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Showing posts with the label सोनम कपूर

सबसे अलग है सोनम -उमाशंकर सिंह

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 -उमाशंकर सिंह सोनम के व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं युवा फिल्म लेखक उमाशंकर सिंह। पत्रकारिता के रास्ते फिल्मों में आए उमाशंकर सिंह की लिखी पहली फिल्म ‘डॉली की डोली’ में सोनम कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। सोनम कपूर को मैंने ज्यादातर हिंदुस्तानियों की तरह तब ही जान ही लिया था जब वह फिल्मों में भी नहीं आई थी। पर्सनली तब जाना जब मैं फिल्मों में आया ही आया था। अरबाज भाई ‘दबंग- 2 ’ के बाद हमारी स्क्रिप्ट को हां कर चुके थे। पर वह हीरोइन ओरियेंटेड फिल्म थी। वैसी फिल्मों के अपने जाखिम होते हैं। वे हीरोइनें जो इंडस्ट्री में फेमनिज्म का झंडा बुलंद करती रहती हैं। वे भी ऐसी जोखिम उठाने से बचती हैं और बड़ा स्टार , तीन सीन , चार गाने वाली सेफ फिल्म चुनती हैं। एक तो हीरोइन ओरियंटेड ट्रिकी स्क्रिप्ट , उस पर से फर्स्ट टाइमर रायटर और फर्स्ट टाइमर डायरेक्टर। एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। उन दिनों हम अपनी कास्टिंग को लेकर परेशान थे। कई नाम उछले , पर सब में हमें कुछ ना कुछ इफ एंड बट दिखता। इन्हीं बहसों के बीच एक दिन अचानक सोनम का नाम उछला। अगले दस मिनट में हम इस बात पर कन

नीरजा सी ईमानदारी है सोनम में : राम माधवानी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज लिरिल के ऐड में प्रीति जिंटा के इस्‍तेमाल से लेकर ‘ हरेक फ्रेंड जरूरी होता है ’ जैसे पॉपुलर ऐड कैंपेन के पीछे सक्रिय राम माधवानी खुद को एहसास का कारोबारी मानते हैं। वे कहते हैं, ‘ हमलोग ऐड   फिल्‍म और दूसरे मीडियम से ‘ फीलिंग्‍स ’ का बिजनेस करते हैं। ‘ अपनी नई फिल्‍म ‘ नीरजा ’ के जरिए वे दर्शकों को रूलाना, एहसास करना, एहसास देना और सोचने पर मजबूर करना चाहते हैं। ‘ लेट्स टॉक ’ के 14 सालों बाद उनकी फिल्‍म ‘ नीरजा ’ आ रही है। -          पहली और दूसरी फिल्‍म के बीच में 14 सालों का गैप क्‍यों आया। क्‍या अपनी पसंद का को‍ई विषय नहीं मिला या दूसरी दिक्‍कतें रहीं ? विषय तो कई मिले। मैंने कोशिशें भी कीं। अपनी फिल्‍मों के साथ कई लोगों से मिला। बातें हुईं, लेकिन कुछ भी ठोस रूप में आगे नहीं बढ़ सका। फिल्‍म इंडस्‍ट्री में मेरी अच्‍छी जान-पहचान है। वे लोग मेरी इज्‍जत भी करते हैं। उनमें से कुछ ने मुझे ऑफर भी दिए, जिन्‍हें मैंने विनम्रता से ठुकरा दिया। मेरी पसंद की फिल्‍मों में बजट, स्क्रिप्‍ट और एक्‍टर की समस्‍या रही। अभी कह सकता हूं कि यूनिवर्स मुझसे कुछ और करव

