर्म था। यही तो यशराज फिल्म्स की टशन है। सिंपल सी कहानी है। कानपुर शहर में एक उचक्का रिक्शेवाला एक बेटी के सामने उसके बाप की हत्या कर देता है। बेटी उस हत्यारे के पीछे लग जाती है और अपने पिता की अस्थियां विसर्जित करने के साथ ही उस हत्यारे से पिता के खून का बदला लेती है। वह साफ कहती है कि हम सीधे और शरीफ लोग नहीं हैं। हम कमजोर भी नहीं हैं। वक्त पड़ने पर एक-दूसरे की मदद से कुछ भी कर सकते हैं। टशन में कुछ भी कर दिखाने की जिम्मेदारी पूजा सिंह (करीना कपूर), बच्चन पांडे (अक्षय कुमार) और जिम्मी क्लिफ (सैफ अली खान) की है। इन दिनों खल किरदारों को लेकर फिल्म बनाने का चलन जोरों पर है। इस फिल्म के ही सारे किरदार खल स

प्रकाश झा से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत-2

पिछले से आगे... डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का यह रुझान तात्कालिक ही लगता है, क्योंकि आप फीचर फिल्मों की तरफ उन्मुख थे? उन दिनों फीचर फिल्म कोई दे नहीं रहा था। डॉक्यूमेंट्री में कम लागत और कम समय में कुछ कर दिखाने का मौका मिल जाता था। 1975 से 1980.81 तक मैं डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाता रहा और सैर करता रहा। यहां फिल्में बनाता था। और पैसे जमा कर कभी इंग्लैंड, कभी जर्मनी तो कभी फ्रांस घूम आता था। विदेशों में जाकर थोड़ा काम कर आता था। कह सकते हैं कि छुटपुटिया काम ही करता रहा। 1979 में बैले डांसर फिरोजा लाली ... । उनके साथ वाक्या ये हुआ था कि वे बोलशेवे तक चली गई थीं। रॉयल एकेडमी में सीखा उन्होंने सिंगापुर में भी रहीं, लेकिन कभी लाइमलाइट में नहीं रहीं। उनके पिता पूरी तरह समर्पित थे बेटी के प्रति। मुझे बाप-बेटी की एक अच्छी कहानी हाथ लगी। मैंने उन पर डॉक्यूमेट्री शुरू कर दी। उसी सिलसिले में मुझे रूस जाना पड़ा। रूस में बोलवेशे से उनके कुछ फुटेज निकालने थे। फिर लंदन चला गया। उनकी फिल्म पूरी करने के लिए। उसमें मुझे काफी लंबा समय लग गया। थोड़ी लंबी डॉक्यूमेंट्री थी। पैसों की दिक्कत थी। इधर-उधर

प्रकाश झा से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

शुरू से बताएं। फिल्मों में आने की बात आपने कब और क्यों सोची? मैं तो दिल्ली यूनिवर्सिटी में फिजिक्स ऑनर्स की पढ़ाई कर रहा था। उस समय अचानक लगने लगा कि क्या यही मेरा जीवन है? ग्रेजुएशन हो जाएगा, फिर आईएएस ऑफिसर बनकर सर्विसेज में चले जाएंगे। पता नहीं क्यो वह विचार मुझे पसंद नहीं आ रहा था। काफी संघर्ष dरना पड़ा उन दिनों परिवार की आशंकाएं थीं। उन सभी को छोड़-लतार कर... बीच में पढ़ाई छोड़ कर मुंबई आ गया। पैसे भी नहीं लिए पिताजी से... पिताजी से मैंने कहा कि जो काम आप नहीं चाहते मैं करूं, उस काम के लिए मैं आप से पैसे नहीं लूंगा। चलने लगा तो घर के सारे लोग उदास थे... नाराज थे। मेरे पास तीन सौ रूपये थे। मैं मुंबई आ गया... फिल्मो के लिए नहीं, पेंटिंग में रुचि थी मेरी। जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स का नाम सुना था। मैंने कहा कि वहीं जाऊंगा। वहां जाकर जीवन बनाऊंगा घर छोड़कर चला आया था। मंबई आने के बाद जीविका के लिए कुछ.कुछ करना पड़ा। ट्रेन में एक सज्जन मिल गए थे.राजाराम। आज भी याद है। दहिसर - मुंबई का बाहरी इलाका-में बिल्डिंग वगैरह बनाते थे। उनके पास यूपी जौनपुर के बच्चे रहते थे। वहीं हमको भी सोने की जगह मि

