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Showing posts from March, 2014

अंकिता के साथ जिंदगी बीतना चाहता हूं- सुशांत सिंह राजपूत

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चवन्‍नी के पाइकों के लिए यह इंटरव्‍यू रघुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स से लिया गया है। सुशांत सिंह राजपूत के जीवन में टर्निंग पॉइंट रहा. काय पो चे और शुद्ध देसी रोमांस की कामयाबी ने उन्हें एक हॉट फिल्म स्टार बना दिया. रघुवेन्द्र सिंह ने की उनसे एक खास भेंट सुशांत सिंह राजपूत के आस-पास की दुनिया तेजी से बदली है. इस साल के आरंभ तक उनकी पहचान एक टीवी एक्टर की थी, लेकिन अब वह हिंदी सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय फिल्म निर्माण कंपनी यशराज के हीरो बन चुके हैं. शुद्ध देसी रोमांस के बाद वह अपनी अगली दोनों फिल्में ब्योमकेष बख्शी और पानी इसी बैनर के साथ कर रहे हैं. उन पर आरोप है कि आदित्य चोपड़ा का साथ पाने के बाद उन्होंने अपने पहले निर्देशक अभिषेक कपूर (काय पो चे) से दोस्ती खत्म कर ली. डेट की समस्या बताकर वह उनकी फिल्म फितूर से अलग हो गए.  हमारी मुलाकात सुशांत सिंह राजपूत के साथ यशराज के दफ्तर में हुई. काय पो चे और शुद्ध देसी रोमांस की कामयाबी को वह जज्ब कर चुके हैं. वैसे तो इस हॉट स्टार के दिलो-दिमाग को केवल उनकी गर्लफ्रेंड अंकिता लोखंडे ही बखूबी समझती हैं. औरों के सा

फिल्‍म समीक्षा : यंगिस्‍तान

नई सोच की प्रेम कहानी -अजय ब्रह्मात्मज     निर्माता वासु भगनानी और निर्देशक सैयद अफजल अहमद की ‘यंगिस्तान’ राजनीति और चुनाव के महीनों में राजनीतिक पृष्ठभूमि की फिल्म पेश की है। है यह भी एक प्रेम कहानी, लेकिन इसका राजनीतिक और संदर्भ सरकारी प्रोटोकोल है। जब सामान्य नागरिक सरकारी प्रपंचों और औपचारिकताओं में फंसता है तो उसकी अपनी साधारण जिंदगी भी असामान्य हो जाती है।     देश के प्रधानमंत्री का बेटा अभिमन्यु कौल सुदूर जापान की राजधानी टोकियो में आईटी का तेज प्रोफेशनल है। वहां वह अपनी प्रेमिका के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहता है। वह पूरी मस्ती के साथ जी रहा है। एक सुबह अचानक उसे पता चलता है कि उसके पिता मृत्युशय्या पर हैं। अंतिम समय में वह पिता के करीब तो पहुंच जाता है, लेकिन अगले ही दिन उसे एक बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। पार्टी की तरफ से उसे पिता का पद संभालना पड़ता है। इस कार्यभार के साथ ही उसकी जिंदगी बदल जाती है। उसे नेताओं, अधिकारियों और जिम्मेदारियों के बीच रहना पड़ता है। वह अपनी सहचर प्रेमिका के साथ पहले की तरह मुक्त जीवन नहीं जी पाता।     जिम्मेदारी मिलने पर अभिमन्यु कौल स्थिति