कुछ तो बदल सकूं यह दुनिया - सोनम कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सोनम कपूर ‘ नीरजा ’ में शीर्षक भूमिका में दिखेंगी। निर्देशक राम माधवानी ने फिल्‍म का खयाल आते ही सोनम के नाम पर विचार किया था। सोनम ने नीरजा की कहानी और स्क्रिप्‍ट सुनी तो तुरंत हां कह दी। साेनम इस बातचीत में बता रही हैं अपनी सहमति की वजह और ‘ नीरजा ’ फिल्‍म और व्‍यक्ति के बारे में... -बताएं कि कैसे यह फिल्‍म आप तक पहुंची ? 0 तकरीबन ढाई साल पहले मुझे इस फिल्‍म की जानकारी मिली। मुझे बताया गया कि राम माधवानी इसे मेरे साथ ही करना चाहते हैं। स्क्रिप्‍ट पढ़ते समय ही मुझे रुलाई आ गई। मैंने राम माधवानी के बारे में सुन रखा था कि वे ऐड वर्ल्‍ड का बड़ा नाम हैं। ‘ नीरजा ’ की कहानी बहुत स्‍ट्रांग है। वह एक साधारण लड़की थी। उनके पिता एक जर्नलिस्‍ट थे। उनकी मां हाउस वाइफ थीं। वह खूबसूरत थी तो उसे माडलिंग के असाइनमेंट मिल जाते थे। उनके टाइम में एयर होस्‍टेस के जॉब के साथ ग्‍लैमर जुड़ा हुआ था। वह एयर होस्‍टेस बनना चाहती थ। उनके डैड बहुत ओपन माइंड के थे। उन्‍होंने हां कर दी। घर में सभी उसे लाडो बुलाते थे। वह परिवार की लाडली थी। -लगता है ‘ नीरजा ’ के बारे में का

फिल्‍म समीक्षा : खूबसूरत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    शशांक घोष की 'खूबसूरत' की तुलना अगर हृषिकेष मुखर्जी की 'खूबसूरत' से करने के इरादे से सोनम कपूर की यह फिल्म देखेंगे तो निराशा और असंतुष्टि होगी। यह फिल्म पुरानी फिल्म के मूल तत्व को लेकर नए सिरे से कथा रचती है। एक अनुशासित और कठोर माहौल के परिवार में चुलबुली लड़की आती है और वह अपने उन्मुक्त नैसर्गिक गुणों से व्यवस्था बदल देती है। निर्देशक शशांक घोष और उनके लेखक ने मूल फिल्म के समकक्ष पहुंचने की भूल नहीं की है। उन्होंने नए परिवेश में नए किरदारों को रखा है। 'खूबसूरत' सामंती व्यवहार और आधुनिक सोच-समझ के द्वंद्व को रोचक तरीके से पर्दे पर ले आती है। एक हादसे से राजसी परिवार में पसरी उदासी इतनी भारी है कि सभी मुस्कराना भूल गए हैं। वे जी तो रहे हैं, लेकिन सब कुछ नियमों और औपचारिकता में बंधा है। परिवार के मुखिया घुटनों की बीमारी से खड़े होने और चलने में समर्थ नहीं हैं। उनकी देखभाल और उपचार के लिए फिजियोथिरैपिस्ट मिली चक्रवर्ती का आना होता है। दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवार में पंजाबी मां और बंगाली पिता की बेटी मिली चक्रवर्ती उ

‘खूबसूरत’ में टोटल रोमांस है-सोनम कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज -‘खूबसूरत’ बनाने का आइडिया कहां से आया? इन दिनों फैमिली फिल्में नहीं बन रही हैं। पहले की हिंदी फिल्में पूरे परिवार के साथ देखी जाती थीं। अब ऐसा नहीं होता। ऐसी फिल्में बहुत कम बन रही हैं। इन दिनों फिल्मों में किसी प्रकार का संदेश भी नहीं रहता। राजकुमार हीरानी की फिल्म वैसी कही जा सकती है। अभी कंगना रनोट की ‘क्वीन’ आई थी। ‘इंग्लिश विंग्लिश’ को भी इसी श्रेणी में डाल सकते हैं। -कम्िरर्शयल फिल्मों के साथ कलात्मक फिल्में भी तो बन रही हैं? मुझे लगता है कि इन दिनों मसाला फिल्मों के अलावा जो फिल्में बन रही हैं, वे डार्क और डिप्रेसिंग र्हैं। उनमें निगेटिव किरदार ही हीरो होते हैुं। एंटरटेनिंग फिल्मों के लिए मान लिया गया है कि उनमें दिमाग लगाने की जरूरत नहीं हैं। बीच की फिल्में नहीं बन रही हैं। इस फिल्म का ख्याल यहीं से आया। -इस फिल्म का फैसला किस ने लिया? आप बहनों ने या पापा(अनिल कपूर) ने? पापा इस फैसले में शामिल नहीं थे। उन्होंने टुटू शर्मा से फिल्म के अधिकार लिए । रिया और शशांक के साथ मिल कर मैंने यह फैसला लिया। -क्या ‘खूबसूरत’ की रेखा की कोई झलक सोनम कपूर में दिखेगी? हो ही