बया में 'पहली सीढ़ी' सीरिज़ में प्रकाश झा का इंटरव्यू

पहली सीढ़ी मैं प्रवेश भारद्वाज का कृतज्ञ हूं। उन्होंने मुझे ऐसे लंबे, प्रेरक और महत्वपूर्ण इंटरव्यू के लिए प्रेरित किया। फिल्मों में डायरेक्टर का वही महत्व होता है, जो किसी लोकतांत्रिक देश में प्रधानमंत्री का होता है। अगर प्रधानमंत्री सचमुच राजनीतिज्ञ हो तो वह देश को दिशा देता है। निर्देशक फिल्मों का दिशा निर्धारक, मार्ग निर्देशक, संचालक, सूत्रधार, संवाहक और समीक्षक होता है। एक फिल्म के दरम्यान ही वह अनेक भूमिकाओं और स्थितियों से गुजरता है। फिल्म देखते समय हम सब कुछ देखते हैं, बस निर्देशक का काम नहीं देख पाते। हमें अभिनेता का अभिनय दिखता है। संगीत निर्देशक का संगीत सुनाई पड़ता है। गीतकार का शब्द आदोलित और आलोड़ित करते हैं। संवाद लेखक के संवाद जोश भरते हैं, रोमांटिक बनाते हैं। कैमरामैन का छायांकन दिखता है। बस, निर्देशक ही नहीं दिखता। निर्देशक एक किस्म की अमूर्त और निराकार रचना-प्रक्रिया है, जो फिल्म निर्माण \सृजन की सभी प्रक्रियाओं में मौजूद रहता है। इस लिहाज से निर्देशक का काम अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। श्याम बेनेगल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि आप ईश्वर की धारणा में यकीन करते हों

शाहरुख़ की हिन्दी पर वाह कहें!!!!

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शाह शाहरुख़ खान का प्यार का नाम है.उनके करीबी उन्हें इसी नाम से पुकारते है.चवन्नी ने सोचा कि नाम लेकर ही शाहरुख़ के करीब होने का भ्रम पाल लिया जाए.मजाक एक तरफ़...इस पोस्ट में चवन्नी शाहरुख़ की हिन्दी से आपको परिचित कराएगा.चवन्नी को अच्छी तरह मालूम है कि शाहरुख़ को हिन्दी आती है.कम से कम वे हिन्दी बोल और समझ सकते हैं.आज के अभिनेता-अभिनेत्री तो हिन्दी बोलने की बात आने पर ही कसमसाने लगते हैं.शाहरुख़ को पांचवी पास इतनी हिन्दी अवश्य आती है.चवन्नी हिन्दी लिखने और पदने के सन्दर्भ में यह बात कर रहा है.चूंकि वे दिल्ली में रहे हैं और परिवार में दिल्ली की भाषा ही बोली जाती थी,इसलिए वे समझ भी सकते हैं.चवन्नी को आश्चर्य होता है कि हिन्दी के नाम पर नाक-भौं सिकोरने वाले शाह को हिन्दी लिखने की क्या जरूरत पड़ गई है.यह मनोरंजन की माया है,जहाँ राजनीति की तरह हिन्दी ही चलती है.पिछले दिनों शाहरुख़ खान ने हिन्दी में एक संदेश लिखा.बड़ा भारी जलसा था....वहाँ शाहरुख़ खान ने यह संदेश स्वयं लिखा.अब आप ऊपर की तस्वीर को ठीक से देखें.आप पायेंगे कि शाह को पढ़ते रहिये के ढ के नीचे बिंदी लगाने की जरूरत नहीं महसूस हुई.उन

ब्लॉग पर बेलाग बच्चन

बच्चन यानि बिग बी यानि अमिताभ बच्चन को इस अंदाज में आपने नहीं देखा होगा.आप जरा उनके ब्लॉग पर जाएं और उनकी छींटाकशी देखें। उन्होंने चौथे दिन के ब्लॉग में शत्रुघ्न सिन्हा पर सीधा आरोप लगाया है.पिछले दिनों शत्रु भइया ने अपने अंदाज में कहा कि आईफा के नामांकन की क्या बात करें?वहाँ कोई किसी का बेटा है,कोई किसी कि बहु है और कोई किसी कि बीवी है.उनकी इस टिपण्णी के आशय को समझते हुए बिग बी चुप नहीं रहे.उन्होंने रवीना टंडन को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के समय के विवाद का जिक्र किया और बताया कि कि कैसे तब कि जूरी में पूनम सिन्हा की सिफारिश पर मैकमोहन को शामिल किया गया था.जो लोग नहीं जानते उनकी जानकारी के लिए चवन्नी बता दे कि शत्रुघ्न सिन्हा कि पत्नी हैं पूनम सिन्हा.बहरहाल,बिग बी के ब्लॉग से लग रहा है कि वे सभी को जवाब देने के मूड में हैं। उन्होंने एक साल पहले आउटलुक पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट में शामिल टिप्पणीकारों को भी नहीं बख्शा है.उन्होंने सुनील गंगोपाध्याय,राजेंद्र यादव,प्रभाष जोशी और परितोष सेन को जो पत्र लिखे थे,उन्हें सार्वजनिक कर दिया है.उन्होंने सभी को चुनौती दी है कि वे अपनी टिप्पणियों को

