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कुछ समय संग सनी के

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-अजय ब्रह्मात्मज सनी देओल ने आठ मार्च को डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म मोहल्ला अस्सी की शूटिंग पूरी कर दी। यह उनकी अभी तक की सबसे कम समय में बनी फीचर फिल्म है। मोहल्ला अस्सी डॉ. काशीनाथ सिंह के उपन्यास पर आधारित है। एक बातचीत में डॉ. द्विवेदी ने बताया था कि एक हवाई यात्रा में उषा गांगुली के नाटक काशीनामा का रिव्यू पढ़ने के बाद उनकी रुचि इस किताब में जगी। उसे पढ़ने के बाद उन्होंने पाया कि इस पर तो अच्छी फिल्म बन सकती है। चंद मुलाकातों में उन्होंने डॉ. काशीनाथ सिंह से अधिकार लिए और स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की। आरंभिक दौर में जिसने भी इस किताब पर फिल्म लिखने की बात सुनी, उसका एक ही सवाल था कि इस पर फिल्म कैसे बन सकती है? बहरहाल, फिल्म लिखी गई और उसके किरदारों के लिए ऐक्टर का चयन आरंभ हुआ। फिल्म के प्रमुख किरदार धर्मनाथ पांडे हैं। यह फिल्म उनके अंतद्र्वद्व और उनके निर्णयों पर केंद्रित है। इस किरदार के लिए एनएसडी से निकले मशहूर और अनुभवी अभिनेताओं से बातें चलीं। अलग-अलग कारणों से उनमें से कोई भी फिल्म के लिए राजी नहीं हुआ। डॉ. द्विवेदी और सनी देओल पिछले कुछ सालों से साथ काम करने के लिए इच्छु

अनुराग कश्यप की प्रोडक्शन नंबर 7

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सत्या, कौन और शूल में मनोज बाजपेयी और अनुराग के बीच अभिनेता और लेखक का संबंध रहा। शूल के बाद दोनों साथ काम नहीं कर सके, पर दोनों ही अपनी खास पहचान बनाने में कामयाब रहे। ग्यारह सालों के बाद दोनों फिर से साथ आ रहे हैं। इस बार अनुराग लेखक के साथ निर्देशक भी हैं। इस संबंध में उत्साहित मनोज कहते हैं, 'संयोग रहा कि हम शूल के बाद एक साथ काम नहीं कर सके। अनुराग की देव डी और गुलाल में खुद के न होने का मुझे अफसोस है। कोई बात नहीं, अनुराग को अपनी नई फिल्म के लिए मैं उपयुक्त लगा। मुझे खुशी है कि उनके निर्देशन में मुझे अभिनय करने का मौका मिला है।' इधर अनुराग भी अपनी नई फिल्म को लेकर काफी उत्साहित हैं। इस फिल्म का अभी नामकरण नहीं हुआ है। अनुराग बताते हैं, 'मेकिंग के दौरान ही कोई नाम सूझ जाएगा। सुविधा के लिए इसे आप मेरी 'प्रोडक्शन नंबर- 7' कह सकते हैं।' उत्साह की खास वजह पूछने पर अनुराग के स्वर में खुशी सुनाई पड़ती है, 'मैं अपनी जड़ों की तरफ लौट रहा हूं। अपनी जन्मभूमि में पहली बार फिल्म शूट कर रहा हूं। बनारस के आसपास ओबरा और अनपरा में मेरा बचपन गुजरा है।

हिंदी टाकीज द्वितीय : फिल्मों ने ही मुझे बिगाड़ा-बनाया-कुमार विजय

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हिंदी टाकीज द्वितीय-2 बनारस के हैं कुमार विजय। उन्‍होंने लगभग तीन दशक पूर्व नाटकों और फिल्मों पर समीक्षाएं लिखने के साथ स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की। बाद में नियमित पत्रकारिता से जुड़ाव हुआ। धर्मयुग , दिनमान आदि पत्रिकाओं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन करते रहे। एक अरसे तक दैनिक आज और हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग से संबद्धता भी रही। हिन्दुस्तान के वाराणसी संस्करण में फीचर संपादन किया। केबल चैनलों की शुरुआत के दौर में तीन वर्षों तक जीटीवी के सिटी चैनल की वाराणसी इकाई के लिए प्रोडक्शन इंचार्ज के रूप में कार्यक्रमों का निर्माण भी किया। संप्रति एक दैनिक पत्र के संपादकीय विभाग से संबद्ध हैं। साहित्य के पठन-पाठन में उनकी गहरी रुचि है। जीवन के पचास वसंत पूरे करने के बाद अचानक अपने फिल्मी चस्के के बारे में याद करना वाकई एक मुश्किल और तकलीफ देह काम है। अव्वल तो लम्बे समय का गैप है , दूसरे लम्बे समय से फिल्मों से अनकन्सर्ड हो जाने वाली स्थित रही है। इस सफर में सिनेमा ने काफी परिवर्तन भी देखा है। न सिर्फ फिल्में महंगी हुई हैं फिल्में देखना भी महंगा हुआ है। मल्टीप्लेक्स का जमाना है।

हिन्दी टाकीज:चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों..-जी के संतोष

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हिन्दी टाकीज-१६ हिदी टाकीज में इस बार जी के संतोष . संतोष जी बनारस के हैं.क्रिकेट खेलते थे और फोटोग्राफी और फिल्मों का शौक था.फोटो जर्नलिज्म से आरम्भ किया और फिर खेल पत्रकार बन गए.इन दिनों दैनिक जागरण में कार्यरत हैं.मन हुआ तो साइकिल से काठमांडू और चम्बल की भी सैर कर आए.चवन्नी के आग्रह को संतोष ने स्वीकार किया और अपने अंदाज में सिनेमा से जुड़े संस्मरण लिखे. बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म देखी जिसने पूरे शो के दौरान हिलने तक न हीं दिया। नीरज पांडेय ने कमाल की फिल्म बनाई है-ए वेन्सडे। इस फिल्म में इंटरवल की भी कोई जरूरत नहीं थी। तेजी से भागती इस फिल्म में भारतीय सिनेमा के दो बेहतरीन अदाकार अनुपम खेर और नसीरूद्दीन शाह अपने बेहतरीन रंग में दिखाई दिए-जवाबी कव्वाली सुनाते हुए। कहानी दर्शकों को अच्छी तरह बांधे रखती है क्योंकि आज लगभग आधी दुनिया आतंकवाद से प्रभावित है। आज के बाजारवाद के दौर से परहेज रखते हुए इस तरह की फिल्म बनाकर नीरज पांडेय ने जोखिम उठाया है। महानगरों में इन दिनों फिल्में बहुधा मल्टीप्लेक्सेज में लगती है। यहां फिल्में देखना ज्यादा मजेदार होता हैं। एक तो फिल्में वैसे भी तकनीक मे