ऑन द सेट्स: रांझणा

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सोनम कपूर और धनुष के साथ आनंद एल राय फिल्म रांझणा के कुछ गंभीर दृश्यों की शूटिंग फिल्मसिटी में कर रहे थे. उनके सेट से कुछ खूबसूरत यादें लेकर लौटे हैं रघुवेन्द्र सिंह कहानी कुंदन (धनुष) और जोया (सोनम कपूर) की प्रेम कहानी है रांझणा. यह बनारस की गलियों में रची-बसी है. कुंदन का बचपन का प्यार है जोया, लेकिन वह उससे अपने प्यार का इजहार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. जोया पढ़ाई के लिए दिल्ली चली जाती है. जेएनयू में उसकी मुलाकात अकरम (अभय देओल) से होती है और फिर वह राजनीति में उतर जाती है. इस त्रिकोणीय प्रेम कहानी में दोस्ती और राजनीति का हल्का रंग भी है.  फिल्मसिटी में बसी दिल्ली रांझणा यूं तो बनारस के शुद्ध वातावरण में बसी एक प्रेम कहानी है, लेकिन इस प्रेम कहानी का एक बहुत गंभीर पहलू भी है. जिसके तार दिल्ली की राजनीति से जुड़ते हैं. इस राजनीति में उतरकर जोया कुछ खोती है, तो कुछ पाती है. उसने क्या खोया है और क्या पाया है, यह तो आपको यह फिल्म देखने के बाद पता चलेगा, लेकिन मुंबई की फिल्मसिटी में आनंद एल राय कुछ ऐसे दृश्यों की शूटिंग कर रहे हैं, जिनमें सोनम कपूर और

मैं फैशनेबल लड़की हूं: सोनम कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सांवरिया से हिंदी फिल्मों में आई सोनम कपूर में नूतन और वहीदा रहमान की छवि देखी जाती है। लोकप्रियता के लिहाज से उनकी फिल्में अगली कतार में नहीं हैं, लेकिन अपनी स्टाइल और इमेज के चलते सोनम कपूर सुर्खियों में रहती हैं। उन्हें स्टाइल आइकन माना जाता है। सोनम से खास बातचीत- स्टाइल क्या है? आप उसे कैसे देखती हैं? स्टाइल आपकी अपनी पर्सनैलिटी होती है। आप कपडों और स्टाइल के साथ एक्सपेरिमेंट कर सकते हैं। देव आनंद की टोपी, राजकपूर की छोटी पैंट या मीना कुमारी के लहंगे, मधुबाला की टेढी स्माइल या शाहरुख के स्वेटर, सलमान खान के जींस या बूट..। उनकी स्टाइल ही सिग्नेचर है। लोग मुझे देखते हैं तो कहते हैं कि मैं अजीबोगरीब कपडे पहनती हूं। मैं फैशन करती हूं और बहुत अच्छी लगती हूं, अपने चुने कपडों में। मेरी नजर में स्टाइल अपनी पर्सनैलिटी का एक्सप्रेशन और एक्सपेरिमेंट है। इसी को कुछ लोग फैशन से जोड देते हैं। पर्सनैलिटी के एक्सप्रेशन का शौक बचपन से था? मैं लडकी हूं। बचपन से शौक है कि मुझे अच्छे कपडे पहनने हैं, खूबसूरत दिखना है। आपने मेरा पहला इंटरव्यू किया था,