फिल्‍म समीक्षा : ओ तेरी

फिल्म रिव्यू रोचक विषय का मखौल ओ तेरी -अजय ब्रह्मात्मज     उमेश बिष्ट की ‘ओ तेरी’ देखते हुए कुंदन शाह निर्देशित ‘जाने भी दो यारो’ की याद आ जाना स्वाभाविक है। उसी फिल्म की तरह यहां भी दो बेरोजगार युवक हैं। वे नौकरी और नाम के लिए हर यत्न-प्रयत्न में विफल होते रहते हैं। अखबार की संपादिका अब चैनल की हेड हो गई है। ‘ओ तेरी’ में भी एक पुल टूटता है और एक लाश के साथ दोनों प्रमुख किरदारों की मुश्किलें बढ़ती हैं।     अगर ‘ओ तेरी’ आज के सामाजिक माहौल की विसंगतियों को ‘जाने भी दो यारो’ की चौथाई चतुराई और तीक्ष्णता से भी पकड़ती तो 21 वीं सदी की अच्छी ब्लैक कामेडी हो जाती। लेखक-निर्देशक इस अवसर का इस्तेमाल नहीं कर पाते। उन्होंने अपनी कोशिश में ‘जाने भी दो यारो’ का मखौल उड़ाया है। फिल्म के प्रमुख किरदारों में पुरानी फिल्म जैसी मासूमियत नहीं है, इसलिए उनके साथ हुए छल से हम द्रवित नहीं होते। जरूरी नहीं है कि वे दूध के धूले हों लेकिन उनके अप्रोच और व्यवहार में ईमानदारी तो होनी ही चाहिए।     पुलकित सम्राट और बिलाल अमरोही दोनों प्रमुख किरदारों को जीने और पर्दे पर उतारने की कोशिश में असफल रहे हैं। समस्या

फिल्‍म समीक्षा : ढिश्‍क्‍याऊं

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  शिल्पा शेट्टी के होम प्रोडक्शन की पहली फिल्म 'ढिश्क्याऊं' पूरी तरह से क्राइम और एक्शन पर टिकी है। सनमजीत सिंह तलवार के लेखन-निर्देशन में बनी यह फिल्म मुंबई के अंडरव‌र्ल्ड को एक नए अंदाज में पेश करने की कोशिश करती है। इस बार अंडरव‌र्ल्ड को सरगना हमेशा की तरह कोई मुंबईकर नहीं है। अमूमन हम देखते रहे हैं कि सारी लड़ाई मुंबई के खास संप्रदायों से आए अपराधियों के बीच होती है। आदर्शवादी पिता के साथ रहते हुए विकी घुटन महसूस करता है। हमेशा महात्मा गांधी की दुहाई देने वाले विकी के पिता की सलाहों को अनसुना कर अपराधियों की राह चुन लेता है। बचपन की चंद घटनाओं से उसे एहसास होता है कि यह वक्त आदर्शो पर चलने का नहीं है। वह बचपन से ही गैंगस्टर बनना चाहता है। बचपन में ही उसकी मुलाकात अपराधी टोनी से होती है। टोनी पहली शिक्षा सही देता है कि कोई मारे तो उसे पलट कर मारो। इस शिक्षा पर अमल करने के साथ ही विकी खुद में तब्दीली पाता हे। टोनी उसके बारे में कहता ही है कि वह ऐसा छर्रा है, जो ट्रिगर दबाने पर कारतूस बन कर निकलेगा। 'ढिश्क्याऊं' एक भटके हुए

दरअसल : चौदहवीं का चांद की स्क्रिप्ट

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दरअसल ़ ़ ़ -अजय ब्रह्मात्मज पिछले हफ्ते इस स्तंभ में फिल्मों की स्क्रिप्ट की किताबों की चर्चा की गई थी। प्रकाशकों को लगता है कि यह लाभ का धंधा नहीं है। कविता,कहानी और अन्य विषयों पर घोषणा के मुताबिक 500-1000 प्रतियां छाप कर संतुष्ट होने वाले प्रकाशकों का मानना है कि स्क्रिप्ट के खरीददार नहीं होते,जबकि छात्रों,लेखकों और शोधार्थियों की हमेशा जिज्ञासा रहती है कि उन्हें फिल्मों की स्क्रिप्ट कहां से मिल सकती है। फिल्में देखना और स्क्रिप्ट पढऩा रसास्वादन की दो अलग क्रियाएं हैं। हमें स्क्रिप्ट के महत्व को समझना चाहिए। फिल्मकारों को भी इस दिशा में ध्यान देना चाहिए। विदेशों में ताजा फिल्मों की स्क्रिप्ट भी ऑन लाइन उपलब्ध हो जाती है। इस साल ऑस्कर से सम्मानित सभी फिल्मों की स्क्रिप्ट आसानी से पढ़ी जा सकती हैं। भारत में नई तो क्या पुरानी फिल्मों की स्क्रिप्ट भी अध्ययन और शोध के लिए नहीं मिल पातीं।     दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी के संपादन में ‘चौदहवीं का चांद’ की स्क्रिप्ट प्रकाशित हुई है। इसे ओम बुक्स के स्पॉटलाइट और विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन के सहयोग से छापा गया है। विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन

मौन तो ध्वनि का प्रतीक है - श्याम बेनेगल

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श्‍याम बेनेगल से यह बातचीत दुर्गेश सिंह ने की है। इसका संपादित अंश पिछले रविवार दैनिक जागरण के रविवारी परिशिष्‍ट झंकार में छपा था। श्‍याम बाबू हर सवाल का जवाब पूरी गंभीरता से देते हैं। यह गुण हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में दुर्लभ है। यह इंटरव्यू संविधान से आरंभ होकर उनकी पफल्‍मों तक जाता है। सहयाद्रि फिल्म्स का दफ्तर दक्षिण मुंबई में बचे खुचे फिल्म दफतरों में से एक है। इमारत कुछ पुरानी सी लेकिन लिफट एकदम नई। भूमिका, अंकुर, निशांत, मंडी और कई सारी फिल्मों के अलावा मुझे उनकी त्रिकाल बेहद पसंद है, सो मुझे भी लिफट करने की जल्दी थी। दो दिन के अंदर मैं लगभग दूसरी बार उनसे मिलने पहुंचा। इस वजह से कि वे उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां सेहत का नासाज रहना भी दिनचर्या हो जाती है। अपनी कुर्सी के सामने रखी तार से बुनी मेज पर सहयाद्रि फिल्म्स के लेटर पैड पर पेपरवेट घुमाते हुए वे एकदम स्वस्थ लगते हैं और कहते हैं: फिल्म, टीवी, विज्ञापन कहां से प्रारंभ होना चाहिए। मैं अंग्रेजी-हिंदी दोनों में बात कस्ंगा। मैं उनके चश्मे को देख रहा था छूटते ही कह दिया जी-जी। ये जी के पीछे की कहानी उस समय याद आई जब उनसे

नवाजुद्दीन की औकात क्या है? -ऋषि कपूर

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इसे रघुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स से लिया गया है चवन्‍नी के पाठकों के लिए... कमर्शियल सिनेमा का कोई मजाक उड़ाए, यह ऋषि कपूर को बर्दाश्त नहीं. रघुवेन्द्र सिंह से एक बातचीत में वह अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रख सके हिंदी फिल्मों में उम्र के साथ चरित्र बदल जाते हैं. जवानी में हीरो की भूमिका निभाने वाले स्टार भी एक समय के बाद छिटक कर साइड में चले जाते हैं, लेकिन अमिताभ बच्चन के बाद अब ऋषि कपूर ने इस परिपाटी को तोड़ा है. उन्होंने सहयोगी भूमिकाओं को अपने लिए अयोगय साबित किया है और एक बार फिर से बड़े पर्दे पर केंद्र में आ गए हैं. 2010 में हबीब फैजल की फिल्म दो दूनी चार में पत्नी नीतू कपूर के साथ मिलकर ऋषि ने बॉक्स-ऑफिस पर ऐसा धमाल मचाया कि निर्माता-निर्देशक फिर से उनके दरवाजे पर खड़े होने लगे. ऋषि कपूर खुशी के साथ कहते हैं, ''दो दूनी चार के बाद मेरे लिए चीजें बदल गईं. अब मैं कैरेक्टर एक्टर नहीं रहा. मैं ऐसे रोल अब लेता ही नहीं हूं. मेरे रोल मेन लीड के बराबर होते हैं."  इस वक्त हम ऋषि कपूर के साथ सुभाष घई की फिल्म कांची के सेट पर हैं. तैंतीस साल के बाद कर्