होप एंड ए लिटिल सुगर:एक संवेदनशील विषय का सत्यानाश

-अजय ब्रह्मात्मज तनुजा चंद्रा की अंग्रेजी में बनी फिल्म होप एंड ए लिटिल शुगर का विषय प्रासंगिक है। उन्होंने विषय को सुंदर तरीके से किरदारों के माध्यम से पेश किया है, लेकिन कहानी कहने की जल्दबाजी में उन्होंने प्रसंगों को सही क्रम में नहीं रखा है। दर्शक के तौर पर हम फिल्म से जुड़ते हैं और किसी बड़े अंतद्र्वद्व की उम्मीद करते हैं कि फिल्म खत्म हो जाती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बजट का संकट आ गया या फिर तनुजा का ही धैर्य खत्म हो गया। जो भी हो, एक संवेदनशील विषय का सत्यानाश हो गया। कहानी अली की जिंदगी से आरंभ होती है। हम उसे 1992 में हुए मुंबई के दंगों के दौरान एक बच्चे के रूप में देखते हैं। बड़ा होकर वह अमेरिका चला जाता है। किसी प्रकार से गुजर-बसर करता हुआ वह फोटोग्राफी के अपने शौक को जिंदा रखता है। उसकी मुलाकात सलोनी से होती है। सलोनी उसकी फोटोग्राफी को बढ़ावा देती है। सलोनी के परिवार से अली की निकटता बढ़ती है। इस बीच 11 सितंबर की घटना घटती है। इसमें सलोनी का पति हैरी मारा जाता है। हैरी के पिता सेना के रिटायर्ड कर्नल हैं। उन्हें मुसलमानों से सख्त नफरत है। वह अली को बर्दाश्त नहीं कर पाते। सलो

लाहौर से जुड़े हिंदी फिल्मों के तार

-अजय ब्रह्मात्मज लाहौर से हिंदी फिल्मों का पुराना रिश्ता रहा है। उल्लेखनीय है कि आजादी के पहले हिंदी सिनेमा के एक गढ़ के रूप में स्थापित लाहौर में फिल्म इंडस्ट्री विकसित हुई थी। पंजाब, सिंध और दूसरे इलाकों के कलाकारों और निर्देशकों के लिए यह सही जगह थी। गौरतलब है कि 1947 में हुए देश विभाजन के पहले लाहौर में काफी फिल्में बनती थीं। यहां तक कि मुंबई में बनी हिंदी फिल्मों के प्रीमियर और विशेष शो आवश्यक रूप से लाहौर में आयोजित किए जाते थे। एक सच यह भी है कि यहीं अशोक कुमार को देखने के बाद देव आनंद के मन में ऐक्टर बनने की तमन्ना जागी थी। वैसे भी, आजादी के पहले लाहौर भारत का प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र था। गौरतलब है कि 1947 में देश विभाजन के बाद लाहौर से कुछ कलाकार और फिल्मकार मुंबई गए और मुंबई से कुछ कलाकार लाहौर आ गए। गौर करें, तो मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री आजादी के बाद तेजी से विकसित हुई। लाहौर में कुछ समय तक फिल्में अच्छी तादाद में बनती रहीं, लेकिन पर्याप्त दर्शकों के अभाव में हर साल फिल्मों की संख्या घटती ही चली गई। धीरे-धीरे स्टूडियो बंद होते गए। फिल्म निर्माण की गतिविधियों से गुलजार