मौसम में मुहब्बत है-सोनम कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मौसम को लेकर उत्साहित सोनम कपूर को एहसास है कि वह एक बड़ी फिल्म का हिस्सा हैं। वे मानती हैं कि पंकज कपूर के निर्देशन में उन्हें बहुत कुछ नया सीखने को मिला.. आपके पापा की पहली फिल्म में पंकज कपूर थे और आप उनकी पहली फिल्म में हैं..दो पीढि़यों के इस संयोग पर क्या कहेंगी? बहुत अच्छा संयोग है। उम्मीद है पापा की तरह मैं भी पंकज जी के सानिध्य में कुछ विशेष दिखूं। मौसम बहुत ही इंटेंस लव स्टोरी है। जब मुझे आयत का किरदार दिया गया तो पंकज सर ने कहा था कि इसके लिए तुम्हें बड़ी तैयारी करनी होगी। पहले वजन कम करना होगा, फिर वजन बढ़ाना होगा। बाडी लैंग्वेज चेंज करनी पड़ेगी। ज्यादा मेकअप नहीं कर सकोगी। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया रही? मैंने कहा कि इतना अच्छा रोल है तो मैं सब कुछ कर लूंगी। इस फिल्म में चार मौसम हैं। मैंने हर सीजन में अलग उम्र को प्ले किया है। इस फिल्म में मैं पहले पतली हुई, फिर मोटी और फिर और मोटी हुई। अभी उसी वजन में हूं। वजन कम नहीं हो रहा है। वजन का खेल आपके साथ चलता रहा है। पहले ज्यादा फिर कम..। बार-बार वजन कम-ज्यादा करना बहुत कठिन होता है। पहले तो अपनी लांचिंग फिल्

स्‍टैंड आउट करेगी 'मौसम'-शाहिद कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज समाज के बंधनों को पार करती स्वीट लव स्टोरी है 'मौसम'। मैं हरिंदर सिंह उर्फ हैरी का किरदार निभा रहा हूं। कहानी पंजाब के एक छोटे से गांव से शुरू होती है। हरिंदर की एयरफोर्स में नौकरी लगती है। जैसे-जैसे मैच्योरिटी के ग्राफ में अंतर आता है, आयत से उसका प्यार भी उतना ही खूबसूरत अंदाज लेता जाता है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में 'मौसम' के शुद्ध प्यार से दर्शक जुड़ पाएंगे क्या? कुछ साल पहले जब मैंने 'विवाह' की थी, तब भी ऐसे सवाल उठे थे कि क्या कोई पति ऐसी पत्नी को स्वीकार करेगा जिसका चेहरा झुलस गया हो? ऐसी फिल्में बननी कम हो गई हैं। मुझे लगता है कि 'मौसम' स्टैंड आउट करेगी। इसमें लड़का-लड़की मिलना चाहते हैं, लेकिन दूसरे कारणों से वे मिल नहीं पाते। दुनिया में कई ऐसी चीजें घटती हैं, जिन पर हमारा नियंत्रण नहीं रहता, लेकिन उनकी वजह से हमारा जीवन प्रभावित होता है। फिल्म के प्रोमो में आप और सोनम एक-दूसरे को ताकते भर रहते हैं..मिलने की उम्मीद या जुदाई ही दिख रही है? मिलना और बिछुड़ना दोनों ही हैं फिल्म में। 1992 से 2001 तक दस साल की कहानी है। छोटे शहरों म

फिल्‍म समीक्षा :आयशा

-अजय ब्रह्मात्‍मज सोनम कपूर सुंदर हैं और स्टाइलिश परिधानों में वह निखर जाती हैं। समकालीन अभिनेत्रियों में वह अधिक संवरी नजर आती हैं। उनके इस कौशल का राजश्री ओझा ने आयशा में समुचित उपयोग किया है। आयशा इस दौर की एक कैरेक्टर है, जिसकी बनावट से अधिक सजावट पर ध्यान दिया गया है। हम एक ऐसे उपभोक्ता समाज में जी रहे हैं, जहां साधन और उपकरण से अधिक महत्वपूर्ण उनके ब्रांड हो गए हैं। आयशा में एक मशहूर सौंदर्य प्रसाधन कंपनी का अश्लील प्रदर्शन किया गया है। कई दृश्यों में ऐसा लगता है कि सिर्फ प्रोडक्ट का नाम दिखाने केउद्देश्य से कैमरा चल रहा है। इस फिल्म का नाम आयशा की जगह वह ब्रांड होता तो शायद सोनम कपूर की प्रतिभा नजर आती। अभी तो ब्रांड, फैशन और स्टाइल ही दिख रहा है। जेन आस्टिन ने 200 साल पहले एमा की कल्पना की थी। राजश्री ओझा और देविका भगत ने उसे 2010 की दिल्ली में स्थापित किया है। जरूरत के हिसाब से मूल कृति की उपकथाएं छोड़ दी गई हैं और किरदारों को दिल्ली का रंग दिया गया है। देश के दर्शकों को आयशा देख कर पता चलेगा कि महानगरों में लड़कियों और लड़कों का ऐसा झुंड रहता है, जो सिर्फ शादी, डे

