फिल्म समीक्षा : सात उचक्के
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गालियां और गलियां -अजय ब्रह्मात्मज संजीव शर्मा की ‘ सात उचक्के ’ का सबसे बड़ा आकर्षण मनोज बाजपेयी,के के मेनन और विजय राज का एक साथ एक फिल्म में होना है।तीनों थिएटर की पृष्ठभूमि से आए अभिनेता हैं। तीनों की शैली में हल्की भिन्नता है। फिल्म के कुछ दृश्यों में तीनों साथ हैं। उन दृश्यों में हंसी की स्वच्छंद रवानी है। वे एक-दूसरे को स्पेस देते हुए अपनी मौजूदगी और शैली से खुश करते हैं। अपने निजी दृश्यों में उनका हुनर दिखता है। लेखक-निर्देशक संजीव शर्मा तीनों के साथ पुरानी दिल्ली की उन गलियों में घुसे हैं,जिनसे हिंदी सिनेमा अपरिचित सा रहा है। पुरानी दिल्ली के निचले तबके के ‘ सात उचक्कों ’ की कहानी है यह। ’ सात उचक्के ’ में पुरानी दिल्ली की गलियां और गालियां हैं। गालियों की बहुतायत से कई बार आशंका होती है कि कहीं लेखक-निर्देशक स्थानीयता के लोभ में असंयमित तो नहीं हो गए हैं। फिल्म के सातों उचक्कों का कोई भी संवाद गालियों के बगैर समाप्त नहीं होता। भाषा की यह खूबी फिल्म के आनंद में बाधक बनती है। हां,पुरानी दिल्ली की तंग गलियां इस फिल्म में अपनी खूबसूरती