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फिल्‍म समीक्षा : बरेली की बर्फी

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फिल्‍म समीक्षा बदली है रिश्‍तों की मिठास बरेली की बर्फी -अजय ब्रह्मात्‍मज शहर बरेली,मोहल्‍ला- एकता नगर, मिश्रा सदन,पिता नरोत्‍तम मिश्रा,माता- सुशीला मिश्रा। नरोत्‍तम मिश्रा का बेटा और सुशीला मिश्रा की बेटी बिट्टी मिश्रा। पिता ने बेटे की तरह पाला और माता ने बेटी की सीमाओं में रखना चाहा। बिट्टी खुले मिजाज की बरेली की लड़की है। अपने शहर में मिसफिट है। यही वजह है कि उसे लड़के रिजेक्‍ट कर के चले जाते हैं। मसलनृएक लड़के ने पूछ लिया कि आप वर्जिन हैं ना ? तो उसने पलट कर उनसे यही सवाल कर दिया। लड़का बिदक गया। दो बार सगाई टूट चुकी है। माता-पिता की नजरों और परेशानी से बचने का उसे आसान रास्‍ता दिखता है कि वह घर छोड़ दे। भागती है,लेकिन ट्रेन के इंतजार में ‘ करेली की बर्फी ’ उपन्‍यास पढ़ते हुए लगता कि उपन्‍यास की नायिका बबली तो हूबहू वही है। आखिर उपन्‍यासकार प्रीतम विद्रोही उसके बारे में कैसे इतना जानते हैं ? वह प्रीतम विद्रोही से मिलने की गरज से घर लौट आती है। ’ बरेली की बर्फी ’ उपन्‍यास का भी एक किससा है। उसके बारे में बताना उचित नहीं होगा। संक्षेप में चिराग पांडे(आयुष्‍मान

फिल्‍म समीक्षा : निल बटे सन्‍नाटा

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मलिन बस्‍ती में उजास -अजय ब्रह्मात्‍मज स्‍वरा भास्‍कर अपनी पीढ़ी की साहसी अभिनेत्री हैं। दो कलाकारों में किसी प्रकार की तुलना नहीं करनी चाहिए। फिर भी कहा जा सकता है कि नवाजुद्दी सिद्दीकी की तरह उन्‍होंने मुख्‍यधारा और स्‍वतंत्र स्‍वभाव की फिल्‍मों में एक संतुलन बिठाया है। हम ने उन्‍हें हाल ही में ‘ प्रेम रतन धन पायो ’ में देखा। ‘ निल बटे सन्‍नाटा ’ में उन्‍होंने 15 साल की बेटी की मां की भूमिका निभाई है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में इमेज के प्रति अतिरिक्‍त सजगता के दौर में ऐसी भूमिका के लिए हां कहना और उसे पूरी संजीदगी और तैयारी के साथ निभाना उल्‍लेखनीय है। आगरा की इस कहानी में ताजमहल के पीछे की मलिन बस्‍ती में रह रही चंदा सहाय बर्तन-बासन और खाना बनाने का काम करती है। उसकी एक ही ख्‍वाहिश है कि उसकी बेटी अपेक्षा पढ़-लिख जाए। मगर बेटी है कि उसका पढ़ाई में ज्‍यादा मन नहीं लगता। गणित में उसका डब्‍बा गोल है। बेटी की पढाई के लिए वह हाड़-तोड़ मेहनत करती है। बेटी है कि मां की कोशिशों से बिदक गई है। वह एक नहीं सुनती। उल्‍टा मां को दुखी करने की पूरी कोशिश करती है। कुछ उम्र का

हंसमुख है मेरा किरदार :पंकज त्रिपाठी

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-अमित कर्ण पंकज त्रिपाठी उन चंद कलाकारों में से एक हैं, जो कमर्शियल व ऑफबीट फिल्‍मों के बीच उम्‍दा संतुलन साध रहे हैं। मसलन हाल के दिनों में ‘ मसान ’ और ‘ दिलवाले ’ । अब उनकी ‘ निल बटे सन्‍नाटा ’ आ रही है। वे इसमें स्‍कूल प्रिसिंपल बने हैं। -फिल्‍म में आप लोग कहीं प्रौढ़ शिक्षा अभियान का प्रचार तो नहीं कर रहे हैं ? पहली नजर में मुझे भी यही लगा था, पर ऐसा नहीं है। यह आप को हंसा-रुला व प्रेरित कर घर भेजेगी। इसमें मनोरंजन करने के लिए किसी प्रकार के हथकंडों का इस्‍तेमाल नहीं है। बड़ी प्‍यारी व प्‍योर फिल्‍म है। इससे हर वे लोग जुड़ाव महसूस करेंगे, जो अपने दम पर मकबूल हुए हैं। मैं इसमें हंसमुख श्रीवास्‍तव की भूमिका में हूं। वह शिक्षक है। -वह किस किस्‍म का शिक्षक है। खडूस या नाम के अनुरूप हंसमुख। साथ ही इसमें आप ने क्‍या रंग भरे हैं ? मैं निजी जीवन में जिन तीन-चार शिक्षकों का मुरीद रहा हूं, उनकी खूबियों-खामियों को मैंने इसमें समेटा है। एक लक्ष्‍मण प्रसाद थे। जगतकुमार जी थे। राम जी मास्‍टर साहब थे। गणित पढ़ाने वाले टीचर अमूमन बोरिंग होते हैं, मगर श्रीवास्‍तव जी ऐसा नहीं है।