फिल्‍म समीक्षा आई हेट लव स्‍टोरीज

बालिवुद का रोमांस -अजय ब्रह्मात्‍मज चौंकिए नहीं, जब करण जौहर और उनके कैंप के डायरेक्टर हिंदी फिल्मों के बारे में अंग्रेजी में सोचना शुरू करते हैं और फिर उसे फायनली हिंदी में लाते हैं तो बालीवुड के अक्षर बदल कर बालिवुद हो जाते हैं। इस फिल्म के एक किरदार के टी शर्ट पर बालिवुद लिखा साफ दिखता है। बहरहाल, आई हेट लव स्टोरीज मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा के लव और रोमांस की कैंडीलास फिल्मों के मजाक से आरंभ होती है और फिर उसी ढर्रे पर चली जाती है। जैसे कि कोई बीसियों बार सुने-सुनाए लतीफे को यह कहते हुए सुनाए कि आप तो पहले सुन चुके होंगे, फिर भी..और हम-आप हो..हो..कर हंसने लगें। वैसे ही यह फिल्म अच्छी लग सकती है। पुनीत मल्होत्रा चालाक निर्देशक हैं। उन्होंने हिंदी फिल्मों की लव स्टोरी का मखौल उड़ाते हुए फिर से घिसी-पिटी लव स्टोरी बना दी है। इस आसान रास्ते के बावजूद फिल्म बांधे रखती है, क्योंकि सोनम कपूर और इमरान खान के लब एडवेंचर का आकर्षण बना रहता है। दोनों को पहली बार एक साथ नोंक-झोंक करते और एक-दूसरे पर न्योछावर होते देख कर अच्छा लगता है। दोनों में भरपूर एनर्जी है। लेखक-निर्देशक ने हीरो-ही

थोड़ी तो पागल हूं: सोनम कपूर

-अजय ब्रह्मात्‍मज  फिल्मों की संख्या और हिट-फ्लॉप के लिहाज से देखें तो सोनम कपूर के करियर में कोई उछाल नहीं दिखता, लेकिन फिल्म, परफार्मेस और फिल्म इंडस्ट्री में उनकी मौजूदगी पर गौर करें, तो पाएंगे कि सोनम का खास मुकाम है। वे सही वजहों से खबरों में रहती हैं और उनके प्रशंसकों की तादाद बढ़ती जा रही है। उनकी आई हेट लव स्टोरीज इसी महीने रिलीज होगी। फिर आएगी आयशा और फिर..। बातचीत सोनम से.. प्रेम कहानी के बारे में क्या कहेंगी? मुझे व्यक्तिगत तौर पर प्रेम कहानियां बहुत पसंद हैं। आई हेट लव स्टोरीज के मेरे किरदार सिमरन को भी लव स्टोरीज अच्छी लगती हैं। इमरान खान इस फिल्म में जे के रोल में हैं। उन्हें लव स्टोरीज अच्छी नहीं लगतीं। दोनों मिलते हैं। दोनों के बीच नोक-झोंक चलती है और फिर दोनों के बीच भारी कन्फ्यूजन होता है। आई हेट लव स्टोरीज किस बैकड्रॉप की कहानी है? फिल्मी बैकड्रॉप है। दोनों एक फिल्म डायरेक्टर के असिस्टेंट हैं। वह डायरेक्टर लव स्टोरीज के लिए मशहूर है। इमरान असिस्टेंट डायरेक्टर हैं और मैं आर्ट डायरेक्टर हूं। हम दोनों की सोच अलग है। ज्यादातर मामलों में हम दोनों एक तरह से सोचते ही नहीं।

चार तस्वीरें:आयशा

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आयशा सोनम कपूर और अभय देओल की नई फ़िल्म है.इस फ़िल्म की शूटिंग चल रही है.दिल्ली की पृष्ठभूमि पर बन रही यह फ़िल्म जेन ऑस्टिन के उपन्यास एम्मा पर आधारित है। राजश्री ओझा के निर्देशन में बन रही इस फ़िल्म के निर्माता सोनम कपूर के पिता अनिल कपूर हैं.