बॉक्स ऑफिस: १७.०४.२००८

अभिनेता से निर्देशक बने अजय देवगन की फिल्म यू मी और हम को पूरी सराहना मिली, लेकिन उसे आमिर खान की फिल्म तारे जमीन पर जैसी कामयाबी नहीं मिल सकी। फिर भी महानगरों में इस फिल्म को दर्शक मिले और ऐसा कहा जा रहा है कि मौखिक प्रचार से फिल्म को फायदा हुआ। सोमवार को इस फिल्म का बिजनेस उस रफ्तार से नहीं घटा, जिसकी आशंका थी। हालांकि फिल्म छोटी थी, पर इंटरवल के बाद के अनावश्यक विस्तार के कारण फिल्म लंबी लगी। फिल्म रोचक न लगे तो दो घंटे की फिल्म भी लंबी लग सकती है। जयदीप सेन निर्देशित क्रेजी 4 ने बॉक्स आफिस पर सामान्य बिजनेस किया। यों उम्मीद थी कि रितिक रोशन और शाहरुख खान के आयटम की वजह से दर्शकों की भीड़ बढ़ेगी। शायद दर्शक समझदार हो गए हैं। वे आयटम सॉन्ग के झांसे में नहीं आते। और फिर इस फिल्म को लेकर उठा विवाद राकेश रोशन के हित में नहीं रहा। फिल्म में चार प्रतिभाशाली कलाकार थे, लेकिन उन्हें ऐसी स्क्रिप्ट नहीं मिली कि वे कमाल दिखा सकें। पिछली फिल्मों में शौर्य और भ्रम के दर्शक निरंतर घटते जा रहे हैं। इन फिल्मों से विशेष उम्मीद भी नहीं थी। पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए को सीमित दर्शक मिले हैं। यह फिल्

लाहौर से लौटा चवन्नी

चवन्नी पिछले दिनों लाहौर में था.लाहौर में उसकी रूचि इसलिए ज्यादा थी आज़ादी के पहले लाहौर फ़िल्म निर्माण का बड़ा सेंटर हुआ करता था.कोल्कता,मुम्बई और लाहौर मिलकर हिन्दी फिल्मों का अनोखा त्रिकोण बनाते थे.आज़ादी के बाद भारत-पाकिस्तान के नज़रिये से देखने के कारन १९४७ में बनी ने सीमा के बाद दोनों ही देशों के सिनेप्रेमियों ने लाहौर के योगदान को भुला दिया.पाकिस्तान तो नया देश बना था.उसके साथ पहचान का संकट था या यों कहें कि उसे नई पहचान बनानी थी,इसलिए उसने विभाजन से पहले के भारत से जुड़ने वाले हर तार को कटा.इसी भूल में पाकिस्तान में लाहौर में बनी हिन्दी फिल्मों कि यादें मिटा दी गयीं.१९४७ के बाद बनी फिल्मों को पाकिस्तानी(उर्दू) फिल्में कहा गया और कोशिश कि गई कि उसे हिन्दी फिल्मों से अलग पहचान और स्थान दी जाए.अपने यहाँ भारत में भी किसी ने लाहौर के योगदान को रेखांकित करने कि कोशिश नहीं कि.हम इस प्रमाद में रहे कि हम किस से कम हैं? याद करें तो आज़ादी और विभाजन के बाद बड़ी तादाद में कलाकार और तकनीशियन लाहौर से मुम्बई आए और कुछ मुम्बई से लाहौर गए.दोनों जगहों पर उन सभी ने बदले माहौल में नए तरीके से सिनेमा क

सरकारी सेंसर के आगे..

-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों फिक्की फ्रेम्स में अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक दायित्व पर परिसंवाद आयोजित किया गया था। इस परिसंवाद में शर्मिला टैगोर, प्रीतिश नंदी, श्याम बेनेगल, जोहरा चटर्जी और महेश भट्ट जैसी फिल्मों से संबंधित दिग्गज हस्तियां भाग ले रही थीं। गौरतलब है कि शर्मिला टैगोर इन दिनों केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की चेयरमैन हैं, जिसे हम सेंसर बोर्ड के नाम से जानते रहे हैं। ताज्जुब की बात यह है कि सेंसर शब्द हट जाने के बाद भी फिल्म ट्रेड में प्रचलित है। बहरहाल, उस दोपहर शर्मिला टैगोर अभिभावक की भूमिका में थीं और सभी को नैतिकता का पाठ पढ़ा रही थीं। उन्होंने फिल्मकारों को उनके दायित्व का अहसास कराया। इसी प्रकार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से संबंधित जोहरा चटर्जी यही बताती रहीं कि सरकार ने कब क्या किया? श्याम बेनेगल बोलने आए, तो उन्होंने अपने अनुभवों के हवाले से अपनी चिंताएं जाहिर कीं। उन्होंने बताया कि मुझे अपनी फिल्मों को लेकर कभी परेशानी नहीं हुईं। मैं जैसी फिल्में बनाता हूं, उनमें मुझे केवल सेंसर बोर्ड के दिशानिर्देश का खयाल रखना पड़ता था। मेरी या किसी और की फिल्म को सार्वजनि