दमदार खिलाडि़यों की रोमांचक टक्‍कर

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दमदार खिलाडिय़ों की रोमांचक टक्कर -केप टाउन से लौट कर अजय ब्रह्मात्मज खतरों के खिलाड़ी की प्रस्तुति भारतीय है। हालांकि यह इंटरनेशनल रियलिटी शो फियर फैक्टर का भारतीय संस्करण है,लेकिन अप्रोच और प्रजेंटेशन में यह भारतीय इमोशन को लेकर चलता है। एक्शन और इमोशन के मेल से खतरों के खिलाड़ी का यह संस्करण हैरतअंगेज होने के साथ भावुक भी है। दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन में इसकी कुछ कडिय़ों की शूटिंग का गवाह होने के बाद यह लिखा जा सकता है कि खतरों के खिलाड़ी का यह सीजन पहले से अधिक रोमांचकारी होगा। खतरों के खिलाड़ी के मेजबान के रूप में रोहित शेट्टी आ गए हैं। भले ही उनकी फिल्में कॉमेडी जोनर की होती हैं,लेकिन उनकी पहचान एक्शन के उस्ताद की है। उनकी कॉमेडी फिल्में भी एक्शन से भरपूर होती हैं। क्लाइमेक्स के चेज सिक्वेंस में जब गाडियां पतंगों की तरह उड़ी हैं तो हंसी के साथ रोमांच की लहर भी दर्शकों को सनसनी देती है। आज से आरंभ हो रहे खतरों के खिलाडी में उनकी मजबानी को देखना आनंददायक होगा। श्र्मीले स्वभाव के रोहित शेट्टी एक्शन करते समय किसी बंधन या सीमा को स्वीकार नहीं करते। अजय देवगन और शाहरुख खान को एक्शन

फिल्‍म समीक्षा : आंखों देखी

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निर्मल भाव की सहजता -अजय ब्रह्मात्‍मज  दिल्ली-6 या किसी भी कस्बे, छोटे-मझोले शहर के मध्यवर्गीय परिवार में एक गुप्त कैमरा लगा दें और कुछ महीनों के बाद उसकी चुस्त एडीटिंग कर दें तो एक नई 'आंखें देखी' बन जाएगी। रजत कपूर ने अपने गुरु मणि कौल और कुमार साहनी की तरह कैमरे का इस्तेमाल भरोसेमंद दोस्ट के तौर पर किया है। कोई हड़बड़ी नहीं है और न ही कोई तकनीकी चमत्कार दिखाना है। 'दिल्ली-6' की एक गली के पुराने मकान में कुछ घट रहा है, उसे एक तरतीब देने के साथ वे पेश कर देते हैं। बाउजी अपने छोटे भाई के साथ रहते हें। दोनों भाइयों की बीवियों और बच्चों के इस भरे-पूरे परिवार में जिंदगी की खास गति है। न कोई जल्दबाजी है और न ही कोई होड़। कोहराम तब मचता है, जब बाउजी की बेटी को अज्जु से प्यार हो जाता है। परिवार की नाक बचाने के लिए पुलिस को साथ लेकर सभी अज्जु के ठिकाने पर धमकते हैं। साथ में बाउजी भी हैं। वहां उन्हें एहसास होता है कि सब लोग जिस अज्जु की बुराई और धुनाई कर रहे थे, उससे अधिक बुरे तो वे स्वयं हैं। उन्हें अपनी बेटी की पसंद अज्जु अच्छा लगता है। इस एहसास और अनुभव क

फिल्‍म समीक्षा : रागिनी एमएमएस 2

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हॉरर और सेक्‍स का मिश्रण  -अजय ब्रह्मात्‍मज  बालाजी मोशन पिक्चर्स की 'रागिनी एमएमएस 2' अपने इरादे में स्पष्ट है। हॉरर और सेक्स के मेल से आम दर्शकों के मनोरंजन के लिए बनी यह फिल्म अपने मकसद में सफल रहती है। निर्देशक भूषण पटेल ने पिछली फिल्म के तार नई फिल्म की कहानी से जोड़ दिए हैं। साथ ही एक अघोषित प्रयोग भी किया है। 'रागिनी एमएमएस 2' में सनी लियोनी स्वयं के किरदार में हैं। इस फिल्म के लिए चुनने के साथ उन्हें उनके अतीत के संदर्भ के साथ पेश किया गया है। अगर निर्माता-निर्देशक 'जिस्म 2' का भी हवाला दे देते तो संदर्भ दमदार हो जाता। 'रागिनी एमएमएस' की घटना से प्रभावित फिल्मकार उस खौफनाक घटना पर फिल्म बनाना चाहता हे। फिल्म के लिए वही उसी शापित बंगले में जाता है। सनी लियोनी अपने किरदार के बरे में जानने-समझने के लिए मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती रागिनी से मिलती है। हंसी-मजाक के माहौल में फिल्म की शूटिंग आरंभ होती है। शुरू में सब कुछ सामान्य रहता है, लेकिन कार्तिक पूर्णिमा की रात सब कुछ गड़बड़ होने लगता है। बंगले में बंधी चुड़ैल जाग जाती है और वह एक-ए