फ़िल्म समीक्षा:दिल्ली ६

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हम सब के अन्दर है काला बन्दर -अजय ब्रह्मात्मज ममदू, जलेबी, बाबा बंदरमार, गोबर, हाजी सुलेमान, इंस्पेक्टर रणविजय, पागल फकीर, कुमार, राजेश, रज्जो और कुमार आदि 'दिल्ली ६' के जीवंत और सक्रिय किरदार हैं। उनकी भागीदारी से रोशन मेहरा (अभिषेक बच्चन) और बिट्टू (सोनम कपूर) की अनोखी प्रेम कहानी परवान चढ़ती है। इस प्रेमकहानी के सामाजिक और सामयिक संदर्भ हैं। रोशन और बिट्टू हिंदी फिल्मों के आम प्रेमी नही हैं। उनके प्रेम में नकली आकुलता नहीं है। परिस्थितियां दोनों को करीब लाती हैं, जहां दोनों के बीच प्यार पनपता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने बिल्कुल नयी शैली और मुहावरे में यह प्रेमकहानी रची है। न्यूयार्क में दादी (वहीदा रहमान) की बीमारी के बाद डाक्टर उनके बेटे राजन मेहरा और बहू फातिमा को सलाह देता है कि वे दादी को खुश रखने की कोशिश करें, क्योंकि अब उनके दिन गिनती के बचे हैं। दादी इच्छा जाहिर करती हैं कि वह दिल्ली लौट जाएंगी। वह दिल्ली में ही मरना चाहती हैं। बेटा उनके इस फैसले पर नाराजगी जाहिर करता है तो पोता रोशन उन्हें दिल्ली पहुंचाने की जिम्मेदारी लेता है। भारत और दिल्ली-6 यानी चांदनी चौक प

दिल्ली ६ के बारे में राकेश ओमप्रकश मेहरा

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अभिषेक बच्चन और सोनम कपूर के साथ दिल्ली 6 में दिल्ली के चांदनी चौक इलाके की खास भूमिका है। चांदनी चौक का इलाका दिल्ली-6 के नाम से भी मशहूर है। राकेश कहते हैं, मुझे फिल्मों के कारण मुंबई में रहना पड़ता है। चूंकि मैं दिल्ली का रहने वाला हूं, इसलिए मुंबई में भी दिल्ली खोजता रहता हूं। नहीं मिलने पर क्रिएट करता हूं। आज भी लगता है कि घर तो जमीन पर ही होना चाहिए। अपार्टमेंट थोड़ा अजीब एहसास देते हैं। क्या दिल्ली 6 दिल्ली को खोजने और पाने की कोशिश है? हां, पुरानी दिल्ली को लोग प्यार से दिल्ली-6 बोलते हैं। मेरे नाना-नानी और दादा दादी वहीं के हैं। मां-पिता जी का भी घर वहीं है। मैं वहीं बड़ा हुआ। बाद में हमलोग नयी दिल्ली आ गए। मेरा ज्यादा समय वहीं बीता। बचपन की सारी यादें वहीं की हैं। उन यादों से ही दिल्ली-6 बनी है। बचपन की यादों के सहारे फिल्म बुनने में कितनी आसानी या चुनौती रही? दिल्ली 6 आज की कहानी है। आहिस्ता-आहिस्ता यह स्पष्ट हो रहा है कि मैं अपने अनुभवों को ही फिल्मों में ढाल सकता हूं। रंग दे बसंती आज की कहानी थी, लेकिन उसमें मेरे कालेज के दिनों के अनुभव थे। बचपन की यादों का मतलब यह कतई न लें