बॉक्स ऑफिस :१०.०४.२००८

पिछले हफ्ते तीन फिल्में रिलीज हुई। तीनों का ही बॉक्स आफिस पर बुरा हाल रहा। किसी भी फिल्म को बीस प्रतिशत से अधिक दर्शक नहीं मिले। पाकिस्तान से आई खुदा के लिए के प्रति उत्सुकता थी। मुंबई में इसे दर्शक भी मिले। बाकी शहरों में दर्शकों ने अधिक रुचि नहीं दिखाई। इस फिल्म की रिलीज से दर्शक वाकिफ नहीं थे। अगर इस फिल्म का कायदे से प्रचार किया गया होता तो और ज्यादा दर्शक मिल सकते थे। हां, समीक्षकों ने इसे अधिक पसंद किया। इस फिल्म में कोई बड़ा स्टार नहीं था, इसलिए फिल्म को आरंभिक दर्शक नहीं मिले। शौर्य जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं करने के बावजूद होम वीडियो के जरिए दर्शकों के बीच बनी रहती हैं। समर खान को अपनी फिल्म की ऐसी ही मौजूदगी से संतुष्ट होना पड़ेगा। पवन कौल की भ्रम को लेकर दर्शक भ्रमित नहीं रहे। वे सिनेमाघरों में नहीं गए। अश्वनी धीर की वन टू थ्री भी दर्शकों ने खारिज कर दी। आम तौर पर कामेडी फिल्में औसत व्यवसाय कर लेती हैं, लेकिन इस फिल्म का अनुभव अच्छा नहीं रहा। अब्बास मस्तान की रेस के दर्शक कम हुए हैं। यह फिल्म बड़े शहरों में अभी तक ठीक-ठाक व्यवसाय कर रही है, लेकिन छोटे शहर

प्यार का मर्म समझाएगी यू मी और हम : अजय देवगन

अप्रैल का महीना अजय के लिए खुशियों की सौगात बनकर आया है। दो अप्रैल को अजय का जन्मदिन था और इसी शुक्रवार उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म यू मी और हम प्रदर्शित हो रही है। यही नहीं फिल्म की नायिका उनकी पत्नी काजोल है। अजय ब्रह्मात्मज इस मौके पर उनसे खास बातचीत की- निर्देशन में आने का फैसला क्यों लिया? निर्देशन वैसे ही मेरा पहला पैशन था। एक्टर बनने से पहले मैं सहायक निर्देशक था और अपनी फिल्में बनाता था। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि एक्टर बनना है। मेरा ज्यादा इंटरेस्ट डायरेक्शन में था। एक्टिंग में तो मुझे धकेल दिया गया कि चलो फूल और कांटे फिल्म कर लो। वह फिल्म हिट हो गयी और मेरा रास्ता ही बदल गया। मैं एक्टिंग में चला गया। एक स्थापित एक्टर को निर्देशक की कुर्सी पर बैठने की जरूरत क्यों महसूस हुई? बहुत ज्यादा मैंने नहीं सोचा कि अभी मुझे डायरेक्ट करना है, इसलिए कोई सब्जेक्ट खोजूं। ऐसा इरादा भी नहीं था। मैंने अपने दिल की बात मानी। एक विचार दो-तीन सालों से मुझे मथ रहा था। मैं उसे बनाना चाहता था। ऐसा इसलिए क्योंकि अपने आइडिया को सबसे अच्छे तरीके से मैं ही अभिव्यक्त कर पाऊंगा। फिल्म को लेकर मन में