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍ा ऑफ घोस्‍ट्स

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  सतीश कौशिक को रीमेक फिल्मों का उस्ताद निर्देशक कहा जा सकता है। आम तौर पर वे दक्षिण भारत की फिल्मों की रीमेक निर्देशित करते रहे हैं। इस बार उन्होंने अंकित दत्ता की बंगाली फिल्म 'भूतेर भविष्यत' को हिंदी में 'गैंग ऑफ घोस्ट्स' नाम से बनाया है। हिंदी फिल्म के मिजाज के मुताबिक उन्होंने मूल फिल्म में थोड़ा बदलाव किया है। देश भर के दर्शकों को रिझाने की फिक्र में उन्होंने विषय और प्रस्तुति का गाढ़ापन छोड़ दिया है। फिल्म थोड़ी हल्की हो गई है, फिर भी विषय की नवीनता और सिद्ध कलाकारों के सहयोग से मनोरंजन करने में सफल रहती है। 'गैंग ऑफ घोस्ट्स' भूतों के भविष्य के बहाने शहरी समाज के वर्तमान की कहानी है। मुंबइ में मॉल और मल्टीप्लेक्स कल्चर आने के बाद पुराने बंगले और मिल टूटते जा रहे हैं। उजाड़ बंगलों को अपना डेरा बनाए भूतों की रिहाइश का संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसे में भूत संगठित होकर कुछ करना चाहते हैं। 'रागिनी एमएमस-2' की तरह यहां भी एक फिल्म बनती है, जिसमें भूतों का एक प्रतिनिधि ही लेखक बन जाता है। वह अपने समय के किरदारों की भूतिया

फिल्‍म समीक्षा : लक्ष्‍मी

नागेश कुकुनूर 'हैदराबाद ब्लूज' से दस्तक देने के बाद लगातार खास किस्म की फिल्म निर्देशित करते रहे हैं। बजट में छोटी, मगर विचार में बड़ी उनकी फिल्में हमेशा झकझोरती हैं। 'इकबाल' और 'डोर' जैसी फिल्में दे चुके नागेश कुकुनुर के पास अब अनुभव, संसाधन और स्रोत हैं, लेकिन फिल्म मेकिंग के अपने तरीके में वे गुणवत्ता लाने की कोशिश नहीं करते। 'लक्ष्मी' फिल्म का विचार उत्तम और जरूरी है, लेकिन इसकी प्रस्तुति और निर्माण की लापरवाही निराश करती है। चौदह साल की 'लक्ष्मी' को उसके गांव-परिवार से लाकर अन्य लड़कियों के साथ शहर में रखा जाता है। रेड्डी बंधु अपने एनजीओ 'धर्मविलास' की आड़ में कमसिन और लाचार लड़कियों की जिस्मफरोशी करते हैं। लक्ष्मी भी उनके चंगुल में फंस जाती है। फिर भी मुक्त होने की उसकी छटपटाहट और जिजीविषा प्रभावित करती है। वह किसी प्रकार उनके चंगुल से बाहर निकलती है। बाहर निकलने के बाद वह रेड्डी बंधु को उनके अपराधों की सजा दिलवाने के लिए भरे कोर्ट में फिर से लांछन और अपमान सहती है। 'लक्ष्मी' एक लड़की की हिम्मत और जोश की कहान

अलग मजा है एक्टिंग में-संजय मिश्रा

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-अजय ब्रह्मात्मज     संजय मिश्रा से राजस्थान के मांडवा में मुलाकात हो गई। वे वहां डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘जेड प्लस’ की शूटिंग के लि सीधे हरिद्वार से आए थे। हरिद्वार में वे यशराज फिल्म्स और मनीष शर्मा की फिल्म ‘दम लगा कर हइसा’ की शूटिंग कर रहे थे। एक अंतराल के बाद संजय मिश्रा फिर से सक्रिय हुए हैं। उन्होंने एक्टिंग पर ध्यान देना शुरु किया है। सुभाष कपूर की ‘फंस गए रे ओबामा’ की कामयाबी के बाद उनके पास अनगिनत फिल्मों के ऑफर ो। उन सभी को किनारे कर वे डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठ गए। उन्होंने ‘प्रणाम वालेकुम’ नाम की अनोखी फिल्म का निर्देशन किया। यह फिल्म अभी प्रदर्शन के इंतजार में है। फिलहाल उनकी फिल्म ‘आंखें देखी’ रिलीज हो रही है। इसका निर्देशन रजत कपूर कर रहे हैं।     डॉ द्विवेदी की ‘जेड प्लस’ में छोटी भूमिका के लिए राजी हो की वजह उन्होंने खुद ही बतायी कि मुंबई आने के बाद सबसे पहले डॉ द्विवेदी के ही सीरियल ‘चाण्क्य’ में पहली बार कैमरे के सामने आने का मौका मिला था। डॉ द्विवेदी ने पिछली फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ के लिए भी मुझे बुलाया था,लेकिन व्यस्तताओं की वह से उसे मैं नहीं कर सका था

