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दरअसल : साल 2013-मेरी पसंद की 12 फिल्में

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज    पांच दिनों में 2013 बीत जाएगा। हम 2014 की फिल्मों के बारे में बातें करने लगेंगे। नई उम्मीदें होंगी। नए किस्से होंगे और आएंगी नई फिल्में। इस साल रिलीज हुई फिल्मों को पलट कर देखता हूं तो कुछ फिल्मों को उल्लेखनीय पाता हूं। मेरी पसंद की ये 10 फिल्में हैं। फिल्मों की चर्चा में मैंने कोई क्रम नहीं रखा है। सालों बाद जब 2013 की बात होगी तो मुमकिन है कि इनमें से कुछ फिल्में याद की जाएं। अगर आप ने ये फिल्में न देखी हो तो अवश्य देख लें। अभी तो डीवीडी पर पसंद की फिल्में देखना आसान हो गया है।     मेरी पसंद की फिल्मों में छोटी-बड़ी हर तरह की फिल्में हैं। मैंने फिल्म के बाक्स आफिस कलेक्शन पर ध्यान नहीं दिया है। उस लिहाज से बात करने पर तो अधिकतम कमाई की फिल्मों तक सिमट जाना होगा। ऐसी कामयाब फिल्मों से मुझे कोई शिकायत नहीं है। उन फिल्मों के भी दर्शक हैं। उन्हें अपनी पसंद की फिल्में मिलनी चाहिए। सिनेमा की पहली शर्त मनोरंजन है। मनोरंजन के मानी सीमित कर दिए गए हैं। मनोरंजन का शाब्दिक अर्थ मन के रंजन से है, लेकिन इसके निहितार्थ पर विचार करें तो बाकी गुणों पर भी विचार करना होग

शाहरुख खान से अजय ब्रह्मात्‍मज की अंतरंग बातचीत

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  बगैर किसी भूमिका के शाहरूख खान से हुई बातचीत अविकल रुप में...  -अजय ब्रह्मात्‍मज - क्‍या आप को अपने प्रशंसकों से मिलना अच्‍छा लगता है ? 0 उम्र बढऩे के साथ मुझे अपने प्रशंसकों से मिलने में ज्यादा लुत्फ और मजा आता है। मुझे बहुत अच्छा लगता है। पब्लिक के बीच जाने का मौका कम मिलता है। यहां सामने समुद्रतट पर जाता हूं तो भीड़ लग जाती है। ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ की वाई और मुन्नार में शूटिंग कर रहा था तो काफी लोगों से मिला। वहां भीड़ नियंत्रित रहती है। वे आपकी बात भी सुन लेते हैं। मुन्नार में चाय बागान में शूटिंग कर रहा था। वहां ढेर सारी बुजुर्ग औरतों से बात करने का मौका मिला। वे जिस तरह से लाज और खुशी के साथ मुझ से बातें कर रही थीं उससे बहुत खुशी हुई। मैंने उन्‍हें अपनी फिल्मों के संवाद सुनाए। वे उन सवांदों के मतलब तो नहीं समझ पाए मगर खूब हंसे। मुन्नार के शूटिंग के दौरान यूनिट में तीन-चार सौ लोग थे। वे हिंदी नहीं समझते थे और मैं उनकी भाषा नहीं समझता था। फिर भी हम साथ में काम कर रहे थे। ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ ऐसी ही स्थितियों की फिल्म है। अपने ही देश में एक आदमी ऐसी जगह पहुंच जाए जहा

पहाड़ी नदी है भोजपुरी फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्म ज पिछले दिनों पटना में स्वर्णिम भोजपुरी का आयोजन किया गया। फाउंडेशन फोर मीडियाकल्चर ऐंड सिनेमा अवेयरनेस की तरफ से आयोजित स्वर्णिम भोजपुरी में भोजपुरी सिनेमा के अतीत और वर्तमान पर विशेष चर्चा हुई। दो दिनों के सत्र में भोजपुरी सिनेमा के इतिहासकारों, पत्रकारों, समीक्षकों के साथ निर्माता-निर्देशकों और सितारों ने भी हिस्सा लिया। इस आयोजन का यह असर रहा कि टीवी और प्रिंट मीडिया ने भोजपुरी सिनेमा को प्रमुखता से कवरेज दिया। कल तक पढ़े-लिखे तबके के लिए जो सिनेमा हाशिए पर था और जिसकी तरफ ध्यान देने की उसे जरूरत भी नहीं महसूस होती थी, उसके ड्राइंग रूम में टीवी और अखबारों के जरिए भोजपुरी सिनेमा पहुंच गया। तीन दिनों के विमर्श और गहमागहमी में भोजपुरी सिनेमा पर मुख्य रूप से अश्लीलता और फूहड़ता का आरोप लगा। कहा गया कि फिल्मों के टाइटिल और गाने इतने गंदे होते हैं कि कोई भी परिवार के साथ इन फिल्मों को देखने नहीं जा सकता। फिल्म में द्विअर्थी संवाद होते हैं। हीरो-हीरोइनों के लटकों-झटकों में निर्लज्जता रहती है। इन आरोपों में सच्चाई है, लेकिन भोजपुरी सिनेमा सिर्फ अश्लीलता और फूहड़ता तक सीमित