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मायानगरी के दिल में धड़क रही दिल्‍ली - मिहिर पांड्या

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मिहिर ने यह लेख मेरे आग्रह पर फटाफट लिखा है। मिहिर ने शहर और सिनेमा पर शोधपूर्ण कार्य और लेखन किया है। फिल्‍मों के प्रति गहन संवेदना और समझ के साथ मिहिर लिख रहे हैं और अच्‍छा लिख रहे हैं।  -मिहिर पांड्या  दिल्ली पर बीते सालों में बने सिनेमा को देखें तो दिबाकर बनर्जी का सिनेमा एक नया प्रस्थान बिन्दु नज़र अाता है। लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में दिल्ली के एकाधिकार के मज़बूत होने का भी यही प्रस्थान बिन्दु है, जिसके बाद दिल्ली को केन्द्र में रखकर बनने वाली फ़िल्मों की बाढ़ अा गई। इसके पहले तक दिल्ली शहर की हिन्दी सिनेमा में मौजूदगी तो सदा रही, लेकिन उसका इस्तेमाल राष्ट्र-राज्य की राजधानी अौर शासन सत्ता के प्रतीक के रूप में होता रहा। राजकपूर द्वारा निर्मित पचास के दशक की फ़िल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' में वो अन्याय के खिलाफ़ अाशा की किरण बन गई तो सत्तर के दशक में यश चोपड़ा की 'त्रिशूल' में वो नाजायज़ बेटे के पिता से बदले का हथियार। इस बीच 'तेरे घर के सामने' अौर 'चश्मेबद्दूर' जैसे अपवाद भी अाते रहे जिनके भीतर युवा अाकांक्षाअों को स्वर मिलता रहा।