दरअसल : छपनी चाहिए स्क्रिप्ट

-अजय ब्रह्मात्मज देश भर से परिचित लेखकों और मित्रों की फिल्मी लेखक बनने की जिज्ञासाएं मिलती रहती हैं। सुदूर इलाकों में बैठे महत्वाकांक्षी लेखक मेल, फोन और सोशल मीडिया के जरिए यह जानने की चाहत रखते हैं कि कैसे उनकी कहानियों पर फिल्में बन सकती हैं। इस देश में हर व्यक्ति के पास दो-तीन कहानियां तो होती ही हैं, जिन्हें वह पर्दे पर लाना चाहता है। अगर लिखना आता है और पत्र-पत्रिकाओं में कुछ रचनाएं छप गई हों तो उन्हें यह प्रवेश और आसान लगता है। ज्यादातर लोग एक कनेक्शन की तलाश में रहते हैं। उस कनेक्शन के जरिए वे अपनी कहानी निर्देशक-निर्माता या स्टार तक पहुंचाना चाहते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। प्रतिभा है तो अवसर मिलना चाहिए। मैंने कई बार मदद की करने की कोशिश में पाया कि अधिकांश लेखकों के पास फिल्म लेखन का संस्कार नहीं होता। किसी भी पॉपुलर फिल्म को देखने के बाद वे उसी ढर्रे पर कुछ किरदारों को जोड़ लेते हैं और एक नकल पेश करते हैं। जिनके पास मौलिक कहानियां व विचार हैं, वे भी उन्हें स्क्रिप्ट में नहीं बदल पाते। दरअसल फिल्म लेखन एक क्राफ्ट है और यह क्रिएटिव लेखन से बिल्कुल अलग है।     स्क्रिप्ट

द पावरफुल देओल

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चवन्‍नी के पाब्‍कों के लिए इसे रधुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स से साधिकार लिया गया है। सनी देओल जब पर्दे पर गुस्से से आग बबूले नजर आते हैं, तो दर्शक सीटियां और तालियां बजाते हैं और निर्माता खुशी से फूले नहीं समाते हैं. बॉक्स-ऑफिस के इस चहेते देओल से रघुवेन्द्र सिंह ने की मुलाकात  सनी देओल सालों से सफलता-असफलता की आंख मिचौली का खेल खेलते आ रहे हैं, इसलिए उनकी फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर ब्लॉकबस्टर हो या हिट, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट बनी रहती है. उनका जादू दर्शकों पर बरकरार है. इसका ताजा उदाहरण है सिंह साब द ग्रेट. मगर निजी जीवन में वह सीधे-सादे और शर्मीले हैं. उनके अंदर एक बच्चा भी मौजूद है, जो शैतानियां करता रहता है. उन्होंने फिल्मफेयर को जुहू स्थित अपने ऑफिस सनी सुपर साउंड में आमंत्रित किया. जब हम पहुंचे, तो वह बैठकर समोसे और केक खा रहे थे. हमें ताज्जुब नहीं हुआ, क्योंकि देओल्स तो खाने-पीने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने अभी-अभी अपने ऑफिस की एक स्टाफ का बर्थडे सेलिब्रेट किया. आज हमें पता चला कि उन्हें चेहरे पर केक लगाने का शौक है. इस तरह के मौके पर वह एक केक खास तौर से