खुदा के लिए: मुस्लिम समाज का सही चित्रण

-अजय ब्रह्मात्मज पाकिस्तान से आई फिल्म खुदा के लिए वहां के हालात की सीधी जानकारी देती है। निर्देशक शोएब अख्तर ने अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के उदारमना मुसलमानों की मुश्किलों को कट्टरपंथ के उभार के संदर्भ में चित्रित किया है। उन्होंने बहुत खूबसूरती से जिहाद की तरफ भटक रहे युवकों व कट्टरपंथियों की हालत, 11 सितंबर की घटना के बाद अमेरिका में मुसलमानों के प्रति मौजूद शक, बेटियों के प्रति रुढि़वादी रवैया आदि मुद्दों को पर्दे पर उतारा है। ताज्जुब की बात है कि ऐसी फिल्म पाकिस्तान से आई है। पाकिस्तान में मंसूर और उसके छोटे भाई को संगीत का शौक है। दोनों आधुनिक विचारों के युवक हैं। उनके माता-पिता भी उनका समर्थन करते हैं। छोटा भाई एक दोस्त की सोहबत में कट्टरपंथी मौलाना से मिलता है और उनके तर्कों से प्रभावित होकर संगीत का अभ्यास छोड़ देता है। माता-पिता उसके स्वभाव में आए इस बदलाव से दुखी होते हैं। बड़ा भाई संगीत की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला जाता है। वहां उसकी दोस्ती एक अमेरिकी लड़की से होती है। वह उससे शादी भी कर लेता है। 11 सितंबर की घटना के बाद उसे आतंकवादियों से संबं

अभिनेत्रियों का अभिनय

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियों को आप एक तरफ से देखें और उन पर जरा गौर करें और फिर बताएं कि उनमें से कितनी अभिनेत्रियां गंभीर और गहरी भूमिकाओं के लिए उपयुक्त हैं! इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी ज्यादातर अभिनेत्रियां ग्लैमरस रोल के लिए फिट हैं और वे उनमें आकर्षक भी लगती हैं, लेकिन जैसे ही उनकी भूमिकाओं को निर्देशक गहरा आयाम देते हैं, वैसे ही उनकी उम्र और सीमाएं झलकने लगती हैं। एक सीनियर निर्देशक ने जोर देकर कहा कि हमारी इंडस्ट्री में ऐसी अभिनेत्रियां नहीं हैं कि हम बंदिनी, मदर इंडिया, साहब बीवी और गुलाम जैसी फिल्मों के बारे में अब सोच भी सकें। उन्होंने ताजा उदाहरण खोया खोया चांद का दिया। इस फिल्म में मीना कुमारी की क्षमता वाली अभिनेत्री चाहिए थी। सोहा अली खान इस भूमिका में चारों खाने चित्त होती नजर आई। सोहा का उदाहरण इसलिए कि उन्होंने खोया खोया चांद जैसी फिल्म की। अगर अन्य अभिनेत्रियों को भी ऐसे मौके मिले होते, तो शायद उनकी भी कलई खुलती! अभी की ऐक्टिव अभिनेत्रियों में केवल ऐश्वर्या राय ही गंभीर और गहरी भूमिकाओं के साथ न्याय कर सकती हैं। उनकी देवदास और चोखेर बाली के सबूत द

मैसेज भी है क्रेजी 4 में: राकेश रोशन

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राकेश रोशन ने अपनी फिल्म कंपनी फिल्मक्राफ्ट के तहत अब तक जितनी भी फिल्में बनाई हैं, सभी का निर्देशन उन्होंने खुद किया है, लेकिन क्रेजी-4 उनकी कंपनी की पहली ऐसी फिल्म है, जिसे दूसरे निर्देशक ने निर्देशित किया है। फिल्म में खास क्या है, बातचीत राकेश रोशन से। अपनी कंपनी की फिल्म क्रेजी 4 आपने बाहर के निर्देशक जयदीप सेन को दी। वजह? बात दरअसल यह थी कि कृष के बाद मैं बहुत थक गया था। इसलिए सोचा कि साल-डेढ़ साल तक कोई काम नहीं करूंगा, लेकिन छह महीने भी नहीं बीते कि बेचैनी होने लगी। एक आइडिया था, इसलिए मैंने सोचा कि यही बनाते हैं। मैंने जयदीप सेन से वादा किया था कि एक फिल्म निर्देशित करने के लिए दूंगा। इसलिए उनसे आइडिया शेयर किया। वह आइडिया सभी को पसंद आया और वही अब क्रेजी 4 के रूप में आ रही है। जयदीप के अलावा, अनुराग बसु भी मेरे लिए एक फिल्म निर्देशित कर रहे हैं। उनकी फिल्म गैंगस्टर से प्रभावित होकर मैंने रितिक रोशन और बारबरा मोरी की फिल्म काइट्स उन्हें दी है। मैं आगे भी नए और बाहर के निर्देशकों को फिल्में दूंगा। मेरे अंदर ऐसा गुरूर नहीं है कि अपने बैनर की सारी फिल्में मैं ही निर्देशित करूं। आ