द क्वीन मेकर विकास बहल

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए रघुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स से साधिकार  रिस्क लेना विकास बहल की पसंदीदा आदत है और आज उनकी यही क्वालिटी उन्हें फिल्ममेकिंग में लेकर आई है. अपने रोचक सफर को वर्तमान पीढ़ी के यह फिल्मकार रघुवेन्द्र सिंह से साझा कर रहे हैं  मुंबई शहर की आगोश में आने को अनगिनत लोग तड़पते हैं, मगर यह खुद चंद खुशकिस्मत लोगों को अपनी जमीं पर लाने को मचलता है. विकास बहल ऐसा ही एक रौशन नाम हैं. यह शहर उनके सफर और सपनों का हिस्सा कभी नहीं था, लेकिन आज यह उनकी मंजिल बन चुका है. अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवानी और मधु मंटेना जैसे तीन होनहार दोस्त मिले, तो उन्हें अपने ख्वाबों का एहसास हुआ. यूटीवी जैसे स्थापित कॉरपोरेट हाउस में अनपेक्षित आय वाली नौकरी को छोडक़र उन्होंने इन दोस्तों के साथ मिलकर फैंटम नाम की फिल्म प्रोडक्शन कंपनी की नींव रखी. जिसका लक्ष्य गुणवत्तापूर्ण मनोरंजक फिल्मों का निर्माण करना है. खुशमिजाज, सकारात्मक सोच एवं ऊर्जा से भरपूर विकास ने निर्देशन की ओर पहला कदम बढ़ाया और चिल्लर पार्टी जैसी एक प्यारी-सी फिल्म दर्शकों के बीच आई. अब अपनी दूसरी पिक

दरअसल : सितारे झेलते हैं बदतमीजी

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-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्मों के सितारों की लोकप्रियता असंदिग्ध है। मनोरंजन के सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम फिलम से संबंधित होने के कारण पहली फिल्म से ही उनके प्रशंसकों का दायरा बढऩे लगता है। अगर सितारा कामयाब होने के साथ दर्शकों को प्रिय है तो उसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। सार्वजनिक स्थानों पर उनकी मौजूदगी मात्र से हलचल होने लगती है। उनके पहुंचने के पहले ही उनके गंतव्य स्थान पर सरसराहट सी होने लगती है। सरकारी लाल बत्तियों और प्रशासनिक सुरक्षा में विचरण करने वाले नेताओ,मंत्रियों और आला अधिकारियों से अलग सितारों के मूवमेंट का असर होता है। महानगरों और बड़े शहरों तक में उनकी उपस्थिति से किसी भी स्थान की दशा बदल जाती है। वे भीड़ में भंवर बन जाते हैं। सारा हुजूम उनकी तरफ धंस रहा होता है। हवाई अड्डा,रेस्तरां,स्टेडियम आदि स्थानों पर सुरक्षा कवच में होने के बावजूद उन्हें धक्कामुक्की झेलनी पड़ती है। किसी भी स्थान पर उनके होने या वहां से गुजरने पर दसों दिशाओं की आंखें उन पर केंद्रित हो जाती हैं। वे सभी को सुकून देते हैं। उनकी छवि आंखों में समाते ही होंठों पर मुस्कान आती है।

वक्‍त क्षणभंगुर है-अमित कुमार

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यह इंटरव्यू गजेन्‍द्र सिंह भाटी के ब्‍लाॅग फिलम सिनेमा से लिया गया है।   Q & A . . Amit Kumar , film director (Monsoon Shootout) . Nawazuddin Siddiqui in a still from 'Monsoon Shootout.' उनकी ‘ द बाइपास ’ काफी वक्त पहले देखी। दो चीजों ने ध्यान आकर्षित किया। पहला , इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी को एक साथ किसी फ़िल्म में कांटेदार अभिनय करते देखना। दूसरा , बिना किसी शब्द के तकरीबन सोलह मिनट की इस फ़िल्म को बनाने वाले किसी अमित कुमार के निर्देशन और नजरिए को लेकर जागी जिज्ञासा। उनके बारे में ढूंढा , पर वे गायब थे। फिर उनके नए प्रोजेक्ट के बारे में सुना... ‘ मॉनसून शूटआउट ’ । इसमें भी प्रमुख भूमिका में नवाज थे। उनसे बात करनी थी , संपर्क किया और कुछ महीनों के इंतजार के बाद कुछ महीने पहले उनसे बात हुई। बेहद अच्छे मिजाज के अमित भारत में जन्मे और अफ्रीका में पले-बढ़े। पढ़ाई के बाद कई बड़ी होटलों , बैंकों और अमेरिकन एक्सप्रेस जैसे बहुराष्ट्रीय समूह में नौकरी की। पर रुचि शुरू से फ़िल्मों  में थी। पैरिस के एक फेमिस फ़िल्म स